Wednesday 17 September 2014

लघुपत्रिका के सम्पादक / चन्दन राय

वह जो बने बैठे साहित्य के कुलदेवता
परिचय-निष्ठ, आत्म-निष्ठ, आत्मकेंद्रित साहित्य के द्रोण,
आप जब भी लिखेंगे कविता में नीम-चढ़े यथार्थ
वो कहेंगे आपसे जी आपकी कविता बहुत शोर करती है,
हमें माफ़ कीजिए हम ऐसी भड़काऊ प्रतिरोधी कविताएँ नहीं छापते,
जो बैण्ड बाजे बजाना नहीं जानती ।
आपके निरीह मन में गर निरी भावुकता का शोक घर करता है
तो आपकी कविताएँ क्या खाक कूल्हे मटकाएँगी !
आप गर चाहते हैं की आपकी कविताएँ प्रकाशित की जाएँ
आप पहले जी भर वैचारिक निष्क्रियता की चीनी फाँकिए,
परिचय की प्यालियों में हमारे साथ चुस्कियाँ लगाइए,
क्योंकि परिचय ही इस युग की साहित्यिक-निष्ठा है,
परिचय ही पुरस्कार है और पुरस्कार ही है
हमारे साहित्य-सरोकार का गोद लिया सम्बन्ध
वह हमें सिखाते हैं कि आप सुबह उठते ही
कायरता की कालिख से अपना चेहरा माँजें
अपनी आवाज़ अपने कण्ठ में ठूँस लें
अक्ल से अच्छी क़ीमत पर बेचीं जा सकती है जीभ
ऐसे मौसम में घर से बाहर न निकलें
जब क़लम को ज़िम्मेदारी उठाने का लकवा मारने की संभावना हो
कृपया अच्छाई से कम से कम पाँच फीट की दूरी बनाए रखें
और चूहों से सीखें बिल में दुबक जाना !
तो आइए, कतिपय हम लिखना छोड़ दें
कि आज फिर से उस चौराहे पर दीनू सब्ज़ी वाले के ठेले से
उस हरामी ख़ाकी वर्दी वाले ने हफ़्ता वसूली की थी
मिट्ठन का चाय का खोखा इसलिए तोड़ दिया गया
क्योंकि सरकार ने ये फ़ैसला किया है
वो विकास की उस धुरी पर खड़े हैं जहाँ कुछ निर्दोष मासूमों की लाशों के
सीने पर सोना मढ़ना रक्तचरित्र नहीं अर्थचरित्र है !
दुक्खू ने गर अपनी अपाहिज बेटी महज सौ रूपए में बेच भी दी
तो हमें क्या ? हम ग़रीबों के मसीहा तो नहीं हैं ! न ही है हम न्याय के देवता
कि जहाँ देखे जुल्म हम तान लें अपने धनुष-बाण ??
पर कहो क़लम के देवता ?? यह कैसा कविता-चरित्र होगा ? कैसा कविनामा ?
कि आपके सामने रोटी के मोहताज बच्चे बीन रहे हैं
कीच में सनी गन्दली पन्नियाँ
और आप मदमस्त हो लिख रहें हैं बसन्त पर कविता
ये कैसी कवि-कर्मठता ये कैसी क़लम की बदपरहेजी
कि आप किसी का ख़ून चखकर भी लिखें मीठा
और अपनी कविता के बग़ीचे में बैठे बजाएँ बाँसुरी
वह पराया “अतिरिक्त दुःख” जो तुम्हारी छातियों का मोम बचाए रखता है
वह निरी भावुकता नहीं होती
यह तुम्हारा कैसा साहित्यिक सम्पादन….और कैसा साहित्यिक सरोकार….
और कैसा साहित्य-चरित्र,
जो छाप रही अपने विचारों की आत्मसीमित एकरस सुन्दरता
सब कुछ मनोरम सहज-सहज उदार-उदार विषयविहीन !
ये कैसी प्रायोजित साहित्यिक चेतना
जहाँ हम अपने-अपने बिलों में मुँह छुपाए
बजा रहे अपनी-अपनी साहित्यिक पीपनी और भज रहे अपने-अपने राम !
आह ! मेरे युग के लघु-पत्रिका के सम्पादको !
मत हाँकों लघु-पत्रिकाओं को अपने पालतू खच्चरों की तरह
बनने दो इन्हे विचारधारओं का लोकतन्त्र
क्योंकि यह वैचारिक संकुचन जितना विस्तृत होगा
उतना ही फैलेगा साहित्य का दिव्य-पुंज
उतनी ही दीर्घायु होगी लघु-पत्रिका ……
क्योंकि साहित्य का उजियारा सिर्फ़ पूरब से नहीं होता !

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