Friday 5 September 2014

आदरबाज़ी / स्वयं प्रकाश

- हमें तो आप माफ ही करो भैया!
- क्यों अंकल? क्या हो गया? आपको प्रॉपर रिगार्ड नहीं मिला क्या?
- उल्टी बात है भैया। जरा ज्यादा और जल्दी ही प्रॉपर रिगार्ड मिल गया। आदर देने के मामले में अपने देश के लोग बहुत उदारवादी हैं। कितना ही कमीना आदमी हो, खूनी हो, मुजरिम हो, बस विशेष वस्त्र पहन ले, फिर देखो क्या प्रॉपर रिगार्ड मिलता है उसे! और यही क्यों, आदमी कोई भी हो, कनपटी पर दस-बीस सफेद बाल आते ही उसे देखने की दुनिया की नजर बदल जाती है। आप अध्यापक हों या प्रबंधक, चाहे मोची या नाई ही क्यों न हों-एक दिन आप अचानक आदरणीय बन जाते हैं। लोग आपसे आप-आप करके बात करने लगते हैं लडकियाँ आपको देखकर सीने पर अपना दुपट्टा व्यवस्थित करना छोड देती हैं। सप्पू-गप्पू-निक्की-बबली टाइप आपका बचपन का नाम कान में पडे तो आप ऐसे चौंक जाते हैं जैसे भूत देख लिया हो! जब कोई खामखाँ आफ नाम के आगे 'जी' लगाता है-मसलन पडौसन दादी या आफ मामा जी-तो लगता है जैसे आप किसी पारले-जी के भाईबन्द बन गये हैं।
- अंकल, दूसरों की नजर में आदरणीय बनने में क्या बुराई है?
- और खुद की नजर में? देखो, मेरे साथ क्या होने लगा है! मेरे खुद के प्रति मेरा रवैया आत्मविश्वासपूर्ण से सन्देहपूर्ण होता जा रहा है। पहले पत्थरों पर भी पैर फैलाकर लेट जाता तो थोडी देर में खर्राटे लेने लगता था। अब रात भर पडा रहता हूँ और फिर भी नींद पूरी नहीं हो पाती। साला कोई ढंग का सपना भी नहीं आता। नहाता हूँ तो लगता है कि त्वचा गीली हुई ही नहीं-मानो कोई अदृश्य बरसाती पहनकर नहाया होऊँ! हाजत दिन भर महसूस होती है, पेट एक बार भी पूरी तरह साफ नहीं होता। मेकअप किट में मॉइश्चराइजर और परफ्यूम की जगह आइड्रॉप, आयोडेक्स और एण्टासिड आ बिराजे हैं। अखबारों में छपे 'आँवले के गुण' और 'प्राकृतिक चिकित्सा के लाभ' टाइप के लेख ध्यान खींचने लगे हैं। एक दिन तो मैंने खुद को भविष्यफल पढते रंग हाथों पकड लिया! जबकि भविष्य ससुरे में अब बचा क्या है! बताओ! क्या इसी को ग्रेसफुली बूढा होना कहते हैं?
- आप इतना सोचते क्यों हैं? क्यों नहीं टाल देते?
- टाल तो देता ही हूँ। पहले रूस-अमरीका के बारे में सोचता था। विश्वयुद्ध और विश्वशांति के बारे में सोचता था। समाजवाद और रंगभेद के बारे में सोचता था। और तो और बियाफ्रा और रोडेशिया के बारे में सोचता था जिनसे देखा जाय तो मेरा क्या लेना-देना था? अब नहीं सोचता! पर अपने बारे में कैसे न सोचूँ?
- आप कोई लाफ्टर क्लब जॉइन कर लीजिए। देखिए, बगीचे में सीनियर सिटिजन कैसे हँसते हैं सुबह-सुबह!
- तुम उसे हँसना कहते हो? मुझे तो उसे सुनकर रोना आता है। सही बात तो यह है कि अगर हँसी न आये तो हँसने का नाटक करने की बजाय चुप ही रहना चाहिए। उम्र के साथ लोगों की आपसे अपेक्षाएँ भी बदल जाती हैं। जीवन भर आप छतफाडू ठहाके लगाते रहे। लेकिन अब आपसे अपेक्षा की जाती है कि आप शालीनता से हँसे। थोडा-सा फिस्स। लगभग बेआवाज। बेहतर हो कि हँसें ही नहीं, सिर्फ चौडा-सा मुस्कुरा दें। उसी में गंभीरता वाली छवि बनी रहेगी। वरना छिछोरे लगेंगे।
- अंकल मैं आपको कुछ जोक बुक्स ला दूँ? या एसएमएस...
- जोक्स? लतीफे? चुटकुले? बूढा आदमी और लतीफा? क्यों मज़ाक करते हो यार!
- क्यों अंकल?
- देखो लतीफे का क्या है, मजा आये तो किसी को सुनाने का मन करता है। मैं किसको सुनाऊँगा? बहू को? दामाद को? अच्छा लगेगा? उम्ररसीदा आदमी अपने यहाँ जोक नहीं, संस्मरण सुनाते हैं। बेशक उसमें हास्य का भी कुछ समावेश हो सकता है, लेकिन बत्तमीजी बिल्कुल नहीं। किस्से में कोई नॉनवेज लफ्ज, बात या इशारा नहीं होना चाहिए। ऐसा लगना चाहिए जैसे तुम जीवन भर परम वैष्णव रहे। न कभी किसी को गाली दी न कभी किसी को गलत नजर से देखा, संसर्ग करना तो बहुत दूर की बात है। हमारे समाज को ऐसे ही बूढे पसन्द हैं। धार्मिक प्रकृति के। उदासीन सम्प्रदाय के। जीवन की नदिया से बाहर-तट पर तौलिया लपेटकर बैठे हुए।
- और कोई बूढा रसिक हुआ तो? कभी-कभी...
- तो क्या! मोहल्ले भर की गालियाँ खाएगा। टाइम पर रोटी भी नहीं मिलेगी। और तो और, खुद की नजरों में भी इज्जत गिर जाएगी।...परसों क्या हुआ पता है? मैं बाथरूम में नहा रहा था।
अचानक पाया कि गुनगुना रहा हूँ। और क्या गुनगुना रहा हूँ? तो 'भींगे होंठ तेरेऽऽ!' सोचो! कोई सुन लेता तो क्या सोचता? कैसी गंदी-गंदी लाइनें हैं आगे! या मेरे साथ, कोई रात गुजार! छिः! अच्छा हुआ मैं जल्दी से चुप हो गया। किसी ने सुना नहीं।
- ऐसी बात नहीं है अंकल! बूढों को गाते देखना भी अच्छा लगता है।
- हाँ, लेकिन कौन सा गाना? एक अधबूढे-गंजे-पोपले- मुरझाये आदमी या औरत के मुँह से रोमांटिक गाना सुनकर कुछ अजीब-सा नहीं लगेगा? जैसे हंगल और ललिता पँवार ने सुर्ख लाल रंग की जीन्स या स्लेक्स पहन ली हो! हाँ, कोई सोबर गाना हो तो फिर भी ठीक है। बेहतर तो बल्कि यह होगा कि वह कोई भजन हो। आरती हो। संकीर्तन हो। प्रार्थना हो। अरदास हो। उसमें गिडगिडाने का भाव जरूर होना चाहिए। भक्तिरस का आविष्कार बुढापे के लिए ही हुआ है।
- ऐसी बात नहीं है अंकल! कई लोग गजल भी गाते हैं।
...हाँ, गाते हैं। पर वही की वही गजलें कब तक गायें? नयी गजलें बनती कहाँ हैं? न कोई लिखता है न कोई गाता है! अब गजल वगैरह में किसे दिलचस्पी है? आजकल तो गाने बनते हैं नाचने के लिए, थिरकने के लिए, डिस्को के लिए, डीजे के लिए, नॉनस्टॉप गरबा के लिए, शादियों के लिए, रिंगटोन और आइपॉड के लिए। तो इससे तो बेहतर है चुप ही रहो। बँधी मुट्ठी लाख की। लोगों को कहने दो चाचा जी अपने टाइम में बहुत अच्छा गाते थे। 'अपने टाइम में' को अण्डरलाइन करो और समझो, बुरा मत मानो, समझो।
...भाई, मुझे तो यह पूरा षड्यंत्र लगता है जिसके तहत अच्छे-खासे काम धंधे से लगे आदमी या औरत को सब मिलकर जईफी में धकेलते हैं। मानो कहते हों-चलो मंच छोडो। बहुत हो गया। अब दूसरों को आने दो। औरतें तो फिर भी कह देती हैं, "आण्टी मत कहो न प्लीज!" चेहरे पर चार-चार घंटे ककडी-टमाटर-मसूर की दाल-मुल्तानी मिट्टी थोप सकती हैं, मर्द बेचारे क्या करें!
लेकिन दिल छोटा करने की बात नहीं। बुजुर्गों को खामखाँ कई कन्सेशन भी मिल जाते हैं। भरी बस या ट्रेन में तुम और तुम्हारे श्यामकेशी मित्र खडे रह जाएँगे, मुझे कोई भी अपने पास बैठा लेगा - "आइये अंकल! आप यहाँ आ जाइये।" किसी भी सुन्दर कन्या की तरफ देखो, वह नजरें नहीं चुराएगी, उल्टे गप्पे लडाना चालू कर देगी। उसकी नजर में मैं हार्मलेस हो चुका हूँ। दावत में सबसे पहले प्लेट मुझे पकडाई जाएगी और सामान वगैरह उठाने में मेरी बारी आई भी तो आखीर में आएगी।
धीरे-धीरे इन कन्सेशन्स की आदत पड जाएगी और काम करने की बची-खुची आदत भी छूटती जाएगी। फिर में रह-रहकर जवानों से ईर्ष्या करूँगा और हर नयी चीज को घटिया और स्तरहीन कहूँगा। जितना स्वस्थ रहने की सोचूँगा उतने नये-नये और अनपेक्षित कष्ट देह में पैदा होते जाएँगे। जितना भविष्य के बारे में सोचने की कोशिश करूँगा, उतना ही भूत हॉण्ट करेगा और शायद अंत में मैं भी भगवानों-डिप्टी भगवानों की शरण में चला जाऊँगा।
ज़िन्दगी का जलवा बस इतनी ही देर का है। सबको यहीं से होकर गुजरना है।

No comments:

Post a Comment