'' ... मैं ओम थानवी जी की पोस्ट पढ़ता हूं, पर उस पर टिप्पणियां कभी-कभार करता हूं। जब वे साहित्य, कला, संस्कृति, सिनेमा, समाज आदि पर लिखते हैं तो उसमें अंतःशक्ति होती है- शब्द, सोच, प्रस्तुति सभी स्तरों पर। राजनीति पर खासकर भाजपा, संघ, नरेन्द्र मोदी पर जब वे लिखते हैं तो भी पढ़ता हूं, पर जो भाव आता है उसे कभी व्यक्त नहीं करता। न करना चाहूंगा। लेकिन आज उन्होंने जो पोस्ट लिखा, उस पर टिप्पणी के रुप में अलग से लंबा पोस्ट लिखने से नहीं रोक पा रहा हूं। अगर उनको कष्ट हो तो मैं पहले ही क्षमा मांग लेता हूं। मैं उनसे छोटा हूं, इसलिए वे अवश्य क्षमा कर देंगे।उन्होंने लिखा है कि दूरदर्शन वाले दो ढाई महीने से मुझे अब नहीं बुलाते। पहले भी बुलाते थे तो उन्हीं की गरज पूरी करता था। उनके अनुसार दूसरे कई लोगों को भी आजकल नहीं बुलाया जाता। पता नहीं कौन किसकी गरज पूरी करता था। चाहे ओम थानवी जी हों या अवधेश कुमार....हम सब अपनी भूमिका निभाते हैं लेकिन हम कहें कि हमारी कोई गरज ही नहीं दूसरे की गरज है तो इसमें अहंमन्यता का बोध होता है। बहरहाल, यह कहने की आवश्यकता नहीं कि वे क्या बताना चाह
रहे हैं। यानी जबसे केन्द्र की सत्ता बदली है तबसे उनको बुलाया जाना बंद कर दिया गया है। मैं कह रहा हूं कि मुझे दूरदर्शन ने पिछले 10 वर्षों में एक बार भी नहीं बुलाया। क्यों? क्या मुझे विषयों की समझ नहीं? क्या मैं अपनी बात ठीक से नहीं रख पाता? क्या मेरी पत्रकारिता में खोट थी? क्या देश में मेरा नाम नहीं है? मेरे सुनने वाले, चाहने वाले किसी से कम हैं? यह मेरा दंभ नहीं है लेकिन किसी को संदेह हो तो सर्वेक्षण करा ले।
मेरे अंदर भी सवाल उठते थे, पर मैंने कभी नहीं लिखा। दूरदर्शन को संप्रग सरकार के दौरान जिस तरह से चलाया गया, वह कोई छिपा तथ्य नहीं है। वहां पैनल में नाम तक मंत्रालय से तय होने लगा था। मुझे पता है वहां के अधिकारियों ने मेरा नाम कई बार भेजा लेकिन स्वीकृत नहीं हुआ। फिर कुछ लोग घर पर ही आकर समय-समय पर किसी कार्यक्रम के लिए या किसी विषय पर बात करके ले जाते थे और दिखाते थे। उसका तो मुझे पारिश्रमिक भी नहीं मिलता था। देश के कुछ ऐसे पत्रकार, जिनका नाम नहीं लेना चाहूंगा यह प्रमाण पत्र देते थे कि किस पत्रकार को बराबर आना चाहिए और किसे नहीं।
दूरदर्शन तो छोड़िए, ओम थानवी जी के नेतृत्व में निकलने वाला अखबार जनसत्ता न जाने कितने वर्षों से मेरा कोई लेख नहीं छापता। क्यों? मैंने बीच-बीच में उनके मेल पर और संपादकीय पृष्ठ के मेल पर लेख भेजे। छपा नहीं। क्या मुझे लिखना नहीं आता? अगर अखबार में लेखों के चयन में निष्पक्षता और ईमानदारी हो तो अवधेश कुमार का लेख छपना चाहिए। जाहिर है, यह मनमर्जी है जिसे मैं गैर ईमानदारी और अलोकतांत्रिक व्यवहार ही कहूंगा। जब वे छापते नहीं तो मैंने वहां भेजना लगभग बंद कर दिया। मैंने कभी फोन करके पूछा भी नहीं कि आप मुझे क्यों नहीं छापते।
हालांकि एक समय देश के सक्रिय लोगों के लिए सबसे प्यारा अखबार जनसत्ता इस समय कराह रहा है। उसके पाठकों की संख्या देख लीजिए। फिर भी उस अखबार के पूर्वज पत्रकारों के कारण उसके प्रति थोड़ा सम्मान लोगों के मन में बचा हुआ है। क्या मैं इसे मुद्दा बनाउं कि आम थानवी जी मुझे नहीं छापते हैं? मेरे मित्र अक्सर पूछते हैं कि आप जनसत्ता में नहीं लिखते क्या? इसके जवाब में मैं या तो चुप रह जाता हूं या बोलता हूं जनसत्ता मुझे नहीं छापता। बस।
मैं सबसे ज्यादा इंडिया न्यूज पर जाता रहा हूं। इस कारण कई बार लोगों ने अफवाह भी फैलाई कि अवधेश कुमार को वहां से मोटा रकम दे दिया गया है, जबकि मुझे प्रति बहस उतना ही निर्धारित धन मिलता है जितना अन्य अतिथियों को मिलता है। संयोग देखिए कि नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद यानी 26 मई के बाद मेरे पास इंडिया न्यूज से फोन आना लगभग बंद हो गया। जून जुलाई में तो लगभग फोन आया ही नहीं। तो क्या मैं ये मानूं कि यहां भी मोदी का प्रभाव हो गया? मैं जानता हूं कि ऐसा नहीं है।
फिर हर व्यक्ति का दौर होता है। मैं ओम थानवी जी से कहूंगा कि दूरदर्शन, राज्य सभा टीवी आदि पर आपका लंबा दौर चला, अब दूसरे लोगों को आने दीजिए। उनका कुछ दिन दौर चलेगा। मैं यह तब लिख रहा हूं जब मुझे दूरदर्शन नहीं बुलाता है। राज्य सभा भी जबसे आरंभ हुआ मुझे तीन या चार बार बुलाया है। मैं मानता हूं कि यह ठीक नहीं है। वहां मेरे मित्र चाहते हैं कि मैं नियमित आउं लेकिन व्यवस्था तंत्र की अपनी सोच है। तो क्या मैं शिकायत करने लग जाउं? मुझे शिकायत करने या इस व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाना चाहिए, पर मैंने आज तक नहीं उठाया, क्योंकि मेरे पास काम की कभी कमी रहती ही नहीं। पत्रकारिता के अलावा अपना सार्वजनिक जीवन भी है और उसमें भी व्यस्तता इतनी रहती है कि इन सब विषयों पर लड़ने या प्रतिक्रिया देने का समय ही नहीं रहता।
मैं अगर कभी शिकायत करुंगा तो व्यवस्था तंत्र में सुधार के लिए ताकि वहां निष्पक्षता, ईमानदारी और पारदर्शिता से अतिथियों का चयन हो। जो योग्यतम हो ज्ञान में और उस ज्ञान को ठीक प्रकार से अभिव्यक्त करने में भी सक्षम हो...... विषय और बहस के अनुरूप उसमें आवश्यक गतिशीलता और रोचकता लाने में माहिर है उन्हें ही ज्यादा अवसर मिलना चाहिए। जाहिर है, फिर किसी को शिकायत नहीं रह जाएगी।
दोस्तों मैं आगे राज्य सभा टीवी को लेकर एक पूरा पोस्ट लिखूंगा। ''
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