डॉ. गिरीश मिश्र
मृत्युदंड का पहला उल्लेखा ईसा पूर्व अठारहवीं सदी में हामुराबी की संहिता में मिलता है। वहां पच्चीस प्रकार के अपराधों के लिए मृत्युदंड का प्रावधान था। ईसा पूर्व चौदहवीं सदी की हिट्टाइट संहिता में भी इसका जिक्र है। सातवीं शताब्दी ई.पू. में एथेंस के ड्रेकोनियम कोड में सब अपराधों के लिए मृत्युदंड की ही व्यवस्था थी। पांचवीं सदी के रोमन कानून में भी मृत्युदंड का विधान था। प्राचीन भारत में मृत्युदंड का प्रावधान हत्याओं के लिए था। 'कौटिल्य अर्थशास्त्र' के चौथे अधिकरण के ग्यारहवें अध्याय में उन सब अपराधों का जिक्र है जिनके लिए प्राणदण्ड नियत था।
सम्राट अशोक ने पशुवध सहित अनेक प्रकार की हिंसा पर रोक लगाई मगर मृत्युदंड को समाप्त नहीं किया। मनु ने भी कतिपय अपराधों के लिए प्राणदण्ड का प्रावधान रखा। फहियान और ह्वेनसांग के अनुसार सुप्तकाल और हर्षकाल में मृत्युदंड कभी-कभार दिया जाता है। दसवीं सदी आते-आते फांसी के जरिए मृत्युदंड का प्रचलन अधिकतर क्षेत्रों में हो गया। तकरीबन दो सौ वर्ष पहले इंग्लैण्ड में एक महीने तक किसी जिप्सी गिरोह के साथ निरंतर रहने वाले गैर जिप्सी को फांसी की सजा मिल सकती थी। यह प्रावधान सैम्युअल रोमिली के सुधार के बाद खत्म हो गया।
जब से मृत्युदंड का प्रावधान है तभी से इसका विरोध भी देखा जाता रहा है। इस विरोध के मुख्यतया दो आधार रहे हैं। पहला, जब राज्य मनुष्य का न सृजन करता है और न ही उसे जीवन देता है तब उसको उसे लेने का क्या नैतिक अधिकार है? दूसरा, जिन साक्ष्यों के आधार पर मृत्युदंड दिया जाता है वे षड़यंत्र की पैदावार हो सकते हैं। शूद्रक ने अपने नाटक 'मृच्छकटिक' में इस बात को रेखांकित किया है कि किस प्रकार चारूदत्त को षड़यंत्र रचकर फांसी पर चढ़ाने की कोशिश की की गई। अमेरिका में शीतयुध्द के दौरान रोजेनबर्ग दंपत्ति को झूठे साक्ष्यों के आधार पर मृत्युदंड दिया गया।
दुनियाभर में साहित्यकारों ने मृत्युदंड के औचित्य पर प्रश्न उठाए हैं। जूलियस फ्यूचिक और गैब्रियल पेरी द्वारा अपने जीवन के आखिरी क्षणों में लिखी उत्कृष्ट साहित्यिक रचनाओं और भगतसिंह द्वारा अपने छोटे भाई के नाम लिखे पत्र और पंडित राम प्रसाद बिस्मिल की कविता अपवाद हैं क्योंकि ये सब आम अपराधी नहीं थे। अत: उनकी समस्याएं और उनकी मनोदशाएं आम अपराधी से अलग थीं।
जहां तक आम अपराधियों को प्राणदंड देने के बाद उनकी मनोदशा में हुए परिवर्तन का प्रश्न है, इससे जुड़ी पहली सशक्त रचना विक्तोरह्यूगा की है जिसका अंग्रेजी अनुवाद 1825 में 'लास्ट डेज ऑफ एकेडेम्ड मैन' के नाम से छपा था। जॉर्ज रेनॉल्डस नामक अंग्रेजी आलोचक ने 1839 में 'द मॉडर्न लिटरेचर ऑफ फ्रांस' में लिखा कि यह रचना इतनी भयावह है कि इसे एक बार भी पढ़ना कठिन है, मगर इतनी महत्वपूर्ण है कि इसे पढ़े बिना रहा भी नहीं जा सकता। लगता है कि ह्यूगो ने किसी अज्ञात अपराध के लिए मौत की सजा पाए व्यक्ति के दिमाग में बैठकर उसकी भावनाओं और चिंतन को ज्यों का त्यों कागज पर उतारा है। ग्राहम रॉब ने इसे 'आंतरिक स्वगत् भाषण की सर्वोत्कृष्ट कृति और ह्यूगो की अति आधुनिक रचना' कहा है।
कहते हैं कि जब अठाईस वर्ष की उम्र में 1849 में दॉस्तोवस्की और उनके साथियों को राजद्रोह के जुर्म में मौत की सजा दे, गोली मारने के लिए पंक्तिबध्द कर उनके सिर पर टोपा लगा दिया गया तब उन्हें ह्यूगो की रचना याद आई। सारी प्रक्रिया समाप्त होने पर सैनिक फायर करने ही वाले थे कि प्राणदंड को साइबेरिया की जेल की सजा में बदलने का फरमान आ गया। उनके उपन्यास 'दी इडियट' में उन क्षणों का वर्णन है जो मौत और जीवन के बीच आए।
ह्यूगो की रचना के मुख्यपात्र को मौत की सजा सुनाई जा चुकी है मगर कतिपय कानूनी प्रक्रियाओं के चलते उसके कार्यान्वयन में पांच हफ्तों की देर है। उसके दिमाग में एक ही बात घूमती रहती है कि उसका अस्तित्व मात्र पांच हफ्तों तक है। यह बहुत बड़ा दबाव है। मरना तो हर आदमी को है मगर 'कब' का पता न होने से वह निश्चिंत रहता है। उस पर वैसा मानसिक दबाव नहीं रहता जैसा मृत्युदंड पाए व्यक्ति पर।
वह सोचता है: मैं कैदी हूं। शारीरिक रूप से जंजीरों में जकड़ा काल कोठरी में पडा हूं। मानसिक तौर पर एक ही विचार- मुझे प्राणदंड मिला है- द्वारा जकड़ लिया गया हूं। यह बड़ा ही भयावह, वीभत्स और अजेय विचार है। मेरे जीवन में एक ही तथ्य पूरी तरह अटल है कि मुझे पांच हफ्तों में मरना है। वह कुछ भी करे, यह डरावना विचार हौवे की तरह उसे सताता रहता है। आंखें बंद कर ले या अपना ध्यान कहीं अन्यत्र लगाने की कोशिश करे फिर भी यह विचार उसका पीछा नहीं छोड़ता। जब तक उसे मौत की सजा नहीं सुनाई गई थी तब तक वह अन्य लोगों की तरह ही था। परंतु अब सब कुछ बदल गया है।
वह अपनी मानसिक यातना का विस्तृत वर्णन करता है। शायद इसे पढ़कर सजा सुनाने वाले भविष्य में सजा सुनाते समय दंडित व्यक्ति की संभावित मानसिक यातना पर ध्यान दें। भले ही उसे सजा देना जायज है, मगर उसकी बूढी मां, बीमार पत्नी और अबोध बेटी का क्या दोष है? उसके मरने के बाद वे असहाय हो घुट-घुट कर मरेंगी। इसके लिए कौन दोषी होगा? उसने मौत की सजा को आजीवन कैद में बदलने की अर्जी दे रखी है जिस पर फैसला होने में पांच हफ्ते लगेंगे। तब तक वह रसातल के ऊपर एक रस्सी में बंधा लटका रहेगा।
उस समय फांसी सार्वजनिक रूप से दी जाती थी। ह्यूगो ने इसे अमानवीय बताया। तमाशबीनों द्वारा दंडित व्यक्ति पर फब्तियां कसने और फांसी को अपना मनोरंजन बनाने की भर्त्सना की। एमिल जोला ने अपने उपन्यास 'पेरिस' में सार्वजनिक फांसी के दृश्य का विस्तृत चित्रण किया है। इसी तरह का चित्रण महाराजा नंदकुमार को ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा सार्वजनिक रूप से फांसी देने का दृश्य उस समय के दस्तावेजों में मिलता है। चूंकि महाराजा एक ब्राह्मण थे। इसलिए फांसी देखने के लिए जुटाई गई भीड़ तुरंत हुगली नदी में नहाकर ब्रह्महत्या के पाप का प्रायश्चित करने भागी।
ह्यूगो ने अपने एक लेख में बतलाया कि उनका उद्देश्य किसी अपराधी विशेष का बचाव करना नहीं बल्कि मृत्युदंड के औचित्य को चुनौती देना है। उन्होंने बतलाया कि आमातौर से समाज के शक्तिशाली लोग मृत्युदंड से बच जाते हैं भले ही उनका जुर्म कितना ही संगीन क्यों न हो। याद करें कि दिल्ली में कई साल पहले कुछ अभिजातीय युवकों ने मजदूरों को सड़क के किनारे सोते समय रौंद दिया। एक बड़े अफसर के पुत्र ने बसंतकुंज में एक नवयुवती की हत्या कर दी। इसी प्रकार बड़े बाप के कुछ पुत्रों ने अपने मनचलेपन को प्रदर्शित करते हुए कुतुबमीनार के पास एक बार में कानून का पालन करने वाली एक युवती को मार दिया क्योंकि उसने नियम तोड़कर शराब नहीं परोसी। इनमें से किसी को फांसी की सजा नहीं हुई।
ह्यूगो के अनुसार फ्रांसीसी क्रांति ने सब कुछ बदला मगर मृत्युदंड को कायम रखा। क्योंकि वह शासक वर्ग के हित में यदि मृत्युदंड के पक्षधर समाज के लिए खतरा बने अपराधी को बहिष्कृत करना चाहें तो उनका उद्देश्य आजन्म कारावास में पूरा हो सकता है। समाज का काम प्रतिशोध लेना नहीं, बल्कि सुधार लाना होना चाहिए। यह कहना भी तथ्यात्मक अनुभवों से परे है कि मृत्युदंड के जरिए भविष्य में जघन्य अपराधों की आवृत्ति रोकी जा सकती है।
ह्यूगो के अनुसार पुराने जमाने का समाज तीन स्तंभों अंधविश्वास, निरंकुशता और क्रूरता-पर टिका था। उन्नीसवीं सदी के फ्रांस में अंधविश्वास और निरंकुशता की विदाई हो गई। अब जल्लाद को भी जाना चाहिए। यह सोचना गलत है कि फांसी के फंदे के डर के जाते ही समाज अस्त-व्यस्त हो जाएगा।
ह्यूगो ने अपना दृष्टिकोण इतालवी लेखक सीजर बेकारिया के विश्लेषण और तर्कों पर आधारित किया था। 1738 में मिलान में जन्म बेकारिया ने 1764 में 'ऑन क्राइम्स एंड पनिशमेंट्स' नामक ग्रंथ प्रकाशित किया। उन्होंने पहली बार दंड पध्दति में सुधार की बात स्पष्ट शब्दों में मानवीय अधिकारों के परिप्रेक्ष्य में की। उन्होंने मृत्युदंड को गलत बतलाते हुए पूछा कि जब किसी व्यक्ति को आत्महत्या का हक नहीं है तब दूसरों को उसकी हत्या का अधिकार कैसे हो सकता है।
जॉर्ज ऑरवेल ने बर्मा में अपनी पुलिस सेवा के दौरान किसी व्यक्ति को फांसी लगते देखी थी जिस पर उन्होंने 1931 में 'ए हैगिंग' लिखा जिसे पढ़कर शायद ही कोई सहृदय व्यक्ति विचलित हुए बिना रहेगा। अल्वेयर कामू ने 1957 में 'रिफलेक्शंस ऑन द गिलोटिन' प्रकाशित किया। उसमें उन्होंने लिखा : ''वर्षों से मैं मृत्युदंड में ऐसी सजा के सिवाय कुछ और देखने में असमर्थ रहा हूं और जिसकी मैं कल्पना नहीं कर सकता। यह ऐसी सुस्त अव्यवस्था है जिसकी भर्त्सना मेरा विवेक करता है।'' उनके अनुसार फांसी से न दूसरे संभावित अपराधियों पर रोक लगेगी और न समाज में शांति और व्यवस्था कायम होगी। वस्तुत: मृत्युदंड किसी ठोस सिध्दांत पर नहीं बल्कि हिंसक भावना और प्रतिशोध पर टिका है। इन सबके विपरीत जॉर्ज बर्नार्ड शॉ ने जून 1948 में 'दी अटालांटिक मंथली' में अपने एक लेख द्वारा मृत्युदंड का समर्थन किया। उनके अनुसार, ''कुत्ते आदमी के दोस्त हैं, मगर पागल होने पर सुधारने के बदले उन्हें मार देना ही उचित होता है।''
यदि मृत्युदंड के बदले आजीवन कारावास हो तो दोषी को सुधरने का मौका मिलेगा। सब जानते हैं कि भ्रष्ट पुलिस, जाति, धर्म और नस्ल संबंधी पूर्वग्रह से ग्रस्त लोग राजनीतिक संकीर्णता और स्वार्थ, झूठे साक्ष्यों आदि के बिना पर अनेक निर्दोषों को दोषी बनवा देते हैं। आज दुनिया के नब्बे से अधिक देशों में मृत्युदंड समाप्त किया जा चुका है। हमारे देश में वह कायम है। यहां आवश्यक है कि इस पर बहस चले मगर तर्कों और बच्चों के आधार पर, भावनाओं और पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होकर नहीं।
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