Wednesday 8 April 2015

काम के घंटे हो अब चार, न्यूनतम मजदूरी हो अब चालीस हजार / अखिलेश चंद्र प्रभाकर


400 वर्षों के पूंजीवादी अनुभव बताते हैं कि उन्नत किस्म के तकनीकी और आधुनिक औद्योगिक विकास के बाबजूद; पूंजीवादी विश्व में तकरीबन रोजाना 80 करोड़ लोग भूखें पेट सोते हैं. तकरीबन 1 अरब लोग अब तक अनपढ़ हैं, लगभग 4 अरब लोग गरीबी रेखा के नीचे गुजर-बसर कर रहे है. 25 करोड़ बच्चे स्कूल जाने की बजाय रोजाना मजदूरी करते हैं. 10 करोड़ लोग ऐसे हैं जिनके सर पर छत नहीं है और पांच वर्ष से कम के 10 लाख बच्चे ऐसे हैं, जो प्रतिवर्ष कुपोषण, गरीबी या बिमारियों से मर जाते हैं. देश के भीतर और देशों के मध्य भी गरीबी और अमीरी में अन्तर में जबरदस्त बढ़ोतरी होती ही जा रही है. पिछली सदी के दौरान 1 अरब हेक्टयर से ज्यादा संरक्षित जंगलों को नष्ट किया गया और लगभग इतना ही क्षेत्र रेगिस्तान या बंजर भूमि में बदल गया है.
स्वाभाविक रूप से इन समस्यायों का निदान करने में पूंजीवादी-व्यवस्था नाकाम साबित रहा है. यह शासन करने वालों की जिम्मेदारी है क़ि वह जरूरत मंद हर व्यक्ति को भोजन, स्वास्थय, छत, कपडे, और शिक्षा मुहैया कराये. भरे- पूरे, तर्कसंगत, टिकाऊ और सुरक्षित जीवन का मतलब है, सांस्कृतिक सृजन, विकल्पों की विशाल संख्या और कई अन्य चीजें मानव की पहुँच में हों… यह सब हो सकता है, लेकिन नहीं है, क्योंकि किसी निजी विमान पर 9.5 अरब डॉलर खर्च होते हैं. तो कहीं आलीशान महल (अम्बानी का अट्टालिका) बनाने में 250 करोड़ रूपये खर्च किये जा रहे है.
मैं आदमी और औरत के लिए 4 घंटे कार्य दिवस होने के बारे में सोचता हूँ…यदि हमको तकनीक इतनी सुविधा देती है, तो हम 8 घंटे काम क्यों करें? इसके लिए तर्क यह है की जैसे जैसे उत्पादकता बढ़ती है; वैसे वैसे कम से कम शारीरिक व् मानसिक श्रम करने की आवश्यकता होती है; इससे बेरोजगारी कम से कम हो पायेगी और व्यक्ति को अधिक से अधिक समय प्राप्त हो सकेगा अपने निजी जीवन में मस्ती करने के लिए…
पूंजीवादी साहूकार आज विश्व् को एक बहुत बड़े मुक्त व्यापार क्षेत्र में तब्दील करना चाहते हैं. मुक्त व्यापार क्षेत्र में स्थापित किसी कारखाने के श्रमिकों को शायद ही कहीं निर्धारित वेतन दिया जाता है, बल्कि जो वेतन कारखाना मालिक अपने देश में स्थापित कारखानों के श्रमिकों को देते, उस वेतन का 5,6 या 7 प्रतिशत ही बाहर के देशों में स्थापित कारखाने में काम करने वाले श्रमिकों को भुगतान करते हैं.
संकट का लक्षण स्पष्ट है कि बाजार ईश्वर हो गया है और इसके कानून और सिद्धान्त ही संकट की जड़ हैं. USA की सबसे प्रतिष्ठित कंपनी का कुल फण्ड 4.5 अरब डॉलर है जब कि यह कंपनी 120 अरब डॉलर की सट्टेबाजी में लिप्त है.
एक छोटी सी पिन, एक छोटा सा छेद से बड़े से बड़ा गुब्बारा फुट जायेगा. यही खतरा नवउदारवादी वैश्विकरण के ऊपर मंडरा रहा है. इस परमाणु युग में भी विचार और चेतना हमारे सबसे अच्छे अस्त्र हैं और रहेंगे. हमें अच्छी तरह से सूचना संपन्न रहना चाहिए … बल्कि जरुरी है की घटनाओं को गहराई से जानें अन्यथा हम आत्म विस्मृति के शिकार हो जायेंगे.
वामपंथी यह सिद्ध करना चाहते हैं कि यह व्यवस्था नष्ट हो जायेगी, जब तक यह सच न हो तब तक यह केवल एक दलील है और इसे सच साबित करना हम सब का कर्तव्य है. हाँ, एक छोटे दायरे में दुर्लभ सम्पदा का वितरण करने- जिसमें मुठीभर लोग तो सब कुछ पाते हैं, लेकिन भारी आबादी वंचित रहती है – की अपेक्षा ‘समाजवादी गरीबी’ बेहतर है. क्रांति तब तक चलती रहेगी, जब तक इस दुनिया में अन्याय मौजूद है.

मॉल और शोरूम के जरिये महिलाओं की अस्मिता का कारोबार / डॉ. अनिल पुष्कर


इस समय मेट्रोपोलिटन से लेकर महानगर तक और राज्यों के बड़े शहरों तक मॉल और बड़ी ब्रांड्स के शोरूम देशभर में खुले हैं। इनमें ऐसा क्या ख़ास है? जिसके लिए एयरकंडीशंड सहूलियत के साथ हर आधुनिक साजोसामान की व्यवस्था की गई है। कई चीजों की ब्रांड्स तो ऐसी हैं जिन्हें एक बहुस्तरीय ब्रांड के शोरूम में भी जगह मिली है और शापिंग सेंटर में सेम ब्रांड का अलग से एक शोरूम भी खोला गया है। माल और विदेशी ब्रांड्स के लिए सरकार ने जमीन, बिजली, और सुरक्षा तक मुफ्त में उपलब्ध की हैं। जो शोरूम्स बने हैं इनमें पहनने ओढ़ने वाले लिबास की नामालूम रंगीन डिजाइन, ज्वेलरी, जूते, महंगा सिनेमा, रेस्तरां मनोरंजन के अनेकों साधन दिए गये हैं। और ये सब कुछ फैले हुए जमीन के बड़े भू-भाग याकि विशाल दायरे में वातानुकूलित तरीके से उपलब्ध है। इसके अलावा और क्या है जिसे बेचा जा सकता है?
वैश्विक बाज़ार आज इस ख्याल से हर चीज़, हर गुंजाइश पर अपनी नजरें जमाए हुए है। इंसान के इस्तेमाल में आने वाली कितनी चीजें हैं जिन्हें व्यापार के नजरिये से बिक्री कर बेशुमार मुनाफा कमाया जा सकता है। कम से कम समय में क्या नया लांच किया जाय? हर ब्रांड इसे लेकर चिंतित है, तमाम तरह की प्रयोगात्मक कार्यशालाएं काम कर रही हैं जिन्हें हम प्रचार माध्यमों से उपभोक्ता के बीच ले जाते हैं। जरूरत और नये उपयोगी चीजों पर रिसर्च चल रही है। नये उत्पादों के लिए नए आइडियाज तलाशे जा रहे हैं। सभी ब्रांड्स हर तरह से मुनाफा कमाने के लिए उत्पाद की खोजबीन करने में लगी हुई हैं और बाज़ार में पर्याप्त समय और पैसा झोंका जा रहा है। इसी मुनाफे से जुड़ा है औरतों के सौन्दय का सबसे बेहतरीन जरिया बनाया गया सुडौल और तराशा हुआ जिस्म और अस्मिता का बाज़ार।
औरत को एक उत्पाद के तौर पर बनाए रखने की कोशिशें तेजी से बाज़ार का हिस्सा बन रही हैं और नये-नये साइबर सोशल क्राइम को पनाह देते इन आधुनिक बाज़ारों में हर तरह की अथाह संभावनाएं मौजूद हैं। इसी का एक ताजा उदाहरण है हाल ही में हुआ, फैब इण्डिया, गोवा के चेंजिंग रूम में ख़ुफ़िया कैमरे का पाया जाना। वह भी मंत्रालय की प्रतिष्ठित महिला पदाधिकारी के साथ यह घिनौना प्रयास करने का दुस्साहस किया गया। ऐसा अपराध होने देने की स्थितियाँ न ही केवल शर्मनाक हैं, न ही केवल निंदनीय है बल्कि अपराधियों के मजबूत हौसले की तरफ साफ़ संकेत है। जिससे पता चलता है कि गुनहगारों के इरादे कितने पक्के हैं और मकसद कितना टार्गेटेड।
जाहिर है इन अपराधियों के लिए एक केन्द्रीय मंत्री भी केवल महिला है। एक सुंदर जिस्म जिसे बाज़ार में तौला जा सकता है। एक सशक्त महिला का चरित्र यहाँ गौण है। स्मृति ईरानी जो कि केन्द्रीय शिक्षा मंत्री हैं। गुनहगारों के लिए किसी सामान्य महिला की तरह ही है। जिसकी तस्वीरें ली जा सकती हैं, जिसे बाज़ार में अच्छी कीमत पर बेचा जा सकता है याकि इरादतन उसे ब्लैकमेल करके मानसिक रूप से परेशान किया जा सकता है। स्मृति ईरानि कोई रातों रात मशहूर नहीं हुईं। अपनी कला और कैरियर के लिए काम ने इस महिला को ख़ास पहचान दिलाई। फिर वो राजनीति में किस्मत आजमाने आईं और सफल रहीं। स्मृति ने दुनिया के हर तरह के तजुर्बे और इल्म को हासिल किया। अभिनय के क्षेत्र में कई वर्षों तक लगी रहीं। यह महिला इन तमाम मायनों में किसी सामान्य महिला से किसी तरह तुलना करने के लिए कतई उपयुक्त नहीं है। बावजूद इसके औरतों के जिस्म को सुंदर बेचने का माल समझने वाले अपराधियों ने इस महिला को भी अपने गंदे मकसद को पूरा करने का माध्यम बनाने का प्रयास किया। जिस पर गोवा के मुख्यमंत्री ने भी इस मुद्दे पर केवल कर्मचारियों को ही गुनहगार करार देते हुए मसले की गंभीरता और जिस्म के बड़े कारोबारियों का ही साथ दिया है। इस लिहाज से मुख्यमंत्री का बयान प्रभुत्वशाली और राजनीतिक घुसपैठ रखने वाले अपराधियों को कहीं न कहीं एक स्तर का समर्थन भी देता है।
ऐसा नहीं है कि महिलाओं के खिलाफ यह षड्यंत्र कर्मचारियों की बदमाशी मात्र है। सोचकर देखिये औरत की देह में ऐसी क्या ख़ासियत है? जिसके कारण उसे सरेबाजार बेचा जाना चाहिए। जिसे बेचने के लिए लाइसेंस की भी जरूरत नहीं है। जिसे बेख़ौफ़ और बेहिचक बेचा जा सकता है। जिसे बेचकर अकूत संपत्ति इकट्ठी की जा सकती है। अथाह मुनाफा कमाया जा सकता है। यह ध्येय और धारणा कहाँ से पैदा होती है? ये विचार कहाँ से आया कि किसी भी वुमेन चेंजिंग रूम में किसी महिला के कपड़े बदलने का वीडियो भी बाज़ार में बेचकर अच्छी कीमत वसूल की जा सकती है।
महिलाओं की आज़ादी को मुद्दा बनाकर धन कमाने वाले कारोबारी महंगे स्त्री माडल्स के जरिये ऐश्वर्यभोगी तबके के बीच अधनंगे जिस्मों का प्रदर्शन करते हैं। महंगे से महंगे कैटवाक शो आयोजित करते हैं। आधुनिक वस्त्रों को बाज़ार के बड़े कारोबारियों के बीच इस तरह पेश किया जाता है जिसमें इन कपड़ों के बहाने मॉडल्स अपना जिस्म प्रदर्शित करती हैं। बाद में इन्हें कैलेंडर के लिए भी नंगे जिस्म को बलिक एंड व्हाईट या रंगीन कैमरों में शूट किया जाता है। फिर इन भडकाऊ तस्वीरों को आलिशान बंगलों, महलों, स्वीट, होटलों की शान में दीवारों पर टाँगे जाते हैं। आखिर इस तबके को नंगे जिस्मों को देखने का चस्का कितना अजीब और आपराधिक है। मगर सरकार और कानून इस पर कोई पाबंदी नहीं लगाता। ये लोग औरतों की देह को आज़ादी और मुक्ति के नाम पर मुनाफे के लिए इस्तेमाल करते हैं। अपने कद और प्रतिष्ठा के लिए औरतों के जिस्म को अपने फायदे में उपयोग करते हैं। अधिक रकम अदा करके सुंदर स्त्रियों के जिस्म का एक अन-एथिकल बाज़ार खड़ा किया जा रहा है। साधारण लोगों को बिना किसी बुनियादी सामाजिक इल्म और सरोकार के ऐसे हर मामले में खूब बहकाया भटकाया जा रहा है। एक सामाजिक-सांस्कृतिक और आर्थिक अनिश्चिता लगातार जारी है।
इन आधुनिक बाज़ारों में क्या ख़ास है जिसे बेचा जाता है? ऐसा क्या है जो कि पुराने बाज़ार में नहीं बिकता? जिसे आधार बनाकर हर बड़े शहर और जिले में मॉल, शॉपिंग सेन्टर खुल रहे हैं। बड़ी-बड़ी कंपनियों के शोरूम बाज़ार के बीचोबीच रौनक पैदा करने का काम कर रहे हैं। रौशनी से एकदम चकाचौंध और आधुनिक मानदंडों से लैस एक नये कल्चर को बड़े पैमाने पर फैलाया जा रहा है। आधुनिक होने का व्यूह रचने वाली तमाम इबारतें तीसरी दुनिया के देशों में रची जा चुकी हैं।
गोवा मामले में प्रशासन समेत कई जानकारों का मानना है कि यह कर्मचारियों की बेहूदा हरकत हो सकती है। मगर इसका एक पहलू यह भी है आप किसी भी मॉल या शापिंग सेन्टर, शोरूम में जाएँ। वहां के कर्मचारियों को गौर से देखें तो आपको पता लग जाएगा कि वे मुंह में न तो किसी तरह का च्विंग करने वाला खाद्य पदार्थ रख सकते हैं। न ही उन्हें स्वाभाविक तरीके से मिलने वाली सुविधाएं ही दी जा रही हैं। कर्मचारियों को तो ट्वायलेट जाने के लिए अपने समय का ब्यौरा तक देना पड़ता है। खाना खाने के लिए वक्त की पाबन्दी है। ऐसे में फैब इण्डिया के ये तीन कर्मचारी पकड कर जेल में अगर डाल भी दिए गये तो क्या इससे मसले का सही हल निकाला जा सकेगा?
सोचकर देखिये, क्या कोई कर्मचारी बिना मालिक की मर्जी और बगैर आदेश के खुद ऐसे संगीन अपराध को करने का जोखिम लेगा। किसी बड़े जुर्म से सीधे तौर पर जुड़ा होगा। चूंकि यह मामला हाई प्रोफाइल है, और हालात इस बात की तरफ इशारा करते हैं कि कई चरणों में होने वाले इस आपराधिक धंधे में बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ और उनके रसूखदारों के तार कहीं न कहीं बड़े पैमाने पर जुड़े हुए हैं। वरना आप देखें कि इन्हीं शोरूम्स में कर्मचारियों के आने के समय उन्हें पूरी तरह से खंगालकर चेक किया जाता है, दिन भर कड़ी निगरानी और मुस्तैद कैमरों की नजर में रहना पड़ता है। वापसी के समय पूरी तरह से जांच के बाद ही निकासी होती है। ऐसे में क्या यह घटना कर्मचारियों के मातहत संभव है? भला इन कर्मचारियों को इतने संसाधन और टेक्निकल जानकारी कौन उपलब्ध कराएगा? कि वे अपराध करने की हिम्मत दिखा सकें और खरीददार उपभोक्ता महिलाओं की तस्वीरें ट्रायल रूम से कैद करके उन्हें साइबर दुनिया के खुले बाज़ार में बेच सकें। कतई यह मुमकिन तो नहीं लगता।।
एक और बात, आप मेट्रोपोलिटन, महानगर और आम शहरों के बीच मॉल में काम कर रही महिला कर्मचारियों को देखें। जहां मेट्रो शहर में हर प्रोडक्ट के केबिन पर अधिकांशतः एक ऐसा युवा चेहरा आपको देखने को मिलेगा जो कारोबारी की नजर में इस बात की पूरी संभावना को पूरा करने के लिए बाध्य है कि बाज़ार में बिकने वाले सौन्दर्य प्रसाधनों के बीच वह भी एक सुंदर उत्पाद की तरह है। आप इन खूबसूरत चेहरों को देखकर आकर्षित और आनंदित हो सकते हैं। इन्हें सामान बेचने के लिए खुद को मोम की गुड़िया बनना पड़ता है। अपनी देह की सुन्दरता को बनाये रखने के लिए हर तरह से तैयार रहना होता है।
दूसरी तरफ आप ट्रायल रूम्स में खड़ी महिला सुरक्षा गार्ड को देखकर अंदाजा लगा सकते हैं कि वे सिर्फ एक निश्चित भूमिका में हैं। इनके ड्रेस कोड और पहनावे के साइज और डिजाइन से आप इन्हें सामान या प्रोडक्ट की सिक्योरिटी गार्ड के बतौर आसानी से पहचान सकते हैं। इनकी उम्र अमूमन 18 से लेकर 30 के बीच होती है। और काम के दौरान असुविधाओं का सामना करना पड़ता है इनके लिए बैठने की सुविधा ड्यूटी के दौरान नहीं दी जाती है। ये महिलायें 12 घंटे तक खड़े रहकर नौकरी करने को मजबूर हैं। इन स्थितियों के बारे में बात करना इसलिए जरूरी है क्योंकि अपराध करने के लिए जिस तरह की स्थितियां, सुविधाएं और माहोल चाहिए। इन स्थितियों से आपको अंदाजा हो जाएगा कि ये महिला कर्मचारी किसी भी अपराध में शामिल होने के लिए कितने सक्षम और उपयुक्त हैं?
यकीनन ऐसे में जो भी अपराध हो रहे हैं उनके पीछे कर्मचारियों से अपराध करवाने वाले, इन्हें इस्तेमाल करने वाले रईस और ताकतवर लोग हैं। असल में औरतों की देह को हर तरह से बेचने वाले सौदागर सुरक्षा घेरों में हैं। और गुनाह को अंजाम देने वाले ये बड़े कारोबारी है। जिनकी शह पाकर या इनके इशारे पर गुलामों की तरह आदेश का पालन करते हुए चंद प्रलोभनों में फंसे कर्मचारी मजबूरी और दबाव के तहत आपराधिक काम में शरीक होते हैं। बावजूद इसके हर तरह के खतरे इनके हिस्से में हमेशा मौजूद हैं। मगर इनके मालिकों के लिए कोई खतरा न तो गुनाह करवाने में है और न ही औरतों की देह को बाज़ार में बेचने पर है। कानून की लचर दफाओं के कारण और व्यवस्था की खामियों की वजह से ये शातिर और प्रभुत्वशाली लोग हर गुनाह से बचकर साफ़ निकल जाते हैं और भविष्य में बड़े से बड़े अपराध की अनेक संभावनाओं से भरे हैं। सरकार ऐसे तमाम गुनहगारों को खुद इसी व्यवस्था में सुरक्षित जगह देती आई है।

मीडिया गाइड लाइन : लैंगिक अल्पसंख्यकों पर 'छिछोरे समाचार' लिखने की मनाही

हमसफर ट्रस्ट के अध्यक्ष अशोक राव कवि के मुताबिक प्रसार माध्यमों में, जो लैंगिक अल्पसंख्यकों का सनसनीखेज, अवैज्ञानिक एवं एकतरफा चित्र प्रस्तुत किया जाता है, उसमें बदलाव जरूरी है। इसी उद्देश्य से अपने सामाजिक अस्तित्व के लिए संघर्षरत एलजीबीटी (समलैंगिक लेस्बियन, गे, बायसेक्सुअल और ट्रांसजेंडर) समुदाय की ओर से संचार मीडिया गाइड (प्रसार माध्यम मार्गदर्शिका) जारी की गई है। इसकी लेखिका अल्पना डांगे हैं और हिंदी में इसका अनुवाद विवेक पाटिल ने किया है। इंडिया एच.आई.वी. / एड्स अलायंस ने इनोवेशन फंड के तहत हमसफर ट्रस्ट के इस प्रकल्प को आर्थिक सहायता प्रदान की है। 
अल्पना डांगे लिखती हैं कि 'प्रसार माध्यम मार्गदर्शिका' भारत में लैंगिक अल्पसंख्यकों की बेहतर रिपोर्टिंग की बेहतर पत्रकारिता के लिए सुझावित भाषा मार्गदर्शिका है। हमसफर ट्रस्ट बोर्ड पिछले कई वर्षों से संचार प्रसार माध्यम मार्गदर्शिका तैयार करने पर विचार-विमर्श करता रहा है। Glaad Media के सेन एडम ने उनके कुछ हिस्सों को अपनाने की अनुमति दी। संचार प्रकल्प के दौरान कार्यशालाओं में शामिल होकर पत्रकारों ने भी इसके विमर्श में मदद की। इस प्रकल्प पर काम करते समय कुछ चुनिंदा गाने महीनों तक बार बार सुने।
प्रस्तावना सहित इसके कुल आठ अध्यायों में से अंतिम आठवें अध्याय 'संचार एवं पत्रकारिता के नीति-मूल्य' में लिखा गया है कि अगर किसी व्यक्ति का साक्षात्कार, राय, छायाचित्र लेने हैं तो पत्रकारों को उस व्यक्ति की सहमति लेनी चाहिए। साथ ही, छापने के बाद उसकी जानकारी उस व्यक्ति को देनी चाहिए। एलजीबीटी (समलैंगिक) समाज के ऐसे किसी व्यक्ति की तो पहचान भी गोपनीय रखनी चाहिए। एलजीबीटी समाज के बारे में 'छिछोरे समाचार' पेश किए जाते हैं। ऐसा नहीं लिखा जाना चाहिए। स्टिंग के बाद तो ऐसे समाचार आचार संहिता के दायरे में आते हैं या नहीं, विवाद का मुद्दा है। समलैंगिक समुदाय के लोग अपनी पहचान सार्वजनिक नहीं चाहते हैं। संकेतों के माध्यम से इनकी आपस में मुलाकातें होती हैं। इसलिए स्टिंग से इनके रोजीरोटी पर खतरा पैदा हो जाता है। वे बेघर किए जा सकते हैं। समाज उन्हें धिक्कार सकता है। इसीलिए इस पुस्‍तक में देशव्यापी इस समुदाय के प्रवक्‍ताओं के संपर्क नंबर जारी किए गए हैं।

'फ्लफी' की मौत पर फूट फूट कर रोए, विधि-विधान से तेरहवीं

कानपुर में एक परिवार ऐसा भी है जिसने अपने पालतू कुत्‍ते की मौत पर तेरहवीं बकायदा विधि-विधान से कराया. कानपुर के हरजेन्दर नगर इलाके के कालीबाड़ी में रहने वाली सुनीता सिंह के मुताबिक, उनके पति राजेंद्र प्रताप सिंह सिविल कांट्रेक्टर थे. साल 1990 में उनका परिवार कारोबार के सिलसिले में रांची से कानपुर आकर बस गया. उस समय उनकी तीनों बेटियां नजदीक के ही स्कूल पढ़ने जाती थी. एक दिन उनकी सबसे छोटी बेटी रितु स्कूल के पास से एक कुत्‍ते को अपने घर ले आई. पहले तो सुनीता ने विरोध किया, लेकिन बेटियों के कहने पर उसे घर पर रखने को मान गई.

लड़कियों ने प्यार से डॉगी का नाम 'फ्लफी' रखा. धीरे-धीरे 'फ्लफी' परिवार का हिस्सा बन गई. उम्र के 15 साल पूरे कर चुकी 'फ्लफी' ने 26 मार्च को दम तोड़ दिया. 'फ्लफी' की मौत से पूरा परिवार उसकी मौत पर गम में डूब गया. सभी लोग फूट-फूट कर रोए. सुनीता के अनुसार उनलोगों ने विधिविधान से 'फ्लफी' का अंतिम संस्कार किया. परिवार ने तय किया था की 'फ्लफी' की तेरहवीं भी विधि-विधान से करेंगे. बुधवार को 'फ्लफी' की तेरहवीं का अनुष्ठान गायत्री परिवार के पुरोहितों ने संपन्‍न कराई.

रेलवे ने खोली भ्रष्टाचार की नई खिड़की / संजीव सिंह ठाकुर

भारत सरकार और भारतीय रेलवे की ओर से नई तकनीक के साथ भ्रष्टाचार रोकने व यात्रियों को सुविधाएं देने का समय समय पर दावा किया जाता है। इसी कड़ी में इंडियन रेलवे केटरिंग एण्ड टयूरिस्म कारपोरेशन (आई.आर.सी.टी.सी) द्वारा गत वर्ष एक ही दिन में 5 लाख 80 हजार टिकटें आरक्षित करने का रिकार्ड कायम किया गया था। हाल ही में यह रिर्काड 11 लाख पर पहुंच चुका है। परन्तु इसी साइट पर टिकट आरक्षित करने पर कई यात्रियों को लूट का भी शिकार होना पड़ता है।
गौरतलब है कि इस साइट पर बुक टिकट किसी कारण वश अगर गाड़ी प्रस्थान से केवल छः घंटे पहले की अवधि में निरस्त होता है तो टिकट सीधे निरस्त करने की बजाय यात्री को इसी साइट पर टी.डी.आर भरना पड़ता है। अर्थात आई.आर.सी.टी.सी यात्री का टिकट निरस्त करने का निवेदन रेलवे को भेजता है। अगर रेलवे यह पुष्टि करता है कि उक्त यात्री ने यात्रा नहीं की, जोकि अंततः टी.टी.ई की रिर्पोट पर आधारित होता  है तो यात्री का पैसा तय कटौती के बाद लौटा दिया जाता है।
मान लें टी.टी.ई किसी अनारक्षित यात्री से दो नम्बर में पैसे लेकर वही आरक्षित सीट दे देता है, जिस पर आरक्षित यात्री नहीं आया और चार्ट में असली यात्री को ही यात्रा करते दिखा देता है तो असली यात्री को आई.आर.सी.टी.सी यह मान कर पैसा लौटाने से मना कर देता है कि रेलवे के मुताबिक उसने यात्रा की है। दूसरे शब्दों में रेलवे के अनुसार वह यात्री झूठा दावा कर रहा है। अर्थात एक तो लुटाई, ऊपर से झूठा होने का इल्जाम। इस घटनाक्रम को मैं दो बार भुगत चुका हूं। 31 जनवरी को मुझे शिमला में कुछ व्यक्तिगत कार्य था। अतः मैने 1 व 2 जनवरी दोनों दिन की 19718 चंडीगढ़-जयपुर एक्सप्रेस में चंडीगढ़ से रिवाड़ी की टिकटें आरक्षित कीं। ताकि अगर 31 को काम पूरा हो गया तो एक को सुबह शिमला से चंडीगढ़ बस में आकर चंडीगढ़ से रिवाड़ी इस गाड़ी से आ सकूंगा। अगर एक को शिमला में ही रूकना पड़े तो एक जनवरी का टिकट निरस्त करवा कर दो जनवरी के इसी गाड़ी में आरक्षित टिकट का लाभ उठा सकूंगा।
एक को मुझे शिमला में ही रूकना पड़ा। अतः मैंने एक जनवरी दोपहर 1.30 वजे शिमला के एक साइबर कैफे से इस टिकट को निरस्त करने के लिए टी.डी.आर फाईल कर दिया। 2 जनवरी को प्रातः 7 वजे शिमला से बस में चलकर 12.45 दोपहर को चलने वाली चंडीगढ़ -जयपुर एक्सप्रेस द्वारा चंडीगढ़ से रिवाड़ी की यात्रा की। परन्तु आई.आर.सी.टी.सी ने कुछ दिन बाद इस तर्क के साथ मेरा पैसा लौटाने से मना कर दिया कि मैंने एक जनवरी को भी यात्रा की है।
सवाल उठता है कि जब मैं एक जनवरी को चंडीगढ़ से गाड़ी चलने के 45 मिनट बाद वहां से 110 कि.मी. दूर शिमला के आई.पी. पते से टिकट निरस्त कर रहा हूं। मेरे मोबाइल की लोकेशन अगले दिन सुबह तक शिमला में ही मिलेगी।  तीसरे मैं फोटो युक्त पहचान पत्र से उसी समय शिमला के होटल/धर्मशाला में रूकता हूं। जिसके सबूत मिल सकते हैं। तो रेल विभाग उसी समय मेरे गाड़ी में यात्रा करने की पुष्टि कैसे करता है, जिस समय मेरे शिमला में होने के सबूत पर सबूत हैं। उल्टा मेरे दावे को झूठा बता कर मेरे पैसे भी नहीं लौटा रहा।
रेलवे के अनुसार मैंने एक और दो जनवरी दोनो दिन चंडीगढ़ से रिवाड़ी यात्रा की। यह कैसे हो सकता है ? और अधिक जानकारी जुटाने पर पता चला कि ऐसे असंख्य यात्री हैं जो इस तरह के भ्रष्टाचार से शिकार हो रहे हैं परन्तु उचित मंच न मिलने, समय की कमी व पचड़े में न पड़ने के कारण इस लूट के खिलाफ आवाज़ नहीं उठ रही है। क्या मोदी सरकार या रेल मंत्री या रेलवे के किसी उच्चाधिकारी से इस गंभीर मसले पर ध्यान देने की उम्मीद की जा सकती है?

पहले मीडिया मिशन था, अब धंधा / रामानंद सिंह रोशन

बिहार के ईमानदार और जुझारू वरिष्ठ पत्रकार रामानंद सिंह रोशन कारपोरेट मीडिया के राज में ग्रामीण पत्रकारों की गुलाम-दशा देखकर हैरत में हैं। मजीठिया मामले पर तो कोई बात करते ही वह विक्षुब्ध होकर मालिकानों पर बरस पड़ते हैं। उन्हें उन पत्रकारों पर भी गुस्सा आता है, जो इतने गंभीर मामले पर खुल कर सामने आने का साहस नहीं जुटा पा रहे हैं। 
रामानंद सिंह एक पत्रकार संगठन के राष्ट्रीय स्तर के पदाधिकारी भी हैं लेकिन उस संगठन से भी परेशान पत्रकारों के हक और हित के लिए कोई बड़ा आंदोलन खड़ा होने की कोई उम्मीद नहीं करते हैं। इन दिनो खासकर प्रिंट मीडिया गांव-देहात के पत्रकारों का कितनी तरह से शोषण कर रहा है, उसे देखते-जानते हुए उनके लिए कुछ न कर पाने से वह अत्यंत व्यथित हैं। कहते हैं, क्या करें, कोई इन पत्रकारों के दुख-दर्द को सुनना ही नहीं चाहता है। मुझे 25 वर्ष हो गए पत्रकारिता में। सन् 1990 तक लगता था कि मीडिया का मतलब समाज और देश के प्रति सेवा और सम्मान। अब लगता है मीडिया का मतलब अपमान। अब मीडिया धंधा है। उद्योगपतियों के अखबार खबरें भी कम, विज्ञापन ज्यादा बेचने लगे हैं। नीचता की हद है। हर पर्व-त्योहार पर सौ सौ रुपए के विज्ञापन में कुछ भी बेच देते हैं। बिहार में 'हिन्दुस्तान', 'जागरण', 'प्रभात खबर' आदि अखबार पत्रकारों नियुक्ति सिर्फ सरकुलेशन और विज्ञापन देने की शर्त पर करते हैं। अस्सी प्रतिशत पत्रकारों को ब्लैकमेलिंग के लिए लगाया जा रहा है। समाचार लिखने की योग्यता जरूरी नहीं। इसीलिए अब शोभना भरतिया, सुनील गुप्त, और उषा मारटिन ही पत्रकार के रूप में जाने जाते हैं। आज सत्ता और विपक्ष से लेकर प्रैसकौंसिल तक तमाशबीन बने हुए हैं। निर्धारित मानकों पर अब प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक दोनो तरह के मीडिया के रजिस्ट्रेशन की विधिवत निष्पक्ष जांच होनी चाहिए। संवाददाताओं की नियुक्ति का मापदंड होना चाहिए।
वह लिखते हैं कि गांव (प्रखण्ड) से जिला स्तर पर अखबार कार्यालय तक सिर्फ दो से तीन मीडिया कर्मियों को छोड़ बाकी सभी पत्रकारों को सिर्फ प्रकाशित प्रति समाचार के हिसाब से मात्र 12 रुपए और प्रकाशित प्रति फोटो के हिसाब से सिर्फ 60 रुपए दिए जा रहे हैं। इसके लिए उन्हें बारह-बारह घंटे एक मजदूर से भी गई-गुजरी हालत में भागदौड़ करनी पड़ती है।
रामानंद सिंह लिखते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों के वे संघर्षशील पत्रकार धन-मीडिया हाउसों के लिए सिर्फ खबरें और फोटो ही मुहैया नहीं कराते, बल्कि उन पर सरकुलेशन की गलाकाटू मुठभेड़ का जिम्मा निभाना पड़ता है। एक-एक अखबार बढ़ाने के लिए अपनी रोजी-रोटी की दुहाई देकर उन्हें एक-एक पाठक की तलाश के साथ उनके आगे रिरियाते हुए आरजू-मिन्नत करनी पड़ती है। किसी भी कारण से (भले किसी पुराने पाठक की मौत ही क्यों न हो जाए ), एक भी प्रति कम हो जाने पर अखबार के मुख्यालयों में बैठे सफेदपोश ऐसे दाना-पानी लेकर दौड़ा लेते हैं, जैसे उस पत्रकार ने पता नहीं कितना बड़ा अपराध कर दिया हो। ये हालत किसी एक अखबार के पत्रकार की नहीं, बल्कि ज्यादातर बड़े अखबार इसी तरह गांव-देहात के पत्रकारों का खून पीकर मुस्टंड हुए जा रहे हैं।
रामानंद सिंह का कहना है कि गांव-देहात के पत्रकारों को समाचार, फोटो और सर्कुलेशन की जिम्मेदारी नहीं उठानी पड़ती है, बल्कि बारहो महीने, प्रतिदिन विज्ञापन के लिए उन्हीं लोगों के आगे हाथ पसारना पड़ता है, जिनकी घटिया करतूतें क्षेत्र में चर्चा का विषय बनी हुई होती हैं। इस तरह सीधे तौर पर अखबार अपराध-वृत्ति को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभा रहे हैं। पुलिस, माफिया, अपराधियों से तालमेल बनाए हुए ऐसे लोगों से विज्ञापन के लिए पत्रकारों को अनुनय-विनय और याचना करनी पड़ती है, जिनकी हरकतों से क्षेत्र का एक-एक आदमी आजिज आ चुका होता है। विज्ञापन मिलते ही अखबार उनका घुमा-फिराकर महिमा मंडन करने लगते हैं। ऐसा भी देखने को मिलता है कि वे माफिया और समाजविरोधी तत्व गाहे-ब-गाहे कुछ लंपट किस्म के पत्रकारों का सम्मान कर खुलेआम लोगों की नजर में और ऊंचा उठने की कोशिशें करते रहते हैं। विज्ञापन देने वालों के बारे में यदि रिपोर्टर उनकी करतूतों पर पर्दा डालने के लिए सुंदर-सुंदर शब्दों में कोई खबर न लिखे तो रिपोर्टर को वे ऐसी ऐसी गालियों से नवाजते हैं कि सुनने वाले का सिर शर्म से गड़ जाए।
साफ साफ कहा जाए तो  अखबार का सर्कुलेशन बढ़ाने और माफिया तत्वों से विज्ञापन की उगाही करने के लिए गांव-देहात के रिपोर्टरों को 'कुत्ता' बन जाना पड़ता है। छुटभैये नेता, पुलिस वाले, धूर्त किस्म के कथित समाजसेवी उनका जीना दुश्वार किए रहते हैं। और तो और इन्हीं पत्रकारों के भरोसे अखबार के मैनेजर, संपादक अपने मालिकों से मोटे-मोटे पैकेज गांठते रहते हैं और जब वही पत्रकार उनसे मिलने के लिए उनके पास जाते हैं तो जैसे उन्हें बदबू मारते आदमी जैसा उनसे सुलूक किया जाता है। संपादक और मैनेजर तो दूर की बात, दोयम दर्जे के मीडिया कर्मी और मार्केटिंग वाले कर्मचारी भी उन्हें अपनी केबिन में घुसने से मना कर देते हैं।