Monday 1 July 2013

बांग्ला साहित्य जगत



कांचनमाला
पुरातन बांग्ला की उपलब्ध रचनाओं में हरप्रसाद शास्त्री के 47 चर्यापद विशेष महत्व रखते हैं। ये प्राय: आठ पंक्तियों के रहस्यमय गीत हैं जिनका संबंध महायान बौद्धधर्म तथा नाथपंथ, दोनों से संबद्ध गुप्त संप्रदाय से है। हरप्रसाद शास्त्री उपन्यासकार और अच्छे निबंधलेखक भी थे। उनके दो उपन्यास हैं- "बेणेर मेये" तथा "कांचनमाला"। भारतीय साहित्य, धर्म तथा सभ्यता के संबंध में उनके लेख विशेष महत्वपूर्ण हैं। उनका लिखा "वाल्मीकिर जय" नामक गद्यकाव्य बड़ी सुन्दर और प्रभावोत्पादक बँगला में लिखा गया है।

गीतगोविंद
'गीतगोविंद' के रचयिता जयदेव बंगाल के हिंदू राजा लक्ष्मण सेन (लगभग 1180 ई.) के शासनकाल में विद्यमान थे। राधा और कृष्ण के प्रेम का वर्णन करनेवाले इस सुंदर काव्य में 24 गीत हैं जो अतुकांत न होकर, सबके सब तुकांत हैं। संस्कृत में प्राय: तुकांत नहीं मिलता। यह तो अपभ्रंश या नवोदित भारतीय-आर्य भाषाओं की विशेषता है। कुछ विद्वानों का मत है कि इन पदों की रचना मूलत: पुरानी बांग्ला में या अपभ्रंश में की गई थी और फिर उनमें थोड़ा परिवर्तन कर संस्कृत के अनुरूप बना दिया गया। इस तरह जयदेव पुरातन बंगाल के प्रसिद्ध कवि माने जा सकते हैं जिन्होंने संस्कृत के अतिरिक्त संभवत: पुरानी बांग्ला में भी रचना की। बंगाल के कितने ही कवियों को उनसे प्रेरणा मिली।

कीर्तिलता
मिथिला (बिहार) के प्रसिद्ध कवि विद्यापति ने प्रसिद्ध ऐतिहासिक काव्य 'कीर्तिलता' की रचना की थी। उन्होंने इसकी रचना अपनी मातृभाषा मैथिली में न कर अपभ्रंश में की थी। यद्यपि बीच-बीच में इसमें मैथिल शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। 15वीं शती तथा विशेष रूप से 16वीं शती से ही बड़े प्रबंध काव्यों एवं वर्णनात्मक रचनाओं का निर्माण प्रारंभ हुआ, उदाहरणार्य आदर्श नारी बिहुला और उसके पति लखीधर की कथा, कालकेतु और फुल्लरा का कथानक, इत्यादि।

बांग्ला रामायण
बांग्ला के प्रथम महाकवि कृत्तिवास ओझा बताए जाते हैं। संस्कृत रामायण को बांग्ला में प्रस्तुत करनेवाले वे पहले लोकप्रिय कवि थे जिन्होंने राम का चित्रण वाल्मीकि की तरह शुद्ध मानव और वीर पुरुष के रूप में न कर भगवान् के करुणामय अवतार के रूप में किया जिसकी ओर सीधी सादी भक्तिमय जनता का हृदय सहज भाव से आकर्षित हो सकता था। इसी तरह कृष्णागाथा का वर्णन उसी शताब्दी में (1475 ई.) मालाधर बसु ने किया। यह भागवत पुराण पर आधारित है।

बिहुला की कथा
बिहुला की कथा, जो विवाह की प्रथम रात्रि में ही मनसा देवी द्वारा प्रेषित सर्प के द्वारा पति के डसे जाने पर विधवा हो गई थी और जिसने बड़ी बड़ी कठिनाइयाँ झेलकर देवताओं को तथा मनसा देवी को भी प्रसन्न कर पति को पुन: जीवित करा लेने में सफलता प्राप्त की थी, पतिव्रता नारी के प्रेम और साहस की वह अपूर्व परिकल्पना है जिसका आविर्भाव कभी किसी भारतीय मस्तिष्क में हुआ हो। यह कथा शायद मुसलमानों के आगमन के पहले से ही प्रचलित थी किंतु उसपर आधारित प्रथम कथाकाव्य बँगला में 15वीं शती में रचे गए। इनमें से एक के रचयिता विजयगुप्त और दूसरी के विप्रदास पिपलाई माने जाते हैं। कालांतर में बिहुला की कथा पर 18वीं शती में भी प्रबंध काव्य वंशीदास, केतकादासतथा क्षेमानंद इत्यादि द्वारा-रचे गए।

पांडवविजय
15वीं शताब्दी में बंगाल पर तुर्क तथा पठान सुलतानों का शासन था पर उनमें यथेष्ट बंगालीपन आ गया था और वे बँगला साहित्य के समर्थक बन गए थे। ऐसा एक शासक हुसेनशाह था (1493-1519)। उसने चटगाँव के अपने सूबेदारों और पुत्र नासिरुद्दीन नसरत के द्वारा महाभारत का अनुवाद बँगला में करवाया। यह रचना "पांडवविजय" के नाम से कवींद्र द्वारा प्रस्तुत की गई थी।

पदकल्पतरु
वैष्णव गीतकारों तथा जीवनी लेखकों की परंपरा 17वीं शती में चलती रही। जीवनीलेखकों में ईशान नागर (1564) और नित्यानंद (1600 ई.) के बाद यदुनंदनदास (कर्णानंद के लेखक, 1607), राजवल्लभ (कृति मुरलीविलास), मनोहरदास (1652, कृति "अनुरागवल्ली") तथा घनश्याम चक्रवर्ती (कृति, भक्तिरत्नाकर तथा नरोत्तमविलास) का नाम लिया जा सकता है। गीतलेखकों की संख्या 200 से अधिक है। वैष्णव विद्वानों तथा कवियों ने इनके कई संग्रह तैयार किए थे जिनमें से वैष्णवदास (1770 ई.) का "पदकल्पतरु" विशेष प्रसिद्ध है। इसमें 170 कवियों द्वारा रचित 3101 पद आए हैं। रूपराम कृत धर्ममंगल विशेष प्रसिद्ध है जिसमें लाऊसैन के साहसिक कार्यों का वर्णन है। इस कथा के ढंग पर मानिक गांगुलि तथा घनराम चक्रवर्ती ने भी रचनाएँ प्रस्तुत कीं। एक और कथानक जिसके आधार पर 17वीं, 18वीं शती में रचनाएँ प्रस्तुत की गईं, राजा गोपीचंद का है। वे राजा मानिकचंद्र के पुत्र थे। जब वे गद्दी पर बैठे तो उनकी माता मयनामती को पता चला कि उनके पुत्र को राजपाट तथा स्त्री का परित्याग कर योगी बन जाना चाहिए, नहीं तो उनकी अकालमृत्यु की संभावना है। अत: माता के आदेश से उन्हें ऐसा ही करना पड़ा। भवानीदासकृत "मयनामतिर गान" तथा दुर्लभ मलिक की रचना "गोविंदचंद्र गीत" इसी कथानक पर आधारित हैं।

सती मैना
सिलहट के मुसलमान कवि बहुत दिनों तक सिलेट नागरी" लिपि में बँगला लिखते रहे। उस समय के कुछ मुसलमान कवि ये हैं-दौलत काज़ी, जिसने "लोरचंदा" या "सती मैना" शीर्षक प्रेमकाव्य लिखा, कुरेशी मागन ठाकुर जिसने "चंद्रावती" की रचना की, मुहम्मद खाँ, जिसकी दो रचनाएँ मौतुलहुसेन तथा केयामतनामा प्रसिद्ध हैं; तथा अब्दुल नबी जिसने बड़ी सुंदर शैली में "आमीर हामज़ा" का प्रणयन किया। इनके सिवा 17वीं शती के एक और प्रसिद्ध मुसलिम कवि आला ओल हैं जिनकी कृति "पद्मावती" लोकप्रिय रही। यह हिंदी कवि मलिक मुहम्मद जायसी की इसी नाम की रचना का रूपांतर है।

अन्नदामंगल
18वीं शती के कुछ प्रसिद्ध कवि ये हैं - रामप्रसाद सेन (मृत्यु 1775) जिनके दुर्गा संबंधी गीत आज भी लोकप्रिय हैं; भारतचंद्र, जिनका "अन्नदामंगल" (या कालिकामंगल) काव्य बँगला की एक परिष्कृत रचना है; राजा जयनारायण, जिन्होंने पद्मपुराण के काशीखंड का बँगला में अनुवाद किया और उस समय के बनारस का बहुत ही मनोरंजक विवरण उसमें समाविष्ट कर दिया। इस काल में हलके फुलके गीतों तथा समस्यापूर्ति के रूप में लिखे गए सद्य:प्रस्तुत पद्यों का काफी जोर रहा। कुछ मुसलमान कवियों ने मुहर्रम तथा कर्बला के संबंध में रचनाएँ प्रस्तुत कीं। लैला मजनू पर दौलत वज़ीर बहराम ने लिखा और मुहम्मद साहब के जीवन पर भी ग्रंथ प्रस्तुत किए गए।

समाचार दर्पण
19वीं सदी में अंग्रेजी भाषा के प्रसार और संस्कृत के नवीन अध्ययन से बँगला के लेखकों में नए जागरण और उत्साह की लहर सी दौड़ गई। एक ओर जहाँ कंपनी सरकार के अधिकारी बँगला सीखने के इच्छुक अंग्रेज कर्मचारियों के लिए बँगला की पाठ्यपुस्तकें तैयार करा रहे थे और बेपतिस्त मिशन के पादरी कृत्तिवासीय रामायण का प्रकाशन तथा बाइबिल आदि का बँगला अनुवाद प्रस्तुत कराने का प्रयत्न कर रहे थे, वहाँ दूसरी ओर बंगाली लेखक भी गद्य-ग्रंथलेखन की ओर ध्यान देने लगे थे। रामराम बसु ने राजा प्रतापादित्य की जीवनी लिखी और मृत्युजंय विद्यालंकार ने बँगला में "पुरुष परीक्षा" लिखी। 1818 में "समाचारदर्पण" नामक साप्ताहिक के प्रकाशन से बँगला पत्रकारिता की भी नींव पड़ी।

शब्द कल्पद्रुम
राजा राममोहन राय ने भारतीयों के "आधुनिक" बनने पर बल दिया। उन्होंने ब्रह्मसमाज की स्थापना की। उन्होंने कतिपय उपनिषदों का बँगला अनुवाद तैयार किया। अंग्रेजी में बँगला व्याकरण (1826) लिखा और अपने धार्मिक तथा सामाजिक विचारों के प्रचारार्थ बँगला और अंग्रेजी, दोनों में छोटी छोटी पुस्तिकाएँ लिखीं। इसी समय राजा राधाकांत देव ने "शब्दकल्पद्रुम" नामक संस्कृत कोष तैयार किया और भवानीचरण बनर्जी ने कलकतिया समाज पर व्यंग्यात्मक रचनाएँ प्रस्तुत कीं।

स्वर्णलता
ईश्वरचंद्र विद्यासागर ने अंग्रेजी तथा संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद बँगला में किया और गद्य की सुंदर, सरल शैली का विकास किया। प्यारीचंद मित्र ने "आलालेर घरेर दुलाल" नामक सामाजिक उपन्यास लिखा। अक्षयकुमार दत्त ने विविध विषयों पर कई निबंध लिखे। अन्य गद्यलेखक थे - राजनारायण बसु, ताराशंकर तर्करत्न जिन्होंने "कादंबरी" का संक्षिप्त रूपांतर बँगला में प्रस्तुत किया तथा तारकनाथ गांगुलि ने प्रथम यथार्थवादी सामाजिक उपन्यास "स्वर्णलता" प्रकाशित किया।

आनंदमठ
बंकिमचंद्र चट्टोपध्याय रवींद्रनाथ ठाकुर के आगमन के पूर्व बँगला के सर्वश्रेष्ठ लेखक माने जाते हैं। उनका साहित्यिक जीवन अंग्रेजी में लिखित "राजमोहन की स्त्री" नामक उपन्यास (1864) से आरंभ होता है। बँगला में पहला उपन्यास उन्होंने दुगेंशनंदिनी (1865) के नाम से लिखा। इसके बाद उन्होंने एक दर्जन से अधिक सामाजिक तथा ऐतिहासिक उपन्यास लिखे। इनके कारण बँगला साहित्य में उन्हें स्थायी स्थान प्राप्त हो गया और आधुनिक भारत के विचारशील लेखकों तथा चिंतकों में उनकी गणना होने लगी। 1872 में उन्होंने "बंगदर्शन" नामक साहित्यिक पत्र निकाला जिसने बँगला साहित्य को नया मोड़ दिया। उनके ऐतिहासिक उपन्यासों में राजसिंह, सीताराम, तथा चंद्रशेखर मुख्य हैं। सामाजिक उपन्यासों में "विषवृक्ष" तथा "कृष्णकांतेर विल का स्थान ऊँचा है। उनका "कपालकुंडला" शुद्ध प्रेम और कल्पना का उत्कृष्ट नमूना माना जा सकता है। "आनंदमठ" प्रसिद्ध राजनीतिक उपन्यास है जिसका "वंदेमातरम्" गीत चिरकाल तक भारत का राष्ट्रीयगान माना जाता रहा और आज भी इस रूप में इसका समादर है।

पद्मिनी
एक और प्रसिद्ध व्यक्ति जिसे भारत के पुनर्जागरण में मुख्य स्थान प्राप्त हैं, स्वामी विवेकानंद हैं। भारत की गरीब जनता की सेवा ही उनका लक्ष्य था। उन्होंने अमरीका और यूरोप जाकर अपने प्रभावकारी भाषणों द्वारा हिंदू धर्म का ऐसा विशद विवेचन उपस्थित किया कि उसे पश्चिमी देशों में अच्छी प्रतिष्ठा प्राप्त हो गई। बँगला तथा अंग्रेजी, दोनों के वे प्रभावशील लेखक थे। रंगलाल बंद्योपाध्याय ने राजपूतों की वीरगाथाओं के आधार पर "पद्मिनी", कर्मदेवी तथा सूरसुंदरी  की रचना की। कालिदास के "कुमारसंभव" का बँगला अनुवाद भी उन्होंने प्रस्तुत किया।

यात्रा
बँगला नाटकों का उदय 1870 के आसपास माना जा सकता हैं, यद्यपि इसके पहले भी इस दिशा में कुछ प्रयास किया जा चुका था। बंगाल में पहले एक तरह के धार्मिक नाटक प्रचलित थे जिन्हें यात्रा नाटक कहते थे। इनमें दृश्य और परदे नहीं होते थे, गायन और वाद्य की प्रधानता होती थी। एक रूसी नागरिक जेरासिम लेबेडेव ने 1795 में कलकत्ता आकर बँगला की प्रथम नाट्यशाला स्थापित की, जो चली नहीं। संस्कृत नाटकों के सिवा अंग्रेजी नाटकों तथा कलकत्ते में स्थापित अंग्रेजी रंगमंच से बँगला लेखकों को प्रेरणा मिली। दीनबंधु मित्र ने कई सुखांत नाटक लिखे। उनके एक नाटक नीलदर्पण में निलहे गोरों के उत्पीड़न का मार्मिक चित्रण हुआ था जिससे इस प्रथा की बुराइयाँ दूर करने में सहायता मिली।

हुतोम पेंचार नक्शा
राजा राजेंद्रलाल मित्र इतिहासलेखक और प्रथम बंगाली पुरातत्वज्ञ थे। भूदेव मुखोपाध्याय शिक्षाशास्त्री, गद्यलेखक और पत्रकार थे। समाज और संस्कृति के संरक्षण तथा पुनरुद्धार संबंधी उनके लेखों का आज भी यथेष्ट महत्व है। कालीप्रसन्न सिंह कट्टर हिंदू समाज के एक और प्रगतिशील लेखक थे। उन्होंने महाभारत का बँगला गद्य में तथा संस्कृत के दो नाटकों का भी अनुवाद किया। उन्होंने कलकत्ते की बोलचाल की बँगला में "हुतोम पेंचार नक्शा" नामक रचना प्रस्तुत की जिसमें उस समय के कलकतिया समाज का अच्छा चित्रण किया गया था। बँगला के प्रतिष्ठित साहित्य में इसकी गणना है। हेमचंद बंदोपाध्याय ने शेक्सयिर के दो नाटकों 'रोमियों और जूलियट' तथा 'टेंपेस्ट' का बँगला में अनुवाद किया। मेघनादवध से प्रोत्साहित होकर उन्होंने "वृत्तसंहार" नामक महाकाव्य की रचना की। नवीनचंद्र सेन ने कुरुक्षेत्र, रैवतक तथा प्रभास नाटक बनाए तथा बुद्ध, ईसा और चैतन्य के जीवन पर अमिताभ, ख्रीष्ट तथा अमृताभ नामक लंबी कविताएँ लिखीं। पलासीर युद्ध तथा रंगमती और भानुमती के भी लेखक वही थे। पाँच खंडों में अपनी जीवनी ""आमार जीवन"" भी उन्होंने लिखी।

स्वप्नप्रयाण
रवींद्रानाथ ठाकुर के सबसे बड़े भाई द्विजेंद्रनाथ ठाकुर कवि, संगीतज्ञ तथा दर्शनशास्त्री थे। उनकी प्रसिद्ध रचना "स्वप्नप्रयाण" है। रवींद्रनाथ के एक और बड़े भाई ज्योतींद्रनाथ ठाकुर थे। उनके लिखे चार नाटक बड़े लोकप्रिय थे - पुरुविक्रम, सरोजिनी, आशुमती तथा स्वप्नमयी। उन्होंने फ्रेंच भाषा, अंग्रेजी तथा मराठी से भी कई ग्रंथों का अनुवाद किया।

माधवी कंकण
रमेशचंद्र दत्त ने ऋग्वेद का बँगला अनुवाद किया। भारतीय अर्थशास्त्र के भी वे लेखक थे और उन्होंने कई उपन्यास भी लिखे- राजपूत जीवनसंध्या, महाराष्ट्र जीवनसंध्या; माधवी कंकण; संसार तथा समाज। इनके समसामयिक गिरीशचंद्र घोष बँगला के महान् नाटककार थे। उन्होंने 90 नाटक, प्रहसन आदि लिखे, जिनमें से कुछ ये हैं - बिल्वमंगल, प्रफुल्ल, पांडव गौरव, बुद्धदेवचरित, चैतन्य लीला, सिराजुद्दौला, अशोक, हारानिधि, शंकराचार्य, शास्ति की शांति। शेक्सपियर के मेकबेथ नाटक का बँगला अनुवाद भी उन्होंने किया। अमृतलाल बसु भी गिरीशचंद्र घोष की तरह अभिनेता नाटककार थे। हास्य रस से पूर्ण उनके नाटक तथा प्रहसन बँगला भाषियों में काफी लोकप्रिय हैं। वे बंगाल के मोलिए कहलाते थे, जिस तरह गिरीशचंद्र बंगाली शेक्सपियर माने जाते थे।

देवदास
आधुनिक बँगला के सर्वप्रसिद्ध उपन्यासकार शरच्चंद्र चटर्जी (1876-1938) माने जाते हैं। सरल और सुंदर भाषा में लिखे गए इनके कुछ उपन्यास ये हैं - श्रीकांत, गृहदाह, पल्ली समाज, देना पावना, देवदास, चंद्रनाथ, चरित्रहीन, शेष प्रश्न आदि।

विषाद सिंधु
उपन्यासलेखकों में मशरफ हुसेन का नाम लिया जा सकता है जिनके जंगनामा की तर्ज पर लिखित "विषाद सिंधु" के दर्जनों संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। उपन्यासकार काज़ी अब्दुल वदूद ने रवींद्र साहित्य पर विवेचनात्मक पुस्तक लिखने के बाद गेटे पर भी एक ग्रंथ दो खंडों में प्रकाशित किया। केंद्रीय सरकार के पूर्वकालीन वैज्ञानिक अनुसंधान मंत्री हुमायूँ कबीर बँगला के प्रतिभावान् कवि तथा अच्छे गद्यलेखक हैं। कुछ अन्य मुसलिम लेखकों के नाम ये हैं - गुलाम मुस्तफा, अब्दुल कादिर, बंदे अली, फारुख अहमद, एहसान हवीब आदि; डा. मुहम्मद शहीदुल्ला, अवू सैयिद अयूव, मुताहर हुसेन चौधरी, शमसुन नहर आदि।
रवींद्रनाथ ठाकुर के विचारों और शैली ने बँगला साहित्य को नया मोड़ दिया। उनके निबंध स्वस्थ चिंतन एव सुस्पष्ट विवेचन के लिए प्रसिद्ध हैं। उनके उपन्यास तथा लघुकथाएँ तथ्यात्मक, नाटकीयता पूर्ण एवं अंर्तदृष्टि प्रेरक हैं। वे अंतरराष्ट्रीयता एवं मानव एकता के बराबर समर्थक रहे हैं। उन्होंने अथक रूप से इस बात का प्रयत्न किया कि भारत अपनी गौरवपूर्ण प्राचीन बातों की रक्षा करते हुए भी विश्व के अन्य देशों से एकता स्थापित करने के लिए तत्पर रहे। रवींद्रनाथ के समसामयिक लेखकों में गोर्विदचंद्र दास, देवेंद्रनाथ सेन, अक्षयकुमार बड़ाल, कामिनी राय, सुवर्णकुमारी, अक्षयकुमार मैत्रेय, रामेद्रसुंदर त्रिवेदी, प्रभातकुमार मुखर्जी, द्विजेंद्रलाल राय, क्षीरोदचंद्र विद्याविनोद, राखालदास वंद्योपाध्याय, रामानंद चटर्जी, जलधर सेन, निरुपमा देवी, अनुरूपा देवी के नाम उल्लेखनीय हैं। इसी तरह अवनींद्रनाथ ठाकुर ने कितनी ही पुस्तकें बालकों की दृष्टि से लिखीं और उनकी चित्रसज्जा स्वयं प्रस्तुत की। ये पुस्तकें कल्पनात्मक साहित्य के अन्य प्रेमियों के लिए भी अत्यंत रोचक हैं। उन्होंने कुछ छोटे-छोटे नाटक भी लिखे और कला पर कुछ गंभीर निबंध भी प्रकाशित किए। इसी तरह योगी अरविंद घोष का भी नाम यहाँ लिया जाना चाहिए जिनकी महत्वपूर्ण रचनाओं से बँगला साहित्य की श्रीवृद्धि में सहायता मिली। चालीस के दशक में बामपंन्थी कवियों का बोलबला रहा जिसमें प्रधान थे बीरेन्द्रनाथ चट्टोपध्याय, सुभाष मुखोपाध्याय, कृष्ण धर प्रमुख। पचास के दशक से पत्रिका-केन्द्रित कवियों का आबिर्भाव हुया, जैसे कि शतभिषा, कृत्तिबास इत्यादि। शतभिषा के आलोक सरकार्, अलोक्रंजन दाशगुप्ता प्रमुखों ने नाम कमाये, जबकि कृत्तिबास के सुनील गंगोपाध्याय, शरतकुमार मुखोपाध्याय, तारापदो राय, समरेन्द्र सेनगुप्ता नाम किये। (विकिपीडिया से साभार)

मराठी साहित्य


मराठी भाषा में लिखी कृतियों का भंडार उपलब्ध है। बांग्ला के साथ मराठी भारतीय-आर्य साहित्य में सबसे पुराना क्षेत्रीय साहित्य है, जिसका कालांकन क़्ररीब 1000 ई. से होता है। 13वीं सदी में दो ब्राह्मण संप्रदाय शुरू हुए, महानुभाव एवं वाराकरी पंथ, दोनों में व्यापक मात्रा में साहित्य लिखा गया। बाद के पंथ में शायद ज़्यादा साहित्य लिखा गया। भक्ति आंदोलन, जिसने 14वीं सदी के शुरू में महाराष्ट्र को अनुप्राणित किया और विशेष रूप से पंढरपुर में विठोबा संप्रदाय के साथ जुड़ने के कारण इसी परंपरा से प्रारंभिक मराठी साहित्य के महान नाम सामने आए। 13वीं सदी में ज्ञानेश्वर, उनके युवा समकालीन नामदेव, जिनके भक्ति गीतों में से कुछ सिक्खों की पवित्र पुस्तक आदि ग्रंथ में शामिल है और 16वीं सदी के लेखक एकनाथ, जिनका सबसे प्रसिद्ध कार्य 'भागवत-पुराण' की 11वीं पुस्तक का मराठी पाठांतर है। महाराष्ट्र के भक्त कवियों में सबसे प्रसिद्ध तुकाराम हैं। जिन्होंने 16वीं सदी में लेखन किया। मराठी का अनूठा योगदान पोवाडा परंपरा है, जो एक योद्धा जाति में लोकप्रिय वीर गाथाएं है। इनमे से प्रथम का कालांकन संभव नहीं है, लेकिन महाराष्ट्र के महान शिवाजी, योद्धा नायक (ज.-1630), जिन्होंने मुग़ल शासक औरंगज़ेब की सत्ता के ख़िलाफ़ अपनी सेना का नेतृत्व किया था, के समय में यह साहित्यिक परंपरा विशेष रूप से बहुत मह्त्त्वपूर्ण थी।
    मराठी कविता में आधुनिक काल 'केशव सुत' से शुरू हुआ और 19वीं सदी के ब्रिटिश स्वच्छंदतावाद एवं उदारवाद, यूरोपीय राष्ट्रवाद तथा महाराष्ट्र के महान इतिहास से प्रभावित रहा। केशवसुत ने परंपरागत मराठी कविता के ख़िलाफ़ बग़ावत घोषित की और एक मत (1920 में समाप्त) शुरू किया, जिसने घर एवं प्रकृति, गौरवपूर्ण अतीत और शुद्ध गीतिमयता पर ज़ोर दिया। इसके बाद के काल में ‘रविकिरण मंडल’ के नाम से जाने गए कवियों के एक समूह का बोलबाला रहा, जिन्होंने घोषित किया कि कविता पंडितों एवं संवेदनशीलों के लिए नहीं है, बल्कि दैनिक जीवन का एक अंग है। 1945 के बाद से समकालीन कविता मनुष्य और उसके जीवन को उसकी सभी विविधताओं में खोजती है। यह आत्मपरक एवं व्यक्तिगत है और बोलचाल की भाषा में लिखने की कोशिश करती है। आधुनिक नाटककारों में 'एस.के. कोल्हटकर' एवं 'आर.जी. गडकरी' उल्लेखनीय हैं, 'मामा वरेरकर' यथार्थवाद को पहली बार 20वीं सदी में रंगमंच पर लाए और उन्होंने अपने नाटकों में कई सामाजिक समस्याओं की व्याख्या करने की कोशिश की। हरि नारायण आप्टे की 'मधली स्थिति' (1855; मध्य स्थिति) से मराठी में उपन्यास परंपरा शुरू हुई, जिसमें सामाजिक सुधार का संदेश था। उपन्यास साहित्य में 'वी.एम. जोशी' का काफ़ी ऊंचा स्थान है, जिन्होंने एक महिला की शिक्षा एवं विकास ('सुशीलाचादिवा', 1930) और कला एवं नैतिकता के बीच संबंध (इंदु काले व सरला भोले, 1930) खोजने का प्रयास किया। 1925 के बाद महत्त्वपूर्ण हैं- 'एन.एस फाडके', जिन्होंने ‘कला के लिए कला’ की वकालत की और 'वी.एस. खांडेकर', जिन्होंने इस सिद्धांत का प्रत्युत्तर आदर्शवादी ‘जीवन के लिए कला’ से दिया। उल्लेखनीय समकालीन उपन्यासकार एस.एन. पेंड्से, वी.वी. शिरवाडकर, जी.एन. दांडेकर और रणजीत देसाई हैं।

अँधेरे बंद कमरे -मोहन राकेश


अँधेरे बंद कमरे प्रसिद्ध साहित्यकार, उपन्यासकार और नाटककार मोहन राकेश द्वारा रचित उपन्यास है। इसका प्रकाशन 1 जनवरी, 2003 को 'राजकमल प्रकाशन' द्वारा हुआ था। वर्तमान भारतीय समाज का अभिजातवर्गीय नागर मन दो हिस्सों में विभाजित है- एक में है पश्चिमी आधुनिकतावाद और दूसरे में वंशानुगत संस्कारवाद। इससे इस वर्ग के भीतर जो द्वंद्व पैदा होता है, उससे पूर्वता के बीच रिक्तता, स्वच्छंदता के बीच अवरोध और प्रकाश के बीच अंधकार आ खड़ा होता है। परिणामत: व्यक्ति ऊबने लगता है, भीतर-ही-भीतर क्रोध, ईर्ष्या और संदेह उसे जकड़ लेते हैं, जैसे वह अपने ही लिए अजनबी हो। वह उठता है, और तब इसे हम हरबंस की शक्ल में पहचानते हैं। हरबंस इस उपन्यास का केन्द्रीय पात्र है, जो दाम्पत्य संबंधों की तलाश में भटक रहा है। हरबंस और नीलिमा के माध्यम से पारस्परिक ईमानदारी, भावनात्मक लगाव और मानसिक समदृष्टि से रिक्त दांपत्य जीवन का इस उपन्यास में प्रभावशाली चित्रण हुआ है। अपनी पहचान के लिए पहचानहीन होते जा रहे भारतीय अभिजातवर्ग की भौतिक, बौद्धिक और सांस्कृतिक महत्त्वाकांक्षाओं के अँधेरे बंद कमरों को खोलने वाला यह उपन्यास हिन्दी की गिनी-चुनी कथाकृतियों में से एक है।

1857 क्रांति कथा - राही मासूम रज़ा


उर्दू में एक महाकाव्य '1857' जो बाद में हिन्दी में 'क्रांति कथा' नाम से प्रकाशित हुआ। जब खुद को उर्दू का कर्ता-धर्ता मानने वाले कुछ लोगों से इस बात पर बहस हो गई कि यह हिन्दुस्तानी ज़बान सिर्फ फारसी रस्मुलखत में ही लिखी जा सकती है तो राही ने देवनागरी लिपि में लिखना शुरू किया और अंतिम समय तक वे इसी लिपि में ही लिखते रहे। क्रान्ति-कथा उर्फ 1957 में जब प्रथम स्वाधीनता संग्राम का शताब्दी समारोह मनाया गया उस अवसर पर राही मासूम रज़ा का महाकाव्य ‘अठारह सौ सत्तावन’ प्रकाशित हुआ था। उस समय इतिहासकारों में 1857 के चरित्र को लेकर बहुत विवाद था। बहुत से इतिहासकार उसे सामन्ती व्यवस्था की पुनःस्थापना का आन्दोलन मान रहे थे। उनमें कुछ तो इस सीमा तक बात कर रहे थे कि भारतीय सामन्त अपने खोये हुए राज्यों को प्राप्त करने की लड़ाई लड़ रहे थे। उन्होंने भारतीय सिपाहियों और किसानों को धार्मिक नारे देकर अपने साथ किया। 1857 के बारे में यह एक सतही और यांत्रिक समझ थी। वास्तव में वह अंग्रेजों के विरुद्ध भारतीय जनता का महासंग्राम था। इस आन्दोलन में किसान और कारीगर अपने हितों की लड़ाई लड़ रहे थे। इतिहासकार ऐरिक स्टोक ने लिखा है कि मूल किसान भावना कर वसूल करने वालों के विरुद्ध थी। उनसे मुक्ति पाने की थी। चाहे उनका कोई रूप, रंग या राष्ट्रीयता हो। जहाँ-जहाँ ब्रिटिश शासन समाप्त हुआ था, वहाँ सत्ता विद्रोही जमींदारों और किसानों के हाथों में पहुँच गयी। किसान इस सत्ता में बराबर के शरीक थे। इसके साथ ही भारतीय कारीगरों की माँगें भी इस विद्रोह के घोषणा-पत्र में शामिल थीं। अगस्त 1857 के घोषणा-पत्र में विद्रोही राजकुमार फ़िरोजशाह ने स्पष्ट करते हुए कहा था - 'भारत में अंग्रेजी वस्तुओं को लाकर यूरोप के लोगों ने जुलाहों, दर्जियों, बढ़ई, लुहारों और जूता बनाने वालों को रोज़गार से बाहर कर दिया है और उनके पेशों को हड़प लिया है। इस प्रकार प्रत्येक देशी दस्तकार भिखारी की दशा में पहुँच गया है।'
विद्रोहियों में उद्देश्यों को लेकर अलग-अलग राय थी लेकिन इसका जनचरित्र भी रेखांकित किया जाना चाहिए। अवध में पुराने राजदरबार की भाषा फ़ारसी की जगह हिन्दुस्तानी का प्रयोग किया गया था जिसमें आमने-सामने उर्दू और हिन्दी दोनों पाठ दिये गये हैं। 6 जुलाई 57 को ‘बिरजिस कादर’ नाम से जारी किया गया इश्तहारनामा देश के आम जनता और जमींदारों को सम्बोधित किया गया था जिसमें बहुत सरल भाषा का प्रयोग था और एक सामान्य भाषा की खोज का यह पहला प्रयास है। शायद यह भाषा नीति चलती तो देश में उर्दू-हिन्दी का विवाद न होता। आज धुँधलका साफ़ है। 1857 के अन्तर्विरोधों से गुजरते हुए इतिहासकार इसे स्वतन्त्रता का पहला संग्राम मान रहे हैं। लेकिन राही के सामने उद्देश्य स्पष्ट थे - यह लड़ाई विदेशी शासकों के विरुद्ध थी। इसे हिन्दू-मुसलमान दोनों मिलकर लड़ रहे थे। इसमें सामन्तों के साथ किसान-मजदूर और कारीगर सबसे महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रहे थे। वे देश में अपना राज्य क़ायम करना चाहते थे जिसमें वे सम्मान के साथ जी सकें। राही के लिए यह संग्राम भारतीय स्वाभिमान का संघर्ष था। देश की अस्मिता का सवाल था। फिर एक ऐसी सामान्य भाषा 1857 में पैदा हो रही थी जो देश की राजभाषा के रूप में विकसित हो सकती थी। वह जनभाषाओं से भी शब्द चयन कर रही थी। फ़ारसी, संस्कृत, अरबी, हिन्दी-उर्दू का भी इस भाषा के विकास में योगदान था। राही इससे चिन्तित नहीं है कि यदि विद्रोही जीत जाते तो शासन का स्वरूप क्या होता। वे आश्वस्त हैं कि निश्चित ही इसका चरित्र जनविरोधी नहीं होता। भारतीय सामन्तों का वह वर्चस्व नहीं होता जो 1857 से पहले था। राही को देश के भविष्य निर्माण में किसानों, मजदूरों और कारीगरों की भूमिका पर बहुत भरोसा है। राही अक्सर कहते थे कि हिन्दू-मुसलमान यदि देश की समस्याओं के समाधान के लिए संघर्ष करें तो ये देश सर्वोशिखर पहुँच जाए। 1857 में इस जनएकता से राही बहुत प्रभावित थे। वे सबसे अधिक प्रभावित महिलाओं की भूमिका से थे। पहली बार भारत की स्त्रियों ने अपनी प्रतिभा, त्याग और बलिदान से एक नया इतिहास बनाया। 1857 में उन्होंने ख़ाली बेगम हजरत महल की भूमिका का ही चित्रण नहीं किया है, सबसे अधिक महत्त्व रानी लक्ष्मीबाई तथा उनकी सहयोगी साधारण स्त्रियों को दिया है। ये साधारण स्त्रियाँ अभूतपूर्व संघटन क्षमता, बहादुरी तथा बलिदान का प्रदर्शन करती हैं और उन लोगों पर चोट करती हैं जो स्त्री को द्वितीय श्रेणी का नागरिक समझते हैं। राही ने अपने महाकाव्य में साधारणजन के साथ इन स्त्रियों के शौर्य और पराक्रम का बहुत जीवन्त चित्रण किया है:
सोचता जा रहा है मुसाफ़िर
गिरती दीवारें फिर बन सकेंगी
थालियाँ खिल-खिलाकर हँसेंगी
पूरियाँ फिर घर में छन सकेंगी।
नाज आयेगा खेतों से घर में
खेत छूटेंगे बनिये के घर से
गीत गाऊँगा उस रह गुजर पर
शर्म आती है जिस रह गुजर से
रानी लक्ष्मीबाई पर राही ने अपने महाकाव्य में 40 पृष्ठ लिखे हैं। शायद इतनी लम्बी कविता हिन्दी के किसी कवि ने नहीं लिखी, सुभद्रा कुमारी चौहान ने रानी के ऊपर एक कविता लिखी जो अत्यन्त लोकप्रिय हुई। राही ने रानी के हर पक्ष का वर्णन किया है। राही ने यह महाकाव्य 1957 में उर्दू भाषा में लिखा था। उर्दू में तो कोई महाकाव्य है नहीं लेकिन हिन्दी में भी 1857 के महासमर पर कोई इस तरह का महाकाव्य नहीं है, नाटक और उपन्यास तो हैं। 1965 में ये हिन्दी में छपा जिसकी प्रस्तावना प्रसिद्ध विद्वान् डॉ. सम्पूर्णानन्द ने लिखी थी। उन्होंने अप्रैल 1965 में लिखा था कि ‘इस पुस्तक का उद्देश्य है सुनो भाइयो-सुनो भाइयो, कथा सुनो-1857 की। सच तो यह है कि उस उद्देश्य को बहुत अच्छी तरह निभाया गया है। लखनऊ, झाँसी और जहाँ-जहाँ उत्तर प्रदेश के खेत रहे- सबका वर्णन बहुत ही मर्मस्पर्शी शब्दों में किया गया है। मुझे विश्वास है हिन्दी भाषी जगत इस पुस्तक का समादर करेगा?’ लेकिन डॉ. सम्पूर्णानन्द की यह आशा हिन्दी जगत ने निराशा में बदल दी। राही और उसके महाकाव्य की घोर उपेक्षा हुआ। मामूली कवियों को महाकवि सिद्ध किया गया और राही जैसे लोग उपेक्षा के शिकार हुए। राही के क्रान्ति-कथा उर्फ ‘अठारह सौ सत्तावन’ को भी याद करना आवश्यक है।
राही ने कहा कि 'इस बात को ताजा करने के लिए हिन्दुस्तानी तवारीख ने मुझे 1857 से बेहतर कोई मिसाल नहीं दी इसलिए मैंने 1857 का इन्तखाब किया। लेकिन 1857 की इस नजम का मौजूं नहीं है। इसका मौंजूं का कोई सन नहीं है इसका मौंजूं इन्सान है। सुकरात ज़हर पी सकता है, इब्ने मरियम को समलूब किया जा सकता है, ब्रोनो को ज़िन्दा जलाया जा सकता है, ऐवस्ट की तलाश में कई कारवाँ गुम हो सकते हैं लेकिन सुकरात हारता नहीं, ईसा की शिकस्त नहीं होती, ब्रोनो साबित क़दम रखता है और ऐवरेस्ट का गुरूर टूट जाता है। मैंने यह नजम चंद किताबों की मदद से अपने कमरे में बैठकर नहीं लिखी है। मैंने इस लड़ाई की शिरकत की है, मैंने जम लगाये हैं, मैं दरख्त पर लटकाया गया हूँ, मुझे मुर्दा समझकर गिद्धों ने नोचा है। मैंने उस बेबसी को महसूस किया है जब आदमी गिद्धों से और गीदड़ों से बचने के लिए अपना जिस्म नहीं हिला सकता है जब आँखों से बेपनाह खौफ़ बेपनाह बेबसी झलकने लगती है। मैंने उस खौफ को भी महसूस किया है जिसे तोपदम होने से पहले हिन्दुस्तानी सिपाहियों ने किया होगा। मैंने उस दीवानगी के दिन गुजारे हैं जिसमें चन्द हिन्दुस्तानी सिपाहियों ने किसी मकान में किलाबन्द होकर अँग्रेजों के लश्कर को रोकने का हौसला किया था।'

अंगुत्तरनिकाय - भदंत आनंद कौसल्यायन


अंगुत्तरनिकाय महत्त्वपूर्ण बौद्ध ग्रंथ है। इसके लेखक भदंत आनंद कौसल्यायन हैं। महाबोधि सभा, कलकत्ता द्वारा इसको वर्तमान समय में प्रकाशित किया गया है। 11 निपातों से युक्त इस निकाय में महात्मा बुद्ध द्वारा भिक्षुओं को उपदेश में की जाने वाली बातों का वर्णन है। इस निकाय में छठी शताब्दी ई.पू. के सोलह महाजनपदों का उल्लेख मिलता हैं बौद्ध ग्रन्थ-बौद्धमतावल्बियों ने जिस साहित्य का सृजन किया, उसमें भारतीय इतिहास की जानकारी के लिए प्रचुर सामग्रियाँ उपलब्ध हैं। बौद्ध संघ, भिक्षुओं तथा भिक्षुणियों के लिये आचरणीय नियम विधान विनय पिटक में प्राप्त होते हैं। अंगुत्तरनिकाय की अपनी एक विशेषता है। इसमें सुत्तों का संग्रह एक व्यवस्था के अनुसार किया गया है। इस में ऐसे सुत्त हैं जिनमें बुद्ध भगवान के एक संख्यात्मक पदार्थों विषयक उपदेश संग्रह है, तत्पश्चात दो पदार्थों विषयक सुत्तों का और फिर तीन, चार आदि। इसी क्रम से इस निकाय के भीतर एकनिपात, दुकनिपात एवं तिक, चतुवक, पंचक, छक्क, सत्तक, अट्ठक, नवक, दशक और एकादशक इन नामों के ग्यारह निपातों का संकलन है। ये निपात पुन: वर्गों में विभाजित हैं, जिनकी संख्या निपात क्रम से 21, 16, 16, 26, 12, 9, 9, 9, 22 और 3 है । इस प्रकार 11 निपातों में कुल वर्गों की संख्या 169 है। प्रत्येक वर्ग के भीतर अनेक सुत्त हैं जिनकी संख्या एक वर्ग में कम से कम 7 और अधिक से अधिक 262 है। इस प्रकार अंगुत्तरनिकाय से सुत्तों की संख्या 2308 है।

अंधेर नगरी - भारतेन्दु हरिश्चंद्र


अंधेर नगरी भारतेन्दु हरिश्चन्द्र कृत व्यंग्यात्मक और रोचक प्रहसन है। इसका नायक 'अन्धेरनगरी' का राजा 'चौपट राजा' है। यह प्रहसन अत्यंत प्रसिद्ध और लोक-प्रचलित है। उसमें छ: अंक हैं।
पहला अंक
पहले अंक में एक महंत अपने दो शिष्यों, नारायणदास और गोबरधनदास में से दूसरे को भिक्षा माँगने के सम्बन्ध में अधिक लोभ न करने का उपदेश देता है।
दूसरा अंक
दूसरे अंक में बाज़ार के विभिन्न व्यापारियों के दृश्य हैं, जिनकी माल बेचने के लिए लगायी गयी आवाज़ों में व्यंग्य की तीव्रता है। शिष्य बाज़ार में हर एक चीज़ टके सेर पाता है और नगरी और राजा का नाम, अन्धेर नगरी - चौपट राजा, ज्ञातकर और मिठाई लेकर महंत के पास वापस आता है।
तीसरा अंक
गोबरधनदास से नगरी का हाल मालूम कर वह ऐसी नगरी में रहना उचित न समझ तीसरे अंक में वहाँ चलने के लिए अपने शिष्यों से कहता है। किंतु गोबरधनदास लोभ के वशीभूत हो वहीं रह जाता है और महंत तथा नारायणदास वहाँ से चले जाते हैं।
चौथा अंक
चौथे अंक में पीनक में बैठा राजा एक फरियादी की बकरी मर जाने पर कल्लू बनिया, कारीगर, चूनेवाले, भिश्ती, कसाई और गड़रिया को छोड़कर अंत में अपने कोतवाल को ही फाँसी का दण्ड देता है, क्योंकि अंततोगत्वा उसकी सवारी निकलने से ही बकरी दबकर मर गयी।
पाँचवा अंक
पाँचवें अंक में कोतवाल गर्दन पतली होने के कारण गोबरधनदास पकड़ा जाता है, ताकि उसकी मोटी गर्दन फाँसी के फन्दे में ठीक बैठे। अब उसे अपने गुरु की बात याद आती है।
छटा अंक
छठे अंक में जब वह फाँसी पर चढाया जाने को है, गुरु जी और नारायणदास आ जाते हैं। गुरु जी गोबरधनदास के कान में कुछ कहते हैं और उसके बाद दोनों में फाँसी पर चढ़ने के लिए होड़ लग जाती है। इसी समय राजा, मंत्री और कोतवाल आते हैं। गुरु जी के यह कहने पर कि इस साइत में जो मरेगा सीधा बैकुण्ठ को जाएगा, मंत्री और कोतवाल में फाँसी पर चढ़ने के लिए प्रतिद्वंतिता उत्पन्न हो जाती है, किंतु राजा के रहते बैकुण्ठ कौन जा सकता है, ऐसा कह राजा स्वयं फाँसी पर चढ़ जाता है।
प्रहसन का उद्देश्य
जिस राज्य में विवेक - अभिवेक का भेद न किया जाय वहाँ की प्रजा सुखी नहीं रह सकती, यह व्यक्त करना ही इस प्रहसन का उद्देश्य है।

अकबरनामा - अबुल फ़ज़ल


अकबरनामा मुग़ल बादशाह अकबर के दरबारी विद्वान अबुल फ़ज़ल द्वारा लिखा गया इतिहास प्रसिद्ध ग्रंथ है। 'अकबरनामा' का शाब्दिक अर्थ है- "अकबर की कहानी"। यह अकबर के शासन काल में लिखा गया प्रामाणिक इतिहास है, क्योंकि लेखक को इसकी बहुत-सी बातों की निजी जानकारी थी और सरकारी काग़ज़ों तक उसकी पहुँच थी। यद्यपि इसमें अकबर के साथ कुछ पक्षपात किया गया है, तथापि तिथियों और भौगोलिक जानकारी के लिए यह विश्वसनीय है। 'अकबरनामा' 'आईन अकबरी' का ही उत्तरार्ध है, जो अबुल फ़ज़ल की कृति है। अबुल फ़ज़ल महान गद्य लेखक थे। अबुल फ़ज़ल की इस कृति में दो हज़ार से अधिक पृष्ठ हैं। इसकी मूल भाषा फारसी जटिल और आडम्बर पूर्ण है। 'आईन अकबरी' और 'अकबरनामा' में तत्कालीन इतिहास और समाज की इतनी विशाल सामग्री इकट्ठा कर दी गई है, जिसे देखकर आश्चर्य होता है और मन नहीं करता कि इसे साढ़े तीन सौ वर्ष पहले का ग्रंथ समझा जाये।
'अकबरनामा' के दो भाग हैं, जो तत्कालीन इतिहास की विभिन्न परिस्थितियों का स्पष्ट विवरण प्रस्तुत करते हैं। अबुल फ़ज़ल की यह कृति ऐतिहासिक दृष्टिकोण से बहुत ही मूल्यवान है। इसके दो भागों में विवरण सामग्री निम्न प्रकार से प्रस्तुत की गई है- पहले भाग में बाबर, हुमायूँ आदि के बारे में लिखते हुए इतिहास को अकबर के 17वें सनजलूस (1573 ई.) तक लाया गया है। दूसरे भाग में 18वें सनजलूस से 46वें सनजलूस (1601 ई.) तक की बातें हैं। भूमिका में अबुल फ़ज़ल ने लिखा है- "मैं हिन्दी (भारतवासी) हूँ, फ़ारसी में लिखना मेरा काम नहीं है। बड़े भाई के भरोसे पर यह काम शुरू किया, अफसोस थोड़ा ही लिखा गया था कि उनका देहान्त हो गया, दस वर्ष का हाल उनकी नजर से गुजरा। विद्वान अंग्रेज़ी अनुवादक बिवरिज ने लिखा है कि- "यदि कोई लेखक परिश्रम करके इसके व्यर्थ स्थलों को निकाल कर ज्यों के त्यों रखकर संक्षेप कर दे तो इतिहास की बड़ी सेवा हो।" लेखक डॉ. मथुरा लाल शर्मा ने इसी लक्ष्य को दृष्टि में रखकर अबुल फ़ज़ल के 'अकबरनामा' की तीन जिल्दों की दो जिल्द बना दी हैं, जिसमें 707 पृष्ठ हैं। अकबर के समय की महत्त्वपूर्ण घटना कोई नहीं छोड़ी गई है और यथा-सम्भव अबुल फ़ज़ल के शब्दों में ही उनका वर्णन है, परन्तु भाषा की जटिलता निकालकर सरलता कर दी गई है। यत्र-तत्र लेखक के चाटुतापूर्ण उल्लेखों का भी समावेश कर दिया गया है, जिससे पाठकों को उसकी मनोवृत्ति का अनुमान हो सकेगा। अकबर के समय के इतिहास को जानने के लिये 'अकबरनामा' सर्वाधिक प्रमाणित ग्रन्थ है।

अग्निरेखा -महादेवी वर्मा


अग्निरेखा में महादेवी वर्मा की अंतिम दिनों में रची गई कविताएँ संगृहीत हैं, जो मरणोपरांत 1990 में प्रकाशित हुआ। जिसकी रचनाएँ पाठकों को अभिभूत करती हैं और आश्चर्यचकित भी। आश्चर्यचकित इस अर्थ में कि महादेवी-काव्य में ओतप्रोत वेदना और करुणा का वह स्वर, जो कब से उनकी पहचान बन चुका है, यहाँ एकदम अनुपस्थित है। अपने आपको ‘नीर भरी दुख की बदली’ कहने वाली महादेवी अब जहाँ 'ज्वाला के पर्व’ की बात करती हैं वही ‘आँधी की राह’ चलने का आहवान भी। ‘वशी’ का स्वर अब ‘पांचजन्य’ के स्वर में बदल गया है और ‘हर ध्वंस-लहर में जीवन लहराता’ दिखाई देता है। अपनी काव्य-यात्रा के पहले महत्त्वपूर्ण दौर का समापन करते हुए महादेवीजी ने कहा था–  ‘देखकर निज कल्पना साकार होते; और उसमें प्राण का संचार होते। सो गया रख तूलिका दीपक-चितेरा।’

असन्तोष के दिन - राही मासूम रज़ा


असन्तोष के दिन राही मासूम रज़ा द्वारा रचित उपन्यास है। हिन्दी - उपन्यास-जगत में राही मासूम रज़ा का प्रवेश एक सांस्कृतिक घटना जैसा ही था। ‘आधा-गाँव’ अपने-आप में मात्र एक उपन्यास ही नहीं, सौन्दर्य का पूरा प्रतिमान था। राही ने इस प्रतिमान को उस मेहनतकश अवाम की इच्छाओं और आकांक्षाओं को मथकर निकाला था, जिसे इस महादेश की जन-विरोधी व्यवस्था ने कितने ही आधारों पर विभाजित कर रखा है।
राही का कवि-ह्रदय व्यवस्था द्वारा लादे गये झूठे जनतन्त्र की विभीषिकाओं को उजागर करने में अत्यन्त तत्पर, विकल, संवेदनशील और आक्रोश से भरा हुआ रहा है। यही ह्रदय और अधिक व्यंजनाक्षम होकर ‘असन्तोष के दिन’ व्याप रहा है। आक्रोश और संवेदना की यह तरलता यहाँ मधुर गम्भीर राजनीतिक सवालों को पेश करती है, जिनकी आंच में सारा हिन्दुस्तान पिघल रहा है।
राष्ट्र की अखण्डता और एकता, जातिवाद की भयानक दमघोंटू परम्पराएँ, साम्प्रदायिकता का हलाहल, एक-से-एक भीषण सत्य, चुस्त शैली और धारदार भाषा में लिपटा चला आता है और हमें घेर लेता है। इस कृति की माँग है कि इन सवालों से जूझा और टकराया जाए। इसी समय, इनके उत्तर तलाश किये जाएँ अन्यथा मनुष्य के अस्तित्व की कोई गारन्टी नहीं रहेगी।[1]
इस कहानी में जो लोग चल-फिर रहे हैं, हँस-बोल रहे हैं, मर-जी रहे हैं, उन्हें अल्लाह मियाँ ने नहीं बनाया है; मैंने बनाया है। इसलिए यदि अल्लाह के बनाए हुए किसी व्यक्ति से मेरे बनाए हुए किसी व्यक्ति का नाम-पता मिल जाए तो क्षमा चाहता हूँ। - राही मासूम रज़ा
भूमिका में राही मासूम रज़ा लिखते हैं-
यह तो मौसम है वही
दर्द का आलम है वही
बादलों का है वही रंग,
हवाओं का है अन्दाज़ वही
जख़्म उग आए दरो-दीवार पे सब्ज़े की तरह
ज़ख़्मों का हाल वही
लफ़्जों का मरहम है वही

दर्द का आलम है वही
हम दिवानों के लिए
नग्मए-मातम है वही
दामने-गुल पे लहू के धब्बे
चोट खाई हुए शबनम है वही…
यह तो मौसम है वही
दोस्तो !
आप,
चलो
खून की बारिश है
नहा लें हम भी
ऐसी बरसात कई बरसों के बाद आई है।


आल्हाखण्ड - जगनिक


आल्हाखण्ड लोककवि जगनिक द्वारा लिखित एक वीर रस प्रधान काव्य हैं जो परमाल रासो का एक खण्ड माना जाता है। आल्हाखण्ड में आल्हा और ऊदल नामक दो प्रसिद्ध वीरों की 52 लड़ाइयों का रोमांचकारी वर्णन हैं। 'आल्हाखण्ड' में महोबे के दो प्रसिद्ध वीरों- आल्हा और ऊदल (उदय सिंह) का विस्तृत वर्णन है। कई शताब्दियों तक मौखिक रूप में चलते रहने के कारण उसके वर्तमान रूप में जगनिक की मूल रचना खो-सी गयी है, किन्तु अनुमानत: उसका मूल रूप तेरहवीं या चौदहवीं शताब्दी तक तैयार हो चुका था। आरम्भ में वह वीर रस-प्रधान एक लघु लोकगाथा (बैलेड) रही होगी, जिसमें और भी परिवर्द्धन होने पर उसका रूप गाथाचक्र (बैलेड साइकिल) के समान हो गया, जो कालान्तर में एक लोक महाकाव्य के रूप में विकसित हो गया। 'पृथ्वीराजरासो' के सभी गुण-दोष 'आल्हाखण्ड' में भी वर्तमान हैं, दोनों में अन्तर केवल इतना है कि एक का विकास दरबारी वातावरण में शिष्ट, शिक्षित-वर्ग के बीच हुआ और दूसरे का अशिक्षित ग्रामीण जनता के बीच। 'आल्हाखण्ड' पर अलंकृत महाकाव्यों की शैली का कोई प्रभाव नहीं दिखलाई पड़ता। शब्द-चयन, अलंकार विधान, उक्ति-वैचित्र्य, कम शब्दों में अधिक भाव भरने की प्रवृत्ति प्रसंग-गर्भत्व तथा अन्य काव्य-रूढ़ियों और काव्य-कौशल का दर्शन उसमें बिलकुल नहीं होता। इसके विपरीत उसमें सरल स्वाभाविक ढंग से, सफ़ाई के साथ कथा कहने की प्रवृत्ति मिलती है, किन्तु साथ ही उसमें ओजस्विता और शक्तिमत्ता का इतना अदम्य वेग मिलता है, जो पाठक अथवा श्रोता को झकझोर देता है और उसकी सूखी नसों में भी उष्ण रक्त का संचार कर साहस, उमंग और उत्साह से भर देता है। उसमें वीर रस की इतनी गहरी और तीव्र व्यंजना हुई है और उसके चरित्रों को वीरता और आत्मोत्सर्ग की उस ऊँची भूमि पर उपस्थित किया गया है कि उसके कारण देश और काल की सीमा पार कर समाज की अजस्त्र जीवनधारा से 'आल्हखण्ड' की रसधारा मिलकर एक हो गयी है। इसी विशेषता के कारण उत्तर भारत की सामान्य जनता में लोकप्रियता की दृष्टि से 'रामचरितमानस' के बाद 'आल्हाखण्ड' का ही स्थान है और इसी विशेषता के कारण वह सदियों से एक बड़े भू-भाग के लोककण्ठ में गूँजता चला आ रहा है।
कालिंजर के राजा परमार के आश्रय मे जगनिक नाम के एक कवि थे, जिन्होंने महोबे के दो प्रसिद्ध वीरों -आल्हा और ऊदल (उदयसिंह) के वीरचरित का विस्तृत वर्णन एक वीरगीतात्मक काव्य के रूप में लिखा था जो इतना सर्वप्रिय हुआ कि उसके वीरगीतों का प्रचार क्रमश: सारे उत्तरी भारत में विशेषत: उन सब प्रदेशों में जो कन्नौज साम्राज्य के अंतर्गत थे-हो गया। जगनिक के काव्य का कहीं पता नहीं है पर उसके आधार पर प्रचलित गीत हिंदी भाषा भाषी प्रांतों के गांव-गांव में सुनाई देते हैं। ये गीत ‘आल्हा’ के नाम से प्रसिद्ध हैं और बरसात में गाये जाते हैं। गावों में जाकर देखिये तो मेघगर्जन के बीच किसी अल्हैत के ढोल के गंभीर घोष के साथ यह हुंकार सुनाई देगी-
बारह बरिस लै कूकर जीऐं ,औ तेरह लौ जिऐं सियार।
बरिस अठारह छत्री जिऐं ,आगे जीवन को धिक्कार।
इस प्रकार साहित्यिक रूप में न रहने पर भी जनता के कंठ में जगनिक के संगीत की वीरदर्पपूर्ण प्रतिध्वनि अनेक बल खाती हुई अब तक चली आ रही है। इस दीर्घ कालयात्रा में उसका बहुत कुछ कलेवर बदल गया है। देश और काल के अनुसार भाषा में ही परिवर्तन नहीं हुआ है, वस्तु में भी बहुत अधिक परिवर्तन होता आया है। बहुत से नये अस्त्रों, (जैसे बंदूक, किरिच), देशों और जातियों (जैसे फिरंगी) के नाम सम्मिलित होते गये हैं और बराबर हो जाते हैं। यदि यह साहित्यिक प्रबंध पद्धति पर लिखा गया होता तो कहीं न कहीं राजकीय पुस्तकालयों में इसकी कोई प्रति रक्षित मिलती। पर यह गाने के लिये ही रचा गया था। इसमें पंडितों और विद्वानों के हाथ इसकी रक्षा के लिये नहीं बढ़े, जनता ही के बीच इसकी गूंज बनी रही-पर यह गूंज मात्र है मूल शब्द नहीं।
आल्हा का प्रचार यों तो सारे उत्तर भारत में है पर बैसवाड़ा इसका केन्द्र माना जाता है, वहाँ इसे गाने वाले बहुत अधिक मिलते हैं। बुंदेलखंड में -विशेषत: महोबा के आसपास भी इसका चलन बहुत है। आल्हा गाने वाले लोग अल्हैत कहलाते हैं। इन गीतों के समुच्चय को सर्वसाधारण ‘आल्हाखंड’ कहते हैं जिससे अनुमान मिलता है कि आल्हा संबंधी ये वीरगीत जगनिक के रचे उस काव्य के एक खंड के अंतर्गत थे जो चंदेलों की वीरता के वर्णन में लिखा गया होगा। आल्हा और उदल परमार के सामंत थे और बनाफर शाखा के क्षत्रिय थे। इन गीतों का एक संग्रह ‘आल्हाखंड’ के नाम से छपा है। फर्रुखाबाद के तत्कालीन कलेक्टर मि.चार्ल्स इलियट ने पहले पहल इनगीतों का संग्रह करके छपवाया था।
आल्हाखंड में तमाम लड़ाइयों का जिक्र है। शुरूआत मांड़ौ की लड़ाई से है। मांड़ौ के राजा करिंगा ने आल्हा-ऊदल के पिता जच्छराज-बच्छराज को मरवा के उनकी खोपड़ियां कोल्हू में पिरवा दी थीं। ऊदल को जब यह बात पता चली तब उन्होंने अपने पिता की मौत का बदला लिया तब उनकी उमर मात्र 12 वर्ष थी। आल्हाखंड में युद्ध में लड़ते हुये मर जाने को लगभग हर लड़ाई में महिमामंडित किया गया है:-
मुर्चन-मुर्चन नचै बेंदुला,उदल कहैं पुकारि-पुकारि,
भागि न जैयो कोऊ मोहरा ते यारों रखियो धर्म हमार।
खटिया परिके जौ मरि जैहौ,बुढ़िहै सात साख को नाम
रन मा मरिके जौ मरि जैहौ,होइहै जुगन-जुगन लौं नाम।

अपने बैरी से बदला लेना सबसे अहम बात माना गया है:-
‘जिनके बैरी सम्मुख बैठे उनके जीवन को धिक्कार।’
इसी का अनुसरण करते हुये तमाम किस्से उत्तर भारत के बीहड़ इलाकों में हुये जिनमें लोगों ने आल्हा गाते हुये नरसंहार किये या अपने दुश्मनों को मौत के घाट उतारा।
पुत्र का महत्व पता चला है जब कहा जाता है:-
जिनके लड़िका समरथ हुइगे उनका कौन पड़ी परवाह!
स्वामी तथा मित्र के लिये कुर्बानी दे देना सहज गुण बताये गये हैं:-
जहां पसीना गिरै तुम्हारा तंह दै देऊं रक्त की धार।
आज्ञाकारिता तथा बड़े भाई का सम्मान करना का कई जगह बखान गया है। इक बार मेले में आल्हा के पुत्र इंदल का अपहरण हो जाता है। इंदल मेले में उदल के साथ गये थे। आल्हा ने गुस्से में उदल की बहुत पिटाई की:-
हरे बांस आल्हा मंगवाये औ उदल को मारन लाग।
ऊदल चुपचाप मार खाते -बिना प्रतिरोध के। तब आल्हा की पत्नी ने आल्हा को रोकते हुये कहा:-
हम तुम रहिबे जौ दुनिया में इंदल फेरि मिलैंगे आय
कोख को भाई तुम मारत हौ ऐसी तुम्हहिं मुनासिब नाय।
यद्यपि आल्हा में वीरता तथा अन्य तमाम बातों का अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन है तथापि मौखिक परम्परा के महाकाव्य आल्हाखण्ड का वैशिष्ट्य बुन्देली का अपना है। महोबा 12वीं शती तक कला केन्द्र तो रहा है जिसकी चर्चा इस प्रबन्ध काव्य में है। इसकी प्रामाणिकता के लिए न तो अन्तःसाक्ष्य ही उपादेय और न बर्हिसाक्ष्य। इतिहास में परमार्देदेव की कथा कुछ दूसरे ही रुप में है परन्तु आल्हा खण्ड का राजा परमाल एक वैभवशाली राजा है, आल्हा और ऊदल उसके सामन्त है। यह प्रबन्ध काव्य समस्त कमजोरियों के बावजूद बुन्देलों जन सामान्य की नीति और कर्तव्य का पाठ सिखाता है। बुन्देलखण्ड के प्रत्येक गांवों में घनघोर वर्षा के दिन आल्हा जमता है।
भरी दुपहरी सरवन गाइये, सोरठ गाइये आधी रात।
आल्हा पवाड़ा वादिन गाइये, जा दिन झड़ी लगे दिन रात।।

आवारा मसीहा - विष्णु प्रभाकर


आवारा मसीहा विष्णु प्रभाकर द्वारा रचित प्रसिद्ध बांग्ला लेखक शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की जीवनी है। शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय की गणना भारत के ऐसे उपन्याकारों में की जाती है जो सच्चे अर्थों में देशभर में अत्यन्त लोकप्रिय थे। उनकी प्रायः सभी रचनाओं का अनुवाद भारत की सभी भाषाओं में हुआ और वे खूब चाव से बार बार पढ़ी गयी, आज भी पढी जाती है। परन्तु आश्चर्य की बात यह है कि एकाध को छोड़कर उनकी कोई भी संतोषजनक जीवनी बांग्ला में भी उपलब्ध नहीं है। इस कार्य को पूरा करने का बीड़ा अनेक वर्ष पूर्व श्री विष्णु प्रभाकर ने उठाया था। वे स्वयं प्रथम श्रेणी के कथाकार हैं और शरतचंद्र में गहरी आस्था रखते हैं, उन्होंने यात्रा-पत्र-व्यवहार, भेंटवार्ता आदि अब तक के समस्त उपायों और साधनों से इस कार्य को पूर्ण किया है, जो कि इस ग्रन्थ में प्रस्तुत है। यह जीवन चरित्र न केवल बहुत विस्तार से उन पर प्रकाश डालता है अपितु उनके जीवन के कई अज्ञात पहलुओं को भी उजागर करता है। ‘आवारा मसीहा’ का प्रथम संस्करण मार्च 1974 में प्रकाशित हुआ था। पच्चीस वर्ष बीत गए हैं इस बात को। इन वर्षों में इसके अनेक संस्करण हो चुके हैं।
जब पहला संस्करण हुआ तो मैं मन ही मन डर रहा था कि कहीं बंगाली मित्र मेरी कुछ स्थापनाओं को लेकर क्रुद्ध न हो उठें। लेकिन मेरे हर्ष का पार नहीं था जब सबसे पहला पत्र मुझे एक बांग्ला भाषा की पत्रिका के संपादक का मिला। उन्होंने लिखा था कि आपने एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण और चिरस्थायी कार्य किया जो हम नहीं कर सके। मैं तो जैसे जी उठा। वैसे कुछ अपवादों को छोड़कर सभी पाठकों ने मुझे साधुवाद दिया। उन पाठकों में सभी वर्गों और श्रेणियों के व्यक्ति थे। तब से यह क्रम अभी तक जारी है। इसकी रचना प्रक्रिया पर प्रथम संस्करण की भूमिका में मैंने विस्तार से प्रकाश डाला है। उसके प्रकाशित होने के बाद मुझे यह आशा थी कि शायद कुछ और तथ्य सामने आयें लेकिन तीसरा संस्करण प्रकाशित होने तक कुछ विशेष उपलब्धि नहीं हुई परंतु कुछ ऐसी घटनाएँ अवश्य सामने आईं जो उनके चरित्र को और उजागर करती थीं। उनका वर्णन तीसरे संस्करण की भूमिका में (सितम्बर 1977) किया। वे सब अंश संस्करण की भूमिका में भी शामिल कर लिए गए हैं। दूसरे संस्करण में टंकण और मुद्रण या किसी और प्रमादवश जो अशुद्धियाँ रह गई थीं उन्हें भी ठीक कर दिया था। यहाँ-वहाँ आए कुछ उद्धरण या तो निकाल दिए थे या उनके कलेवर कुछ कम कर दिया था। मैंने उस संस्करण में बांग्ला शब्दों का प्रचुरता से प्रयोग किया था। समीक्षकों और सुधी पाठकों के सुझाव पर उन्हें भी कम कर दिया। महात्मा गाँधी पर शरत् बाबू ने जो मार्मिक लेख लिखा था उसे परिशिष्ट में दे दिया था। उस लेख को देने का कारण यह था कि शायद सभी लोग उन्हें गाँधी जी का कट्टर विरोधी मानते थे पर उस लेख में शरत् बाबू ने उनका जो विश्लेषण प्रस्तुत किया है, उनके प्रति विरोध के रहते भी जो गहरी आस्था प्रकट की है, वह अद्भुत है। उसे परिशिष्ट में देने का कारण यह था कि तीसरे खंड में भारीपन की जो शिकायत कुछ मित्रों ने की थी वो कम हो जाए। शायद हुई भी है। -विष्णु प्रभाकर
कभी सोचा भी न था कि एक दिन मुझे अपराजेय कथाशिल्पी शरत्-चन्द्र की जीवनी लिखनी पड़ेगी। यह मेरा विषय नहीं था। लेकिन अचानक एक ऐसे क्षेत्र से यह प्रस्ताव मेरे पास आया कि स्वीकार करने को बाध्य होना पड़ा। हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर, बम्बई, के स्वामी श्री नाथूराम प्रेमी ने शरत्-साहित्य का प्रामाणिक अनुवाद हिन्दी में प्रकाशित किया है। उनकी इच्छा थी कि इसी माला में शरत्-चन्द्र की एक जीवनी भी प्रकाशित की जाए। उन्होंने इसकी चर्चा श्री यशपाल जैन से की और न जाने कैसे लेखक के रूप में मेरा नाम सामने आ गया। यशपालजी के आग्रह पर मैंने एकदम ही यह काम अपने हाथ में ले लिया हो, ऐसा नहीं था, लेकिन अन्ततः लेना पड़ा, यह सच है। इसका मुख्य कारण था शरत्-चन्द्र के प्रति मेरी अनुरक्ति। उनके साहित्य को पढ़कर उनके जीवन के बारे में विशेषकर श्रीकान्त और राजलक्ष्मी के बारे में, जानने की उत्कट इच्छा कई बार हुई है। शायद वह इच्छा पूरी होने का यह अवसर था। सोचा, बंगला साहित्य में निश्चिय ही उनकी अनेक प्रामाणिक जीवनियां प्रकाशित हुई होंगी। लेख-संस्मरण तो न जाने कितने लिखे गये होंगे। वहीं से सामग्री लेकर यह छोटी-सी जीवनी लिखी जा सकेगी। लेकिन खोज करने पर पता लगा कि प्रामाणिक तो क्या, कल्पित कहानी को जीवनी का रूप देकर अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं, पर उनमें शरत् बाबू का वास्तविक रूप तो क्या प्रकट होता वह और भी जटिल हो उठा है।
अब मैंने इधर-उधर खोज आरम्भ की लेकिन जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया, उलझता ही गया। ढूंढ़-ढूंढ़कर मैं उनके समकालीन व्यक्तियों से मिला। बिहार, बंगाल, बर्मा, सभी जगह गया। लेकिन कहीं भी तो, कुछ भी उत्साहजनक स्थिति नहीं दिखाई दी। प्रायः सभी मित्रों ने मुझसे कहा, ‘‘तुम शरत् की जीवनी नहीं लिख सकते। अपनी भूमिका में यह बात स्पष्ट कर देना कि शरत् की जीवनी लिखना असम्भव है।’’ ऐसे भी व्यक्ति थे जिन्होंने कहा, ‘‘छोड़ा भी, क्या था उसके जीवन में जो तुम पाठकों को देना चाहोगे। नितान्त स्वच्छन्द व्यक्ति का जीवन क्या किसी के लिए अनुकरणीय हो सकता है ?’’ ‘‘उनके बारे में जो कुछ हम जानते हैं वह हमारे बीच में ही रहे। दूसरे लोग उसे जानकर क्या करेंगे ? रहने दो, उसे लेकर क्या होगा ?
एक सज्जन तो अत्यन्त उग्र हो उठे। तीव्र स्वर में बोले, ‘‘कहे देता हूँ, मैं उनके बारे में कुछ नहीं बताऊंगा।’’
दूसरे सज्जन की घृणा का पार नहीं था। गांधीजी और शरद के सम्बन्ध में मैंने एक लेख लिखा था। उसी को लेकर उन्होंने कहा, ‘‘छिः, तुमने उस दुष्ट की गांधीजी से तुलना कर डाली !’’ एक बन्धु जो ऊंचे-ऊंचे पदों पर रह चुके थे मेरी बात सुनकर मुस्कुराये, बोले ‘‘क्यों इतना परेशान होते हो, दो-चार गुण्डों का जीवन देख लो, शरत चन्द्र की जीवनी तैयार हो जाएगी।’’ इन प्रतिक्रियाओं का कोई अन्त नहीं था, लेकिन ये मुझे मेरे पथ से विरत करने के स्थान पर चुनौती स्वीकार करने की प्रेरणा ही देती रहीं। सन् 1959 में मैंने अपनी यात्रा आरम्भ की थी और अब 1973 है। 14 वर्ष लगे मुझे ‘आवारा मसीहा’ लिखने में। समय और धन दोनों मेरे लिए अर्थ रखते थे क्योंकि मैं मसिजीवी लेखक हूं। लेकिन ज्यूं-ज्यूं आगे बढ़ता गया, मुझे अपने काम में रस आता गया, और आज मैं साधिकार कह सकता हूं कि मैंने जो कुछ किया है पूरी आस्था के साथ किया है और करने में पूरा आनन्द भी पाया है। यह आस्था और यह आनन्द, यही मेरा सही अर्थों में पारिश्रमिक है। -विष्णु प्रभाकर

आषाढ़ का एक दिन - मोहन राकेश


आषाढ़ का एक दिन सन 1958 में प्रकाशित और नाटककार मोहन राकेश द्वारा रचित एक हिन्दी नाटक है। कभी-कभी इस नाटक को हिन्दी नाटक के आधुनिक युग का प्रथम नाटक कहा जाता है। 1959 में इसे वर्ष का सर्वश्रेष्ठ नाटक होने के लिए 'संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार' मिला था। कई प्रसिद्ध निर्देशक इसे मंच पर भी ला चुकें हैं। वर्ष 1979 में निर्देशक मणि कौल ने इस नाटक पर आधारित एक फ़िल्म भी बनाई थी, जिसने आगे जाकर साल की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का 'फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार' जीता।
वस्तुतः मोहन राकेश के नाटक केवल हिन्दी के नाटक नहीं हैं। वे हिन्दी में लिखे अवश्य गए हैं, किन्तु वे समकालीन भारतीय नाट्य प्रवृत्तियों के उद्योतक हैं। उन्होंने हिन्दी नाटक को पहली बार अखिल भारतीय स्तर ही नहीं प्रदान किया वरन् उसके सदियों के अलग-थलग प्रवाह को विश्व नाटक की एक सामान्य धारा की ओर भी अग्रसर किया। प्रमुख भारतीय निर्देशकों इब्राहिम अलकाजी, ओम शिवपुरी, अरविंद गौड़, श्यामानंद जालान, राम गोपाल बजाज और दिनेन राकेश के नाटकों का निर्देशन कर उनका बहुत ही मनोरहर ढग से मंचन किया। 1971 में निर्देशक मणि कौल ने 'आषाढ़ का एक दिन' पर आधारित एक फ़िल्म बनाई, जिसको साल की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का 'फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार' दिया गया। मोहन राकेश के नाटक 'आषाढ़ का एक दिन' में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को लेने पर भी आधुनिक मनुष्य के अंतद्वंद और संशयों की ही गाथा कही गई है। 'आषाढ़ का एक दिन' में सफलता और प्रेम में एक को चुनने के द्वन्द से जूझते कालिदास एक रचनाकार और एक आधुनिक मनुष्य के मन की पहेलियों को सामने रखा है। वहीँ प्रेम में टूटकर भी प्रेम को नहीं टूटने देने वाली इस नाटक की नायिका के रूप में हिन्दी साहित्य को एक अविस्मरनीय पात्र मिला है। राकेश के नाटकों को रंगमंच पर मिली शानदार सफलता इस बात का गवाह बनी कि नाटक और रंगमंच के बीच कोई खाई नही है। अषाढ़ का माह उत्तर भारत में वर्षा ऋतु का आरंभिक महिना होता है, इसलिए शीर्षक का अर्थ "वर्षा ऋतु का एक दिन" भी लिया जा सकता है।
‘आषाढ़ का एक दिन’ की प्रत्यक्ष विषयवस्तु कवि कालिदास के जीवन से संबंधित है। किन्तु मूलत: वह उसके प्रसिद्ध होने के पहले की प्रेयसी का नाटक है- एक सीधी-सादी समर्पित लड़की की नियति का चित्र, जो एक कवि से प्रेम ही नहीं करती, उसे महान होते भी देखना चाहती है। महान वह अवश्य बनता है, पर इसका मूल्य मल्लिका अपना सर्वस्व देकर चुकाती है। अंत में कालिदास भी उसे केवल अपनी सहानुभूति दे पाता है, और चुपके से छोड़कर चले जाने के अतिरिक्त उससे कुछ नहीं बन पड़ता। मल्लिका के लिए कालिदास उसके संपूर्ण व्यक्तित्व के, जीवन में, साथ एकाकार सुदूर स्वप्न की भाँति है; कालिदास के लिए मल्लिका उसके प्रेरणादायक परिवेश का एक अत्यन्त जीवंत तत्व मात्र। अनन्यता और आत्मलिप्तता की इस विसदृशता में पर्याप्त नाटकीयता है, और मोहन रोकेश जिस एकाग्रता, तीव्रता और गहराई के साथ उसे खोजने और व्यक्त करने में सफल हुए हैं वह हिन्दी नाटक के लिए सर्वथा अपरिचित है।
इसके साथ ही समकालीन अनुभव और भी कई आयाम इस नाटक में हैं, जो उसे एकाधिक स्तर पर सार्थक और रोचक बनाते हैं। उसका नाटकीय संघर्ष कला और प्रेम, सर्जनशील व्यक्ति और परिवेश, भावना और कर्म, कलाकार और राज्य, आदि कई स्तरों को छूता है। इसी प्रकार काल के आयाम को बड़ी रोचक तीव्रता के साथ प्रस्तुत किया गया है-लगभग एक पात्र के रूप में। मल्लिका और उसके परिवेश की परिणति में तो वह मौजूद है ही, स्वयं कालिदास भी उसके विघटनकारी रूप का अनुभव करता है। अपनी समस्त आत्मलिप्तता के बावजूद उसे लगता है कि अपने परिवेश में टूटकर वह स्वयं भी भीतर कहीं टूट गया है।[2]
किन्तु शायद कालिदास ही इस नाटक का सबसे कमज़ोर अंश है; क्योंकि अंतत: नाटक में उद्घाटित उसका व्यक्तित्व न तो किसी मूल्यवान और सार्थक स्तर पर स्थापित ही हो पाता है, न इतिहास-प्रसिद्ध कवि कालिदास को, और इस प्रकार उसके माध्यम से समस्त भारतीय सर्जनात्मक प्रतिभा को, कोई गहरा विश्वसनीय आयाम ही दे पाता है। नाटक में प्रस्तुत कालिदास बड़ा क्षुद्र और आत्मकेन्द्रित, बल्कि स्वार्थी व्यक्ति है। साथ ही उसके व्यक्तित्व में कोई तत्व ऐसा नहीं दीख पड़ता, जो उसकी महानता का, उसकी असाधारण सर्जनात्मक प्रतिभा का, स्रोत्र समझा जा सके या उसका औचित्य सिद्ध कर सके। राज्य की ओर से सम्मान और निमंत्रण मिलने पर वह नहीं-नहीं करता हुआ भी अंत में उज्जैन चला ही जाता है। कश्मीर का शासक बनने पर गाँव में आकर भी मल्लिका से मिलने नहीं आता; अंत में मल्लिका के जीवन की उतनी करुण, दुखद परिणति देखकर भी उसे छोड़कर कायरतापूर्वक चुपचाप खिसक पड़ना संभव पाता है। ये सभी उसके व्यक्तित्व के ऐसे पक्ष हैं, जो उसको एक अत्यन्त साधारण व्यक्ति के रूप में ही प्रकट करते हैं। निस्संदेह, किसी महान सर्जनात्मक व्यक्तित्व में महानता और नीचता के दो छोरों का एक साथ अंतर्ग्रथित होना संभव है। ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कालिदास का हीन रूप ही दीख पड़ता है। महानता को छूने वाले सूत्र का छोर कहीं नहीं नज़र आता। लेखक उसके भीतर ऐसे तीव्र विरोधी तत्त्वों का कोई संघर्ष भी नहीं दिखा सकता है, जो इस क्षुद्रता के साथ-साथ उसकी असाधारण सर्जनशीलता को विश्वसनीय बना सके। कालिदास की यह स्थिति नाटक को किसी-किसी हद तक किसी भी गहराई के साथ व्यंजित नहीं होने देती।
विसदृशता के दो अन्य रोचक रूप हैं- मल्लिका की मां अम्बिका और कालिदास का मामा मातुल। दोनों बुजुर्ग हैं, नाटक के दो प्रमुख तरुण पात्रों के अभिभावक। दोनों ही अपने-अपने प्रतिपालितों से असन्तुष्ट, बल्कि निराश हैं। फिर भी दोनों एक दूसरे से एकदम भिन्न, बल्कि लगभग विपरीत हैं। दोनों के बीच यह भिन्नता संस्कार, जीवनदृष्टि, स्वभाव, व्यवहार, बोलचाल, भाषा आदि अनेक स्तरों पर उकेरी गयी है। इससे मल्लिका और कालिदास दोनों के चरित्र अधिक सूक्ष्म और रोचकता के साथ रूपायित हो सके हैं। ऐसी ही दिलचस्प विसदृशता विक्षेप और कालिदास तथा मल्लिका और प्रियंगुमंजरी के बीच भी रची गयी है। इसी तरह बहुत संयत और प्रभावी ढंग से, व्यंग्य और सूक्ष्म हास्य के साथ, समकालीन स्थितियों की अनुगूंज पैदा की गयी है रंगिणा-संगिणी और अनुस्वार-अनुनासिक की दो जोड़ियों के द्वारा। ये थोड़ी ही देर के लिए आते हैं, पर बड़ी कुशलता से कई बातें व्यंजित कर जाते हैं। वास्तव में ‘आषाढ़ का एक दिन’ की लेखन और प्रदर्शन दोनों ही स्तरों पर व्यापक सफलता का आधार है उसकी बेहद सधी हुई, संयमति और सुचिंतित पात्र-योजना। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि ‘आषाढ़ का एक दिन’ पिछले तीस-बत्तीस वर्षों में भारत की अनेक भाषाओं में, अनेक केन्द्रों में बार-बार खेला गया है और अब भी उसका आकर्षण कुछ कम नहीं हुआ है।
निस्संदेह, हिन्दी नाटक के परिप्रेक्ष्य में और भाववस्तु और रूपबंध दोनों स्तर पर ‘आषाढ़ का एक दिन’ ऐसा पर्याप्त सघन, तीव्र और भावोद्दीप्त लेखन प्रस्तुत करता है, जैसा हिन्दी नाटक में बहुत कम ही हुआ है। उसमें भाव और स्थिति की गहराई में जाने का प्रयास है और पूरा नाटक एक साथ कई स्तरों पर प्रभावकारी है। बिंबों के बड़े प्रभावी नाटकीय प्रयोग के साथ उसमें शब्दों की अपूर्व मितव्ययता भी है और भाषा में ऐसा नाटकीय काव्य है, जो हिंदी नाटकीय गद्य के लिए अभूतपूर्व है। हिन्दी के ढेरों तथा कथित ऐतिहासिक नाटकों से ‘आषाढ़ का एक दिन’ इसलिए मौलिक रूप में भिन्न है कि उसमें अतीत का न तो तथाकथित विवरण है, न पुनरुथानवादी गौरव-गान, और न ही वह द्विजेंद्रलाल राय के नाटकों की शैली में कोई भावुकतापूर्ण अतिनाटकीय स्थितियाँ रचने की कोशिश करता है। उसकी दृष्टि कहीं ज्यादा आधुनिक और सूक्ष्म है, जिसके कारण वह सही अर्थ में आधुनिक हिन्दी नाटक की शुरुआत का सूचक है।

आधा गाँव - राही मासूम रज़ा


राही मासूम रज़ा का बहुचर्चित उपन्यास 'आधा गाँव' 1966 में प्रकाशित हुआ। इस उपन्यास के बाद राही का नाम उच्चकोटि के उपन्यासकारों में गिना जाने लगा। आधा गाँव उपन्यास उत्तर प्रदेश के नगर गाजीपुर से लगभग ग्यारह मील दूर बसे गाँव गंगौली के शिक्षा समाज की कहानी कहता है। राही ने स्वयं अपने इस उपन्यास का उद्देश्य स्पष्ट करते हुए कहा है - “वह उपन्यास वास्तव में मेरा एक सफर था। मैं गाजीपुर की तलाश में निकला हूं लेकिन पहले मैं अपनी गंगौली में ठहरूंगा। अगर गंगौली की हकीकत पकड़ में आ गयी तो मैं गाजीपुर का एपिक लिखने का साहस करूंगा”। हिंदी का यह शायद पहला उपन्यास है जिसमें शिया मुसलमानों तथा संबद्ध लोगों का ग्रामीण जीवन अपने समग्र यथार्थ में पूरी तीव्रता के साथ सामने आता है। आधा गाँव यानी गंगौली, ज़िला ग़ाज़ीपुर, उत्तरप्रदेश। इस उपन्यास का काल परिप्रेक्ष्य सन् 1947 का है।
स्वाधीनता के समय होने वाला देश विभाजन इसका विषय है। गंगौली गाँव मुस्लिम बहुल गाँव है और यह उपन्यास इस गाँव के मुसलमानों का बेपर्द जीवन यथार्थ के विषय में है। इस उपन्यास की शैली पूरी तरह सच, बेबाक और धारदार है। पाकिस्तान बनते समय मुसलमानों की विविध मन:स्थितियों, हिंदुओं के साथ उनके सहज आत्मीय सम्बंधों तथा द्वंदमूलक अनुभवों का अविस्मरणीय शब्दांकन इस उपन्यास की उपलब्धि है। साम्प्रदायिकता के ख़िलाफ़ एक ऐसा सृजनात्मक प्रहार, जो दुनिया में कहीं भी राष्ट्रीयता ही के हक़ में जाता है। लेखकीय चिंता सार्वजनीन है कि अगर गंगौली वाले कम तथा सुन्नी और शिया और हिंदू ज़्यादा दिखायी देने लगें तो गंगौली का क्या होगा? दूसरे शब्दों में गंगौली को यदि भारत मान लिया जाए तो भारत का क्या होगा? भारतीय कौन होंगे? अपनी वस्तुगत चिंताओं, गतिशील रचनाशिल्प, आंचलिक भाषा सौंदर्य और सांस्कृतिक परिवेश के चित्रण की दृष्टि से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण उपन्यास है। आधा गाँव नि:संदेह 'हिंदी कथा साहित्य' की बहुचर्चित और निर्विवाद उपलब्धि है। इस कृति की सबसे बड़ी ख़ासियत है संयमहीनता। इसके सभी पात्र बिना लगाम के हैं और उनकी अभिव्यक्ति सहज, सटीक और दो टूक है, गालियों की हद तक।

उत्तर रामचरित - भवभूति


उत्तर रामचरित महाकवि भवभूति का प्रसिद्ध संस्कृत नाटक है। उत्तर रामचरित के सात अंकों में राम के उत्तर जीवन की कथा है। जनापवाद के कारण राम ना चाहते हुए भी सीता का परित्याग कर देते हैं। सीता के त्याग के बाद विरही राम की दशा का तृतीय अंक में करुण चित्र प्रस्तुत किया गया है, जो काव्य की दृष्टि से इस नाटक की जान है। भवभूति ने इस दृश्यकाव्य में दांपत्य प्रणय के आदर्श रूप को अंकित किया है। कोमल एवं कठोर भावों की रुचिर व्यंजना, रमणीय और भयावह प्रकृति चित्रों का कुशल अंकन इस नाटक की विशेषताएँ हैं। उत्तररामचरित में नाटकीय व्यापार की गतिमत्ता अवश्य शिथिल है और यह कृति नाटकत्व की अपेक्षा काव्यतत्व और गीति नाट्यत्व की अधिक परिचायक है। भवभूति की भावुकता और पांडित्यपूर्ण शैली का चरम परिपाक इस कृति में पूर्णत: लक्षित होता है। उत्तर रामचरित पर अनेक टीकाएँ उपलब्ध हैं जिनमें घनश्याम, वीरराघव, नारायण और रामचंद्र बुधेंद्र की टीकाएँ प्रसिद्ध हैं। इसके अनेक भारतीय संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। इनके अधिक प्रचलित 'निर्णयसागर' संस्करण है, जिसका प्रथम संस्करण सन् 1899 में बंबई से प्रकाशित हुआ था। इसके और भी अनेक संपादन निकल चुके हैं।

आनन्दमठ- बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय


आनन्दमठ बंगाली साहित्यकार बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय के द्वारा रचित एक प्रसिद्ध उपन्यास है, जिसकी रचना 1882 ई. में हुई थी। इस उपन्यास में ही बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय का पहले रचित (1874 ई.) गीत 'वन्देमातरम' भी समाविष्ट था, जो स्वतंत्रता की चेतना का राष्ट्रव्यापी मंत्र बना। 'आनन्दमठ' पहले 'बंगदर्शन' नामक एक पत्रिका में धारावाहिक रूप में प्रकाशित होता रहा था। वन्देमातरम गीत, जिसने सभी भारतवासियों को देश की आज़ादी के प्रति जागरुक किया और उनमें एक नई चेतना जागृत कर दी, वह 'आनन्दमठ' में ही संकलित था। सन 1952 में बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय के इस उपन्यास पर "आनन्दमठ" नाम से एक फ़िल्म भी बनी थी, जिसमें 'वन्देमातरम' गीत भी प्रमुख रूप से शामिल किया गया था। यह फ़िल्म हेमेन गुप्ता निर्देशित की गई थी और इसमें हेमन्त कुमार (हेमन्त दा) का संगीत था। फ़िल्म में उस समय के चर्चित कलाकारों- पृथ्वीराज कपूर, भारतभूषण, गीता बाली, प्रदीप कुमार आदि ने अभिनय किया था। आनन्दमठ के 'वन्देमातरम' गीत को हेमन्त कुमार ने एक 'मार्चिंग सांग' के रूप में संगीतबद्ध किया था।

चन्द्रकान्ता सन्तति - देवकीनन्दन खत्री


चंद्रकांता संतति हिन्दी के शुरुआती उपन्यासों में है, जिसके लेखक बाबू देवकीनन्दन खत्री हैं। इसकी रचना 19वीं सदी के अंत में हुई थी। यह उपन्यास अत्यधिक लोकप्रिय हुआ था और कहा जाता है कि इसे पढ़ने के लिए कई लोगों ने देवनागरी सीखी थी। यह तिलिस्म और ऐय्यारी पर आधारित है और इसका नाम नायिका के नाम पर रखा गया है। चंद्रकांता संतति को एक प्रेम कथा कहा जा सकता है। इस शुद्ध लौकिक प्रेम कहानी को, दो दुश्मन राजघरानों, नौगढ़ और विजयगढ़ के बीच, प्रेम और घृणा का विरोधाभास आगे बढ़ाता है। विजयगढ़ की राजकुमारी चंद्रकांता और नौगढ़ के राजकुमार वीरेंद्र सिंह को आपस मे प्रेम है, लेकिन राजपरिवारों में दुश्मनी है। दुश्मनी का कारण है कि विजयगढ़ के महाराज नौगढ़ के राजा को अपने भाई की हत्या का ज़िम्मेदार मानते हैं। हालांकि इसका ज़िम्मेदार विजयगढ़ का महामंत्री क्रूर सिंह है, जो चंद्रकांता से शादी करने और विजयगढ़ का महाराज बनने का सपना देख रहा है। राजकुमारी चंद्रकांता और राजकुमार वीरेंद्र की प्रमुख कथा के साथ-साथ ऐयार तेजसिंह तथा ऐयारा चपला की प्रेम कहानी भी चलती रहती है। कथा का अंत नौगढ़ के राजा सुरेन्द्र सिंह के पुत्र वीरेंद्र तथा विजयगढ़ के राजा जयसिंह की पुत्री चंद्रकांता के परिणय से होता है।

मैला आंचल और परती परिकथा - फणीश्वरनाथ रेणु


परती परिकथा भारत के प्रसिद्ध साहित्यकार फणीश्वरनाथ रेणु का प्रसिद्ध उपन्यास है। अपने एक और प्रसिद्ध उपन्यास "मैला आंचल" में रेणु ने जिन नई राजनीतिक ताकतों का उभार दिखाते हुए सत्तांध चरित्रों के नैतिक पतन का खाका खींचा था, वह प्रक्रिया 'परती परिकथा' उपन्यास में पूर्ण होती है। उपन्यास 'परती परिकथा' का नायक 'जित्तन' परती जमीन को खेती लायक बनाने के लिए कुत्सित राजनीति का अनुभव लेकर और साथ ही उसका शिकार होकर परानपुर लौटता है। परानपुर का राजनीतिक परिदृश्य राष्ट्रीय राजनीति का लघु संस्करण है। साहित्य की तकरीबन हर विधा में अपनी लेखनी का लोहा मनवाने वाले उपन्यासकार फणीश्वरनाथ रेणु समकालीन ग्रामीण भारत की आवाज़ को उठाने तथा सामाजिक स्थितियों को कथा के माध्यम से चित्रित करने के लिए पहचाने जाते हैं। 'पद्मश्री' से सम्मानित महान लेखक रेणु जी का जन्म बिहार के तत्कालीन पूर्णिया ज़िले के फारबिसगंज के निकट एक गाँव में 4 मार्च, 1921 को हुआ था। नेपाल से उन्होंने दसवीं की परीक्षा पास की थी। 'बिहार विश्वविद्यालय' के 'लक्ष्मी नारायण दुबे महाविद्यालय' के अंग्रेज़ी विभाग के अवकाश प्राप्त विभागाध्यक्ष और वरिष्ठ लेखक एस.के. प्रसून के अनुसार रेणु ने "मैला आंचल" के माध्यम से न केवल बिहार बल्कि पूरे देश के वंचितों और पिछड़ों की पीड़ा को उकेरा। रेणु ने 1942 के 'स्वतंत्रता संग्राम' में हिस्सा लिया और 1950 के क़रीब उन्होंने नेपाल में लोकतंत्र की स्थापना के संघर्ष में भी हिस्सा लिया था। "काशी हिंदू विश्विविद्यालय" से शिक्षा ग्रहण करने वाले फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी "मारे गए गुलफ़ाम" पर "तीसरी कसम" नामक एक फ़िल्म भी बन चुकी है, जो ग्रामीण पृष्ठभूमि का अत्यंत बारीकी से किया गया भावनात्मक चित्रण है। फणीश्वरनाथ रेणु प्रेमचंद युग के बाद आधुनिक हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक सफल और प्रभावी लेखकों में से हैं।
कुल 36 साल की अपने लेखनी के शुरुआत में फणीश्वरनाथ रेणु कवि बनना चाहते थे और इन 36 वर्षों में उन्होंने न मात्र साहित्य की हर विधा में मिसाल कायम की वरन् राजनीति में सक्रिय भागेदारी निभायी और चुनाव भी लड़े। रेणु उस समाज की जिंदगी से कटे नहीं थे, जिसको वे काग़ज़ पर अक्षरों में रच रहे थे। यह तथ्य रेणु को अपने समकालीन लेखकों खासकर नयी कहानी के पुरोधाओं से अलग करता है। यह उन्हें उस प्रचलित आधुनिक पद्धति से भी कुछ दूरी पर खड़ा रखता है, जिसमें ज्ञान-अर्जन हेतु असम्पृक्तता पर बल दिया जाता था। रेणु का अपने अंचल की जिंदगी में इस सक्रियता का उनके शिल्प के लिये क्या मायने होगा? लोथार लुत्से ने यही सवाल उनसे पूछा और रेणु नयी कहानी के लेखकों पर बिफर उठे। नयी कहानी के लेखकों के विपरीत फणीश्वरनाथ रेणु शहर के बदले गाँव पर केंद्रित हैं, लेकिन जो रेणु को उनके समकालीन लेखकों से जोड़ता है, वह है अन्तःमन और आतंरिक पैठने की अदम्य चाह। नयी कहानी के लेखक मानवीय चरित्र के भीतर उर्ध्वाधर घुसने की जद्दोजहद में हैं तो रेणु अंचल को मानवीय चरित्र देने की फिराक में। लेकिन रेणु अपने चरित्र को मनोविज्ञानिकों के सामान सामने बैठकर अवलोकन नहीं करते, वे खुद एक पात्र हैं। इस अंचल की जिंदगी में शामिल, फ़सल बोने-काटने में हिस्सेदार। रेणु के चरित्र अपने अंचल के इतिहास को साथ लेकर चलता है, लेकिन ये पात्र जो रेणु की जिंदगी से किसी न किसी रूप में जुड़े, इस अंचल के जीते जागते लोग हुआ करते थे, कभी भी स्वयं को इस अंचल से मुक्त नहीं कर पाते हैं।
फणीश्वरनाथ रेणु के उपन्यास 'मैला आंचल' के समान ही 'परती परिकथा' भी एक गाँव के परिवेश के परिवर्तन की कहानी है। यहाँ भी बाँध बनता है, यहाँ भी सपने आकार लेते हैं। नेहरुवादी विकासमूलक सपने। 'परती परिकथा' के अंत की ओर पाठक एक ऐसे ही जश्न से रुबरु होता है। रेणु जी के उपन्यास के गाँव और फ़िल्म 'मदर इंडिया' के गाँव में एक बड़ा फर्क है। रेणु के गाँव को उत्तर भारत में किसी दूसरे क्षेत्र में प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता। यह कोशी नदी के पूरब का गाँव है, इसे कोशी के पच्छिम भी नहीं सरका सकते। 'मदर इंडिया' और 'परती परिकथा' दो रूप हैं। सन 1950 के गाँव पर नेहरुवादी आधुनिकता और औपनिवेशिकता। 'मदर इंडिया' जिसमें व्यक्ति की कल्पना को इज़ाज़त है जगह चुनने की, क्योंकि स्थानिकता के विस्तार में जगह की विशिष्टताओं को खुरचकर समतल कर दिया गया है। 'परती परिकथा' पाठक के स्थानजनित कल्पना को जगह के इर्द-गिर्द समेटने की कोशिश है। फणीश्वरनाथ रेणु के 'परती परिकथा' और "मैला आंचल" ये दोनों ही उपन्यास भारत के गाँवों के पिछड़ेपन की कहानी हैं। एक में औरत के जीवन-चरित के तौर पर, दूसरे में धरती के टुकड़े की। यह पिछड़ा टुकड़ा है पूर्णिया ज़िले का एक गाँव।
रेणु जी के उपन्यास 'मैला आंचल' पर जब तरह-तरह के आरोप लगाये जा रहे थे, आलोचना-प्रत्यालोचना का माहौल गर्म था, रेणु 'परती परिकथा' के लेखन में जुटे थे। इलाहाबाद से उपेंद्रनाथ अश्क के संपादन में 'संकेत' नामक वृहद संकलन प्रकाशित हुआ, जिसमें रेणु का रिपोर्ताज 'एकलव्य के नोट्स' छपा। 'एकलव्य के नोट्स' के कई अंश रेणु ने 'परती परिकथा' में शामिल किए। इस उपन्यास का लेखन उन्होंने पटना में शुरू किया, पर वहाँ जब रेणु के विषय में तरह-तरह की अफवाहें उड़ाई जाने लगीं, तो वे गाँव चले गए। पर गाँव में अनेक तरह की समस्याएँ और झंझट! वे वहाँ से हजारीबाग चले आए और 'परती परिकथा' के एक भाग को यहीं पर लिखा। हजारीबाग में रेणु जी कि सुसराल थी। वे यहाँ भी लम्बे समय तक नहीं रह सकते थे। उस वक्त 'राजकमल प्रकाशन' और ओमप्रकाशजी की मुख्य गतिविधियों का केंद्र इलाहाबाद था। ओमप्रकाशजी ने रेणु को इलाहाबाद में बुलवा लिया और रेणु वहाँ लूकरगंज मुहल्ले में एक मकान लेकर रहने लगे। 'परती परिकथा' का तीन चौथाई भाग वहीं लिखा गया। बाद में इलाहाबाद में भी रेणु को परेशान करने वाली शक्तियाँ ज्यादा कारगर होने लगीं, तो वे बनारस चले गए और उपन्यास वहीं पर पूरा किया।
बनारस के ही 'सन्मति मुद्रणालय' में 'परती परिकथा' का मुद्रण हुआ। सितम्बर 1957 में इसका प्रकाशन हुआ। 'राजकमल प्रकाशन' इस उपन्यास का विज्ञापन बहुत पहले से ही कर रहा था और इस कृति की प्रतीक्षा इसके प्रकाशन के पूर्व ही होने लगी थी। 'राजकमल प्रकाशन' ने दिल्ली और पटना में इसका भव्य प्रकाशनोत्सव मनाया। दिल्ली के तीन दैनिक पत्रों 'हिन्दुस्तान टाइम्स', 'हिन्दुस्तान', और 'नवभारत टाइम्स' में यह विज्ञापन छपवाया गया कि 'परती परिकथा' के लेखक श्री रेणु पुस्तक के प्रकाशन के दिन यानी 21 सितम्बर, 1957 को 2 के 5 बजे सांय तक 'राजकमल प्रकाशन' में उपस्थित रहेंगे, तथा जो पाठक इस उपन्यास को खरीदेंगे, उस पर हस्ताक्षर देंगे। पाठकों तथा लेखकों में इस प्रकार सम्पर्क स्थापित करने का यह पहला प्रयास था। अनेक पाठकों ने 'मैला आंचल' लिखकर एकाएक ख्याति पाने वाले अपने प्रिय लेखक से व्यक्तिगत परिचय प्राप्त करने के इस सुअवसर का लाभ उठाया और लेखक को भी अनेक जीवन-स्तरों से आने वाले पाठकों से मिल कर एक नया अनुभव हुआ। यही कार्यक्रम 28 सितम्बर, 1957 को 'राजकमल प्रकाशन' के पटना कार्यालय में भी दुहराया गया।
दिल्ली में 21 सितम्बर, 1957 को शाम के छह बजे वेंगर रेस्टोराँ में 'परती परिकथा' के प्रकाशनोत्सव के उपलक्ष्य में जलपान का आयोजन हुआ। इस अवसर पर हिन्दी के उदीयमान और वयोवृद्ध लेखकों तथा प्रकाशकों का जो सम्मिलन हुआ, वह अभूतपूर्व था। श्री दिनकर, बालकृष्ण शर्मा नवीन, जैनेंद्र, बनारसीदास चतुर्वेदी, आचार्य चतुरसेन शास्त्री, नगेन्द्र, उदयशंकर भट्ट, बारान्निकोण, रामधन शास्त्री, नरेश मेहता, रघुवीर सहाय, महावीर अधिकारी, गोपालकृष्ण कौल, लक्ष्मण राव जोशी, सुहैल, अजीमावादी, प्रयागनारायण त्रिपाठी, मन्मथनाथ गुप्त, सत्यवती मल्लिक, सावित्री देवी वर्मा, विष्णु प्रभाकर, क्षेमचंद्र सुमन, शिवदानसिंह चौहान, संतराम, नेमिचंद्र जैन, राधामुकुंद मुखर्जी, शमशेरसिंह नरूला, श्रीराम शर्मा 'राम' तथा नर्मदेश्वर आदि लेखक मौजूद थे। इस अवसर पर शिवदानसिंह चौहान ने 'परती परिकथा' पर अपना लम्बा भाषण दिया। 'परती परिकथा' पर बोलते हुए उन्होंने कहा- "यह हिन्दी का अब तक का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास है, इसे सर्वश्रेष्ठ भारतीय उपन्यासों में रखा जा सकता है और पाश्चात्य साहित्य में इस बीच (यानी पिछले पाँच-सात वर्षों में) जो महत्त्वपूर्ण उपन्यास प्रकाशित हुए हैं, उनमें से किसी से भी यह टक्कर ले सकता है। यह हम सब के लिए गर्व का विषय है।' बालकृष्ण शर्मा नवीन ने कहा- "आपने निरीक्षण और स्मृति-चित्रण का अद्भुत सामर्थ्य है। भारतीय ग्राम जीवन में जो कुछ कुत्सित, द्वेषपूर्ण, संकुचित, कलहप्रिय, नीच-वृत्ति है, उसे आपने अत्यंत, अत्यंत सहानुभूतिपूर्वक व्यक्त किया है। इस निम्न वृत्ति में आप खो नहीं गए हैं। भारत के गाँवों में आपने मानवत्व को देखा है। आप निराश नहीं हैं। आप पराजयवादी नहीं हैं। आपने आशावादिता को पंक से कमलवत्, विकसित और पुष्पित किया है।... 'परती परिकथा' उपन्यास नहीं है, वह तो भारतीय जन की आत्मकथा है।' पटना में 'परती परिकथा' का प्रकाशनोत्सव 28 सितम्बर, 1957 को शाम छह बजे सिन्हा लाइब्रेरी के हॉल में मनाया गया। इसमें सैकड़ों लेखक, संपादक, प्रकाशक तथा नगर के प्रतिष्ठित व्यक्ति मौजूद थे। इनमें प्रमुख व्यक्तियों के नाम हैं- आचार्य शिवपूजन सहाय, रामधारी सिंह दिनकर, नलिनविलोचन शर्मा, छविनाथ पाण्डेय, नवलकिशोर गौड़, हरिमोहन झा, अनूपलाल मंडल, नर्मदेश्वर प्रसाद, बी.एन. माधव, प्रफुल्लचंद्र ओझा मुक्त, कामताप्रसाद सिंह 'काम', देवेंद्रप्रसाद सिंह, सुशीला कोइराला (बी. पी. कोइराला की पत्नी), रामदयाल पांडेय, हिमांशु श्रीवास्तव, शिवचंद्र शर्मा, सुमन वाजपेयी, रंजन सूरिदेव आदि। आचार्य शिवपूजन सहाय ने रेणु को आशीर्वाद दिया। नलिनविलोचन शर्मा ने रेणु के कृतित्व का संक्षिप्त परिचय देते हुए बधाई दी। दिनकरजी ने इस अवसर पर कहा कि- 'परती परिकथा' में लेखक ने जो ईमानदारी बरती है, उससे अधिक ईमानदारी की किसी लेखक से उम्मीद भी नहीं की जा सकती। उन्होंने बताया कि उपन्यास ने उन्हें इतना पकड़ा कि ज़रा भी फुर्सत पाने पर वे इसे पढ़ने बैठ जाते थे।
'परती परिकथा' के छपते ही संपूर्ण हिन्दी जगत में इसकी धूम मच गई। वरिष्ठ कथाकार यशपाल ने 'परती परिकथा' पढ़कर उन्हें एक लंबा पत्र लिखा-"(पुस्तक) आज दोपहर तक पूरी पढ़ डाली है। इस बीच दाँत-दर्द ने भी कुछ शिथिलता की और 'परती परिकथा' ने दाँत-दर्द सहने में सहायता दी। 'बीसियों लोगों ने प्रशंसा की होगी। जिसे नहीं रुची, उसकी समझ कुछ और ही ढंग की होगी। मुझे तो आरंभ से अंत तक इतना सुन्दर लगा कि प्रशंसा में अत्युक्ति का भय नहीं रहता। अभिव्यक्ति के लिए ध्वनियों का प्रयोग, मुहावरों के लटके और भाषा कि सरलता की क्या प्रशंसा करूँ। भाषा का चुनाव वस्तु वर्णन के बिना भी एक विशेष वातावरण और चेतना जगाए रखता है। सहज भाषा के लिए क्या कहूँ, वह आपकी अपनी भाषा और आपके रक्त और स्वभाव में रमी हुई है। जैसे भाव में से उद्धृत है! हम इस भाषा को लाख सीखें, परन्तु आपका सहज कौशल हमारी पहुँच में कैसे आयेगा? प्रयोजन को भी आपने ऐसे बैठाया है कि प्ले-बैक के जोड़ की अनुभूति या उखड़न कहीं नहीं हो पाती। शब्द और अर्थ दोनों ही ढंग का हास्य भी, पुलाव में काली मिर्च की तरह अंदाज से बिखरा हुआ है, आद्यंत चमक बनी रहती है।"
एक ओर इस कृति को हिन्दी के महानतम उपन्यास के रूप में स्वीकारा जा रहा था, तो दूसरी ओर इसकी प्रतीकूल समीक्षाएँ भी आईं। श्रीपत राय, जिन्होंने 'मैला आंचल' की बेहद प्रशंसा की थी, 'कल्पना' के फ़रवरी, 1958 के अंक में उपन्यास के मौलिक आग्रह तथा 'परती परिकथा' लेख लिखकर इसे उपन्यास तक मानने से इनकार किया। बालकृष्ण राव, शम्भुनाथ सिंह आदि ने भी श्रीपत राय की तरह ही इसकी प्रतिकूल समीक्षा की और इसे उपन्यास के शास्त्रीय निकष पर एक असफल कृति माना। यहाँ तक कि आचार्य नलिनविलोचन शर्मा ने 'साहित्य' के जनवरी, 1958 के अंक में 'परती परिकथा' को खारिज करते हुए लेख लिखा। इसी क्रम में डॉ. रामविलास शर्मा ने 1958 में ही रेणु के 'मैला आँचल' और 'परती परिकथा' पर तीखा आलोचनात्मक लेख लिखा, जो उनकी पुस्तक 'आस्था और सौंदर्य' में संकलित है। रेणु के प्रति इन आलोचकों के इस रवैये पर यशपालजी बेहद क्षुब्द हुए और उन्होंने 'नया पथ' के मार्च, 1958 के अंक में एक आक्रामक लेख लिखा- आलोचना का उल्कापात : 'परती परिकथा' की अद्भुत समीक्षाएँ।
रेणु की आन्तरिकता अंचल की भाषा में ही नहीं रुकती है वरन् वे इतिहास और भूगोल से निरंतर खेलते हैं। लेकिन गौरतलब है कि रेणु का न तो इतिहास ही आधुनिकता का इतिहास है और न ही उनका भूगोल सेक्यूलर जगहों की निर्मितियों पर आधरित है। रेणु के कथा साहित्य में इतिहास अतीत के चिन्हों के रूप में यत्र-तत्र बिखरा हुआ है, जो समकालीन से जुदा नहीं होकर उनको पहचान देता है। यह सांस्कृतिक-अतीत है अपने बहुवचन में। कोसी के साथ रेणु का सरोकार इसका एक उदहारण है। कोसी मैया भी, भगवती भी, एक उन्मुक्त किशोरी भी और सास-ननद से सताई अबला से डायन बनी सबला भी। ध्यान देने लायक यह भी रेणु का लोक जगत लेखक के लिए किसी सांस्कृतिक भण्डार के सामान नहीं है, जिसके लिए लेखक फोक लोरिस्ट के सामान शुद्धतावादी नजरिया अपनाए। रेणु के सोहर, फाग, बटगमनी, समदऊन आदि गाँधी-जवाहर से भी ताल्लुक रखते हैं। एक अजीब किस्म की रागधर्मिता है, समकालीन घटनाओं को समेटे हुए। रेणु का लेखन अनेक बहुवचनों से मिलकर बना है, जिसमें प्रांत की सांस्कृ्तिक स्मृति, सामुदायिक और सामाजिक ताने-बाने और नैतिकता सभी कुछ शामिल तो है, लेकिन इनका शामिल होना पहले से चले आ रहे साहित्यिक मान्यताओं और मानदण्डों को तोड़ता-मरोड़ता है, जैसे 'मैला-आंचल' के दूसरे ही अध्याय में हम पाते हैं– तीन आने की लबनी ताड़ी, रोक साला मोटरगाड़ी। इन बहुवचनों के बीच गाँव को स्थापित करने के लिये रेणु ने शिल्प से संबंधित बहुतेरे प्रयोग किये, जिससे अतीत की संश्लिष्टता के साथ बदलते ग्रामीण समाज की कहानी एक विशिष्ट एसथेटिक संवेदना के साथ सामने आयी और आँचलिक साहित्य की एक नयी विधा का सूत्रपात हुआ।
इसे एक ऐतिहासिक संयोग भी माना जा सकता है कि महबूब ख़ान की मशहूर सिनेमा 'मदर इंडिया' और फणीश्वरनाथ रेणु का दूसरा उपन्यास 'परती परिकथा' वर्ष 1957 में एक मास के भीतर ही प्रदर्शित हुए थे। 'मदर इंडिया' उस वर्ष सबसे पहले 25 अक्टूबर को बम्बई और कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) में परदे पर आयी और 'परती परिकथा' के लिये इससे कुछ पहले 21 सितम्बर को 'राजकमल प्रकाशन' के दफ्तर दिल्ली में और 28 सितम्बर को पटना में बड़े धूम-धाम से 'प्रकाशनोत्सव' मनाया गया। देश के अख़बारों में इश्तेहार छापे गये, लेखक से मिलिये कार्यक्रम और जलपान का आयोजन भी साथ-साथ था। यह भी उल्लेखनीय है कि यह देश के स्वाधीनता की दसवीं सालगिरह भी थी। फ़िल्म 'मदर इंडिया' और 'परती परिकथा' दोनों ही भारत के ग्रामीण परिवेश के बदलाव की दास्तान हैं। 'मदर इंडिया' की कहानी फ्लैश-बैक में चलती है, जिसके घटना-क्रम में हम एक ऐसे धरातल से प्रवेश करते हैं, जो पचास के दशक के नवभारत के सपनों की धरती है। एक इच्छित भारत जहाँ आपकी आँखें ट्रैक्टरों की घरघराहट, बिजली के तारों और बाँध के पानी की आशा से चका-चौंध हैं।
'मैला आँचल' और 'परती परिकथा' स्वातंत्र्योत्तर कथा साहित्य की बहुत बड़ी उपलब्धि है। हिन्दी में अब तक इन दोनों उपन्यासों के समान विस्तृत परिदृश्य के बहुत कम उपन्यास लिखे गए। इन दोनों कथा कृतियों पर अनेक खारिज करने वाले तीखे लेख लिखे जा चुके हैं। फिर भी इनका महत्त्व आज तक बना हुआ है और अब भी ये उपन्यास प्रमुख कथा समीक्षकों के सामने नई दृष्टि से मूल्यांकन के लिए आकर्षित करते हैं। इन दोनों उपन्यासों ने हिन्दी साहित्य में 'आंचलिक उपन्यास' नामक एक नयी विधा को जन्म दिया और आंचलिकता पर उस समय से अब तक एक लंबी बहस जारी है। 'मैला आँचल' और 'परती परिकथा' धरती पुत्रों की सिर्फ़ व्यग्र कथा प्रस्तुत करने वाली कथा कृतियाँ ही नहीं हैं, न सिर्फ़ भूमि-संघर्षों को उजागर करने वाली कथा कृतियाँ। इनमें सिर्फ़ लोक-संस्कृति की रंगारंग अर्थ-छवियाँ ही नहीं हैं। इन उपन्यासों में भारत की राष्ट्रीय समस्याओं, बदलते हुए राजनीतिक, सामाजिक मूल्यों पर गहरी नजर है। ये उपन्यास आंचलिक होते हुए भी देश की वास्तविक छवि को प्रस्तुत करने वाले हैं। हिन्दी में ऐसी कथा कृतियाँ बहुत कम हैं, जो अपनी स्थानीयता या स्थानीय रंग के कारण याद तो की ही जाती हों, साथ ही जो अपनी संकेतात्मकता या मूल आशय में इतनी परिव्याप्ति भी लिए हुए हों।

पुस्तकों पर पुरस्कार


तकनीकी विकास के साथ आज कंप्यूटर युग में भी किताबों का न महत्व कम हुआ है, न सम्मान। बस फर्क है तो सिर्फ इतना नई पीढ़ी इससे अनजान और बेगानी-सी होती जा रही है। अन्य मंचों के साथ यह साहित्यकारों (और प्रकाशकों की उससे ज्यादा)  की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह इस पीढ़ी को किस तरह सृजन की दुनिया से पृथक न रह जाने दें। यह भी हकीकत है कि युवा पुस्तकों से अलग नहीं हैं बल्कि उनकी पूरी पढ़ाई-लिखाई पुस्तकों पर ही आधारित होती है, बस आभासी युग ने उन्हें साहित्य प्रवाह से प्रवाह से भटका सा दिया है। उन्हें समझाने की आवश्यकता है कि पुस्तके सबसे विश्वसनीय मित्र होती हैं। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद को पुस्तकों से बड़ा प्रेम था। उनके घर में सभी प्रकार की पुस्तकें थीं। राजेंद्र बाबू रात को सोने से पहले पुस्तकें अवश्य पढ़ते थे। एक बार वे किसी कार्य से बाहर गए हुए थे। जब कई दिनों बाद घर वापस लौटे तो यह देखकर उन्हें बहुत दुख हुआ कि उनकी पुस्तकें उल्टी -सीधी पड़ी हुई हैं और कई पुस्तकों के पन्ने भी फटे हैं। वे समझ गए कि यह काम घर के बच्चों का है। उन्होंने सभी बच्चों को बुलाकर पूछा - किताबों की यह दशा किसने की है? बच्चे डांट के भय से कह गए कि उन्होंने तो किताबों को छुआ भी नहीं है और उन्हें पता नहीं कि किताबों को किसने अस्त-व्यस्त किया है। राजेंद्र बाबू बहुत बुद्धिमान थे और बच्चों के प्रति स्नेही भी। उन्होंने सच्चई का पता लगाने के लिए बच्चों से बड़े प्रेम से कहा - देखो सब लोग सच बताओ। जिसने किताबों को नुकसान पहुंचाया है उसे मैं टॉफियां खिलाऊंगा। तब सभी बच्चों ने बढ़-चढ़कर अपने द्वारा की गई शरारतें बता दीं। राजेंद्र बाबू ने उन्हें टॉफियां देते हुए समझाया कि किताबें फाड़ना अच्छा नहीं है, क्योंकि उनसे हमें ज्ञान मिलता है। वे हमारी गुरु हैं। किताबों को नुकसान पहुंचाना गुरु को अपमानित करने जैसा है। किताबों पर विभिन्न प्रकार के पुरस्कार दिये जाते हैं-


आत्माराम पुरस्कार
आत्माराम पुरस्कार 'केन्द्रीय हिन्दी संस्थान' द्वारा प्रदान किया जाता है। यह पुरस्कार वैज्ञानिक एवं तकनीकी साहित्य तथा उपकरण विकास के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए दिया जाता है। यह देश का एक प्रतिष्ठित सम्मान है। 'मानव संसाधन विकास मंत्रालय', भारत सरकार के केन्द्रीय हिन्दी संस्थान द्वारा 'आत्मराम पुरस्कार' के तहत एक लाख रुपये की राशि सम्मान स्वरूप प्रदान की जाती है।

पद्मभूषण डॉ. मोटूरि सत्यनारायण पुरस्कार
पद्मभूषण डॉ. मोटूरि सत्यनारायण पुरस्कार 'मानव संसाधन विकास मंत्रालय', भारत के 'केन्द्रीय हिन्दी संस्थान' द्वारा प्रदान किया जाता है। यह पुरस्कार एक साहित्यिक पुरस्कार है। पुरस्कार भारतीय मूल के उन हिन्दी विद्वानों को दिया जाता है, जो विदेश में हिन्दी भाषा अथवा साहित्य के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान करते हैं। इस पुरस्कार की शुरुआत तमिलनाडु के हिन्दी सेवी एवं विद्वान 'मोटूरि सत्यनारायण' के नाम पर 1989 में किया गया था। यह पुरस्कार भारत के राष्ट्रपति प्रदान करते हैं। प्रथम 'पद्मभूषण डॉ. मोटूरि सत्यनारायण पुरस्कार' 2002 में कनाडा के 'हरिशंकर आदेश' को प्रदान किया गया था। पुरस्कार के तहत एक लाख रुपये की राशि नकद दी जाती है। इसके साथ ही एक स्मृतिचिह्न, प्रशस्ति-पत्र और शॉल भी दिया जाता है।

केदार सम्मान
केदार सम्मान प्रगतिशील हिंदी कविता के शीर्षस्थ कवि केदारनाथ अग्रवाल की स्मृति में केदार शोध पीठ की ओर से प्रति वर्ष दिया जाने वाला एक प्रमुख साहित्य सम्मान है। यह मुख्यत: हिन्दी कविता के लिए है, केदार शोध पीठ न्यास' बान्दा द्वारा सन् 1996 से प्रति वर्ष प्रतिष्ठित प्रगतिशील कवि केदारनाथ अग्रवाल की स्मृति में यह सम्मान ऐसी प्रतिभाओं को दिया जाता है जिन्होंने केदार की काव्यधारा को आगे बढ़ाने में अपनी रचनाशीलता द्वारा कोई अवदान दिया हो। पुरस्कार का निर्णय एक चयन तथा निर्णायक समिति द्वारा किया जाता है। प्रतिवर्ष अगस्त के महीने में आयोजित एक भव्य समारोह में यह सम्मान दिया जाता है।

शलाका सम्मान
शलाका सम्मान हिंदी अकादमी की ओर से दिया जाने वाला सर्वोच्च सम्मान है। हिन्दी जगत में सशक्त हस्ताक्षर के रूप में विख्यात तथा हिन्दी भाषा और साहित्य के क्षेत्र में समर्पित भाव से काम करने वाले मनीषी विद्वानों, हिन्दी के विकास तथा संवर्धन में सतत संलग्न क़लम के धनी, मानव मन के चितरों तथा मूर्धन्य साहित्यकारों के प्रति अपने आदर और सम्मान की भावना को व्यक्त करने के लिए हिन्दी अकादमी प्रतिवर्ष एक श्रेष्ठतम साहित्यकार को शलाका सम्मान से सम्मानित करती है। वर्ष 2007 तक सम्मान स्वरूप, 1,11,111/-रुपये की धनराशि, प्रशस्ति-पत्र एवं प्रतीक चिह्‌न आदि प्रदान किये जाते थे परन्तु अकादमी सम्मान व पुरस्कारों की नयी व्यवस्था के अंतरगत वर्ष 2007 सम्मान स्वरूप 2,00,000/- (दो लाख) रुपये की धनराशि, प्रशस्ति-पत्र एवं प्रतीक चिह्‌न आदि प्रदान किये जाते हैं।

गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार
गणेश शंकर विद्यार्थी पुरस्कार हिन्दी पत्रकारिता तथा रचनात्मक साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य के लिए दिया जाता है। यह पुरस्कार केंद्रीय हिन्दी संस्थान आगरा द्वारा दिया जाता है। इस पुरस्कार प्राप्त विद्वानों को राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित किया जाता है। विजेताओं को एक-एक लाख रुपए, एक शॉल और प्रशस्तिपत्र प्रदान किया जाता है। केंद्रीय हिन्दी संस्थान आगरा ने वर्ष 1989 में 'हिन्दी सेवी सम्मान योजना' की शुरुआत की थी।

सरस्वती सम्मान
सरस्वती सम्मान एक साहित्य पुरस्कार है। के.के बिड़ला फाउंडेशन द्वारा 1991 में सरस्वती सम्मान की शुरुआत की गई थी, जिसके तहत भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल भाषाओं के भारतीय लेखकों की पिछले 10 सालों में प्रकाशित साहित्यिक कृति को पुरस्कृत किया जाता है। इसके तहत सात लाख पचास हज़ार रुपये नकद, प्रशस्ति पत्र और पट्टिका प्रदान की जाती है। पहला सरस्वती सम्मान 1991 में हिन्दी के कालजयी कवि डॉ. हरिवंश राय बच्चन को उनकी चार भागों में प्रकाशित आत्मकथा को दिया गया।

राज्य स्तरीय शिखर सम्मान
राज्य स्तरीय शिखर सम्मान मध्य प्रदेश द्वारा प्रदान किया जाता है। मध्य प्रदेश में साहित्य और विभिन्न कलाओं के क्षेत्र में जो सृजन कार्य हो रहा है, उसके समुचित सम्मान की आवश्यकता असंदिग्ध है। राज्य शासन ने समग्र योगदान के आधार पर साहित्य, प्रदर्शनकारी कलाओं और रूपंकर कलाओं में एक-एक राज्यस्तरीय शिखर सम्मान स्थापित किया है। प्रत्येक सम्मान की राशि 31,000 रुपए है। शिखर सम्मान केवल मध्य प्रदेश के कलाकारों और साहित्यकारों को ही प्रदान किया जाता है। मध्य प्रदेश के साहित्यकार और कलाकार से अभिप्राय प्रदेश के स्थायी निवासी की वैधानिक अर्हताओं के अलावा उन व्यक्तियों से भी है, जिन्होंने प्रदेश में कला की सुदीर्घ साधना की है और जिन्होंने प्रदेश में ही अपना निवास बना लिया है और यहीं उनकी कर्मभूमि है।

साहित्यकार सम्मान
साहित्यकार सम्मान हिन्दी भाषा और साहित्य के क्षेत्र में समग्र योगदान तथा विशिष्ट सेवा और राष्ट्र भाषा प्रचार-प्रसार के लिए कार्य कर रहे उत्कृष्ट साहित्यकारों, पत्रकारों आदि को प्रदान किया जाता है। हिन्दी अकादमी, दिल्ली का यह प्रयास रहा है कि वह ऐसे साहित्य कर्मियों की रचना धर्मिता, सृजनशीलता, मूल्य-चेतना और सामाजिक सांस्कृतिक एवं नैतिक दृष्टि से समृद्व साहित्य द्वारा की गई सेवाओं का सम्मान कर सके जिन्होंने आनन्द और ज्ञान के श्रोत को निरन्तरता प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है। चूंकि साहित्यकार, समाज और साहित्य को समर्पित जीवनयापन करते हैं। इसके लिए अकादमी का दायित्व बनता है कि उनकी सेवाओं का सही अर्थों में सम्मान करते हुए उन्हें समाज में सर्वोच्च स्थान प्रदान करे। इस सम्मान के लिए चुने हुए विद्वानों, साहित्यकारों, पत्रकारों को सम्मान स्वरूप 21,000/-रुपये की धनराशि, प्रशस्ति-पत्र एवं प्रतीक चिह्न आदि प्रदान किये जाते हैं।

साहित्यिक कृति सम्मान
साहित्यिक कृति सम्मान हिन्दी अकादमी, दिल्ली द्वारा दिया जाने वाला एक सम्मान है। इसके तहत लेखक अपनी लेखनी के माध्यम से साहित्य द्वारा समाज के लिए एक शाश्वत सामग्री जुटाता है। जिसके पठन-पाठन से मनुष्य अतीत की जानकारी के साथ-साथ अपने वर्तमान व भविष्य को सुखद, समृद्धशाली एवं प्रगतिशील बनाने की दिशा में अग्रसर होता है। समाज के उत्थान व राष्ट्र और विश्व की प्रगति के उद्‌देश्य से लिखी गयी ऐसी साहित्यिक कृतियों को अकादमी द्वारा पुरस्कृत किया जाता है। समाज चेता सृजनधर्मी लेखकों और साहित्यकारों का सम्मान कर समाज में उनकी और उनके कृतित्व की पहचान कराना अकादमी अपना परम कर्त्तव्य समझती है। इसी आशय से प्रतिवर्ष रचनात्मक एवं उद्देश्यपूर्ण साहित्य सृजन के लिए विभिन्न विधाओं की पुस्तकों को पुरस्कृत करने के लिए चुना जाता है। विगत कुछ वर्षों से अकादमी ने साहित्यिक विधाओं के अतिरिक्त भारतीय वाङ्‌मय से राष्ट्र-चेतना एवं संस्कृति के पुनर्जागरण में सशक्त लेखन के साथ-साथ महत्त्वपूर्ण योगदान कर रहे लेखकों को भी सम्मानित करके इस दिशा में एक ठोस क़दम उठाया है। इस योजना के अन्तर्गत 'विशिष्ट कृति सम्मान एवं साहित्यिक कृति सम्मान' और 'बाल एवं किशोर साहित्य कृति सम्मान' दिया जाता है।

सुब्रह्मण्यम भारती पुरस्कार
सुब्रह्मण्यम भारती पुरस्कार भारत के प्रतिष्ठित पुरस्कारों में से एक है। यह एक महत्त्वपूर्ण साहित्यिक सम्मान है, जो हिन्दी साहित्य में उल्लेखनीय योगदान के लिये 'केन्द्रीय हिन्दी संस्थान' द्वारा प्रदान किया जाता है। यह हिन्दी सेवी सम्मान है, जो कई हिन्दी विशेषज्ञों को उनके हिन्दी के प्रचार-प्रसार में विशिष्ट योगदान के लिये दिया जाता है। इस पुरस्कार के तहत एक लाख रुपये की राशि सम्मान स्वरूप प्रदान की जाती है।

राष्ट्रीय इक़बाल सम्मान
राष्टीय इक़बाल सम्मान साहित्य और कलाओं के क्षेत्र में उत्कृष्टता और सृजनात्मकता को सम्मानित करने की अपनी परम्परा के अनुसार मध्य प्रदेश शासन द्वारा प्रदान किया जाता है। मध्य प्रदेश शासन ने वर्ष 1986-87 में, उर्दू साहित्य में रचनात्मक लेखन के लिए 'इक़बाल सम्मान' स्थापित किया है। इस सम्मान में एक लाख रुपये की राशि और साथ ही प्रशस्ति पट्टिका भी प्रदान की जाती है। पुरस्कार उर्दू के सुप्रसिद्ध कवि अल्लामा इक़बाल के नाम पर दिया जाता है, जिन्होंने 20वीं शताब्दी के प्रारंभिक चार दशकों में उर्दू कविता को नये आयाम पदान किये थे। देश के अधिकतम भागों के साथ-साथ विदेश में भी अल्लामा इक़बाल को सम्मान की दृष्टि से देखा जाता है।

राष्ट्रीय कबीर सम्मान
मध्य प्रदेश शासन के संस्कृति विभाग ने साहित्य और सृजनात्मक कलाओं में उत्कृष्टता तथा श्रेष्ठता को सम्मानित करने, साहित्य और कलाओं में राष्ट्रीय मानदण्ड विकसित करने के लिए 'अखिल भारतीय सम्मानों' और राज्य स्तरीय सम्मानों की स्थापना की है। उत्कृष्टता और सृजन को राष्ट्रीय स्तर पर सम्मानित करने के लिए मध्यप्रदेश शासन ने भारतीय कविता के लिए राष्ट्रीय कबीर सम्मान की स्थापना की है। महान संत कवि कबीर ने सदियों पहले रचनाएँ की और समाज को नयी निर्भीकता दी थ। भारत में वे आज भी सबसे लोकप्रिय कवि हैं।

राष्ट्रीय मैथिलीशरण गुप्त सम्मान
मध्य प्रदेश शासन द्वारा साहित्य और कलाओं को प्रोत्साहन देने के लिए अनेक राष्ट्रीय और राज्य स्तर के सम्मानों की स्थापना की गयी है। हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में 'वार्षिक सम्मान' का नाम खड़ी बोली के शीर्ष कवि श्री मैथिलीशरण गुप्त की स्मृति में रखा गया है। यह सम्मान वर्ष 1987-88 से प्रारम्भ किया गया। इस सम्मान के अन्तर्गत एक लाख रुपये की राशि तथा प्रशस्ति पट्टिका भेंट की जाती है।

राष्ट्रीय शरद जोशी सम्मान
राष्ट्रीय स्तर पर उत्कृष्ट सृजन को सम्मानित करने की अपनी परम्परा का अनुसरण करते हुए मध्य प्रदेश शासन ने हिन्दी भाषा के व्यंग्य, ललित निबन्ध, संस्मरण, रिपोर्ताज, डायरी, पत्र इत्यादि विधाओं में रचनात्मक लेखन के लिए राष्ट्रीय शरद जोशी सम्मान स्थापित किया है। शरद जोशी मध्यप्रदेश के निवासी थे। उन्हें उनकी सशक्त और विपुल व्यंग्य रचनाओं ने साहित्य के राष्ट्रीय परिदृश्य पर प्रतिष्ठित किया। शरद जोशी ने व्यंग्य को नया कलेवर और वैविध्य दिया और समय की विसंगति और विडम्बना को अपनी प्रखर लेखनी से उजागर करते हुए समाज को दृष्टि और दिशा प्रदान करने के लिए सामाजिक रूप से उपयोगी रचनाओं को सृजित किया। उनकी व्यंग्य रचनाओं ने हिन्दी साहित्य की समृद्धि में अपना सुनिश्चित योगदान दिया है।

नवोदित लेखक पुरस्कार
नवोदित लेखक पुरस्कार हिन्दी अकादमी द्वारा प्रदत्त एक पुरस्कार है जो सदैव युवा प्रतिभाओं को प्रोत्साहन देने के लिए दिया जाता है और वास्तव में हिन्दी साहित्य को इनसे बड़ी आशाएं हैं जो स्थापित साहित्यकार हैं, प्रतिभा के धनी हैं और जिन्होंने हिन्दी भाषा और साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय भूमिका निभाई है। उनका सम्मान तो सर्वत्र होता ही है और होना भी चाहिए। परन्तु ऐसे साहित्यिक वट वृक्षों की छाया में पनप रही नयी पौध को भी प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। अकादमी प्रतिभाशाली युवा लेखकों और कवियों को उनके समुचित साहित्यिक विकास के लिए प्रोत्साहन देने के उद्धेच्च्य से 'नवोदित लेखक पुरस्कार प्रतियोगिता' के अन्तर्गत करती है। अकादमी द्वारा यह प्रतियोगिता दो आयु वर्गो में आयोजित की जाती है। प्रथम वर्ग 18 वर्ष से 24 वर्ष तक तथा द्वितीय वर्ग 25 वर्ष से 30 वर्ष तक के युवा लेखकों के कहानी, कविता, एकांकी व लेख आदि की चुनी हुई श्रेष्ठ रचनाओं के लिए यह पुरस्कार दिया जाता है। पुरस्कार राशि प्रथम 3,100/-, द्वितीय 2,500/-, तृतीय 2,000/- तथा प्रोत्साहन 1,100/- रुपये।

डॉ. जॉर्ज ग्रियर्सन पुरस्कार
डॉ. जॉर्ज ग्रियर्सन पुरस्कार प्रदान करने का शुभारम्भ 1994 से किया गया था। यह पुरस्कार 'केन्द्रीय हिन्दी संस्थान' द्वारा दिया जाता है। पुरस्कार प्राय: किसी जाने-माने विदेशी व्यक्ति को उसकी उल्लेखनीय हिन्दी सेवाओं के लिए प्रदान किया जाता है।

वो भला क्या जाने किताबों का दर्द


      जयप्रकाश त्रिपाठी

      यह कहानी फणीश्वरनाथ रेणु के लोकप्रिय उपन्यास 'परती परिकथा' की है। ठीक-ठीक याद नहीं आता है। उन दिनो 'रेणु' की रचनाएं पढ़ने का नशा-सा हो गया था। अग्निखोर, ऋणजल-धनजल, एक आदिम रात्रि की महक, ठुमरी, दीर्घतपा, नेपाली क्रांतिकथा, पंचलाइट, पलटू बाबू रोड, मारे गये गुलफाम, लाल पान की बेगम, वनतुलसी की गंध, संवदिया आदि। कुछ को पाठ्यक्रम की पुस्तकों से तो कुछ को इधर-उधर से जोड़-जुटाकर, खरीद-बीन कर।
     किताबें खरीदने के लिए मैं पहले हिंदी के प्रसिद्ध कम से कम आठ दस प्रकाशकों राजकमल, वाणी, किताब घर आदि से पुस्तक सूची मंगा लेता था। फिर उनमें से अपनी तलब की किताबों की सूची बनायी और पहुंच जाता वाराणसी के विश्वविद्यालय प्रकाशन संस्थान। उस दिन ढेर सारी किताबें खरीद लेने के बाद जेब में हाथ डाला तो एक किताब का भुगतान कम पड़ गया। उस समय परती परिकथा पेपर बैक में सिर्फ एक ही बची थी। पहले से पता था कि इस समय वह आउट आफ प्रिंट चल रही है। पता नहीं कब दोबारा छपे, इसलिए इस बार इस किताब को तो किसी कीमत पर छोड़ना नहीं था। मैंने पहले तो प्रकाशन संस्थान के मालिक से अनुनय-विनय किया कि प्रायः आता रहता हूं, इस पुस्तक की कीमत अगली बार चुका दूंगा। उसका टके से जवाब रहा- यह पान की दुकान नहीं है। मैं भी तैश खा गया। झट जेब में पड़ा रेल किराया निकाला, भुगतान किया और परती परिकथा को अन्य किताबों के साथ थैले में डाल कर पैदल रेलवे स्टेशन चल पड़ा। ट्रेन दो नंबर प्लेट फार्म पर खड़ी थी। अंदर सीट पर बैठने की बजाय सीधे बाथ रूम में घुसा और अंदर से कुंडी लगा ली। ट्रेन चल पड़ी। खुद पर कोफ्त हो रहा था और बेटिकट होने का डर भी। मन में जाने कैसे-कैसे खयाल आने-जाने लगे। डर बढ़ता गया, बढ़ता ही गया। कई यात्री भाई बाहर से दो चार बार दरवाजा पीटते, लौट जाते। मैं अंदर मन पर घना कुहासा बिछते ही कविताएं लिखने में डूब गया।

एक साल बाद

       एक अधमित्र वही परती परिकथा मुझसे पढ़ने के लिए ले गये। एक माह, दो माह, तीन माह...छह माह हो गये तो रहा नहीं गया। उस पुस्तक के साथ मेरे जीवन का वह दुखद-सुखद दिन जो जुड़ा हुआ था। मित्र के ड्राइंग रूम में   एक कोने पर नजर गयी। आधे कवर पेज पर अधखाया नमक-मिर्च चुपड़ा पड़ा था, जाने कब का। आधा गायब था। मुंह से बोल नहीं फूट पा रहे थे। रुआंसा-सा कुछ देर मित्र की थोथी गप्पें सुनता रहा और मन मसोस कर घर लौट गया। वह क्या जाने किताबों का दर्द।    


विश्व प्रसिद्ध पुस्तक गुलिवर्स ट्रेवल्स



गुलिवर्स ट्रेवल्स एक एंग्लो-आयरिश लेखक और पादरी जोनाथन स्विफ्ट के द्वारा लिखा गया एक उपन्यास है. यह मानव के स्वभाव पर तो व्यंग्य करता ही है, साथ ही अपने आप में "यात्रियों की कहानियों" की एक उप-साहित्यिक शैली की पैरोडी भी है. ये स्विफ्ट का जाना माना, काफी लंबा कार्य है, और अंग्रेजी साहित्य का एक क्लासिक उपन्यास है. यह किताब प्रकाशित किये जाने के तुरंत बाद काफी लोकप्रिय हो गयी, (जॉन गे ने 1726 में स्विफ्ट को लिखे एक पत्र में कहा कि "इसे सार्वभौमिक रूप से केबिनेट काउन्सिल से लेकर नर्सरी तक हर कोई पढ़ रहा है"; तब से, इसकी छपाई का काम कभी भी नहीं रुका. किताब अपने आप को एक अकुशल शीर्षक ट्रेवल्स इनटू सेवरल रिमोट नेशन्स ऑफ़ द वर्ल्ड के साथ, साधारण यात्री के विवरणात्मक वर्णन के रूप में प्रस्तुत करती है, इसकी लेखकारिता की पहचान केवल "लेम्यूल गुलिवर को दी गयी है, जो पहले एक सर्जन हैं और फिर कई जहाज़ों के कप्तान हैं." पाठ्य को काल्पनिक लेखक के द्वारा एक प्रथम-पुरुष के रूप में प्रस्तुत किया गया है, और नाम "गुलिवर" शीर्षक पृष्ठ के अलावा पूरी किताब में कहीं नहीं मिलता है. पाठ के तमाम प्रकाशन एक काल्पनिक पत्र से शुरू होते हैं. जिसका शीर्षक है "द पब्लिशर टू द रीडर" और "अ लेटर फ्रॉम केप्टन गुलिवर टू हिस कज़िन सिम्पसन" जो इस तथ्य को प्रस्तुत करता है कि मूल खाते में संपादन किया गया है और इसे लेम्यूल गुलिवर की अनुमति के बिना प्रकाशित किया गया है. तैयार पुस्तक को इसके बाद, चार भागों में विभाजित किया गया है.
अ वोयाज टू लिलिपुट
गुलिवर का वर्णन करने वाले भित्ति चित्र जो लिलिपुट के नागरिकों से घिरे हैं. 4 मई 1699 - 13 अप्रैल 1702 पुस्तक की शुरुआत एक बहुत ही छोटी प्रस्तावना के साथ होती है जिसमें गुलिवर, तत्कालीन पुस्तकों की शैली में, अपने जीवन की संक्षिप्त रुपरेखा देते हैं और अपनी यात्राओं से पहले के इतिहास को बताते हैं. उन्हें यात्रा में बहुत मजा आता है, हालांकि यात्राओं को पसंद करने के कारण ही उनका पतन होता है. अपनी पहली यात्रा में, गुलिवर एक जहाज के साथ डूब जाते हैं, और जब उन्हें होश आता है तो वे अपने आप को एक कैद में पाते हैं. जिन लोगों ने उन्हें बंधक बनाया है उनका आकार सामान्य मानव के आकार से बारह गुना कम है, उनकी उंचाई 6 इंच (15 सेंटीमीटर) से भी कम है, वे पडौसी और विरोधी देशों लिलिपुट और ब्लेफुस्कू के निवासी हैं. अच्छे व्यवहार का आश्वासन देने के बाद उन्हें लिलिपुट में रहने की जगह दे दी जाती है और वे दरबार के पसंदीदा बन जाते हैं. यहीं से, पुस्तक में गुलिवर के द्वारा लिलिपुट की दरबार का प्रेक्षण शुरू हो जाता है. गुलिवर लिलिपुट के लोगों की, उनके पडौसी ब्लेफुस्कू के बेड़े को चुराने में मदद करता है. जिससे लिलिपुट के लोग ब्लेफुस्कू के लोगों पर कब्जा कर लेते हैं. हालांकि, वह इस देश को लिलिपुट के प्रान्त में मिलाने से इनकार कर देता है, यह बात राजा और दरबार को पसंद नहीं आती. गुलिवर पर राजद्रोह का आरोप लगाया जाता है और उसे अंधा बना देने की सजा सुनाई जाती है. एक दयालु मित्र की मदद से, गुलिवर बच कर ब्लेफुस्कू चला जाता है, जहां उसे एक परित्यक्त नाव मिलती है, इस नाव पर सवार होकर किसी तरह वह एक गुजरते हुए जहाज तक पहुंच जाता है जो उसे सुरक्षित रूप से उसके घर पंहुचा देता है. लिलिपुट में रहने के लिए गुलिवर को जो इमारत दी गयी, वह बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस खंड में वे इसका वर्णन एक मंदिर के रूप में करते हैं, जिसमें कुछ साल पहले एक हत्या हुई थी, और इसलिए इस इमारत को छोड़ दिया गया था.
अ वोयाज टू ब्रोब्डिंगनाग
जब आगे बढ़ता हुआ जहाज एडवेंचर तूफ़ान के कारण अपने रास्ते से भटक जाता है और ताज़े पानी की खोज में इसे मजबूरन भूमि की तरफ जाना पड़ता है. तभी गुलिवर के साथी गुलिवर को छोड़ देते हैं, अब वह एक किसान को मिलता है जो 72-फुट (22 मी.) लंबा है (लिलिपुट का पैमाना लगभग 1:12 है, ब्रोब्डिंगनाग का पैमाना 12:1 है, गुलिवर को लगता है कि यह मनुष्य की ही एक प्रजाति है 10-yard (9.1 मी.)) वह गुलिवर को अपने घर ले आता है और उसकी बेटी गुलिवर का ध्यान रखती है. किसान उसके साथ जिज्ञासापूर्ण व्यवहार करता है और उसे धन देता है. यह बात फ़ैल जाती है और ब्रोब्डिंगनाग की रानी उसे देखना चाहती है. गुलिवर को पसंद करने लगती है और उसे खरीद कर अपने दरबार में एक पसंदीदा दरबारी के रूप में रख लेती है. चूंकि गुलिवर का आकार बहुत छोटा है, उसके लिए कुर्सियां, बिस्तर, चाकू, कांटे आदि बहुत बड़े आकार के होते हैं, रानी गुलिवर के लिए एक छोटा घर बनाने का आदेश देती है ताकि वह उसमें रह सके. इस बॉक्स को उसके यात्रा बॉक्स के रूप में संदर्भित किया जाता है.इसी बीच वह छोटे छोटे रोमांचक कार्यों का प्रदर्शन करता है जैसे विशालकाय भिड़ से लड़ना और एक बन्दर के द्वारा छत पर पहुंचना. वह राजा के साथ यूरोप की स्थिति के बारे में चर्चा करता है. गुलिवर के द्वारा किये गए यूरोप के इस विवरण से राजा प्रभावित नहीं होता है, विशेष रूप से बंदूकों और तोपों के उपयोग की शिक्षा से. समुंदर की एक यात्रा में, उसका "यात्रा बॉक्स" एक विशाल चील के द्वारा पकड़ लिया जाता है. यह चील गुलिवर और उसके बॉक्स को समुन्दर के बीचों बीच छोड़ देती है, जहां उसे कुछ नाविक पकड़ लेते हैं और इंग्लैण्ड पहुंचा देते हैं.
अ वोयाज टू लापुटा, बाल्निबारबी, लग्नाग, ग्लबडब्डरिब, एंड जापान
जब गुलिवर के जहाज पर समुद्री डाकुओं के द्वारा हमला किया गया, वह भारत के पास, एक उजाड़ चट्टानी द्वीप के पास अकेला छूट गया. सौभाग्य से लापुटा के एक उड़ान द्वीप के द्वारा उसे बचा लिया गया, लापुटा एक ऐसा साम्राज्य था, जो गणित और संगीत की कलाओं के प्रति समर्पित था परन्तु व्यावहारिक रूप से इन कलाओं का उपयोग नहीं कर पाया. विद्रोही शहर पर चट्टानें फेंकने की लापुटा की विधि भी यहीं से शुरू हुई, इस हवाई बमबारी को युद्ध की एक विधि के रूप में अपनाया गया. हालांकि यहां पर, वह एक कम रैंकिंग के दरबारी के अतिथि के रूप में देश का दौरा करता है और पाता है कि व्यावहारिक परिणामों की परवाह किये बिना विज्ञान के अंधाधुंध प्रयोग किये जा रहें हैं जो बर्बादी का कारण बन रहें हैं और शाही समाज और इसके प्रयोगों पर व्यंग्य हैं. अब गुलिवर को एक डच व्यापारी का इंतज़ार करने के लिए बालनीबार्बी लाया जाता है, यह व्यापारी उसे जापान ले जा सकता है. इस इंतज़ार के दौरान, गुलिवर ग्लबडबरिब के द्वीप पर छोटी से यात्रा कर लेता है, यहां वह एक जादूगर के यहां जाता है और ऐतिहासिक लोगों के भूतों के बारे में चर्चा करता है, यह पुस्तक में "प्राचीन बनाम आधुनिक" का सबसे स्पष्ट विवरण है. लग्नाग में वह उसकी मुठभेड़ स्टरलडब्रग से होती है, जो दुर्भाग्यपूर्ण रूप से अमर हैं, लेकिन हमेशा जवान नहीं रहते. इसके बजाय वे हमेशा बूढ़े बने रहते हैं. उनमें बूढी आयु की सभी अक्षमताएं भी होती हैं, और क़ानूनी तौर पर उन्हें 80 वर्ष की उम्र में मृत मान लिया जाता है. जापान पहुंचने के बाद, गुलिवर सम्राट से अनुमति मांगता है कि "मेरे देशवासियों को सूली पर लटका कर ख़त्म कर दिए जाने और फिर समारोह मनाने की प्रक्रिया को रोक दिया जाये", सम्राट इस बात की अनुमति दे देता है. गुलिवर अपने घर लौट आता है और अब वह फैसला लेता है कि अपना बाकी जीवन यहीं पर बिताएगा.
अ वोयाज टू द कंट्री ऑफ़ द होऊइहन्म्स
अपने घर में रहने का इरादा कर लेने के बावजूद, गुलिवर एक व्यापारिक कप्तान के रूप में फिर से समुद्र में लौट आता है, क्योंकि कि वह सर्जन के रूप में काम करते करते ऊब गया है. इस यात्रा के दौरान उस पर अपने चालक दल में कुछ बदलाव करने का दबाव डाला जाता है, लेकिन उसे ऐसा लगता है कि इन बदलावों से चालक दल के बाकी लोग उसके खिलाफ हो जायेंगे. अब समुद्री डाकुओं का विद्रोह शुरू हो जाता है और ये डाकू कुछ समय के लिए उसे अपने साथ रखते हैं, और फिर उसे पहले शांत भूमि क्षेत्र में छोड़ देते हैं. खुद डाकू बने रहते हैं. उसे एक लैंडिंग नाव में छोड़ दिया जाता है और अब उसे कुछ विकृत प्राणी मिलते हैं (जाहिर तौर पर) जिनसे उसे घृणा सी हो जाती है.  इसके कुछ ही समय बाद उसे एक घोडा मिलता है और उसे समझ में आता है कि घोड़े (उनकी भाषा में होऊइहन्म्स या "प्रकृति का पूर्ण रूप) शासक हैं और विकृत प्राणी ("याहू") आधार रूप में मनुष्य हैं. गुलिवर घोड़े के घर का सदस्य बन जाता है, और होऊइहन्म्स की प्रशंसा करता है, उनकी जीवन शैली का अनुकरण करने लगता है, याहू के रूप में मनुष्यों को अस्वीकार करता है, क्योंकि उन सबमें कुछ ऐसी प्रवृति है जिसके कारण उनके स्वाभाविक दोषों को और बढ़ावा मिलता है. हालांकि, एक सभा में निर्णय लिया जाता है कि गुलिवर में याहू के जैसी कुछ झलक है, वह उनकी सभ्यता के लिए ख़तरा है और उसे निष्कासित कर दिया जाता है. अब उसकी इच्छा के विरुद्ध एक पुर्तगाली जहाज के द्वारा उसे बचाया जाता है, और उसे यह देख कर हैरानी होती है कि इस जहाज का कप्तान पेड्रो डे मेंडेज़ एक याहू है और वह एक बुद्धिमान, सभ्य और उदार व्यक्ति है. वह इंग्लैंड में अपने घर लौट आता है, लेकिन वह अपने आप को याहू के बीच रहने में असमर्थ पाता है और वैरागी बन जाता है, अपने घर में रहते हुए भी वह अपने परिवार और अपनी पत्नी से बचने लगता है और एक दिन के कई घंटे अपने अस्तबल में घोड़ों से बात कर बिताने लगता है. यह अनिश्चित है कि स्विफ्ट ने कब गुलिवर्स ट्रेवल्स को लिखना शुरू किया, लेकिन कुछ सूत्रों के अनुसार इसकी शुरुआत 1713 में हुई जब स्विफ्ट, गे, पोप, आरबुथनोट और कुछ अन्य लोगों ने, तत्कालीन लोकप्रिय साहित्यिक गठनों पर व्यंग्य करने के लिए स्क्रिबलेरस क्लब बनाया. स्विफ्ट का सिद्धांत क्लब के काल्पनिक लेखक, मार्टिनस स्क्रिबलेरस की यादों के लेखन से प्रेरित है. स्विफ्ट के पत्राचार से यह पता चलता है कि इसकी रचना ठीक तरह से 1720 में शुरू हुई, जिसके दर्पण-विषयक भाग I और II को सबसे पहले लिखा गया, इसके बाद 1723 में भाग IV और 1724 में भाग III लिखा गया, परन्तु इसमें उस समय भी संशोधन किये गये जब स्विफ्ट ड्रेपियर्स लेटर्स लिख रहे थे.अगस्त 1725 तक पुस्तक पूरी हो गयी थी, और चूंकि गुलिवर्स ट्रेवल्स पारदर्शी रूप से व्हिग-के प्रतिकूल व्यंग्य थी, इस बात की संभावना है कि स्विफ्ट ने पाण्डुलिपि का उपयोग किया, ताकि उनकी लेखनी को एक प्रमाण के रूप में काम में ना लिया जा सके यदि कोई उनके विरुद्ध क़ानूनी कार्रवाई करता है. (जैसा कि उनके कुछ आयरिश पर्चों के मामलों में हुआ था). मार्च 1726 में स्विफ्ट अपने काम के प्रकाशन के लिए लन्दन गए; उनकी पाण्डुलिपि को गुप्त रूप से प्रकाशक बेंजामिन मोट्टे को दिया गया, जिन्होंने तेजी से उत्पादन करने के लिए और पाइरेसी को रोकने के लिए पांच प्रिंटिंग हाउस काम में लिए.[2] मोट्टे को लगता था कि इसकी बिक्री सबसे ज्यादा होगी (बेस्ट सेलर), लेकिन उन्हें डर था कि इसके विरुद्ध क़ानूनी कार्रवाई की जा सकती है, इसलिए उन्होंने सबसे बुरे हमलावर तथ्यों को काट दिया (जैसे लिलिपुट में दरबार के प्रतियोगियों का विवरण और लिंडालीनो का विद्रोह), और पुस्तक II में रानी एने के पक्ष में कुछ सामग्री को जोड़ा, और किसी तरह से इसका प्रकाशन किया. पहले संस्करण को दो खण्डों में 26 अक्टूबर 1726 को रिलीज़ किया गया, जिसकी कीमत 8s. 6d. थी. इस पुस्तक ने सनसनी मचा दी और इसके पहले हिस्से को एक सप्ताह से भी कम समय में बेच दिया गया. मोट्टे ने गुमनाम रहते हुए गुलिवर्स ट्रेवल्स का प्रकाशन किया, इसके बाद अगले कुछ सालों में कई अनुवर्तियों (मेमोइर्स ऑफ़ द कोर्ट ऑफ़ लिलिपुट ), पेरोडियों, (टू लिलीपुटीयन ओडीज़, द फर्स्ट ओन द फेमस इंजन विथ विच केप्टिन गुलिवर एक्सटिंगविश्ड द पेलेस फायर ) और "कीस" (गुलिवर देसिफर'द और लेम्यूल गुलिवर्स ट्रेवल्स इनटू सेवरल रिमोट रीजन्स ऑफ़ द वर्ल्ड कम्पेंदीयसली मेथादिज़'द , दूसरी को एडमड कर्ल के द्वारा इसी तरह से 1705 में स्विफ्ट की टेल ऑफ़ अ टब के लिए एक "की" के रूप में लिखा गया) का उत्पादन किया गया. इनमें से अधिकांश को गुमनाम रूप में (कभी कभी गलत नाम के साथ) प्रकाशित किया गया था और जल्दी ही भुला दिया गया. स्विफ्ट ने इनमें से किसी को भी अपनी पुस्तक में शामिल नहीं किया, और उन्होंने विशेष रूप से 1735 के फाल्कनर के संस्करण में इन्हें शामिल करने से इनकार कर दिया. हालांकि, स्विफ्ट के मित्र अलेक्जेंडर पोप ने गुलिवर्स ट्रेवल्स पर पांच संस्करणों का एक समुच्चय लिखा, जिसे स्विफ्ट ने इतना पसंद किया कि उन्होंने इन्हें पुस्तक के दूसरे संस्करण में शामिल कर लिया, हालांकि उन्हें वर्तमान में आमतौर पर शामिल नहीं किया जाता है. 1735 में एक आयरिश प्रकाशक जॉर्ज फाल्कनर ने, अब तक किये गए स्विफ्ट के काम के पूरे सेट का मुद्रण किया, जिसका खंड III गुलिवर्स ट्रेवल्स था. जैसा कि फाल्कनर के "एडवरटाइसमेन्ट टू द रीडर" में प्रकट होता है, फाल्कनर को मोट्टे के काम की एक व्याख्यात्मक प्रतिलिपि "लेखक के एक मित्र" के माध्यम से उपलब्ध हो गयी थी (ऐसा मन जाता है कि वे स्विफ्ट के मित्र चार्ल्स फोर्ड थे) जिसने हस्तलिपि के अधिकांश हिस्से को मोट्टे के संशोधनों से मुक्त रखा, मूल हस्तलिपि को नष्ट कर दिया गया. ऐसा भी माना जाता है कि स्विफ्ट ने मुद्रण से पहले कम से कम फाल्कनर के संस्करण के प्रमाण की समीक्षा तो की ही थी, लेकिन यह प्रमाणित नहीं किया जा सकता. सामान्यतया, इसे गुलिवर्स ट्रेवल्स के एडिटियो प्रिन्सेप्स के रूप में जाना जाता है, जिसमें एक अपवाद है,
इस संस्करण में एक हिस्से को स्विफ्ट के द्वारा शामिल किया गया, अ लेटर फ्रॉम केप्टिन गुलिवर टू हिस कजिन सिम्पसन . इसमें मूल पाठ्य में मोट्टे के द्वारा परिवर्तन करने की शिकायत की गयी, इसमें कहा गया कि उन्होंने इसे इतना ज्यादा बदल दिया है कि "मुझे यह मेरा काम ही नहीं लग रहा है" और बीच के वर्षों में प्रस्तुत किये गए मोट्टे के सभी परिवर्तन, कीस, गलत कथन, पैरोडी, दूसरा हिस्सा और इसके आगे किये गए काम को नकार दिया गया. लापुटा के उड़ान द्वीप के खिलाफ लिंडालीनो के सतही शहर के विद्रोह को बताने वाला, भाग III का छोटा एपिसोड (पांच पैराग्राफ से युक्त), ड्रेपियर्स लेटर्स के लिए स्पष्ट रूप से अन्योक्तिपरक था, जिस पर स्विफ्ट को गर्व था. लिंडालीनो ने डबलिन का प्रतिनिधित्व किया और लापुटा के अध्यारोपण ने विलियम वुड की बुरी गुणवत्ता की ताम्बे की मुद्रा के ब्रिटिश अध्यारोपण का प्रतिनिधित्व किया. फाल्कनर ने इस पद्य को हटा दिया, ऐसा या तो इसलिए किया गया कि एक ब्रिटिश विरोधी व्यंग्य का एक आयरिश प्रकाशक के द्वारा मुद्रण किये जाने के कारण राजनैतिक संवेदनशीलता की स्थिति उत्पन्न हुई. या संभवतया इसका कारण यह था कि जिस पाठ्य से उन्होंने काम किया था, उसमें इस पद्य को शामिल नहीं किया गया था.1899 में इस पद्य को संग्रहित कार्यों के एक नए संस्करण में शामिल किया गया. (विकीपीडिया से साभार)

यशोधरा जीत गई


हिन्दी के प्रख्यात् साहित्यकार रांगेय राघव ने विशिष्ट कवियों, कलाकारों और महापुरूषों के जीवन पर आधारित उपन्यासों की एक माला लिखकर साहित्य की एक बड़ी आवश्यकता को पूर्ण किया है। प्रस्तुत उपन्यास 'यशोधरा जीत गई' में उन्होंने जननायक गौतम बुद्ध का चरित्र ऎतिहासिक दृषिट से प्रस्तुत किया है। 'यशोधरा जीत गई' उसी कड़ी की एक प्रमुख रचना है। 'यशोधरा जीत गई' में राष्ट्र की तात्कालिक स्थितियों में बुद्ध के जीवन का चित्रण हुआ है। वस्तुतः बुद्ध के समय में धर्म या राजनीति का विघटन शुरू हो गया था और देश में राजनीतिक और वैचारिक अराजकता छा रही थी। ऎसे समय में बुद्ध ने अपने तप-बल से करोड़ों भ्रमित और धार्मिक रूप से निस्सहाय मनुष्यों को मानसिक आश्रय और शान्ति प्रदान की। इस उपन्यास में बुद्ध के अजेय और सुदृढ़ व्यक्ति के निर्माण में संलग्न करूणा-कोमल यशोधरा का भी मार्मिक रूप प्रस्तुत किया गया है। जिसके समक्ष एक बार बुद्ध का तपोबल भी नत हो गया था।

'मां' पर 5 किताबें


जब भी मां पर किताबों की बात होती है तो मैक्सिम गोर्की की किताब ‘मदर’ का ही नाम आता है। कुछ और भी है...
माय हॉलीवुड (मोना सिम्पसन)
यह दो महिलाओं की कहानी है। क्लेयर अपने पति के कॉमेडी स्क्रिह्रश्वट लिखने के सपने को पूरा करने के लिए लॉस एंजिल्स पहुंचती हैं। वह नहीं जानती कि बेटे विलियम को कैसे पाल-पोसकर बड़ा किया जाए। वह नैनी लोला की मदद लेती है। जो फिलीपींस में रहने वाले अपने बच्चों की पढ़ाई के लिए काम करती है। विलियम के प्रति दोनों मां के ह्रश्वयार को ही यह कहानी आगे बढ़ाती है।
लव यू फॉरएवर (रॉबर्ट मंश)
रॉबर्ट ने 1995 में बच्चों के लिए कहानी लिखी थी, तभी से यह हर मां की पसंदीदा बन गई। यह दिल को छूने वाली बुक है जो मां और बच्चे का अनंत ह्रश्वयार दिखाती है। यह किताब शुरुआत से आखिर तक बांधे रखती है। खास बात यह है कि फोटो स्टोरी के जरिए पूरी बात कही गई है।
मां (मुंशी प्रेमचंद)
देश के लिए समर्पित आदित्य तीन साल से जेल में था। पत्नी करुणा ने इस दौरान बेटे प्रकाश को जन्म दिया। जेल से छूटा तो उसे तपेदिक हो गया और उसकी मौत हो गई। करुणा ने प्रकाश को पढ़ाया-लिखाया। वह मजिस्ट्रेट बन गया। करुणा ने सपना देखा कि प्रकाश मजिस्ट्रेट की कुर्सी पर बैठा है। आदित्य को कोड़े मारकर वहां लाया गया। पति के फोटो को दिल से लगाकर ही वह दम तोड़ देती है। उस वक्त प्रकाश मजिस्ट्रेट बनने के लिए यूरोप जा रहा था।
चिकनसूप फॉर (एवरी मॉम्स सोल)
जेक, मार्क हीथर मां के दिल में झांकने के लिए यह एक बेहतरीन किताब है। इसमें जन्म देना, मातृत्व को परिभाषित करना जैसे अनुभवों को कहानियों में सहेजा गया है। मातृत्व के हर स्तर पर दादी मां की नसीहतों से भरी ये कहानियां प्रेरक भी हैं।
सीक्रेट डॉटर (शिल्पी सोमैया)
भारत के एक गांव में कविता बेटी को जन्म देती है। बेटे के पक्षधर समाज के दबाव में वह बेटी को छोड़ देती है। एनआरआई अमेरिकी डॉक्टर सोमेर
उस लड़की (आशा) को मुंबई के अनाथालय से गोद लेती है। एक दिन आशा अपनी मां और परिवार को ढूंढने का फैसला करती है।