जयप्रकाश त्रिपाठी
यह कहानी फणीश्वरनाथ रेणु के लोकप्रिय उपन्यास 'परती परिकथा' की है। ठीक-ठीक याद नहीं आता है। उन दिनो 'रेणु' की रचनाएं पढ़ने का नशा-सा हो गया था। अग्निखोर, ऋणजल-धनजल, एक आदिम रात्रि की महक, ठुमरी, दीर्घतपा, नेपाली क्रांतिकथा, पंचलाइट, पलटू बाबू रोड, मारे गये गुलफाम, लाल पान की बेगम, वनतुलसी की गंध, संवदिया आदि। कुछ को पाठ्यक्रम की पुस्तकों से तो कुछ को इधर-उधर से जोड़-जुटाकर, खरीद-बीन कर।
किताबें खरीदने के लिए मैं पहले हिंदी के प्रसिद्ध कम से कम आठ दस प्रकाशकों राजकमल, वाणी, किताब घर आदि से पुस्तक सूची मंगा लेता था। फिर उनमें से अपनी तलब की किताबों की सूची बनायी और पहुंच जाता वाराणसी के विश्वविद्यालय प्रकाशन संस्थान। उस दिन ढेर सारी किताबें खरीद लेने के बाद जेब में हाथ डाला तो एक किताब का भुगतान कम पड़ गया। उस समय परती परिकथा पेपर बैक में सिर्फ एक ही बची थी। पहले से पता था कि इस समय वह आउट आफ प्रिंट चल रही है। पता नहीं कब दोबारा छपे, इसलिए इस बार इस किताब को तो किसी कीमत पर छोड़ना नहीं था। मैंने पहले तो प्रकाशन संस्थान के मालिक से अनुनय-विनय किया कि प्रायः आता रहता हूं, इस पुस्तक की कीमत अगली बार चुका दूंगा। उसका टके से जवाब रहा- यह पान की दुकान नहीं है। मैं भी तैश खा गया। झट जेब में पड़ा रेल किराया निकाला, भुगतान किया और परती परिकथा को अन्य किताबों के साथ थैले में डाल कर पैदल रेलवे स्टेशन चल पड़ा। ट्रेन दो नंबर प्लेट फार्म पर खड़ी थी। अंदर सीट पर बैठने की बजाय सीधे बाथ रूम में घुसा और अंदर से कुंडी लगा ली। ट्रेन चल पड़ी। खुद पर कोफ्त हो रहा था और बेटिकट होने का डर भी। मन में जाने कैसे-कैसे खयाल आने-जाने लगे। डर बढ़ता गया, बढ़ता ही गया। कई यात्री भाई बाहर से दो चार बार दरवाजा पीटते, लौट जाते। मैं अंदर मन पर घना कुहासा बिछते ही कविताएं लिखने में डूब गया।
एक साल बाद
एक अधमित्र वही परती परिकथा मुझसे पढ़ने के लिए ले गये। एक माह, दो माह, तीन माह...छह माह हो गये तो रहा नहीं गया। उस पुस्तक के साथ मेरे जीवन का वह दुखद-सुखद दिन जो जुड़ा हुआ था। मित्र के ड्राइंग रूम में एक कोने पर नजर गयी। आधे कवर पेज पर अधखाया नमक-मिर्च चुपड़ा पड़ा था, जाने कब का। आधा गायब था। मुंह से बोल नहीं फूट पा रहे थे। रुआंसा-सा कुछ देर मित्र की थोथी गप्पें सुनता रहा और मन मसोस कर घर लौट गया। वह क्या जाने किताबों का दर्द।
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