Monday 1 July 2013

असन्तोष के दिन - राही मासूम रज़ा


असन्तोष के दिन राही मासूम रज़ा द्वारा रचित उपन्यास है। हिन्दी - उपन्यास-जगत में राही मासूम रज़ा का प्रवेश एक सांस्कृतिक घटना जैसा ही था। ‘आधा-गाँव’ अपने-आप में मात्र एक उपन्यास ही नहीं, सौन्दर्य का पूरा प्रतिमान था। राही ने इस प्रतिमान को उस मेहनतकश अवाम की इच्छाओं और आकांक्षाओं को मथकर निकाला था, जिसे इस महादेश की जन-विरोधी व्यवस्था ने कितने ही आधारों पर विभाजित कर रखा है।
राही का कवि-ह्रदय व्यवस्था द्वारा लादे गये झूठे जनतन्त्र की विभीषिकाओं को उजागर करने में अत्यन्त तत्पर, विकल, संवेदनशील और आक्रोश से भरा हुआ रहा है। यही ह्रदय और अधिक व्यंजनाक्षम होकर ‘असन्तोष के दिन’ व्याप रहा है। आक्रोश और संवेदना की यह तरलता यहाँ मधुर गम्भीर राजनीतिक सवालों को पेश करती है, जिनकी आंच में सारा हिन्दुस्तान पिघल रहा है।
राष्ट्र की अखण्डता और एकता, जातिवाद की भयानक दमघोंटू परम्पराएँ, साम्प्रदायिकता का हलाहल, एक-से-एक भीषण सत्य, चुस्त शैली और धारदार भाषा में लिपटा चला आता है और हमें घेर लेता है। इस कृति की माँग है कि इन सवालों से जूझा और टकराया जाए। इसी समय, इनके उत्तर तलाश किये जाएँ अन्यथा मनुष्य के अस्तित्व की कोई गारन्टी नहीं रहेगी।[1]
इस कहानी में जो लोग चल-फिर रहे हैं, हँस-बोल रहे हैं, मर-जी रहे हैं, उन्हें अल्लाह मियाँ ने नहीं बनाया है; मैंने बनाया है। इसलिए यदि अल्लाह के बनाए हुए किसी व्यक्ति से मेरे बनाए हुए किसी व्यक्ति का नाम-पता मिल जाए तो क्षमा चाहता हूँ। - राही मासूम रज़ा
भूमिका में राही मासूम रज़ा लिखते हैं-
यह तो मौसम है वही
दर्द का आलम है वही
बादलों का है वही रंग,
हवाओं का है अन्दाज़ वही
जख़्म उग आए दरो-दीवार पे सब्ज़े की तरह
ज़ख़्मों का हाल वही
लफ़्जों का मरहम है वही

दर्द का आलम है वही
हम दिवानों के लिए
नग्मए-मातम है वही
दामने-गुल पे लहू के धब्बे
चोट खाई हुए शबनम है वही…
यह तो मौसम है वही
दोस्तो !
आप,
चलो
खून की बारिश है
नहा लें हम भी
ऐसी बरसात कई बरसों के बाद आई है।


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