धिक्कार है ऐसी सरकार को, जो भगत सिंह को शहीद नहीं मानती है। फिर भी गोरी हुकूमत को खौफ से धर्रा देने वाले भगत सिंह हमेशा-हमेशा भारत के हर दिल अजीज थे, हैं और रहेंगे, कोई कृतघ्न भी उनकी कुर्बानियों को विस्मृत नहीं कर सकता। इंकलाब जिंदाबाद .....भगत सिंह प्रायः ये शेर गुनगुनाया करते थे- 'जबसे सुना है मरने का नाम जिन्दगी है, सर से कफन लपेटे कातिल को ढूँढ़ते हैं।' वर्ष 1907 में आज ही के दिन (27-28 सितंबर की रात) लायलपुर (अब पाकिस्तान में फैसलाबाद) जिले के बांगा गांव में पैदा हुए थे शहीद-ए-आजम भगत सिंह।
होनहार बिरवान केहोत चीकने पात, बचपन से ही उनके हाव-भाव, तौर-तरीके देखकर लोग कहने लगे थे कि बड़ा होकर ये लड़का जरूर कुछ न कुछ कर दिखायेगा। भगत सिंह के पौत्र यादविंदर सिंह संधु बताते हैं कि पांच साल की उम्र में एक बार भगत सिंह अपनी मां विद्यावती के साथ खेतों पर पहुंच गए। मां ने उन्हें बताया कि किस तरह गन्ने का एक टुकड़ा खेत में रोपने से कई गन्ने पैदा हो जाते हैं। भगत पर इस बात का इतना प्रभाव हुआ कि दूसरे ही दिन वह यह सोचकर खिलौना बंदूक लेकर खेत पर पहुंच गए कि इसे रोपने से कई बंदूकें पैदा हो जाएंगी। जो भगत सिंह देश की आजादी के लिए हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर झूल गये, आज तक वह भारत सरकार की नजर में 'शहीद' नहीं हैं। शहीद-ए-आजम भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को सरकारी दस्तावेजों में शहीद घोषित करने के मुद्दे पर भारत सरकार अभी तक सिर्फ बयानबाजियां करती आ रही है। इस मसले पर नरेंद्र मोदी से भी मुलाकात कर चुके हैं। गांधीनगर (गुजरात) में इस मुद्दे पर मोदी से उनकी लगभग 40 मिनट तक बातचीत हुई थी। इस रवैये से क्षुब्ध यादवेंद्र सिंह संधू कहते हैं कि अब इसके लिए सरकार से कत्तई किसी तरह की याचना नहीं की जाएगी। अब संधू उन सभी क्रांतिकारियों को दस्तावेजों में शहीद घोषित करने की मांग कर रहे हैं, जिन्होंने आजादी की लड़ाई में अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था।
हिन्दी के प्रखर चिन्तक रामविलास शर्मा ने अपनी पुस्तक स्वाधीनता संग्राम: बदलते परिप्रेक्ष्य में भगत सिंह के बारे में टिप्पणी की है - 'ऐसा कम होता है कि एक क्रान्तिकारी दूसरे क्रान्तिकारी की छवि का वर्णन करे और दोनों ही शहीद हो जायें। रामप्रसाद बिस्मिल 18 दिसम्बर 1927 को शहीद हुए, उससे पहले मई 1827 में भगतसिंह ने किरती में 'काकोरी के वीरों से परिचय' लेख लिखा। उन्होंने बिस्मिल के बारे में लिखा - 'ऐसे नौजवान कहाँ से मिल सकते हैं? आप युद्ध विद्या में बड़े कुशल हैं और आज उन्हें फाँसी का दण्ड मिलने का कारण भी बहुत हद तक यही है। इस वीर को फाँसी का दण्ड मिला और आप हँस दिये। ऐसा निर्भीक वीर, ऐसा सुन्दर जवान, ऐसा योग्य व उच्चकोटि का लेखक और निर्भय योद्धा मिलना कठिन है।' सन् 1822 से 1827 तक रामप्रसाद बिस्मिल ने एक लम्बी वैचारिक यात्रा पूरी की। उनके आगे की कड़ी थे भगतसिंह।'