Friday, 29 August 2014
अछूत की शिकायत / हीरा डोम
यह कविता महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वारा संपादित ‘सरस्वती’ (सितंबर 1914, भाग 15, खंड 2, पृष्ठ संख्या 512-513) में प्रकाशित हुई थी......
हमनी के राति दिन दुखवा भोगत बानी
हमनी के सहेब से मिनती सुनाइबि।
हमनी के दुख भगवानओं न देखता ते,
हमनी के कबले कलेसवा उठाइबि।
पदरी सहेब के कचहरी में जाइबिजां,
बेधरम होके रंगरेज बानि जाइबिजां,
हाय राम! धरम न छोड़त बनत बा जे,
बे-धरम होके कैसे मुँहवा दिखइबि ।।१।।
खंभवा के फारी पहलाद के बंचवले।
ग्राह के मुँह से गजराज के बचवले।
धोतीं जुरजोधना कै भइया छोरत रहै,
परगट होके तहाँ कपड़ा बढ़वले।
मरले रवनवाँ कै पलले भभिखना के,
कानी उँगुरी पै धैके पथरा उठले।
कहवाँ सुतल बाटे सुनत न बाटे अब।
डोम तानि हमनी क छुए से डेराले ।।२।।
हमनी के राति दिन मेहत करीजां,
दुइगो रूपयावा दरमहा में पाइबि।
ठाकुरे के सुखसेत घर में सुलत बानीं,
हमनी के जोति-जोति खेतिया कमाइबि।
हकिमे के लसकरि उतरल बानीं।
जेत उहओं बेगारीया में पकरल जाइबि।
मुँह बान्हि ऐसन नौकरिया करत बानीं,
ई कुल खबरी सरकार के सुनाइबि ।।३।।
बभने के लेखे हम भिखिया न माँगबजां,
ठकुर क लेखे नहिं लउरि चलाइबि।
सहुआ के लेखे नहि डांड़ी हम जोरबजां,
अहिरा के लेखे न कबित्त हम जोरजां,
पबड़ी न बनि के कचहरी में जाइबि ।।४।।
अपने पहसनवा कै पइसा कमादबजां,
घर भर मिलि जुलि बाँटि-चोंटि खाइबि।
हड़वा मसुदया कै देहियाँ बभनओं कै बानीं,
ओकरा कै घरे पुजवा होखत बाजे,
ओकरै इलकवा भदलैं जिजमानी।
सगरै इलकवा भइलैं जिजमानी।
हमनी क इनरा के निगिचे न जाइलेजां,
पांके से पिटि-पिटि हाथ गोड़ तुरि दैलैं,
हमने के एतनी काही के हलकानी ।।५।।
(हिंदी समय से साभार)
हमनी के राति दिन दुखवा भोगत बानी
हमनी के सहेब से मिनती सुनाइबि।
हमनी के दुख भगवानओं न देखता ते,
हमनी के कबले कलेसवा उठाइबि।
पदरी सहेब के कचहरी में जाइबिजां,
बेधरम होके रंगरेज बानि जाइबिजां,
हाय राम! धरम न छोड़त बनत बा जे,
बे-धरम होके कैसे मुँहवा दिखइबि ।।१।।
खंभवा के फारी पहलाद के बंचवले।
ग्राह के मुँह से गजराज के बचवले।
धोतीं जुरजोधना कै भइया छोरत रहै,
परगट होके तहाँ कपड़ा बढ़वले।
मरले रवनवाँ कै पलले भभिखना के,
कानी उँगुरी पै धैके पथरा उठले।
कहवाँ सुतल बाटे सुनत न बाटे अब।
डोम तानि हमनी क छुए से डेराले ।।२।।
हमनी के राति दिन मेहत करीजां,
दुइगो रूपयावा दरमहा में पाइबि।
ठाकुरे के सुखसेत घर में सुलत बानीं,
हमनी के जोति-जोति खेतिया कमाइबि।
हकिमे के लसकरि उतरल बानीं।
जेत उहओं बेगारीया में पकरल जाइबि।
मुँह बान्हि ऐसन नौकरिया करत बानीं,
ई कुल खबरी सरकार के सुनाइबि ।।३।।
बभने के लेखे हम भिखिया न माँगबजां,
ठकुर क लेखे नहिं लउरि चलाइबि।
सहुआ के लेखे नहि डांड़ी हम जोरबजां,
अहिरा के लेखे न कबित्त हम जोरजां,
पबड़ी न बनि के कचहरी में जाइबि ।।४।।
अपने पहसनवा कै पइसा कमादबजां,
घर भर मिलि जुलि बाँटि-चोंटि खाइबि।
हड़वा मसुदया कै देहियाँ बभनओं कै बानीं,
ओकरा कै घरे पुजवा होखत बाजे,
ओकरै इलकवा भदलैं जिजमानी।
सगरै इलकवा भइलैं जिजमानी।
हमनी क इनरा के निगिचे न जाइलेजां,
पांके से पिटि-पिटि हाथ गोड़ तुरि दैलैं,
हमने के एतनी काही के हलकानी ।।५।।
(हिंदी समय से साभार)
एक पेड़ चाँदनी / देवेंद्र कुमार बंगाली
एक पेड़ चाँदनी
लगाया है
आँगने,
फूले तो
आ जाना एक फूल
माँगने।
ढिबरी की लौ
जैसे लीक चली आ रही
बादल रोता है
बिजली शरमा रही
मेरा घर
छाया है
तेरे सुहाग ने।
तन कातिक, मन अगहन
बार-बार हो रहा
मुझमें तेरा कुआर
जैसे कुछ बो रहा
रहने दो,
यह हिसाब
कर लेना बाद में।
नदी, झील, सागर के
रिश्ते मत जोड़ना
लहरों को आता है
यहाँ-वहाँ छोड़ना
मुझको
पहुँचाया है
तुम तक अनुराग ने।
एक पेड़ चाँदनी
लगाया है
आँगने।
फूले तो
आ जाना एक फूल
माँगने।
लगाया है
आँगने,
फूले तो
आ जाना एक फूल
माँगने।
ढिबरी की लौ
जैसे लीक चली आ रही
बादल रोता है
बिजली शरमा रही
मेरा घर
छाया है
तेरे सुहाग ने।
तन कातिक, मन अगहन
बार-बार हो रहा
मुझमें तेरा कुआर
जैसे कुछ बो रहा
रहने दो,
यह हिसाब
कर लेना बाद में।
नदी, झील, सागर के
रिश्ते मत जोड़ना
लहरों को आता है
यहाँ-वहाँ छोड़ना
मुझको
पहुँचाया है
तुम तक अनुराग ने।
एक पेड़ चाँदनी
लगाया है
आँगने।
फूले तो
आ जाना एक फूल
माँगने।
NDA सरकार के साथ डिफेंस डील कराने के लिए कौन सा पत्रकार कर रहा है कंपनियों से वादा...
http://www.samachar4media.com/which-journalist-is-making-promises-to-eurofighter-to-make-deal.html
अब केंद्र की बीजेपी सरकार पर भी पत्रकारों के सहारे विदेशी कंपनियों से डील करने के आरोप लगने लगे हैं। अभी तो इसका संकेत भर किया गया है। देखते हैं आगे होता है क्या। दिल्ली में कांग्रेस की सरकार के दौरान पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का राजनीतिक सचिव रहे पवन खेड़ा ने कुछ ट्वीट कर बताया है कि एक अंग्रेजी दैनिक के पत्रकार ने एक विदेशी कंपनी यूरोफाइटर से वादा किया है कि वे कई मिलियन के एमएमआरसीए(Medium Multi-Role Combat Aircraft ) सौदा उसके पक्ष में करवा देगा। खेड़ा ने अपने अगले ट्वीट में बताया है कि यह कथित पत्रकार बीजेपी के एक नेता के काफी करीबी है और वह उनके साथ कई बार यात्राएं भी कर चुका है। पवन खेड़ा ने संदेह जताते हुए कहा है कि हो सकता है कि इस कथित पत्रकार की हैसियत केंद्र सरकार के फैसले को प्रभावित करने वाली नहीं हो लेकिन हां बीजेपी में वह अपनी पहुंच के चलते तमाम सूचनाएं पाने की हैसियत जरूर रखता है। खेड़ा ने अपने ट्वीट में कहा है कि यह पत्रकार कई दूसरी कंपनियों के संपर्क में है और सबसे उसके पक्ष में सौदा कराने का वादा कर रहा है। उन्होंने ट्वीट कर बीजेपी पर एक और वार किया है।उन्होंने सवाल पूछते कहा है कि अगर पवन बंसल के भतीजे पर भ्रष्टाचार का आरोप लगता है तो पवन बंसल को इस्तीफा देना पड़ जाता है। लेकिन अगर रेलमंत्री सदानंद गौड़ा के बेटे पर रेप जैसा आरोप लगता है तो फिर वह व्यक्तिगत मामला कैसे हो सकता है? खेड़ा का कहना है कि बीजेपी सरकार में इस प्रकार की घटना होने पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंक जिस पार्टी का अध्यक्ष अमित शाह जैसे व्यक्ति हों उस पार्टी के लिए तो इस प्रकार की हरकत एक अनिवार्य योग्यता के रूप में आंकी जाएगी।
अब केंद्र की बीजेपी सरकार पर भी पत्रकारों के सहारे विदेशी कंपनियों से डील करने के आरोप लगने लगे हैं। अभी तो इसका संकेत भर किया गया है। देखते हैं आगे होता है क्या। दिल्ली में कांग्रेस की सरकार के दौरान पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित का राजनीतिक सचिव रहे पवन खेड़ा ने कुछ ट्वीट कर बताया है कि एक अंग्रेजी दैनिक के पत्रकार ने एक विदेशी कंपनी यूरोफाइटर से वादा किया है कि वे कई मिलियन के एमएमआरसीए(Medium Multi-Role Combat Aircraft ) सौदा उसके पक्ष में करवा देगा। खेड़ा ने अपने अगले ट्वीट में बताया है कि यह कथित पत्रकार बीजेपी के एक नेता के काफी करीबी है और वह उनके साथ कई बार यात्राएं भी कर चुका है। पवन खेड़ा ने संदेह जताते हुए कहा है कि हो सकता है कि इस कथित पत्रकार की हैसियत केंद्र सरकार के फैसले को प्रभावित करने वाली नहीं हो लेकिन हां बीजेपी में वह अपनी पहुंच के चलते तमाम सूचनाएं पाने की हैसियत जरूर रखता है। खेड़ा ने अपने ट्वीट में कहा है कि यह पत्रकार कई दूसरी कंपनियों के संपर्क में है और सबसे उसके पक्ष में सौदा कराने का वादा कर रहा है। उन्होंने ट्वीट कर बीजेपी पर एक और वार किया है।उन्होंने सवाल पूछते कहा है कि अगर पवन बंसल के भतीजे पर भ्रष्टाचार का आरोप लगता है तो पवन बंसल को इस्तीफा देना पड़ जाता है। लेकिन अगर रेलमंत्री सदानंद गौड़ा के बेटे पर रेप जैसा आरोप लगता है तो फिर वह व्यक्तिगत मामला कैसे हो सकता है? खेड़ा का कहना है कि बीजेपी सरकार में इस प्रकार की घटना होने पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए क्योंक जिस पार्टी का अध्यक्ष अमित शाह जैसे व्यक्ति हों उस पार्टी के लिए तो इस प्रकार की हरकत एक अनिवार्य योग्यता के रूप में आंकी जाएगी।
पत्रकारिता के शून्य से शिखर तक का सफर बताती है 'मीडिया हूं मैं'
http://www.haribhoomi.com/news/12874-book-review-of-jai-prakash-tripathi-media-hoon-main.html#ad-image-0
वरिष्ठ पत्रकार-कवि जयप्रकाश त्रिपाठी की पुस्तक ‘मीडिया हूं मैं’ पत्रकारिता के शून्य से शुरु होकर उसके शिखर तक का सफर तय करती है। इसमें पत्रकारिता के हर पहलू को बड़ी ही बेबाकी से परखा गया है। करीब साढ़े पांच सौ पन्नों की किताब आप एक बार शुरू करते हैं तो जानकारियों को समेटे, और दिलचस्प लेखन शैली की वजह से यह आपको आखिर तक बांधे रखती है। किताब की शुरुआत भारतीय पत्रकारिता को मिथकीय घटनाओं से जोड़ने की कोशिश से होती है जैसे- नारद पहले पत्रकार थे या महाभारत की घटनाओं में पत्रकारिता तलाशना आदि। यह कहावतें भारतीय पत्रकारिता में लंबे समय से प्रचलित हैं लेकिन इनसे बचा भी जा सकता था।
लेखक दर्ज करते हैं, महाभारत को हिंदू धर्म का बड़ा ग्रंथ माना जाता है। किसी विद्वान ने सुभाष चन्द्र बोस को कर्ण, महात्मा गांधी को कृष्ण, जवाहर लाल नेहरु को अर्जुन और भगत सिंह को एकलव्य का दर्जा दिया था। जयप्रकाश नारायण ने महाभारत पढ़कर विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार, स्वदेशी के स्वीकार का आह्वान किया था। पत्रकारिता के लिए भी विद्वानों ने कहा कि काश पत्रकारिता भी ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ से प्रेरणा लेकर पूंजी के साम्राज्य की कामना न कर रही होती तो आज इसे कोई कॉरपोरेट मीडिया नहीं बल्कि इम्पोर्टेंट मीडिया के रुप में जानती।
यह पुस्तक यही बतलाती है कि मीडिया ने जिस संघर्ष से खुद को स्थापित किया था वह खुद को बरकरार नहीं रख सका और धन और सत्तालोलुपता के चंगुल में फंसकर एक अलग ही रास्ता अख्तियार कर लिया जो इसका कभी था ही नहीं। ‘मीडिया हूं मैं’ पुस्तक में कुल 13 अध्याय है। सभी अध्याय मीडिया को गंभीरता से परिभाषित करते हैं। पहला अध्याय पत्रकारिता के श्वेतपत्र से शुरु होता है। आज के संदर्भ में मीडिया की वास्तविकता क्या है, इसको लेखक ने उधेड़ कर रख दिया है। इस श्वेतपत्र में स्त्रियों का चीरहरण करनेवाले मीडिया के खलनायकों की घिनौनी करतूतें दर्ज हैं। इसमें अस्सी प्रतिशत देशवासियों की दुर्दशा पर चुप चौथे स्तंभ दुश्मनों का ब्यौरा है। यह अध्याय पूरे मीडिया की सच्चाई और अच्छाई का काला चिट्ठा खोलने का काम करती है।
'मीडिया और इतिहास' अध्याय में पत्रकारिता के इतिहास को बारीकियों से बतलाया गया है। किस प्रकार से मिशन पत्रकारिता के रुप में शुरु हुआ यह आंदोलन आज पतन के कगार पर खड़ा है। कितने स्वतंत्रता सेनानियों ने इसको देश और समाज के उत्थान और भलाई के लिए इस्तेमाल किया लेकिन आज यह निजी और स्वंयभू हो चुका है। समाज और लोक से रिश्ता तोड़ चुका है, पथभ्रष्ट हो चुका है। मीडिया की इस यात्रा को बड़ी ही खूबसूरती से इस पुस्तक में पिरोया गया है।
'मीडिया और अर्थशास्त्र' अध्याय में लेखक बताते हैं कि आज भारत में मनोरंजन चैनल कलर्स अपने प्रमुख रियलिटी शो 'बिग बॉस' की मार्केटिंग पर 10 करोड़ रुपए से अधिक खर्च करता है। तो सोनी इंटरटेनमेंट टेलीविजन 'इंडियन आयडल' की मार्केटिंग पर 8 करोड़ रुपए। पूरी दुनिया में सूचना संसाधनों पर एकाधिकार जमाए एक वर्ग अमीरी-गरीबी की खाई बढ़ाता जा रहा है जबकि इसका इस्तेमाल वर्गीय संस्कृतियों की भिन्नता मिटाने में होना चाहिए था। किस प्रकार से पूंजीपतियों ने मीडिया पर अपना वर्चस्व स्थापित किया है। इसमें यह जानने और समझने को मिलता है। मीडिया समाज के प्रति भी दायित्व खोता जा रहा है। खासकर दलितों के प्रति मीडिया पूर्वाग्रह का शिकार है।
राष्ट्रीय कहे जानेवाले मीडिया को दूर-दराज और दलित-आदिवासियों के दुख-दर्द की चिंता ही नहीं है। दलितों के प्रति जो व्यवहार हो रहे हैं, उसके खिलाफ स्वर उठने चाहिए। मुसलमानों के प्रति, अल्पसंख्यकों के प्रति, जो भी कुछ हो रहा है, इसके खिलाफ लामबंद होना चाहिए था। कहने को तो मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ, प्रहरी और न जाने क्या-क्या उपमाएं दी गई है लेकिन इसकी बनावट जातिवादी तथा दलितविरोधी है। किस प्रकार से उदारीकरण के दौर में सबसे ज्यादा हमला गांवों की अर्थव्यवस्था पर हुआ है, किसान पर हुआ है। किसान आंदोलन भी किसी हिंसक घटना हो जाने के बाद ही खबर बनते हैं। कर्ज से आजिज लाखों किसान आत्महत्याएं कर लेते हैं। कुछ दिन खबरें छापने के बाद मीडिया चुप हो जाता है। किसान अपने हाल पर छोड़ दिये जाते हैं। किसानों के संकट को राष्ट्रीय संकट की तरह लेने के बजाय मीडिया उसे कानून व्यवस्था के अंदाज में रेखांकित करता है। इसके साथ ही गांवों में मीडिया का प्रसार किस रुप में हुआ है। इस पर भी विस्तार से प्रकाश डाला गया है। बिहार का ‘अप्पन समाचार’, मध्यप्रदेश का ‘डापना गांव’ और झारखंड ‘बाल पत्रकार’ जैसे प्रयास काबिलेतारीफ हैं। इस तरह से मीडिया का समाज और गांव के प्रति दोहरा चरित्र सामने लाने का प्रयास लेखक ने किया है।
वहीं ‘मीडिया और स्त्री’ में भी उन्होंने बताया है कि मीडिया आज भी स्त्री को लेकर वही सोच रखता है जो सौ साल पहले थी। हर संस्थानों से महिलाओं के प्रति यौन उत्पीड़न की खबरें आती हैं। कई तो दबा दी जाती हैं। इन सब के बावजूद महिलाओं की स्थिति में सुधार आया है। निर्भया कांड में इसकी बानगी देखने को मिलती है। साथ ही कई संस्थानों में स्त्री को काफी तरजीह दी जाती है। इन सब के बावजूद स्त्री की स्थिति आज भी दयनीय बनी हुई है। यह सब मीडिया के दोहरे चरित्र के फलस्वरुप ही है। इस पुस्तक से गुजरने के दौरान के दौरान आपको मीडिया के रुप और चरित्र से दो-चार होने का मौका मिलेगा।
लेखक के मुताबिक, इस पुस्तक में तीन अहम् बिंदुओं पर विशेष फोकस किया गया है। पहला यह कि पत्रकारिता का इतिहास कैसा था और उसे किस प्रकार समृद्ध किया गया। वहीं दूसरा यह है कि वर्तमान में मीडिया का क्या स्वरुप है? इसे दो भागों में विभक्त किया गया है। पहला इसके नकारात्मक पहलू किस रुप में समाज और व्यक्ति के लिए घातक है तो इसके सकारात्मक पहलू बताते हैं कि ये किस तरह रुढ़ि और परंपरा को तोड़ने में सहायक साबित हुए है। वहीं इस पुस्तक का तीसरा बिंदु यह है कि मीडिया का विस्तार और प्रासंगिकता किस रुप में बरकरार रहे। इस ओर लेखक ने ध्यान दिलाने की कोशिश की है कि न्यू मीडिया पर अधिक जोर दिया जा रहा है। क्योंकि समय बदलने के साथ-साथ मीडिया के प्रारुप में भी बदलाव आना संभव है। इसके अलावा लेखक ने उन सभी मीडिया महारथियों के बारे में विस्तार से बताने का प्रयास किया है जिन्होंने इस क्षेत्र में अपना अतुलनीय योगदान दिया था और जो अभी भी इसमें प्रयत्नरत हैं।
इस प्रकार से जयप्रकाश त्रिपाठी की यह पुस्तक हरेक दृष्टिकोण से खरी उतरती है। यह पुस्तक न सिर्फ मीडिया के छात्रों, शोधार्थियो, मीडियाकर्मी या प्राध्यापकों के लिए महत्वपूर्ण है बल्कि मीडिया के बाहर की दुनिया के लोगों के लिए भी इसे समझने में सहायक साबित होगी । इससे मीडिया के हर चरित्र और उसके स्वरुप के बारे में जाना जा सकता है। जयप्रकाश त्रिपाठी लंबे समय से इस क्षेत्र में कार्यरत हैं तभी मीडिया के हरेक पहलुओं से वाकिफ हैं। यह पुस्तक उनके पूर्ण कार्य जीवन का निचोड़ है जिससे सुधी पाठक न सिर्फ ज्ञान हासिल कर पाएंगे बल्कि उन्हें मीडिया के तहखानों के राजों की भी जानकारी मिलेगी।
पुस्तक के आखिरी अध्यायों में लेखक ने पत्रकारों के महत्वपूर्ण लेखों को दिया है जो पाठकों के साथ ही नए पत्रकारों की विषयों पर समझ बनाने में मदद करते हैं। उन्होंने मीडिया के क्षेत्र में सक्रिय पत्रकारों, लेखकों, समीक्षकों के संपर्क सूत्र दिए हैं जो इस क्षेत्र में आने वाले नए लोगों के लिए मददगार साबित हो सकते हैं। यही नहीं, इन पत्रकारों की वेबसाइट्स और ब्लॉग्स का पता भी दिया गया है, जिसमें इस क्षेत्र की हर अपडेट्स आती रहती हैं। इसके अलावा लेखक के पत्रकारीय सफर की जानकारी, 'मेरे होने का हलफनामा' के नाम से दिया गया है जो थोड़ा सा अखरता है। भारतीय पत्रकारिता ने इतिहास और वर्तमान को समेटते हुए किताब काफी भारी बन पड़ी है और इसकी कीमत भी काफी ज्यादा (पेपरबैक संस्करण- करीब- साढ़े पांच सौ रुपए) है। हालांकि लेखक का कहना है कि वह पत्रकारिता के छात्रों को इसे आधे दाम में मुहैया कराएंगे, और यही इस किताब की सार्थकता भी है। इस किताब के विस्तृत फलक को देखते हुए मीडिया संस्थानों और लाइब्रेरियों में इसे जगह मिलनी चाहिए।
वरिष्ठ पत्रकार-कवि जयप्रकाश त्रिपाठी की पुस्तक ‘मीडिया हूं मैं’ पत्रकारिता के शून्य से शुरु होकर उसके शिखर तक का सफर तय करती है। इसमें पत्रकारिता के हर पहलू को बड़ी ही बेबाकी से परखा गया है। करीब साढ़े पांच सौ पन्नों की किताब आप एक बार शुरू करते हैं तो जानकारियों को समेटे, और दिलचस्प लेखन शैली की वजह से यह आपको आखिर तक बांधे रखती है। किताब की शुरुआत भारतीय पत्रकारिता को मिथकीय घटनाओं से जोड़ने की कोशिश से होती है जैसे- नारद पहले पत्रकार थे या महाभारत की घटनाओं में पत्रकारिता तलाशना आदि। यह कहावतें भारतीय पत्रकारिता में लंबे समय से प्रचलित हैं लेकिन इनसे बचा भी जा सकता था।
लेखक दर्ज करते हैं, महाभारत को हिंदू धर्म का बड़ा ग्रंथ माना जाता है। किसी विद्वान ने सुभाष चन्द्र बोस को कर्ण, महात्मा गांधी को कृष्ण, जवाहर लाल नेहरु को अर्जुन और भगत सिंह को एकलव्य का दर्जा दिया था। जयप्रकाश नारायण ने महाभारत पढ़कर विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार, स्वदेशी के स्वीकार का आह्वान किया था। पत्रकारिता के लिए भी विद्वानों ने कहा कि काश पत्रकारिता भी ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ से प्रेरणा लेकर पूंजी के साम्राज्य की कामना न कर रही होती तो आज इसे कोई कॉरपोरेट मीडिया नहीं बल्कि इम्पोर्टेंट मीडिया के रुप में जानती।
यह पुस्तक यही बतलाती है कि मीडिया ने जिस संघर्ष से खुद को स्थापित किया था वह खुद को बरकरार नहीं रख सका और धन और सत्तालोलुपता के चंगुल में फंसकर एक अलग ही रास्ता अख्तियार कर लिया जो इसका कभी था ही नहीं। ‘मीडिया हूं मैं’ पुस्तक में कुल 13 अध्याय है। सभी अध्याय मीडिया को गंभीरता से परिभाषित करते हैं। पहला अध्याय पत्रकारिता के श्वेतपत्र से शुरु होता है। आज के संदर्भ में मीडिया की वास्तविकता क्या है, इसको लेखक ने उधेड़ कर रख दिया है। इस श्वेतपत्र में स्त्रियों का चीरहरण करनेवाले मीडिया के खलनायकों की घिनौनी करतूतें दर्ज हैं। इसमें अस्सी प्रतिशत देशवासियों की दुर्दशा पर चुप चौथे स्तंभ दुश्मनों का ब्यौरा है। यह अध्याय पूरे मीडिया की सच्चाई और अच्छाई का काला चिट्ठा खोलने का काम करती है।
'मीडिया और इतिहास' अध्याय में पत्रकारिता के इतिहास को बारीकियों से बतलाया गया है। किस प्रकार से मिशन पत्रकारिता के रुप में शुरु हुआ यह आंदोलन आज पतन के कगार पर खड़ा है। कितने स्वतंत्रता सेनानियों ने इसको देश और समाज के उत्थान और भलाई के लिए इस्तेमाल किया लेकिन आज यह निजी और स्वंयभू हो चुका है। समाज और लोक से रिश्ता तोड़ चुका है, पथभ्रष्ट हो चुका है। मीडिया की इस यात्रा को बड़ी ही खूबसूरती से इस पुस्तक में पिरोया गया है।
'मीडिया और अर्थशास्त्र' अध्याय में लेखक बताते हैं कि आज भारत में मनोरंजन चैनल कलर्स अपने प्रमुख रियलिटी शो 'बिग बॉस' की मार्केटिंग पर 10 करोड़ रुपए से अधिक खर्च करता है। तो सोनी इंटरटेनमेंट टेलीविजन 'इंडियन आयडल' की मार्केटिंग पर 8 करोड़ रुपए। पूरी दुनिया में सूचना संसाधनों पर एकाधिकार जमाए एक वर्ग अमीरी-गरीबी की खाई बढ़ाता जा रहा है जबकि इसका इस्तेमाल वर्गीय संस्कृतियों की भिन्नता मिटाने में होना चाहिए था। किस प्रकार से पूंजीपतियों ने मीडिया पर अपना वर्चस्व स्थापित किया है। इसमें यह जानने और समझने को मिलता है। मीडिया समाज के प्रति भी दायित्व खोता जा रहा है। खासकर दलितों के प्रति मीडिया पूर्वाग्रह का शिकार है।
राष्ट्रीय कहे जानेवाले मीडिया को दूर-दराज और दलित-आदिवासियों के दुख-दर्द की चिंता ही नहीं है। दलितों के प्रति जो व्यवहार हो रहे हैं, उसके खिलाफ स्वर उठने चाहिए। मुसलमानों के प्रति, अल्पसंख्यकों के प्रति, जो भी कुछ हो रहा है, इसके खिलाफ लामबंद होना चाहिए था। कहने को तो मीडिया को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ, प्रहरी और न जाने क्या-क्या उपमाएं दी गई है लेकिन इसकी बनावट जातिवादी तथा दलितविरोधी है। किस प्रकार से उदारीकरण के दौर में सबसे ज्यादा हमला गांवों की अर्थव्यवस्था पर हुआ है, किसान पर हुआ है। किसान आंदोलन भी किसी हिंसक घटना हो जाने के बाद ही खबर बनते हैं। कर्ज से आजिज लाखों किसान आत्महत्याएं कर लेते हैं। कुछ दिन खबरें छापने के बाद मीडिया चुप हो जाता है। किसान अपने हाल पर छोड़ दिये जाते हैं। किसानों के संकट को राष्ट्रीय संकट की तरह लेने के बजाय मीडिया उसे कानून व्यवस्था के अंदाज में रेखांकित करता है। इसके साथ ही गांवों में मीडिया का प्रसार किस रुप में हुआ है। इस पर भी विस्तार से प्रकाश डाला गया है। बिहार का ‘अप्पन समाचार’, मध्यप्रदेश का ‘डापना गांव’ और झारखंड ‘बाल पत्रकार’ जैसे प्रयास काबिलेतारीफ हैं। इस तरह से मीडिया का समाज और गांव के प्रति दोहरा चरित्र सामने लाने का प्रयास लेखक ने किया है।
वहीं ‘मीडिया और स्त्री’ में भी उन्होंने बताया है कि मीडिया आज भी स्त्री को लेकर वही सोच रखता है जो सौ साल पहले थी। हर संस्थानों से महिलाओं के प्रति यौन उत्पीड़न की खबरें आती हैं। कई तो दबा दी जाती हैं। इन सब के बावजूद महिलाओं की स्थिति में सुधार आया है। निर्भया कांड में इसकी बानगी देखने को मिलती है। साथ ही कई संस्थानों में स्त्री को काफी तरजीह दी जाती है। इन सब के बावजूद स्त्री की स्थिति आज भी दयनीय बनी हुई है। यह सब मीडिया के दोहरे चरित्र के फलस्वरुप ही है। इस पुस्तक से गुजरने के दौरान के दौरान आपको मीडिया के रुप और चरित्र से दो-चार होने का मौका मिलेगा।
लेखक के मुताबिक, इस पुस्तक में तीन अहम् बिंदुओं पर विशेष फोकस किया गया है। पहला यह कि पत्रकारिता का इतिहास कैसा था और उसे किस प्रकार समृद्ध किया गया। वहीं दूसरा यह है कि वर्तमान में मीडिया का क्या स्वरुप है? इसे दो भागों में विभक्त किया गया है। पहला इसके नकारात्मक पहलू किस रुप में समाज और व्यक्ति के लिए घातक है तो इसके सकारात्मक पहलू बताते हैं कि ये किस तरह रुढ़ि और परंपरा को तोड़ने में सहायक साबित हुए है। वहीं इस पुस्तक का तीसरा बिंदु यह है कि मीडिया का विस्तार और प्रासंगिकता किस रुप में बरकरार रहे। इस ओर लेखक ने ध्यान दिलाने की कोशिश की है कि न्यू मीडिया पर अधिक जोर दिया जा रहा है। क्योंकि समय बदलने के साथ-साथ मीडिया के प्रारुप में भी बदलाव आना संभव है। इसके अलावा लेखक ने उन सभी मीडिया महारथियों के बारे में विस्तार से बताने का प्रयास किया है जिन्होंने इस क्षेत्र में अपना अतुलनीय योगदान दिया था और जो अभी भी इसमें प्रयत्नरत हैं।
इस प्रकार से जयप्रकाश त्रिपाठी की यह पुस्तक हरेक दृष्टिकोण से खरी उतरती है। यह पुस्तक न सिर्फ मीडिया के छात्रों, शोधार्थियो, मीडियाकर्मी या प्राध्यापकों के लिए महत्वपूर्ण है बल्कि मीडिया के बाहर की दुनिया के लोगों के लिए भी इसे समझने में सहायक साबित होगी । इससे मीडिया के हर चरित्र और उसके स्वरुप के बारे में जाना जा सकता है। जयप्रकाश त्रिपाठी लंबे समय से इस क्षेत्र में कार्यरत हैं तभी मीडिया के हरेक पहलुओं से वाकिफ हैं। यह पुस्तक उनके पूर्ण कार्य जीवन का निचोड़ है जिससे सुधी पाठक न सिर्फ ज्ञान हासिल कर पाएंगे बल्कि उन्हें मीडिया के तहखानों के राजों की भी जानकारी मिलेगी।
पुस्तक के आखिरी अध्यायों में लेखक ने पत्रकारों के महत्वपूर्ण लेखों को दिया है जो पाठकों के साथ ही नए पत्रकारों की विषयों पर समझ बनाने में मदद करते हैं। उन्होंने मीडिया के क्षेत्र में सक्रिय पत्रकारों, लेखकों, समीक्षकों के संपर्क सूत्र दिए हैं जो इस क्षेत्र में आने वाले नए लोगों के लिए मददगार साबित हो सकते हैं। यही नहीं, इन पत्रकारों की वेबसाइट्स और ब्लॉग्स का पता भी दिया गया है, जिसमें इस क्षेत्र की हर अपडेट्स आती रहती हैं। इसके अलावा लेखक के पत्रकारीय सफर की जानकारी, 'मेरे होने का हलफनामा' के नाम से दिया गया है जो थोड़ा सा अखरता है। भारतीय पत्रकारिता ने इतिहास और वर्तमान को समेटते हुए किताब काफी भारी बन पड़ी है और इसकी कीमत भी काफी ज्यादा (पेपरबैक संस्करण- करीब- साढ़े पांच सौ रुपए) है। हालांकि लेखक का कहना है कि वह पत्रकारिता के छात्रों को इसे आधे दाम में मुहैया कराएंगे, और यही इस किताब की सार्थकता भी है। इस किताब के विस्तृत फलक को देखते हुए मीडिया संस्थानों और लाइब्रेरियों में इसे जगह मिलनी चाहिए।
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