विंब अस्वीकार होने दीजिए अब,
आईने के पार होने दीजिए अब।
बहुत घबराने लगा है मन,
जिया जाता नहीं यह भीड़-भीतर का अजनबीपन,
एक को दो-चार होने दीजिए अब।
देख शीशों के अजायब घर
बड़े होने लगे हैं हाथ के साधे हुए पत्थर,
सोख चीड़ीमार होने दीजिए अब।
टेक बूढ़े बादलों का छल,
अनवरत चढ़ रहा है नाक के ऊपर नदी का जल,
बाढ़ की दीवार होने दीजिए अब।
आईने के पार होने दीजिए अब।