Monday, 1 July 2013

आषाढ़ का एक दिन - मोहन राकेश


आषाढ़ का एक दिन सन 1958 में प्रकाशित और नाटककार मोहन राकेश द्वारा रचित एक हिन्दी नाटक है। कभी-कभी इस नाटक को हिन्दी नाटक के आधुनिक युग का प्रथम नाटक कहा जाता है। 1959 में इसे वर्ष का सर्वश्रेष्ठ नाटक होने के लिए 'संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार' मिला था। कई प्रसिद्ध निर्देशक इसे मंच पर भी ला चुकें हैं। वर्ष 1979 में निर्देशक मणि कौल ने इस नाटक पर आधारित एक फ़िल्म भी बनाई थी, जिसने आगे जाकर साल की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का 'फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार' जीता।
वस्तुतः मोहन राकेश के नाटक केवल हिन्दी के नाटक नहीं हैं। वे हिन्दी में लिखे अवश्य गए हैं, किन्तु वे समकालीन भारतीय नाट्य प्रवृत्तियों के उद्योतक हैं। उन्होंने हिन्दी नाटक को पहली बार अखिल भारतीय स्तर ही नहीं प्रदान किया वरन् उसके सदियों के अलग-थलग प्रवाह को विश्व नाटक की एक सामान्य धारा की ओर भी अग्रसर किया। प्रमुख भारतीय निर्देशकों इब्राहिम अलकाजी, ओम शिवपुरी, अरविंद गौड़, श्यामानंद जालान, राम गोपाल बजाज और दिनेन राकेश के नाटकों का निर्देशन कर उनका बहुत ही मनोरहर ढग से मंचन किया। 1971 में निर्देशक मणि कौल ने 'आषाढ़ का एक दिन' पर आधारित एक फ़िल्म बनाई, जिसको साल की सर्वश्रेष्ठ फ़िल्म का 'फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार' दिया गया। मोहन राकेश के नाटक 'आषाढ़ का एक दिन' में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को लेने पर भी आधुनिक मनुष्य के अंतद्वंद और संशयों की ही गाथा कही गई है। 'आषाढ़ का एक दिन' में सफलता और प्रेम में एक को चुनने के द्वन्द से जूझते कालिदास एक रचनाकार और एक आधुनिक मनुष्य के मन की पहेलियों को सामने रखा है। वहीँ प्रेम में टूटकर भी प्रेम को नहीं टूटने देने वाली इस नाटक की नायिका के रूप में हिन्दी साहित्य को एक अविस्मरनीय पात्र मिला है। राकेश के नाटकों को रंगमंच पर मिली शानदार सफलता इस बात का गवाह बनी कि नाटक और रंगमंच के बीच कोई खाई नही है। अषाढ़ का माह उत्तर भारत में वर्षा ऋतु का आरंभिक महिना होता है, इसलिए शीर्षक का अर्थ "वर्षा ऋतु का एक दिन" भी लिया जा सकता है।
‘आषाढ़ का एक दिन’ की प्रत्यक्ष विषयवस्तु कवि कालिदास के जीवन से संबंधित है। किन्तु मूलत: वह उसके प्रसिद्ध होने के पहले की प्रेयसी का नाटक है- एक सीधी-सादी समर्पित लड़की की नियति का चित्र, जो एक कवि से प्रेम ही नहीं करती, उसे महान होते भी देखना चाहती है। महान वह अवश्य बनता है, पर इसका मूल्य मल्लिका अपना सर्वस्व देकर चुकाती है। अंत में कालिदास भी उसे केवल अपनी सहानुभूति दे पाता है, और चुपके से छोड़कर चले जाने के अतिरिक्त उससे कुछ नहीं बन पड़ता। मल्लिका के लिए कालिदास उसके संपूर्ण व्यक्तित्व के, जीवन में, साथ एकाकार सुदूर स्वप्न की भाँति है; कालिदास के लिए मल्लिका उसके प्रेरणादायक परिवेश का एक अत्यन्त जीवंत तत्व मात्र। अनन्यता और आत्मलिप्तता की इस विसदृशता में पर्याप्त नाटकीयता है, और मोहन रोकेश जिस एकाग्रता, तीव्रता और गहराई के साथ उसे खोजने और व्यक्त करने में सफल हुए हैं वह हिन्दी नाटक के लिए सर्वथा अपरिचित है।
इसके साथ ही समकालीन अनुभव और भी कई आयाम इस नाटक में हैं, जो उसे एकाधिक स्तर पर सार्थक और रोचक बनाते हैं। उसका नाटकीय संघर्ष कला और प्रेम, सर्जनशील व्यक्ति और परिवेश, भावना और कर्म, कलाकार और राज्य, आदि कई स्तरों को छूता है। इसी प्रकार काल के आयाम को बड़ी रोचक तीव्रता के साथ प्रस्तुत किया गया है-लगभग एक पात्र के रूप में। मल्लिका और उसके परिवेश की परिणति में तो वह मौजूद है ही, स्वयं कालिदास भी उसके विघटनकारी रूप का अनुभव करता है। अपनी समस्त आत्मलिप्तता के बावजूद उसे लगता है कि अपने परिवेश में टूटकर वह स्वयं भी भीतर कहीं टूट गया है।[2]
किन्तु शायद कालिदास ही इस नाटक का सबसे कमज़ोर अंश है; क्योंकि अंतत: नाटक में उद्घाटित उसका व्यक्तित्व न तो किसी मूल्यवान और सार्थक स्तर पर स्थापित ही हो पाता है, न इतिहास-प्रसिद्ध कवि कालिदास को, और इस प्रकार उसके माध्यम से समस्त भारतीय सर्जनात्मक प्रतिभा को, कोई गहरा विश्वसनीय आयाम ही दे पाता है। नाटक में प्रस्तुत कालिदास बड़ा क्षुद्र और आत्मकेन्द्रित, बल्कि स्वार्थी व्यक्ति है। साथ ही उसके व्यक्तित्व में कोई तत्व ऐसा नहीं दीख पड़ता, जो उसकी महानता का, उसकी असाधारण सर्जनात्मक प्रतिभा का, स्रोत्र समझा जा सके या उसका औचित्य सिद्ध कर सके। राज्य की ओर से सम्मान और निमंत्रण मिलने पर वह नहीं-नहीं करता हुआ भी अंत में उज्जैन चला ही जाता है। कश्मीर का शासक बनने पर गाँव में आकर भी मल्लिका से मिलने नहीं आता; अंत में मल्लिका के जीवन की उतनी करुण, दुखद परिणति देखकर भी उसे छोड़कर कायरतापूर्वक चुपचाप खिसक पड़ना संभव पाता है। ये सभी उसके व्यक्तित्व के ऐसे पक्ष हैं, जो उसको एक अत्यन्त साधारण व्यक्ति के रूप में ही प्रकट करते हैं। निस्संदेह, किसी महान सर्जनात्मक व्यक्तित्व में महानता और नीचता के दो छोरों का एक साथ अंतर्ग्रथित होना संभव है। ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कालिदास का हीन रूप ही दीख पड़ता है। महानता को छूने वाले सूत्र का छोर कहीं नहीं नज़र आता। लेखक उसके भीतर ऐसे तीव्र विरोधी तत्त्वों का कोई संघर्ष भी नहीं दिखा सकता है, जो इस क्षुद्रता के साथ-साथ उसकी असाधारण सर्जनशीलता को विश्वसनीय बना सके। कालिदास की यह स्थिति नाटक को किसी-किसी हद तक किसी भी गहराई के साथ व्यंजित नहीं होने देती।
विसदृशता के दो अन्य रोचक रूप हैं- मल्लिका की मां अम्बिका और कालिदास का मामा मातुल। दोनों बुजुर्ग हैं, नाटक के दो प्रमुख तरुण पात्रों के अभिभावक। दोनों ही अपने-अपने प्रतिपालितों से असन्तुष्ट, बल्कि निराश हैं। फिर भी दोनों एक दूसरे से एकदम भिन्न, बल्कि लगभग विपरीत हैं। दोनों के बीच यह भिन्नता संस्कार, जीवनदृष्टि, स्वभाव, व्यवहार, बोलचाल, भाषा आदि अनेक स्तरों पर उकेरी गयी है। इससे मल्लिका और कालिदास दोनों के चरित्र अधिक सूक्ष्म और रोचकता के साथ रूपायित हो सके हैं। ऐसी ही दिलचस्प विसदृशता विक्षेप और कालिदास तथा मल्लिका और प्रियंगुमंजरी के बीच भी रची गयी है। इसी तरह बहुत संयत और प्रभावी ढंग से, व्यंग्य और सूक्ष्म हास्य के साथ, समकालीन स्थितियों की अनुगूंज पैदा की गयी है रंगिणा-संगिणी और अनुस्वार-अनुनासिक की दो जोड़ियों के द्वारा। ये थोड़ी ही देर के लिए आते हैं, पर बड़ी कुशलता से कई बातें व्यंजित कर जाते हैं। वास्तव में ‘आषाढ़ का एक दिन’ की लेखन और प्रदर्शन दोनों ही स्तरों पर व्यापक सफलता का आधार है उसकी बेहद सधी हुई, संयमति और सुचिंतित पात्र-योजना। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि ‘आषाढ़ का एक दिन’ पिछले तीस-बत्तीस वर्षों में भारत की अनेक भाषाओं में, अनेक केन्द्रों में बार-बार खेला गया है और अब भी उसका आकर्षण कुछ कम नहीं हुआ है।
निस्संदेह, हिन्दी नाटक के परिप्रेक्ष्य में और भाववस्तु और रूपबंध दोनों स्तर पर ‘आषाढ़ का एक दिन’ ऐसा पर्याप्त सघन, तीव्र और भावोद्दीप्त लेखन प्रस्तुत करता है, जैसा हिन्दी नाटक में बहुत कम ही हुआ है। उसमें भाव और स्थिति की गहराई में जाने का प्रयास है और पूरा नाटक एक साथ कई स्तरों पर प्रभावकारी है। बिंबों के बड़े प्रभावी नाटकीय प्रयोग के साथ उसमें शब्दों की अपूर्व मितव्ययता भी है और भाषा में ऐसा नाटकीय काव्य है, जो हिंदी नाटकीय गद्य के लिए अभूतपूर्व है। हिन्दी के ढेरों तथा कथित ऐतिहासिक नाटकों से ‘आषाढ़ का एक दिन’ इसलिए मौलिक रूप में भिन्न है कि उसमें अतीत का न तो तथाकथित विवरण है, न पुनरुथानवादी गौरव-गान, और न ही वह द्विजेंद्रलाल राय के नाटकों की शैली में कोई भावुकतापूर्ण अतिनाटकीय स्थितियाँ रचने की कोशिश करता है। उसकी दृष्टि कहीं ज्यादा आधुनिक और सूक्ष्म है, जिसके कारण वह सही अर्थ में आधुनिक हिन्दी नाटक की शुरुआत का सूचक है।

No comments:

Post a Comment