मराठी भाषा में लिखी कृतियों का भंडार उपलब्ध है। बांग्ला के साथ मराठी भारतीय-आर्य साहित्य में सबसे पुराना क्षेत्रीय साहित्य है, जिसका कालांकन क़्ररीब 1000 ई. से होता है। 13वीं सदी में दो ब्राह्मण संप्रदाय शुरू हुए, महानुभाव एवं वाराकरी पंथ, दोनों में व्यापक मात्रा में साहित्य लिखा गया। बाद के पंथ में शायद ज़्यादा साहित्य लिखा गया। भक्ति आंदोलन, जिसने 14वीं सदी के शुरू में महाराष्ट्र को अनुप्राणित किया और विशेष रूप से पंढरपुर में विठोबा संप्रदाय के साथ जुड़ने के कारण इसी परंपरा से प्रारंभिक मराठी साहित्य के महान नाम सामने आए। 13वीं सदी में ज्ञानेश्वर, उनके युवा समकालीन नामदेव, जिनके भक्ति गीतों में से कुछ सिक्खों की पवित्र पुस्तक आदि ग्रंथ में शामिल है और 16वीं सदी के लेखक एकनाथ, जिनका सबसे प्रसिद्ध कार्य 'भागवत-पुराण' की 11वीं पुस्तक का मराठी पाठांतर है। महाराष्ट्र के भक्त कवियों में सबसे प्रसिद्ध तुकाराम हैं। जिन्होंने 16वीं सदी में लेखन किया। मराठी का अनूठा योगदान पोवाडा परंपरा है, जो एक योद्धा जाति में लोकप्रिय वीर गाथाएं है। इनमे से प्रथम का कालांकन संभव नहीं है, लेकिन महाराष्ट्र के महान शिवाजी, योद्धा नायक (ज.-1630), जिन्होंने मुग़ल शासक औरंगज़ेब की सत्ता के ख़िलाफ़ अपनी सेना का नेतृत्व किया था, के समय में यह साहित्यिक परंपरा विशेष रूप से बहुत मह्त्त्वपूर्ण थी।
मराठी कविता में आधुनिक काल 'केशव सुत' से शुरू हुआ और 19वीं सदी के ब्रिटिश स्वच्छंदतावाद एवं उदारवाद, यूरोपीय राष्ट्रवाद तथा महाराष्ट्र के महान इतिहास से प्रभावित रहा। केशवसुत ने परंपरागत मराठी कविता के ख़िलाफ़ बग़ावत घोषित की और एक मत (1920 में समाप्त) शुरू किया, जिसने घर एवं प्रकृति, गौरवपूर्ण अतीत और शुद्ध गीतिमयता पर ज़ोर दिया। इसके बाद के काल में ‘रविकिरण मंडल’ के नाम से जाने गए कवियों के एक समूह का बोलबाला रहा, जिन्होंने घोषित किया कि कविता पंडितों एवं संवेदनशीलों के लिए नहीं है, बल्कि दैनिक जीवन का एक अंग है। 1945 के बाद से समकालीन कविता मनुष्य और उसके जीवन को उसकी सभी विविधताओं में खोजती है। यह आत्मपरक एवं व्यक्तिगत है और बोलचाल की भाषा में लिखने की कोशिश करती है। आधुनिक नाटककारों में 'एस.के. कोल्हटकर' एवं 'आर.जी. गडकरी' उल्लेखनीय हैं, 'मामा वरेरकर' यथार्थवाद को पहली बार 20वीं सदी में रंगमंच पर लाए और उन्होंने अपने नाटकों में कई सामाजिक समस्याओं की व्याख्या करने की कोशिश की। हरि नारायण आप्टे की 'मधली स्थिति' (1855; मध्य स्थिति) से मराठी में उपन्यास परंपरा शुरू हुई, जिसमें सामाजिक सुधार का संदेश था। उपन्यास साहित्य में 'वी.एम. जोशी' का काफ़ी ऊंचा स्थान है, जिन्होंने एक महिला की शिक्षा एवं विकास ('सुशीलाचादिवा', 1930) और कला एवं नैतिकता के बीच संबंध (इंदु काले व सरला भोले, 1930) खोजने का प्रयास किया। 1925 के बाद महत्त्वपूर्ण हैं- 'एन.एस फाडके', जिन्होंने ‘कला के लिए कला’ की वकालत की और 'वी.एस. खांडेकर', जिन्होंने इस सिद्धांत का प्रत्युत्तर आदर्शवादी ‘जीवन के लिए कला’ से दिया। उल्लेखनीय समकालीन उपन्यासकार एस.एन. पेंड्से, वी.वी. शिरवाडकर, जी.एन. दांडेकर और रणजीत देसाई हैं।
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