प्रेमचंद सहजवाला
जोसेफ लेलीवेल्ड की पुस्तक ‘द ग्रेट सोल : महात्मा गाँधी ऐंड हिज़ स्ट्रगल विद इण्डिया’ पर विवाद। महात्मा गाँधी सन् 1892 में अपने एक मुवक्किल अब्दुल्लाह शेठ का किसी त्याब शेठ के विरुद्ध मुकद्दमा लड़ने, केवल एक वर्ष के लिए दक्षिण अफ्रीका गए थे। परन्तु वहाँ भारतवासियीं की दुर्दशा देख, अपनी वापसी को हर बार एक एक वर्ष के लिए स्थगित करते करते आखिर लगभग 22 वर्ष दक्षिण अफ्रीका में रह कर उन्होंने भारतवासियों के लिए अनूठा संघर्ष किया और लौटते ही महात्मा की उपाधि पाई। दक्षिण अफ्रीका में जोहन्सबर्ग के निकट जो ‘टॉलिस्टॉय फ़ार्म’ उन्होंने स्थापित किया, उस के लिए ज़मीन प्रसिद्ध जर्मन यहूदी वास्तुकार पहलवान हरमन केलेनबाख ने प्रदान की थी। राजमोहन गाँधी अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘द गुड बोटमैन: ए पोर्ट्रेट ऑफ गाँधी’ में लिखते हैं – ‘अपने योरपीय सहयोगियों में से एक, हरमन केलेनबाख से गाँधी का संबंध उस अंतरंगता को उजागर करता है, जिसकी वे क्षमता रखते थे (पृ। 94)।’ परन्तु जोसेफ लेलीवेल्ड की इस पुस्तक में दुर्भाग्य से उसी अंतरंगता को कुछ पत्रों द्वारा खंगाल कर कदाचित् अर्थ का अनर्थ कर दिया गया है और पुस्तक के कतिपय अंशों से कुछ चर्चिल शिष्यों ने गाँधी तथा केलेनबाख के बीच समलैंगिक संबंध होने का निष्कर्ष निकाल दिया है। ‘कलेक्टिड वर्क्स ऑफ महात्मा गाँधी’ में गाँधी तथा केलेनबाख के बीच जिन पत्रों का सन्दर्भ दिया जा रहा है, उनमें से जिस पत्र की सर्वाधिक चर्चा है वह यह है: ‘तुम्हारा एकमात्र चित्र मेरे बेडरूम में है। वह शेल्फ मेरे बिस्तर के ठीक सामने है।’ एक अन्य पत्र में गाँधी केलेनबाख को लिखते हैं – ‘मैं तुम्हारे असाधारण प्रेम को समझ नहीं पाता। जब हृदय से हृदय की बात होती है, तब मौखिक बात सतही हो जाती है।’
उक्त पुस्तक में तो गाँधी के उभयलिंगी होने की बात स्पष्ट रूप से कही ही नहीं गई है, परन्तु कुछ वर्ष पहले इस देश में एक और पुस्तक को ले कर शिवसेना सुप्रीमो बालासाहेब ठाकरे के कार्यकर्ताओं ने जो उत्पात मचाया था, वह इस पुस्तक के विरुद्ध उभरे आक्रोश से कई गुना अधिक, एक तूफ़ान की तरह उमड़ा था। विदेशी लेखक जेम्स डब्ल्यू लेन द्वारा शिवाजी पर लिखी गई पुस्तकों में से एक में तो शिवाजी के वास्तविक पिता कौन थे, इस पर ही विवाद खड़ा कर दिया गया था तथा उनकी पुस्तक ‘शिवाजी : द हिन्दू किंग इन इस्लामिक इण्डिया’ में शिवाजी को अंग्रेज़ी के मुहावरे ‘ओयडीपल रिबेल’ द्वारा परिभाषित किया गया है। यदि हम ‘वेब्स्टर’ की एन्साईक्लोपीडियल डिक्शनरी के कुछ पन्नों को टटोलें तो यूनान के प्रागैतिहासिक काल में ओयडीपस नामक एक राजा से साक्षात्कार होता है जिन्होंने अपने पिता की हत्या कर के अपनी मां से शादी कर ली थी! और ‘ओयडीपस ग्रंथि’ उस ग्रंथि का नाम है जिसमें पिता का यौन आकर्षण पुत्री की तरफ होता है, या मां का बेटे की तरफ। और शिवाजी को ‘ओएडीपल रिबेल’ कह कर लेखक ने जैसे बर्र का छत्ता खोल दिया था! शिवसेना कार्यकर्ताओं ने पूना के एक पुस्तकालय में बेहद हिंसक तोड़फोड़ की जिसमें कई हज़ार पुस्तकें नष्ट हो गईं तथा कई महत्वपूर्ण पांडुलिपियाँ स्वाहा हो गई। महाराष्ट्र सरकार ने तुरंत पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगा दिया। परन्तु समय के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने पुस्तक संसार के साथ सही न्याय करते हुए उस प्रतिबन्ध को हटा भी दिया।
सन् ’90 के आसपास पूरे विश्व में जिस पुस्तक ने युद्धस्तरीय तहलका मचा दिया था और संबंधित लेखक की जान तक खतरे में पड़ गई थी, वह थी ‘सतानिक वर्सिज़।’ इस पुस्तक पर ईरान के तानाशाह बादशाह अयातोल्लाह खोमीनी की तरफ से लेखक सलमान रुशदी को ज़िंदा या मुर्दा पकड़ लाने के फतवे तक का ऐलान कर दिया गया था, क्योंकि इस में इस्लाम धर्म के संस्थापक पैगम्बर मुहम्मद की छवि को अप्रत्यक्ष में सही, बहुत अपमानजनक तरीके से प्रस्तुत किया गया था। विश्व के मुस्लिम समाज को ठेस पहुँचाना आक्रोश के उस सैलाब का एक महत्वपूर्ण सबब बताया गया। सन 2000 में जब सलमान रुश्दी भारत आए, तब तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से इस गुहार के साथ मिले भी कि अब ‘सतानिक वर्सिज़’ पर से प्रतिबन्ध हटा दिया जाए। परन्तु वाजपेयी ऐसा करने में असमर्थ थे, क्योंकि उनके कथनानुसार उनके सामने सवाल देश के असंख्य मुसलमानों की भावनाओं का था। भाजपा भले ही मुस्लिम विरोधी पार्टी होने का लेबल कमा चुकी है परन्तु बतौर एक राजनीतिक दल के मुस्लिम वोट उसके लिए भी कुछ अहमियत रखते होंगे, यही सोच वाजपेयी ने सलमान रुश्दी को निराश भेज दिया। जहाँ एक तरफ छत्रपति शिवाजी को ले कर शिवसेना तथा मराठी भाषी लोगों की ठेस उभर कर सामने आई, वहीं ‘सतानिक वर्सिज़’ में मुस्लिम भावना अहम हो उठी। अब गाँधी की इस पुस्तक को सब से पहले गुजरात सरकार ने प्रतिबंधित किया तथा देश की केन्द्र सरकार की ओर से पहले यह खबर आई थी कि गाँधी का अपमान करने वालों को दण्डित करने पर एक विधेयक लाने पर विचार किया जा रहा है, क्यों कि कहा जा रहा है कि गाँधी भी राष्ट्रीय सम्मान के प्रतीक हैं, इसलिए जिस प्रकार तिरंगे का अपमान करने पर जेल हो सकती है, उसी प्रकार गाँधी का अपमान करने पर भी जेल का प्रावधान लगाया जा सकता है।
उक्त प्रश्न पर सोचते हुए किसी भी अध्ययनशील व्यक्ति के सामने वे असंख्य पुस्तकें आ जाती हैं, जो विश्वभर में गाँधी के पक्ष या उनके विपक्ष में लिखी गई हैं। शायद विश्व का कोई भी महापुरुष, चाहे वह लीयो टॉलिस्टॉय हो या कार्ल मार्क्स या गाँधी, पूर्णतः विवाद से परे नहीं होता। जैसे लेनिन का कथन था कि टॉलिस्टॉय विश्व के सब से दिग्भ्रमित व्यक्ति हैं। ऐसे ही भगतसिंह कहते थे कि जो कुछ गाँधी कहते हैं, क्या उसे सिर्फ इसलिए मान लिया जाए कि वे बुज़ुर्ग हैं, या महात्मा हैं। यानी गाँधी की पूजा अर्चना से ले कर उनकी छवि को क्षत विक्षत करने तक, विश्व में असंख्य ऐसे विचार स्रोत हैं जिनमें गाँधी की पक्षधरता और विपक्षधरता दोनों के दर्शन होते हैं। बाबा साहेब आंबेडकर तो यहाँ तक लिख देते थे कि गाँधी तो अनपढ़ लोगों के नेता हैं, इसलिए उनके कुछ भी कहने पर असंख्य नर नारी उनका अनुसरण करने निकल पड़ते हैं। प्रश्न यह है कि अपमान किसे माना जाए? और कि पुस्तकों में यदि कुछ कीचड़ उछालू प्रसंग हैं भी, तो क्या एक इतनी बड़ी और महत्वपूर्ण पुस्तक को सिर्फ उन चंद अनुच्छेदों के कारण कूड़ेदान में फेंक दिया जाए?
विदेशी लेखकों में विशेषतर इस प्रकार के उदहारण बहुत मिलते हैं जिन में कदाचित कुछ सम्मानजनक (भले ही विवादस्पद) लोगों की यौनसंबंधी बातों का ज़िक्र कर के कोई दूर की कौड़ी लाने का दंभ दर्शाया गया है। उदहारण के तौर पर बेल्जियम के लेखक कोएनराड एल्स्ट अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘गाँधी एंड गोडसे’ के पृष्ठ 10 पर इस बात की ओर संकेत करते हैं कि विश्व प्रसिद्ध उपन्यास ‘फ्रीडम ऐट मिडनाईट’ के 16वें अध्याय में लेखकों ने विनायक दामोदर सावरकर तथा नत्थूराम गोडसे के बीच समलैंगिक संबंधों के होने की बात कही थी, जिस पर गोपाल गोडसे ने लेखक युगल डोमिनीक लैपियर तथा लैरी कॉलिन्स पर मानहानि का मुकदमा ठोक दिया था। परन्तु समय के साथ गोपाल गोडसे तथा लेखक युगल के बीच कोर्ट से बाहर ही सुलह हो गई, जिसके तहत उपन्यास ‘फ्रीडम ऐट मिड नाईट’ के भारतीय संस्करणों में वह आपतिजनक अंश अब नहीं छापा जाएगा। इधर एक अन्य विदेशी विचारक जेफ्री कृपाल तो स्वामी रामकृष्ण परमहंस व उनके सर्वोत्कृष्ट शिष्य स्वामी विवेकानंद के बीच की आलिंगन-बद्धता में भी सम-लैंगिकता के दर्शन पाते हैं, वह भी शायद इसलिए कि स्वामी रामकृष्ण परमहंस सेक्स के बारे में सर्वाधिक असंतुलित व दुखी संत थे। उन्हें लगता था कि नारी से सेक्स संबंध ईश्वर-प्राप्ति के रास्ते में एक रुकावट है। गाँधी भी सेक्स के मामले में असामान्य सी ग्रंथियों के शिकार थे।
जिस रात उनके पिता करमचंद गाँधी का देहावसान हुआ, उस रात गाँधी स्वयं अपने बेडरूम में पत्नी कस्तूरबा के साथ अन्तरंग क्षणों में रत थे, सो सुबह उठ कर पिता के निधन की खबर सुनते ही शायद जीवन पर्यंत उनके मन पर अपराधबोध का एक असह्य बोझ सवार हो गया। उन्हें भी लगता रहा कि सेक्स शायद कर्त्तव्य के मार्ग की सब से बड़ी बाधा है। इसीलिये दक्षिण अफ्रीका में जीवन में पहली बार देशवासियों की समस्याओं की बागडोर हाथ में ले कर उन्हें लगा कि कर्त्तव्य के मार्ग की इस सब से बड़ी बाधा को क्यों न रोका जाए, इसीलिये उन्होंने ब्रह्मचर्य की शपथ ली और उनकी देखादेखी असंख्य कांग्रेसी युवक युवतियों ने भी शपथ ली। नव-विवाहित जोड़े यथा आचार्य कृपलानी-सुचेता कृपलानी भी इस शपथ से पलायन न कर सके। ऐसे में यह कहना कि गाँधी ने केलेनबाख के प्रेम के कारण कस्तूरबा को त्याग दिया था, तथ्यों की मात्र एक विकृत या सोद्देश्य शरारतन प्रस्तुति है। गाँधी के विरुद्ध लगे उभयलिंगी होने के आरोप को खंडित करने का एक और ठोस हथियार भी सहज ही उपलब्ध है। गाँधी ने सन् ’25 में अपनी विश्व प्रसिद्ध पुस्तक ‘माइ एक्सपेरिमेंट्स विद ट्रुथ’ लिखी थी जिसमें कहीं भी इस उभयलिंगता की चर्चा तक नहीं है। जब कि सन 45-46 में जब गाँधी ने अपने ब्रह्मचर्य का कठोर परीक्षण करने के लिए अपने आश्रम की महिलाओं के साथ रात भर सोने के प्रयोग किये, तब भी उन्होंने इस बात को नहीं छुपाया था। भले ही विनोबा भावे जैसी पवित्रत्माओं ने प्रतिक्रिया स्वरूप आश्रम ही छोड़ दिया था और कहा था कि गाँधी तो सशरीर स्वर्गारोहण करना चाहते हैं। कई लोग गाँधी के विरुद्ध अनर्गल शनर्गल कुछ भी बोल कर आश्रम से अलग हो गए थे, परन्तु गाँधी तो अपनी इस समस्या पर महिलाओं से विचार विमर्श तक कर लेते थे।
उन्हें लिखे गए पत्र आज भी ‘कालेकटिड वर्क्स ऑफ गाँधी’ में उपलब्ध हैं। उस समय के युवा नेता जयप्रकाश नारायण की पत्नी प्रभा ने भी गाँधी द्वारा उनके साथ बिताई रात का ज़िक्र एक पत्र में करते हुए कहा है कि मैं आपका प्रयोग बन कर नहीं सोई थी, वरन् आपकी बेटी रूप में सोई थी। गाँधी जी तो ऐसी शख्सियत थे कि आश्रम में एक आपातकालीन बैठक बुला कर एक परिपत्र उन्होंने सब के बीच घुमाया कि उनकी चिकित्सा प्रभारी डॉ. सुशीला नय्यर उनके शरीर का मसाज कर के उन्हें नहलाने जाती है। तब वे नहाने के टब में सुशीला की साड़ी ओढ़ कर सोए रहते हैं व सुशीला टब के पीछे कहीं नहा रही होती है। ऐसे में वे अपनी आँखें कस कर बंद किये रहते हैं (सन्दर्भ ‘Brahmacharya Gandhi & his Women Associates by Girija Kumar pp 292-93)। जब इतना कुछ वे नग्न सच की तरह सब के सामने एक परिपत्र रूप में कह सकते हैं तो उन्हें केलेनबाख से संबंधों को प्रकाश में लाने के लिए आखिर किस रुकावट ने रोका होगा?
जोसेफ लेलीवेल्ड की पुस्तक के सन्दर्भ में कुछ विद्वानों ने भाषा संबंधी एक सही तर्क भी दिया है कि उन्नीसवीं शताब्दी की भाषा आज की भाषा की तुलना में भिन्न थी, अतः उस समय की भाषा को यदि आज के विद्वान पढ़ें तो बीच में एक पूरी शताब्दी के गुज़र चुके होने का अहसास भी मन में रखना अनिवार्य है। हम इस बात की पुष्टि बहुत आसानी से पंडित नेहरू की लिखी हुई तीन विश्व प्रसिद्ध पुस्तकों ‘ग्लिम्प्सिज़ ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री’ ‘ऑटोबायोग्राफी’ तथा ‘डिस्कवरी ऑफ इण्डिया’ को पढ़ कर कर सकते हैं। ये तीनों पुस्तकें समय के काफी अंतरालों के बाद लिखी गई थीं और इन तीनों में पंडित नेहरु की भाषाओँ में ज़मीन आसमान के अंतर को भी सहज ही महसूस किया जा सकता है।
बहरहाल, गाँधी के बचाव में ऐसे असंख्य तर्क दिये जा सकते हैं, परन्तु विदेशी लेखक जब जब अपने शोध में नई नवेली और चौंकाने वाली बातें कहते हैं, तब कुछेक मामलों में तो यह सत्य भी उजागर हुआ है कि उन्होंने अपने शोध कतिपय भारतीय विद्वानों की सहायता से ही लिखे हैं। उदहारण के तौर पर जेम्स डब्ल्यू लेन ने स्पष्ट कहा था कि उन्होंने शिवाजी पर सारा शोध महाराष्ट्र के ही विद्वानों के सहयोग से किया था। अब यह बात दीगर है कि महाराष्ट्र के ही विद्वानों में से किसी ने यह तर्क भी दिया था कि शिवाजी के बारे में ऐसी क्रोध उत्पन्न करने वाली बातें किसी उच्च जातीय मराठी भाषी विद्वान की शरारत भी हो सकती है। ऐसे में किसी भी प्रकार का शोध और उस से उत्पन्न किसी भी प्रकार का निष्कर्ष तो अध्ययनकर्ताओं के लिए एक चुनौती बन कर उभरता है। जिन दिनों शिवाजी की पुस्तक पर बवाल खड़ा हुआ था, उन्हीं दिनों तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मुंबई में एक भाषण में कहा था कि यदि आप को एक पुस्तक पसंद नहीं है तो आप दूसरी लिखें, दूसरी पसंद नहीं तो तीसरी लिखें। स्पष्ट है कि उन्होंने किसी भी प्रकार के प्रतिबन्ध के विरुद्ध ही संकेत दिए थे।
पुस्तकें सत्य होने का दावा कर के ही बाज़ार में आती हैं, परन्तु सत्य समय सापेक्ष भी होते हैं। यदि एक चौंकाने वाला तथ्य एक पुस्तक द्वारा सामने आया है तो वह चौंकाहट एक चुनौती बन कर सामने आती है तथा पढ़ने वालों को स्वतंत्र चिंतन का आह्वान देती हैं। यदि उन पढ़ने वालों में से किसी में इस कदर प्रबुद्धता, समय तथा सुविधाएं हैं तो किसी आगामी पुस्तक द्वारा उस चौंकाहट का पर्दाफाश भी किया जा सकता है। सत्य की खोज में अनवरत चलते चलते रास्ते में कोई असत्य का भारी पत्थर ठोकर भी लगा सकता है, परन्तु सत्य की खोज के रास्ते पर यात्रा अनवरत ही चलती रहेगी। इसलिए कम से कम प्रतिबन्ध लगाने का तो कोई औचित्य नज़र नहीं आता। रही बात क़ानून बनाने की, सो इस विश्व में ईसा मसीह या राम और कृष्ण तक को नहीं बख्शा गया। मानव मन में स्थापित तथ्यों को चुनौती देते विश्लेषण या टिप्णियां सामने आई हैं। सो किसी भी शोध या विश्लेषण पर प्रतिबन्ध लगाया जाएगा तो संभव है कि आटे के साथ घुन भी पिस जाए। आज जबकि रामायण महाभारत जैसे धार्मिक महाकाव्यों की प्रमाणिकता तक पर संदेह ज़ाहिर किये जा चुके हैं, तो कल को ऐसे, राम कृष्ण की प्रमाणिकता पर संदेह करने वालों को भी राष्ट्रीय अपमान में माना जाएगा और स्वतंत्र चिंतन को बहुत गहरी ठेस पहुंचेगी। यदि पुस्तक संसार से कुछ बाहर आएं, तो कोई भी विवेकशील बुद्धिजीवी यह सहज ही पूछ सकता है, कि क्या विश्वप्रसिद्ध चित्रकार मकबूल फ़िदा हुसैन का देश से ही आत्म-निष्कासन देश का बुद्धिजीवी वर्ग अभी तक सहन कर पाया है?
शायद नहीं। बुद्धिजीवी वर्ग ने मकबूल फ़िदा हुसैन के चित्रों को भी कला की उत्कृष्टता व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की श्रेणी में रखा है, तथा इतने बड़े चित्रकार के आत्म-निष्कासन को देश के कला जगत की एक त्रासदी रूप में ही लिया है, एक गहरी ठेस की तरह स्वीकार भी किया है। अतः कोई औचित्य नहीं कि पुस्तकों को प्रतिबंधित किया जाए या उनके विरुद्ध कोई क़ानून बनाया जाए। इस मुद्दे पर हर व्यक्ति का पुनर्विचार कर के अपनी सही धारणा बना लेना ही उचित है। (srijangatha.com से साभार)
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