Friday 5 July 2013

ठेठ हिंदुस्तानी परंपरा का वाहक ‘आधा गांव’


भगवानदास मोरवाल

आज से चार दशक पूर्व यानी 1966 में प्रकाशित राही मासूम रजा का उपन्यास ‘आधा गांव’ पता नहीं मुझे क्यों पसंद है, इसे शब्दों में बयां करना मुश्किल है। ‘आधा गांव’ को पढ़ते हुए भारतीय समाज के जो चित्र मेरी स्मृति में अंकित होते हैं, वे चित्र राही के गंगोली के नहीं मेरे अपने गांव-समाज के हैं।
आखिर ‘आधा गांव’ में ऐसा क्या है जो इसे ‘गोदान’, ‘मैला आंचल’, ‘राग दरबारी’ और ‘त्यागपत्र’ के साथ बीसवीं सदी की उन कालजयी कृतियों की श्रेणी में लाकर खड़ा कर देता है जो भारतीय हिंदी कथा साहित्य की धरोहर हैं? कहने को इस उपन्यास में देश-विभाजन की त्रासदी, बदलते हुए आर्थिक संबंध तथा भय एवं संशय के वातावरण का बेहद सूक्ष्म और कलात्मक चित्रण किया गया है या फिर सांस्कृतिक राष्ट्रवाद (तथाकथित) की कुरूपता को बेनकाब किया गया है, मगर मेरा मानना है कि ‘गोदान’ और ‘मैला आंचल’ के बाद ‘आधा गांव’ ऐसा उपन्यास है जो उस दौर की ठेठ हिंदुस्तानी पंरपरा का प्रतिनिधित्व करता है। ये तीनों उपन्यास भारतीय लोक-संस्कृति, सामाजिक सरोकारों, धर्म, राष्ट्र और सांप्रदायिकता से उपजे सवालों का बृहत्तर परिप्रेक्ष्य में जवाब देने वाले उपन्यास हैं।
‘आधा गांव’ सच्चे अर्थों में उस ठेठ हिंदुस्तानी पंरपरा का प्रतिनिधित्व करने वाला उपन्यास है जो हमारे तथाकथित राष्ट्रवादियों की हरकतों से लगातार टूट रही है। आज के संदर्भ में ‘आधा गांव’ इस मायने में अत्यंत महत्वपूर्ण उपन्यास है कि यह न केवल सांप्रदायिकता के विभिन्न पहलुओं से साक्षात्कार कराता है अपितु संघर्ष के लिए प्रेरणा देने के साथ-साथ हर तरह के प्रतिक्रियावाद के विरूद्ध भी चुनौती देता है। कहने को ‘आधा गांव’ गंगौली जैसे छोटे से गांव की कहानी है परंतु इसका फलक कई अर्थों में बेहद व्यापक है। एक आम आदमी की मानसिकता और उसके द्वंद्व का बहुत सूक्ष्म चित्रण है इसमें. राही स्वयं कहते हैं कि यह उपन्यास वास्तव में मेरा एक सफर है। यह कहानी न कुछ लोगों की है और न कुछ परिवारों की. यह उस गांव की कहानी भी नहीं है जिसमें इस कहानी के भले-बुरे पात्र अपने आपको पूर्ण बनाने का प्रयत्न कर रहे हैं। यह कहानी न धार्मिक है न राजनीतिक क्योंकि समय न धार्मिक होता है न राजनीतिक. यह कहानी है समय ही की. इसलिए यह जितनी सच्ची है उतनी ही झूठी भी. एक कालजयी कृति की पहचान ही यह है कि वह उन शाश्वत प्रश्नों से दो-चार होती रहे जो मनुष्य, समाज और किसी भी राष्ट्र की धुरी होते हैं। वास्तव में ‘आधा गांव’ अपनी ठेठ हिंदुस्तानी परंपरा को बचाए और बनाए रखने की कोशिश करने वाली ऐसी कृति है जिसमें पग-पग पर लोक संस्कृति अर्थात साझा संस्कृति के दृश्य रह-रहकर दिखाई पड़ते हैं।
राही मासूम रजा यहां समय को सूत्रधार के रूप में इस्तेमाल करते हैं। पाठकों को याद होगा कि राही ‘महाभारत’ जैसे एपिक सीरियल में इसी समय का इस्तेमाल सूत्रधार के रूप में करते हैं। समय यानी इतिहास, स्मृति, परंपरा और संस्कारों का संवाहक. फुन्नन मियां, अब्बू मियां, झंगरिया-बो, मौलवी बेदार कोमिला, बबरमुआ, बलराम चमार, हकीम अली अकबर,गया अहीर, अनवारूल, हसन राकी जैसे पात्रों के माध्यम से राही मासूम रजा ‘आम आदमी’ के बहाने एक ऐसी यथार्थ की पृष्ठभूमि तैयार करते हैं जो हमारी अपनी पृष्ठभूमि है।
दरअसल गंगौली असल रूप में वह राष्ट्र है जिसकी संकल्पना हरेक वह आदमी करता है जिसकी धमनियों में राष्ट्रीयता का गहरा लहू दौड़ता है। अपने एक पात्र के माध्यम से राही कहते हैं, “जंग के मोर्चे पर जब मौत मेरे सामने होती है तो मुझे अल्लाह याद आता है, लेकिन उसके फौरन बाद मुझे काबा नहीं, अपना गांव गंगौली याद आता है क्योंकि वह मेरा घर है....अल्लाह का घर काबा है लेकिन मेरा घर गंगौली है.” इस तरह राही यह स्पष्ट करते हैं कि भारत की लोग सांझी संस्कृति में विश्वास रखते हैं, उसमें जीते हैं। इसे नुकसान पहुंचाना देश के लिए घातक है। वास्तव में ‘आधा गांव’ सांझी संस्कृति को पुख्ता करने का उपन्यास भी है।
एक कालजयी कृति की पहचान ही यह है कि वह उन शाश्वत प्रश्नों से दो-चार होती रहे जो मनुष्य, समाज और किसी भी राष्ट्र की धुरी होते हैं। वास्तव में ‘आधा गांव’ अपनी ठेठ हिंदुस्तानी परंपरा को बचाए और बनाए रखने की कोशिश करने वाली ऐसी कृति है जिसमें पग-पग पर लोक संस्कृति अर्थात साझा संस्कृति के दृश्य रह-रहकर दिखाई पड़ते हैं चाहे वह मोहर्रम का सजीव चित्रण हो या फिर शादी ब्याह पर दिलवाई जाने वाली गालियां. वास्तव में यहे वे ठेठ हिंदुस्तानी मान्यताएं व परंपराएं हैं जो भारतीय समाज के हर धर्म, हर समुदाय में बराबर देखने को मिलती हैं। मां के दूध के साथ पी हुई भोजपुरी उर्दू के संवादों में पगा आधा गांव समाजशास्त्रीय दृष्टि से भी एक ऐसी उल्लेखनीय कृति है जिसे जितनी बार पढ़ा जाए वह उतनी ही बार गंगा की लहरों सी अपने साथ बहाती ले जाती है।
‘आधा गांव’ भारतीय समाज की सामाजिक संस्कृति की उस ताकत का नाम है जिसे हम गंगा जमुनी तहजीब से मिली-जुड़ी संस्कृति कहते हैं। इसका एक उदाहरण है मोहर्रम के दौरान ताजिये के नीचे से मासूमों को किसी बला से महफूज रखने का दृश्य. दरअसल ‘आधा गांव’ उस अस्मिता विमर्श पर भी गहरा चिंतन करता है जो हिंदुस्तान से अलग हुए पाकिस्तान बनने के बाद शुरू होता है। इसीलिए इसमें मुस्लिम समाज का ऐसा बहुआयामी और सटीक चित्रण हुआ है जिसमें धार्मिक संकीर्णता के लिए कोई जगह नहीं है। भारतीय समाज के सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक जीवन का चित्रण करने में राही मासूम रजा को अद्भुत सफलता मिली है। इस उपन्यास में राही के जीवन और व्यवहार पर पड़े वैचारिक प्रभाव की बानगी भी जगह-जगह दिखाई देती है। उनके जीवन की दो घटनाओं का उल्लेख करना जरूरी है। पहली है गाजीपुर नगर पालिका के अध्यक्ष पद के लिए खड़े हुए उम्मीदवार अपने ही पिता बशीर हसन आबिदी के खिलाफ दूसरे उम्मीदवार कॉमरेड पब्बर राम के पक्ष में खुलकर प्रचार करना, तथा दूसरी है नय्यर जहां से सख्त विरोधों के बावजूद विवाह करना। राही मासूम रजा के यही विद्रोही तेवर ‘आधा गांव’ में दिखाई देते हैं। वे मोहर्रम के दौरान विभिन्न धार्मिक कर्मकांडों पर अप्रत्यक्ष रूप से व्यंग्य करते हैं।
‘आधा गांव’ एक ऐसा मील का पत्थर है जिससे हिंदी कथा साहित्य समृद्ध हुआ है। प्रेमचंद के गोदान के बाद सच्चे अर्थों में ठेठ हिंदुस्तानी परंपरा को जिन दो कृतियों ने जीवित रखा उनमें से एक है रेणु का ‘मैला आंचल’ और दूसरा है राही का ‘आधा गांव’. ‘आधा गांव’ को पढ़ते हुए लगता है मानो धीरे-धीरे नौहे (मोहर्रम के दौरान गाया जाने वाला गीत) की आवाज आ रही है।
"नाज़ुक हैं बहुत पांव में पड़ जाएंगे छाले
क़ुरबान मैं, ऐ राहे-नज़फ़ पूछने वाले"

No comments:

Post a Comment