Friday, 5 July 2013

आखिर ऐसा क्या है ज्योति कुमारी की पहली पुस्तक


एक बेस्ट सेलर किताब के बहाने ढेर सारी बातें

ग़ैर साहित्यिक वजहों से चर्चित युवा कथाकार/पत्रकार ज्योति कुमारी की पहली पुस्तक 'दस्तखत और अन्य कहानियां' को बेस्ट सेलर का खिताब दिया जा चुका है। खिताब दाताओं और प्रशंसकों में प्रो.नामवर सिंह, राजेंद्र यादव, तसलीमा नसरीन, डा. खगेंद्र ठाकुर, वाणी प्रकाशन के प्रबंध निदेशक अरुण माहेश्वरी आदि रहे हैं। उस समय बताया गया था कि इस किताब की एक हजार प्रतियां दो महीने के भीतर पाठकों तक पहुंच गई। नामवर के कथनानुसार ज्योति ने अपनी पहली रचना से ही लोगों को चमत्कृत कर दिया। राजेंद्र यादव ने उस कामयाबी को कछुए की गति से खरगोशी रेस कहा था। तसलीमा नसरीन की राय थी कि महिलाएं लेखन के क्षेत्र में आगे आएं ताकि इस क्षेत्र में पुरुषों का आधिपत्य कम हो सके। प्रकाशक की ओर से बताया गया कि ज्योति की पुस्तक का मराठी एवं अंग्रेजी में भी अनुवाद हो रहा है। हिंदी के साहित्यिक परिदृश्य के लिए यह एक घटना है. पहले संग्रह की एक हजार प्रतियाँ सिर्फ दो महीने में बिक जाना। सुखद लगता है कि हिंदी में साहित्यिक पुस्तकों का बाजार विस्तृत हो रहा है. वाणी प्रकाशन ने बेस्टसेलर की अवधारणा और युवा लेखन को लेकर कार्यक्रम का आयोजन किया और बड़े स्टार पर लोगों का ध्यान इसकी तरफ खींचा. यह युवा लेखन के लिए भी सुखद है कि एक प्रकाशक है जिसकी दिलचस्पी केवल उनकी किताबों को प्रकाशित करने में नहीं है, बल्कि वह उसे ब्रांड की तरह से प्रचारित-प्रसारित भी कर रहा है. सबसे बढ़कर यह कि उसकी किताबों को पाठकों तक पहुंचाने में दिलचस्पी ले रहा है. हिंदी के लिए यह नई बात है और युवा लेखकों के उत्साह को बढाने वाला भी है.
वैसे आज का युवा लेखक अपने लेखक होने को लेकर सजग है, वह कुछ और होने के बाद लेखक होना नहीं चाहता है, बल्कि लेखक होने के बाद कुछ और बनना चाहता है. वह लेखन को अपने कैरियर की तरह से देखता है. एक ज़माना था कि जब कोई व्यक्ति अपना परिचय लेखक के रूप में देता था तो सामने वाला पूछता था कि लेखक तो ठीक है लेकिन आप करते क्या हैं. लेखन को हिंदी समाज में हॉबी की तरह देखा जाता था या अकादमिक जगत तक सिमटी रहने वाली गतिविधि के रूप में. आज का अधिकांश युवा लेखन अकादमिक जगत के सर्टिफिकेट के बिना ही अपनी पहचान बना रहा है. यह युवा लेखन का आत्मविश्वास है, अपने लेखन पर भरोसा है और अपने पाठकों पर वह पकड़ जो हिंदी साहित्य के उस दौर की याद दिलाता है जब किताबें हजारों में बिका करती थी, बल्कि उस दौर के कई साहित्यिक उपन्यास लाखों में बिक चुके हैं.
आज हिंदी का युवा लेखक लोकप्रिय साहित्य लिखकर बेस्टसेलर नहीं होना चाहता है, बल्कि हिंदी का अधिकांश युवा लेखन गंभीर साहित्य को लोकप्रिय बनाने का उपक्रम है. अरुण माहेश्वरी ने एक बहुत अच्छी बात कही कि पहले युवा लेखक पहचान बनाने के लिए प्रकाशक के पास आता था लेकिन आज जब कोई युवा लेखक प्रकाशक के पास आता है तो उसकी पहचान पहले से बन चुकी होती है. आज सोशल मीडिया है, ब्लॉग हैं, वेबसाईट हैं. ये लेखक की पहचान बना रहे हैं, उनको पाठकों से जोड़ रहे हैं- सीधा.
यह मिथ टूटा है कि हिंदी में पाठक नहीं हैं. हिंदी में पाठक हैं, अगर कोई प्रकाशक उन तक पहुँचने के उपक्रम करता है तो पाठक उस प्रयास को हाथोहाथ लेते हैं. वह दिन दूर नहीं जब हिंदी के युवा लेखकों की किताबें लाखों में बिका करेंगी, तब जाकर सच्चे अर्थों में बेस्टसेलर की अवधारणा साकार होगी. रही बात तसलीमा की तो वह कुछ कहें और सेक्स और महिला अधिकार न हो, यह तो मुमकिन ही नहीं है, क्योंकि सेक्स और सेक्सुअल ऐक्ट तसलीमा के प्रिय विषय हैं और इन विषयों को वह जहां और जब मौक़ा मिलता है, फ़ौरन पेश कर देती हैं. आख़िर वह विवादास्पद बयान क्यों देती हैं?
लेखिका तसलीमा नसरीन कहती हैं कि महिलाओं को पुरुषों की तुलना में लिखने का व़क्त कम मिलता है. महिलाओं को घर के भी काम करने पड़ते हैं, इसलिए उनके पास लेखन के लिए पुरुषों की अपेक्षा कम व़क्त होता है. तसलीमा का यह तर्क न केवल बेहद हास्यास्पद लगा, बल्कि लचर भी. क्योंकि ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या पुरुषों को घर के बाहर के काम नहीं करने पड़ते हैं. तसलीमा ने साहित्य जगत में महिलाओं की बराबरी की वकालत की. लेकिन तसलीमा नसरीन ने इस बारे में कुछ नहीं कहा कि महिलाओं को साहित्य में बराबरी का दर्जा कैसे मिले. दरअसल, तसलीमा की दिक्कत ही यही है कि वह कुछ घिसे-पिटे जुमलों के आधार पर अपनी दुकानदारी चलाती हैं. जिस उपन्यास लज्जा से उन्हें शोहरत और पहचान मिली, वह भी उपन्यास न होकर अख़बारी रिपोर्ट है. लेकिन तसलीमा इस कला में पारंगत हैं कि किस तरह से किसी कृति को या अपनी उपस्थिति को चर्चित या विवादास्पद बनाया जा सके. चाहे वह लज्जा हो या फिर उनकी आत्मकथा, जिसे साहित्य अकादमी के दिवंगत अध्यक्ष सुनील गंगोपाध्याय पर यौन शोषण का आरोप लगाकर सनसनीख़ेज़ बनाया गया. बिक्री भी हुई और विवाद भी हुआ. उस दिन भी तसलीमा ने बोलते बोलते कह दिया कि वूमेन शुड नॉट बी मेड सेक्स ऑब्जेक्ट. ज़ाहिर तौर पर वह यह बात साहित्य के संदर्भ में कह रही थीं. लेकिन यहां भी उन्होंने सामान्यीकरण करते हुए यह बात कही और आगे निकल गईं. तसलीमा को यह बात साफ़ करनी चाहिए थी कि किस भाषा में, किस साहित्य में महिलाओं को सेक्स ऑब्जेक्ट बनाया और समझा जाता है. दरअसल, यह लगता है कि हिंदी की कई लेखिकाओं पर गाहे-बगाहे यह आरोप लगते रहते हैं कि वे ग़ैर साहित्यिक वजहों और दंद-फंद की वजह से साहित्य के केंद्र में बनी रहती हैं. पुरस्कार से लेकर तमाम सम्मान हासिल करती हैं. अपना इस्तेमाल करते हुए प्रसिद्धि पाती हैं. हो सकता है कि इसमें सच्चाई नहीं हो, लेकिन कई प्रतिभाहीन लेखिकाएं जिस तरह से हिंदी जगत में छाती चली जा रही हैं, उससे यह शक और गहराता है. लेकिन यह प्रवृत्ति स़िर्फ साहित्य में नहीं है, क्योंकि इस तरह की प्रवृत्ति साहित्य के अलावा, समाज के तक़रीबन हर क्षेत्र में देखने को मिलती है, चाहे वह राजनीति हो, फिल्म हो या फिर शिक्षा का क्षेत्र हो! सेक्स और सेक्सुअल एक्ट तसलीमा के प्रिय विषय हैं और इन विषयों को वह जहां और जब मौक़ा मिलता है, फ़ौरन पेश कर देती हैं. तसलीमा को अब मैच्योर लेखक की तरह व्यवहार करना चाहिए, लेकिन लंबे समय से निर्वासन और देश निकाले का दंश झेलने की वजह से उनकी मन:स्थिति को समझा जा सकता है. सेक्स जीवन का अनिवार्य तत्व ज़रूर है, लेकिन हर चीज़ के पीछे स़िर्फ सेक्स ही हो, यह कहना उचित नहीं होगा.
हिंदी साहित्य में लंबे समय से इस बात पर लगातार विलाप किया जाता रहा है कि साहित्य के पाठक घट रहे हैं. कुछ लोगों का मानना है कि हिंदी साहित्य स़िर्फ बूढ़े और साठ पार के लोग पढ़ते हैं. और अगर सचमुच ऐसा है, तो यह बेहद चिंता की बात है. दरअसल, हमारा देश युवाओं का है और अगर हिंदी साहित्य को लेकर हमारा युवा उदासीन है, तो ऐसी स्थिति में हमें गंभीरता से इस विषय पर विचार करना ही होगा. सच तो यह है कि न केवल सरकार को, बल्कि ग़ैर सरकारी संगठनों को भी युवाओं को हिंदी साहित्य की ओर प्रेरित करने के लिए क़दम उठाने ही होंगे. दरअसल, संयुक्त प्रयास से ही स्वीकार्यता और लोकप्रियता दोनों बढ़ेगी.
सवाल यह है कि एक हज़ार प्रतियों पर बेस्ट सेलर हो जाना, क्या शर्मिंदगी का सबब नहीं है. साठ करोड़ से ज़्यादा हिंदी भाषी के देश में यह संख्या कहां है, इसका अंदाज़ा पाठक लगा सकते हैं. दरअसल, हिंदी में बेस्ट सेलर की कोई परंपरा रही नहीं है और न ही इसको बनाने की कोशिश कभी की गई है. यह तो हम सभी जानते ही हैं कि बेस्ट सेलर की सूची कोई पत्रिका या फिर कोई अख़बार ही बनाता है. हक़ीक़त में, बेस्ट सेलर की अवधारणा तक़रीबन सवा सौ साल पुरानी है. आइए बता दें कि इसकी शुरुआत कैसे हुई.
सबसे पहले अमेरिका के न्यूयॉर्क से निकलने वाली पत्रिका द बुकमैन ने 1895 में अमेरिका के प्रमुख प्रकाशकों से बात करके एक सूची तैयार की थी. वह सूची लोगों ने काफ़ी पसंद की. नतीजा यह हुआ कि अमेरिका की पत्र पत्रिकाओं ने उसकी ही तर्ज़ पर बेस्ट सेलर की सूची छापनी प्रारंभ कर दी. लेकिन हिंदी में किसी भी पत्र-पत्रिका ने यह साहस नहीं दिखाया या यह कहें कि कोई पहल नहीं हुई, लिहाज़ा हिंदी में बेस्ट सेलर की अवधारणा का विकास ही नहीं हो पाया. 1994 में अवध नारायण मुद्गल के संपादन में छाया मयूर में एक सूची प्रकाशित हुई थी, लेकिन पत्रिका का दूसरा अंक नहीं निकल सका और इसीलिए यह सूची आगे ही नहीं बढ़ सकी.
राकेश बिहारी लिखते हैं कि ज्योति कुमारी की किताब के दूसरे संस्करण के प्रकाशन को, राजकमल प्रकाशन द्वारा प्रकाशित किस्सा कोताह (राजेश जोशी), मड़ंग गोरा नील कंठ हुआ (महुआ माजी), जुगनी (भावना शेखर), खाकी में इंसान (अशोक कुमार), भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित युवा कथाकारों यथा - शशि भूषण द्विवेदी, अल्पना मिश्र, कविता, पंखुरी सिन्हा, कुणाल सिंह, चन्दन पांडे, कुणाल सिंह, राकेश मिश्र, मनोज कुमार पांडे, प्रत्यक्षा आदि लेखकों के पहले-दूसरे कथा-संग्रहों, आधार प्रकाशन द्वारा प्रकाशित भरतीय उपन्यास और आधुनिकता (वैभव सिंह), कलिकथा वाया वाइपास (अलका सरावगी), शिल्पायन द्वारा प्रकाशित 1857 और नवजागरण के प्रश्न (प्रदीप सक्सेना), अनकही (जयश्री रॉय), हनिया तथा अन्य कहानियां (विवेक मिश्र), सामयिक प्रकाशन द्वारा प्रकाशित आवां (चित्रा मुद्गल), मिलजुल मन (मृदुला गर्ग), इतिहास गढ़ता समय (प्रियदर्शन) आदि पुस्तकों की परंपरा की अगली कड़ी के रूप में ही देखा जाना चाहिये. यदि यहां पुराने लेखकों की उन किताबों का जिक्र न भी किया जाये जिनके वर्षों से नए संस्करण होते रहे हैं तो भी, अनुपम मिश्र की किताब `आज भी खड़े हैं तालाब’का जिक्र जरूरी है जिसकी लाख से ज्यादा प्रतियां बिक चुकी हैं और जिसे लेखक द्वारा रायल्टी मुक्त कर दिये जाने के कारण लगभग सारे बड़े प्रकाशक छाप चुके हैं।
विभिन्न प्रकाशन गृहों द्वारा प्रकाशित कई किताबों के एकाधिक संस्करण और दो महीने में एक किताब की एक हज़ार प्रतियों के बिक जाने के इस सुखद सच के सामानान्तर एक चिंताजनक सच यह भी है कि कई महत्वपूर्ण किताबों के ढाई-तीन सौ प्रतियों के संस्करण भी कई-कई वर्षों में नहीं बिक पाते हैं. किसी किताब के बहुत ज्यादा बिकने और किसी किताब के नहीं बिक पाने के बीच के फासले के पीछे आखिर क्या कारण हैं? मुझे लगता है, इस महत्वपूर्ण मौके पर बेस्ट सेलर्स की अवधारणा, या किन्हीं अवांतर प्रसंग आदि की चर्चा करने के बजाय इस प्रश्न पर विचार किया जाना ज्यादा जरूरी है कि किसी किताब के बिकने या न बिकने के क्या कारण हो सकते हैं. चूंकि तत्कालीन चर्चा ज्योति कुमारी की किताब की है, इसलिये मैं अपनी बात इसी सन्दर्भ के हवाले से करूंगा.
किसी किताब के बिकने के कारणों की पड़ताल करते हुये जो पहली बात ध्यान में आती है वह है किताब की गुणवत्ता. प्रश्न यह उठता है कि क्या कम समय में इतनी बड़ी बिक्री का महत्वपूर्ण कारण किताब का विज्ञापन है? यदि हां तो इससे जुड़ा एक और प्रश्न मुझे परेशान करता है कि यदि विज्ञापन किसी किताब की बिक्री में इतनी बड़ी भूमिका निभाता है तो फिर प्रकाशक अपने सभी किताबों का उसी तरह विज्ञापन क्यों नहीं करते? हो सकता है, विज्ञापन की यह परम्परा हिन्दी साहित्य जगत के लिये एक नई शुरुआत हो. तो क्या यह उम्मीद रखी जाये कि अन्य पुस्तकों के भी इसी तरह विज्ञापन किये जायेंगे? इस पुस्तक के साथ आई अन्य किताबों के प्रचार-प्रसार, लोकार्पण-परिचर्चा आदि को देखते हुये ऐसी उम्मीद करने का कोई ठोस कारण नहीं दिखता. ऐसे में इस बड़ी बिक्री के जिस तीसरे कारण की तरफ ध्यान जाता है, वह है - इस पुस्तक के प्रकाशन से जुड़ी अवांतर प्रसंगों और विवादों का. यदि इस किताब की बिक्री का कारण यह है तो क्या यह माना जाये कि अब हिन्दी साहित्य की वे ही किताबें अच्छी मात्रा में बिकेंगी जिसके मूल में कोई विवाद होगा? कहने की जरूरत नहीं कि इस तरह के प्रश्न उत्साह को नहीं चिंता को जन्म देते हैं. आज जरूरत है पुस्तक की गुणवता और उसके विज्ञापन के मेल से बने एक ऐसी प्रविधि के खोज की ताकि बहुत बिकनेवाली किताबों और न बिक पानेवाली किताबों के बीच का फासला न्यूनतम हो सके. ‘बेस्ट सेलर्स’ की घोषणा, उसका सेलिब्रेशन, और दावा की गई बिक्री की संख्या के अनुरूप लेखकों को रॉयल्टी दिये जाने की इस शुरुआत को इसी महती दिशा में बढे एक छोटे कदम के रूप में देखा जाना चाहिये.

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