Friday, 5 July 2013

दलित चेतना और सांस्कृतिक विषाद का प्रतिबिम्ब हिडिम्ब


नेम चन्द अजनबी

संस्कृति के निर्माण में भूगोल व इतिहास का बहुत बड़ा स्थान होता है। वास्तव में संस्कृति संम्पूर्ण विश्व में एक समान है। मनुष्य चाहे पूर्व का हो या पश्चिम का, वह भले ही विश्व के किसी भाग का निवासी हो, वह किसी अदृष्ट दैविक शक्ति से भयभीत है, अनागत को उसे डर है, और अतीत के प्रति उसे अनन्य श्रद्धा है, रूढ़ियों में उसे विश्वास है, किन्तु भौगौलिक और ऐतिहासिक कारणो से उसमें वैविध्य भी काफी आ गया है और ज्यों- ज्यों वर्ग और समुदाय विज्ञान और टैक्नौलोजी के क्षेत्र में अधिक उन्नति करता है। उसका सांस्कृतिक स्तर अन्य वर्गों और जातियों में उसी अनुपात में अलग होता जाता है। हरनोट की रचना हिडिम्ब इसी कशमकश का परिणाम है।
हिडिम्ब सांस्कृतिक और भौगोलिक परिवर्तनों की चिन्ता व पूंजीवादी सांस्कृतिक प्रदूषण को परिलक्षित करता है। यह नहीं है कि पहाड़ों में विकास नहीं हो रहा है- हो रहा है। परन्तु पहाड़ों के विकास के लिये अपनाये जाने वाले अवैज्ञानिक तरिकों से चाहे हमें क्षणिक लाभ की अनुभुति होती हो परन्तु उसके दूरगामी परिणामों की चिन्ता किसी को भी नहीं है। जिसके परिणामस्वरूप कभी कोई पहाड़ डायनामाईट के भीष्ण विस्फोटों को न सहते हुये गिरकर नदी के प्रवाह को रोक कर पहले झील का रूप धारण करता है व फिर बाढ़ के रूप में कहर बरपता है। आज नदी किनारे खड़ी ऊँची- ऊँची इमारतों से चाहे पर्यटन व्यवसाय से जुड़े लोगों की चान्दी हो रही हो परन्तु नदी की राह की चिन्ता किसे है? इसके बाद यदि वह अपनी राह के रोडे को हटाती है तो इसमें दोष किसका?
जंगलों के जंगल काटे जा रहे हैं -पहाड के आभूषण छीने जा रहे हैं- जिससे भूमि स्खलन हो रहा है- बादल फटते हैं- गांव के गांव उसमे बह जाते हैं। जब कोई घटना घ्।टती है तो कुछ घड़ियाली आंसू बहाने के साथ ही वैज्ञानिक तरिके अपनाने की बात की जाती है। परन्तु फिर वही शार्टकट मार्ग का रास्ता चुना जाता है। आखिर ऐसा कब तक चलेगा? प्रकृति अपने साथ इस प्रकार की छेड़ छाड़ कब तक सहन कर सकती है?
विद्याध्ययन के लिये चलाये जा रहे संस्थानों में हो रहे असामाजिक व गैर-कानूनी कार्यों की ओर भी लेखक ने निर्भयता से अपनी कलम चलाई है। गुरू पदों पर विराजे स्वार्थी लोग आज चन्द कागज के टुकड़ों की खातिर बच्चों के भविष्य से खेल रहे हैं। उन्हें पैसे का लालच देकर भांग और अफीम जैसी खेती का काम करवा रहे हैं।
यह विडम्बना ही है कि जहां से आज हम बच्चों को अच्छा नागरिक और देश भक्त बनने की शिक्षा देते हैं वहीं से बच्चों को ले जाकर भांग व चरस के अवैध धन्धे में संलिप्त किया जा रहा है। यह कारोवार कुल्लू मनाली तक ही सीमित नहीं है बल्कि रोहड़ू से लेकर उतरांचल के सम्पूर्ण पहाड़ी क्षेत्र तक अपने लम्बे-लम्बे हाथ पसार चुका है। हैरानी की बात यह है कि सरकार सब कुछ जानकर भी अनजान बनी हुई है।
मन्दिरों से देवताओं की मूर्तियां चोरी हो रही हैं। महज चन्द कागज के टुकड़ों की खातिर विदेशों में भेजा जा रहा है। देवी देवताओं के प्रति मानव श्रद्धा में आये परिर्वतनों को भी हिडिम्ब में लोक कथाओं और लोकोत्सवों के माध्यम से स्पष्ट अंकित किया गया है। संस्कृति और पर्यावरण में फैेल रहे प्रदूषण से नाराज देवी हिडिम्बा लोगों को आगाह करती है-
-पंचों। सुणो। सर्वनाश होगा-कुछ नहीं रहेगा- मेरा देवता नाराज है-दुःखी है-मैं कहां जाउं-क्या करूं-कहां है मेरी जगह- मेरी जमीन- मेरे चरांद- मैं कहां अपणी गउओं को चराउं- कहां भेड़ बकरियों को ले जाउं-वे भूखी मर रही हैं-प्यासी मर रही हैं-चिड़िया को बैठने के लिये पेड़ तक नहीं रखे-मसाफरों को छांव नीं रही-पानी की बावड़ियां नही रही-खेतों मे मक्की गेंहू नहीं रहे-क्यारों में धान नहीं रहे- चोरी से भांग बीजते हैं -अफीम बीजते हैं- बच्चों को खिलाते हैं- सब कुछ गंदा कर दिया- नदी गंदी कर दी-वह रोती है-उसकी बहने की जगह नहीं रही-पापी मन हो गये सभी के-सुणो पंचों-सुणो- मैं बड़ी दुःखियारी हूँ- मेरा दम घुटता है-तुम मेरे को बेचने को तुले हो-चारों तरफ बेईमानी है-मैं अपणी जगह लूंगी-चरांद लूंगी -। ’ (पृष्ठ-92)
आज भी मुट्ठी भर समृद्ध लोग पूरे समाज का सुख चैन छीन रहे हैं। शोषित वर्ग अपनी अभावग्रस्त स्थिति के कारण इन (हिडिम्बों )के अत्याचार का शिकार हो रहा है। आधुनिक हिडिम्ब रूपी मंत्री पर कटाक्ष करते हुये लेखक ने मंत्री के ही शब्दों में उसका अत्यन्त सुन्दर चित्रण किया है
- ‘ मैं मंत्री ! नेताओं का नेता -- मेरी टोपी में सभी समा गये हैं। मेरा एक छत्र राज-- हर जगह -- चल रहा है। मैं जो चांहू कर सकता हूँ। सब कुछ मेरे वश में है। मैं सभी का राजा बन गया  हूँ। ’
‘- राजा ही नहीं शावणू इस धरती का अधिष्ठाता राक्षस  हूँ मैं। ’
‘-मेरी न कोई पालकी है न ही कोई रथ छत्र। मेरा न कोई मन्दिर है, न कोई गुरूद्वारा और न चर्च न मस्जिद। न कोई देहरियां। मैं तो साक्षात हूँ सर्वत्र। देख रे शावणू देख। जंगलों में फुल्ल लकड़ी की तरह फैलता जा रहा हूँ मैं। ’
‘- धोती कुरते में रहता हूँ। नेता कहते हैं मुझे लोग। ’ ( पृष्ठ 232 से 235)
स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद यद्यपि नव निर्मित भारतीय संविधान में जाति को समाप्त कर दिया गया है परन्तु व्यवहारिक जीवन में आज भी जातिवाद का पूर्ण आधिपत्य है। हिडिम्ब जाति प्रथा को केन्द्र में रख कर लिखा गया है।
हिडिम्ब के आंचल में एक नड़ शावणू और सुरमा देई का आत्मियता से भरा परिवार है, हिडिम्ब का वर्तमान रूप धार्मिक चोगा पहने एक नेता है, नड़ परिवार का एक सुन्दर उपजाउ भूमि का टुकड़ा है जो असल में विवाद की जड़ है। नई संस्कृति की देन कौन्ट्र्क्ट मैरिज है, तो लेखक की कल्पना लोक की ’विपु’ है। देवी-देवता व गुर है, काहिका है, जाति प्रथा है, पहाड़, नदी- नाले, जंगल है।
उपन्यास की शुरूआत ’ वह एक नड़ परिवार था। ’ से की गई है। नड़ एक शुद्र जाति है, परन्तु तथाकथित सभ्य समाज में बारह वर्ष बाद मनाये जाने वाले काहिका पर्व में नड़ एक प्रमुख पात्र होता है। इस पर्व में उसे मंन्त्रों से शुद्ध करके तीन दिन का देवता बना दिया जाता है परन्तु चैथे दिन ही वह पुनः अछूत हो जाता है। आज काहिका में भी परिवर्तन आ गया है।
‘-सभी लोग खाने-पीने में मस्त थे। चारों तरफ शराब- भांग की बदबू फैल रही थी। ’( पृष्ठ-213)
जहां शावणू के पिता के समय काहिका में नड़ और उसके परिवार का सम्मान किया जाता था, उसे देवता के समान ईज्जत बख्शी जाती थी-वहीं आज शावणू को एक पशुशाला के अन्धेरे कमरे में ठहराया गया था।
‘- खाने के नाम पर साग- और चार पांच चपातियां। -दूध के स्थान पर चाय और वह भी पत्ती ज्यादा और चीनी कम। ’ (पृष्ठ -210)
काहिका जैसे महा लोकोत्सव के महानायक की इतनी अनदेखी -? यह संस्कृति की उल्टबांसी नहीं तो और क्या है?
आज भी सभ्य समाज में दलित शोषण यथावत जारी है जिसे चित्रित करने में हरनोट पूर्ण सफल रहे हैं । दलित की जमीन, जायदाद हड़पने का सिलसिला बदस्तूर जारी है। सरकारी नारों और खोखले वादों के बावजूद स्वंय सरकार के सरमायेदार ही इस परम्परा का नेतृत्व कर रहे हैं। छोटे नेताओं और अफसरों से लेकर बड़े -बड़े कारकूनों तक इनकी सुदृढ़ श्रृंखला में मूढ़ अशिक्षित मानवों के कारण ग्रामीण परिवेश जकड़ा हुआ है। जमीनदारी और महाजनी खत्म हो गई पर्रन्तु इस शोषित वर्ग की दशा में कोई फर्क नहीं आया। चाहे आज इस शोषित वर्ग के कुछ भद्र जन उच्च पदों पर विराजमान हैं परन्तु उनकी राजनितिक रोटियां इसी शोषित वर्ग की आर्थिक और मानसिक स्थिति को जलाकर सेंकी जा रही हैं।
आज साहित्य में ‘दलित साहित्य आन्दोलन’ को चंद आलोचक और लेखक प्रमुखता से उठा रहें हैं, लेकिन जो रचनाएं या कहानियां इधर लिखी जा रहीं हैं उसमें एक या दो जातियां ही प्रमुखता से केन्द्र में होती है और ऐसा प्रतीत होता है जैसे ये कहानियां किसी प्रतिशोध मात्र से लिखी जा रही है। दलित जातियां या दलित समाज केवल चूढ़ा या चमार तक सीमित नहीं हैं बल्कि उनका बड़ा और विविध समुदाय आज भी पहाड़ों में निवास करता है। लेकिन दलित लेखकों का नाम मात्र ध्यान उधर जा रहा है। हिडिम्ब इसका एक उदाहरण है हांलांकि इसे दलित साहित्य में रखना इसके साथ अन्याय होगा। लेकिन यह कृति निःसंदेह अपने आप में दलित चेतना की भी एक सशक्त अकपट रचना है।
बच्चों के बाल मन में भी अपने प्रति उच्च जाति के लोगों द्वारा किये जाते व्यवहार के कारण हीन भावन पनपती है। बच्चे कांसी के मन में भी दूसरे बच्चों के प्रति ईष्र्या जागृत होती है।
‘- कांसी के सभी साथी काम में मशगूल हैं-कोई जंगल से लकड़ियां ला रहा है, कोई बर्तन धो रहा है-उसके हाथ की तो लकड़ियां भी मास्टर नहीं लेंगे। उनमें भी उसकी जाति की बू आती है। ’ (पृष्ठ-111)
उपन्यासकार हिडिम्ब में शोषित वर्ग में आ रही जागृति को चित्रित करता है। काहिका में नड़ एक महानायक है जिसके बगैर काहिका सम्भव नहीं है। शावणू को पता है कि काहिका वाले दिन नड़ की कितनी आव-भगत होती है। कितना सम्मान दिया जाता है। परन्तु जब शावणू देखता है कि उसका अपमान हो रहा है तो वह आन्दोलित हो उठता है-
‘-अपने लोगों को बोलना कि मैं चला गया। घर से फालतू नी हूँ मैं। गरीब हूँ इसका मतलब यह नी होता कि मैं कुत्ते की तरह अन्धेरे में पड़ा रहूँ। मेरे को तुम्हारी जरूरत नी है। तुम्हारे को है मेरी। बोल देणा देवता के कारकूनों को कि मैं यहां अपणी ऐसी-तैसी किराणे नी आया-हां बोल देणा। ’ (पृष्ठ-213)
जब से विदेशी कम्पनियों ने पहाड़ों में अपने पावं पसारे हैं- गरीब तबके के लोग उनके द्वारा बराबर शोषित हो रहे हैं। न इनका पहाड़ों से प्यार है और न ही पहाड़ियों के प्रति दर्द। इन कम्पनियों का काम महज पैसा कमाना है। इनकी देखा-देखी में पहाड़ी समाज भी पैसे की चकाचौंध में स्वार्थी होता जा रहा है, दूसरे गरीबी के कारण वह कन्ट्रैक्च्यूल मैरिज जैसे विकल्प भी तलाशने लगा है।
कथा में एक आस्ट्रेलियाई युवक हैरी का आगमन हिन्दी फिल्म की किसी घटना की तरह प्रतीत होता है परन्तु सुमा के साथ कन्ट्र्ैक्ट मैरिज के रूप में उसका गमन आश्चर्यचकित करता है। भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही शादी को एक पवित्र व अटूट रिश्ता माना गया है। अग्नि के सात फेरे लेकर सात-2 जन्मों तक साथ-2 जीने व मरने की कसमे खाई जाती हैं परन्तु आज  कन्ट्रैक्ट मैरिज के नये चलन ने इस आर्यावर्त देश की वैदिक संस्कृति की जड़ें हिला कर रख दी हैं, जिसमे शादी भी एक ठेका हो गया है इस कन्ट्रैक्चूअल मैरिज की पृष्ठभूमि में जहां पहाड़ की गरीबी की विवशता है वहीं विदेशियों के अपना पासपोर्ट और विजा की वैद्यता खत्म होने के बाद भी यहीं टिके रहने की कानूनी वैद्यता का प्रमाण पत्र है। परन्तु न तो सभी ऐरी हैं और न ही शावणू।
कहानी के अन्त में दलित चेतना की पराकाष्ठा अपनी चरम सीमा पर पंहुच जाती है। जिस जमीन के टुकड़े को लेकर मन्त्री ने शावणू व उसके परिवार के उपर कितने अत्याचार किये-कांसी को मार दिया-सुरमा देई की मृत्यु हो गई-शावणू को मूर्ति चोर बना दिया गया-समाज में अपमानित किया गया। बेटी सूमा की एक विदेशी के साथ कान्ट्रेक्ट मैरिज करनी पडी-वही जमीन का टुकड़ा शावणू भरी सभा में मन्त्री के ही हाथों से एक कम्पनी के लिये अस्पताल बनाने को दान कर देता है और मंन्त्री ठगा से महसूस करता है।
कहानी में स्थानीय लोक-गीतों का स्थान -स्थान पर उल्लेख सुखद लगता है-
"‘कुलू जाया की नोउंचा खाणा,
कुलू जाया घिउं-खिचड़ू खाणा,
कुलू देशा सा पौटू रा वाणा।"  ’(पृष्ठ-82)
और
"‘म्हारे लोड़ी जाचा बे आउ मितरा
बीजा लोड़ी दसमी आउ मितरा।
राग लोड़ी आपणा लाउ मितरा
म्हारे लोड़ी जाचा बे आउ मितरा।" ’ (पृष्ठ-90)
कहानी के अन्य पात्रों में पहाड़ी जन-मानस में रची बसी नदी व्यास (विपाशा) का काल्पनिक हरे फ्राक वाली लड़की विपु का चरित्र उपन्यास को रहस्यमयी बनाता है। भूमिदान समारोह में ऐरी और सूमा की अनुपस्थिति दुखद लगती है । शोभा राम जैसा पात्र कहानी में सुखद प्रतीत होता है परन्तु यदि शोभा राम को उच्च जाति का चित्रित किया जाता तो उपन्यास सम्भवतः एक वर्ग विशेष की जकड़न से बाहर निकल जाता। मूलतः पहाड़ी आंचल को प्रतिविम्बित करता यह उपन्यास हरनोट की एक उत्कृष्ट रचना है जिसमें कुछ भी लाग-लपेट न रख कर सब कुछ स्पष्ट व सटीक भाषा में उदृत किया गया है।
साहित्य जगत में एस. आर. हरनोट किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। अपनी कहानियों के माध्यम से हरनोट ने अपने प्रशंसकों व पाठकों की एक खासी भीड़ जुटा ली है। हिमाचल प्रदेश के दूर दराज क्षेत्र चनावग में जन्में-पले- बढ़े हरनोट को ग्रामीण जीवन का चरित्र चित्रण करने में महारत हासिल है। बहुत से लेखकों द्वारा कलम का शहरीकरण करने का हरनोट पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा, बल्कि उसकी परिणति के रूप मंे ग्रामीण परिवेश की धड़कनों को चित्रांकित करने वाला उनका पहला उपन्यास हिडिम्ब आज साहित्य जगत में चर्चित है।

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