गिरीश पंकज
समूची हिंदी पत्रकारिता में मुट्ठी भर लोग ही ऐसे हैं जो मौजूदा परिवेश पर कलम चलाने की सोच पाते हैं, कलम चलाना तो दूर की बात है। दरअसल पत्रकारिता में वर्षों से बिलबिलाते हुए अनेक पत्रकार चूके हुए चरित्र के दृष्टांत बन चुके हैं। इन लोगों से नई सर्जना की अपेक्षा करना बेमानी है। नई पीढ़ी के भी जो पत्रकार पत्रकारिता में प्रवेश कर रहे हैं, वे राजनीतिक चकाचौंध के सहारे खुद के ही पुनर्वास की जुगत में ज्यादा नजर आते हैं। गहन चिंतन और सामाजिक मुद्दों पर गंभीर लेखन की दिशा में लेखन के लिए प्रतिबद्धता कम होती जा रही है। नई पीढ़ी के पत्रकार राजनीतिक-प्रशासनिक खबरों की चीरफाड़ में तो गहरी दिलचस्पी दिखाते हैं (इसके अनेक परोक्ष कारण भी हैं) लेकिन समाज या राष्ट्र को प्रभावित करने महत्वपूर्ण विषयों या व्यक्तियों पर लिकने की जहमत नहीं उठाते। घटनाओं को जस का तस प्रस्तुत कर देने में क्या कमाल। कमाल तो तब है जब किसी एक घटना पर गंभीर विश्लेषमात्मक आलेख तैयार हो। इसके लिए अनेक सामयिक-समीचीन संदर्भ एकत्र करना, तथ्यों का अन्वेषण करना और अपने मौलिक चिंतन के प्रदेय द्वारा पाठकों के लिए पठनीय सामग्री तैयार करना एकाग्रचित्त कर्म है। इसे कर पाने की ललक जिनमें है, मैं उन्हें ही सच्चा पत्रकार मानता हूँ। बाकी तो संवाददाता हैं, बस। पत्रकार तो वही है जो अपनी लेखनी के द्वारा समाज को उद्वेलित करने की सार्थक कोशिश करे। ऐसे ही एक पत्रकार हैं संजय द्विवेदी जिन्होंने पत्रकारिता के जंगल में वनफूल की तरह महकने की कोशिश की है। पिछले दिनों संजय की तीन कृतियों को देखने-पढ़ने का सुअवसर मिला। इस सूचना समर में, मत पूछ हुआ क्या-क्या और तीसरी सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और उनकी पत्रकारिता। तीनों पुस्तकों को पढ़कर आश्वस्त हुआ जा सकता है कि पत्रकारिता के भीतर पनप रहे अपढ़ किस्म की बिरादरी में पढ़ने-लिखने की परंपरा बरकरार है, जो लुप्त होती नज़र आ रही है।
इस सूचना समर में संजय द्विवेदी के अड़तीस आलेख संग्रहित हैं और अट्ठाईस विशिष्ट लोगों पर महत्वपूर्ण टिप्पणियां हैं। लेखों की चुटीली भाषा पढ़कर स्पष्ट हो जाता है कि लेखक सामाजिक-राजनीतिक विद्रूपों को तल्ख भाषा के सहारे ही प्रस्तुत करना चाहता है। फिर चाहे वह सवाल अखिल भारतीय चरित्र का है हो या चाहे विचारधारा के अरण्य से जनपथ पर वापसी हो, इन सभी में लेखक अपने समय के ही ज्वलंत सवालों को न केवल व्यंग्यात्मक तरीके से उठाता है वरन् कहीं-कहीं समाधान खोजने की कोशिश भी करता है। कथ्यों को तथ्यों के सहारे प्रस्तुत करने से पाठक को इतिहास की जानकारी तो मिलती ही है, उसकी अपनी दृष्टि भी बनती है। संजय अपने लेखों के माध्यम से पाठकीय दृष्टि बनाने की भी कोशिश करते है। अखिल भारतीय चरित्र को बचाने के सवाल पर संजय लिखते हैं कि ‘चिरत्र मात्र चुनावी गणित ही नहीं, एक राष्ट्रीय सोच एवं सवेदना है।’ डॉ. लोहिया एवं दीनदयाल उपाध्याय जैसे राजनीतिक चिंतकों का हवाला देकर संजय ने स्थापित किया है कि विरोधी मतों वाले नेता भी राष्ट्रीय मूल्यों वाले विषयों पर एकमत हुआ करते थे। फिर चाहे वह ‘भारत पाक महासंघ’ बनाने की साझा अपील ही क्यों न हो। संजय ने आज के संदर्भ में बड़ा सटीक सवाल उठाया है कि मुलायम सिंह भी भारत पाक महासंघ की मांग करते नज़र आते हैं, पर क्या वे अपने प्रतिद्वंद्वी कल्याण सिंह के साथ इस विषय पर उपरोक्त पहल कर पाएंगे ? इन दोनों अलग-अलग उदाहरणों के सहारे संजय ने स्पष्ट कर दिया है कि तब और अब के चरित्र में कितना बदलाव आ गया है। देश को एक सूत्र में बांधने का दायित्व निभाने वाली राजनीति हमें टुकड़ों में बांटने लगी है लेकिन एक सकारात्मक दृष्टि भी देता है कि ‘हम अखिल भारतीयता को बचाने के लिए विकास की चिंता करें क्योंकि मात्र दलीय आग्रहों एव कुर्सी चिंतन से राष्ट्रीय चरित्र को नहीं बचाया जा सकता।’
संजय ने छात्र आंदोलनों की दिशाहीनता, साम्प्रदायिकता के सवाल, जनतंत्र पर होने वाले अत्याचार, जातीय राजनीति से लेकर भाजपा-कांग्रेस के अंतर्कलहों पर भी बेबाक लिखा है, और रोचक ढंग से लिखा है। न केवल भारतीय मुद्दों पर कलम चलाई है वरन नाजुक विदेशी मामलों पर भी संजय ने कलम चलाई है। यही है वैश्विक दृष्टि। अगर हम उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश या छत्तीसगढ़ के मुद्दों पर लिखते हैं तो यह भी देखने और विचारने की कोशिश करें कि चेचन्या अथवा करांची में कत्ल क्यों हो रहे हैं। इस लिहाज से संजय ने सोच और चिंतन का दायरा फैलाकर चीजों की पड़ताल करते हैं। ‘लोग’ वाले खंड में संजय ने नेताओं, साहित्यकारों, एवं समाजसेवियों के व्यक्तित्वों का सूक्ष्म विवेचन किया है। ज्यादातर ऐसे ही जन-नायकों पर संजय ने लिखा है जो किसी न किसी महत्वपूर्ण कारणों से चर्चित रहे हैं। माखनलाल चतुर्वेदी, डॉ. लोहिया, नागार्जुन, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना से लेकर निर्मल वर्मा तक और खान अब्दुल गफ्फार खान से लेकर अरुंधती राय तक पर संजय ने भावपूर्ण लेख लिखे हैं। आज के कुछ चर्चित लोगों का भी संजय ने व्यक्ति चित्र खींचा है। कवि मानबहादुर सिंह पर भी एक छोटी सी टिप्पणी है लेकिन बेहद मार्मिक। हिंदी के इस महत्वपूर्ण कवि की कुछ गुण्डों ने कॉलेज के भीतर घुसकर हत्या कर दी थी। इस घटना से तब (1997) बौद्धिक जगत आहत हुआ था। यह और बात है कि तब कुछेक अखबारों में मानबहादुर पर लेख आदि छपे थे। संजय ने ‘स्वदेश’ जैसे धुर दक्षिणपंथी अखबार में मानबहादुर सिंह की हत्या पर दुख व्यक्त करते हुए सवाल उठाया था कि “आतंक की छाया में जी रहे समाज को वस्तुतः यह मौत एक चुनौती है। व्यापक असुरक्षा में जीते हुए क्या कोई मानबहादुर की मौत के खिलाफ खड़ा होगा ?”
इस तरह देखें तो इस सूचना समर में ऐसे अनेक सवाल हैं जो खबरों के आगे भी विश्लेषण की मांग करते हैं। जिनकी गहराई में उतरने की सख्त जरूरत है। गहराई में वही उतरना चाहता है जिसे तैरना आता है। संजय तैराक हैं इसलिए गहराई में जाते हैं और विचारों के सीप लेकर बाहर निकलते हैं, फिर चिंतन के मोती पाठकों को परोसकर पत्रकारीय धर्म का निर्वाह करते हैं। कुछ लेखों में संजय एक खास राजनीतिक विचारधारा के प्रति नरम रुख अख्तियार करते हुए भी नज़र आते हैं। गनीमत है पूरी तरह से प्रतिबद्धता नहीं दिखाई पड़ती है। ईमानदारी एवं निष्पक्षता ही सच्ची पत्रकारिता है। यह मूलमंत्र किसी भी पत्रकार को नहीं भूलना चाहिए। सामाजिक प्रतिबद्धता और किसी राजनीतिक विचारधारा से प्रतिबद्धता में अंतर है। पत्रकार को सामाजिक मूल्यों के उत्थान हेतु प्रतिबद्ध होना चाहिए और हरकिस्म की विसंगतियों के विरुद्ध कलम चलानी चाहिए। पार्टी कोई भी हो, पत्रकार को हर कसी की बुराइयों पर समान रूप से प्रहार करना चाहिए।
संजय की दूसरी पुस्तक ‘मत पूछ हुआ क्या-क्या’ में भी अखबारो में लिखे गए सामयिक लेख संग्रहित हैं। इन बावन लेखों में संजय अपनी पहली पुस्तक से ज्यादा आगे खड़े नज़र आते हैं। दो-चार लेखों (जैसे राजनाथ की ताजपोशी का अर्थ, कब मिलेगी राजनीतिक अस्थिरता से निजात) को छोड़ दें तो बाकी लेख न केवल विचारोत्तेजक हैं, वरन् लम्बे समय तक के लिए सामयिक बने रहने की संभावना से भरे हुए हैं। फिर चाहे हिंदी को विश्व भाषा बनाने का प्रश्न हो, अपसंस्कृति की विकृति हो, जाति प्रथा हो चाहे वैश्विक आतंकवाद के भस्मासुर से लड़ने का सवाल हो, इस पर निरंतर गंभीर विमर्श होता रहा है और होना भी चाहिए। ये गंभीर विमर्श ही पाठकों के मानस को न केवल परिपक्व करते हैं वरन् जनमत बनाने का महत्वपूर्ण काम भी करते हैं।
संजय ‘खबरपालिका’ की बदहाली पर भी चिंतित हैं। सामाजिक विकास के साथ-साथ जिस चीज में सर्वाधिक गिरावट आई है, वह पत्रकारिता ही है। ‘मिशन’ का स्थान ‘कमीशन’ ने और ‘उद्योग का स्थान गली के ‘धंधों’ ले लिया है। हालांकि संजय मिशन और प्रोफेशन की बहस को अर्थहीन कहते हैं और बदलती दुनिया के मुद्दे पर अप्रासंगिक मानते हैं, लेकिन अंततः कहने पर मजबूर भी होते हैं कि “हिंदी अखबारों में वैचारिकता और बौद्धिकता का स्तर निरंतर गिरा है। अब तो गंभीर समझे जाने वाले हिंदी अखबार भी अश्लील एवं बेहूदा सामग्री परोसने में कोई संकोच नहीं करते।” संजय इतना तो कहते हैं लेकिन आश्चर्य है कि गौरवशाली परंपराओं को याद करते हुए भी वह पूंजीवाद की वकालत करने से नहीं चूकते। पूंजी का महत्व तो है, लेकिन उसके पक्ष में खड़े होकर यह लिखना कि “बौद्धिक तबका भी अपना मिथ्याभिमान छोड़कर अखबार की दुनिया का हमसफर बने।” एक तरह से आत्म समर्पण करना है। हमें पूंजी के वर्चस्व को विवशता के रूप में देखना चाहिए न कि उसे दासभाव से चुपचाप स्वीकार कर लेना चाहिए। फिर भी इस लेख में संजय ने पाठकों में संवेदना जगाने और संवाद करने की बात करके नैतिक एवं सांस्कृतिक आंदोलन चलाने जैसे महत्वपूर्ण सुझाव दिए हैं, जो इस वक्त पत्रकारिता को खोई हुई विचारशीलता से संबद्ध कर सकता है।
‘विश्वभाषआ बनेगी हिंदी’ भावप्रधान लेख है। अंगरेजी के बढ़ते प्रभाव के कारण ही हिंदी को हीन समझने की निकृष्ट मानसिकता से ग्रस्त इस दौर में यह बताना बेहद जरूरी है कि “निज भाषा की उन्नति ही हर तरह की उन्नती की जड़ है।(निज भाषा उन्नति ही सब उन्नति का मूल है)। संजय उदाहरण देकर स्पष्ट करते हैं कि भारतीय मूल के हजारों लोग भारत से बाहर रहकर भी हिंदी का परचम लहरा रहे हैं। जबकि अपने देश में हिंदी इस वक्त ‘सिर्फ वोट मांगने की भाषा’ है। अंगरेजी के दुष्प्रभाव से ग्रस्त ‘प्रमुख वर्ग’ के विरुद्ध एक लम्बी वैचारिक लड़ाई करके ही हिंदी को उसका वास्तविक अधिकार दिलाया जा सकता है। इसके लिए संजय के शब्दों में ही कहूं, “हिंदी दिवस को विलाप और चिंताओं का दिन बनाने के बजाय संकल्प का दिन बनाना होगा। यही संकल्प सही अर्थों में हिंदी को उसकी जगह दिलाएगा।”
संजय संचार प्रौद्योगिकी का बाजार, संस्कृति के क्षेत्र में बाजार की भाषा मत बोलिए, अपसंस्कृति एवं उपभोक्तावाद के प्रवक्ता, कौन रोकेगा बाजार का अश्वमेघ और इस रथ को कौन रोकेगा जैसे लेखों के माध्यम से गहन चिंता व्यक्त करते हैं। बाजारवाद के सामने खुटने टेक देने वाली हमारी सरकारों के कारण धीरे-धीरे हम वैश्विक होकरकपड़े उतारने तक पहुंचते जा रहे हैं। पैसे कमाने की भूख ने हमें घोर अनैतिक बना दिया है। लंपटता, निर्लज्जता ही आधुनिकता का नया पाठ है। चैनलों के माध्यम से पसरती जा रही अपसंस्कृति के विरुद्ध कोई सामाजिक आंदोलन भी तो नहीं दिखता। अपने अपने विभिन्न लेखों में लगभग इसी तरह की चिंता व्यक्त करते हुए संजय सवाल उठाते हैं कि “कभी आडवाणी के रामरथ को समस्तीपुर में सामाजिक न्याय की ताकतों ने रोक लिया था, बाजार के इस रथ को रोकने कौन आएगा ?”
मत पूछ हुआ क्या-क्या में संगृहित लेखों में संजय के भीतर का पत्रकार नहीं, बौद्धिक चेतना सम्पन्न मसीजीवी दृष्टव्य होता है। छिछली बातों पर लिखना पत्रकारिता का धर्म है। कलम के साथ न्याय है। यही सामाजिक सरोकारों से जुड़ना है। जिसकी इस वक्त सर्वाधिक कमी है पत्रकारिता में। सजग पत्रकार केवल राजनीतिक दांवपेंचों पर ही कलम नहीं चलाता, वरन वह बाढ़ की समस्या, वाड्रफनगर में हुई अकाल मौतें, बाजार की मार झेलती किताबें, और किसानों से जुड़े मुद्दों पर भी शिद्दत के साथ विचार व्यक्त करता है। पुस्तक की भूमिका में अष्टभुजा शुक्ल ने मेरे मन की बात ही कही है कि “ये लेख तात्कालिक सतही टिप्पणियां न होकर दीर्घजीवी और एक निर्भीक, संवेदनशील तथा जिंदादिल पत्रकार के गवाह हैं।” पत्रकारीय कर्म की ईमानदारी और प्रतिबद्धता और बेहद सजग दृष्टि क्या होती है, इसे समझने के लिए पत्रकारों की नई और ‘अपढ़’ नस्लों को संजय द्विवेदी की यह पुस्तक जरूर पढ़नी चाहिए।
संजय द्विवेदी साहित्य के सवालों पर भी कलम चलाते हैं क्योंकि उनमें साहित्य के संस्कार मौजूद हैं। यही कारण है कि वे इस पुस्तक में बाल साहित्य की दशा और दिशा पर विचार करते हैं। सरकारी तंत्र बाल साहित्य को (संभवतः) साहित्य ही नहीं मानता। यह बड़ा दुर्भाग्य है। यह एक तरह का सामाजिक अपराध भी है कि हम बाल साहित्य की घोर उपेक्षा करें और इसे साहित्यिक आलोचना में तरजीह ही न दें। इसीलिए संजय तमाम पहलुओं पर चिंता व्यक्त करते हुए अंत में कहते हैं कि “अभिभावकों एवं समाज के प्रबुद्ध वर्गों की जिम्मेदारी है कि वे अपनी चिंताओं के केन्द्र में बच्चों को शामिल करें। श्रेष्ठ बाल साहित्य की उपलब्धता एवं शिक्षा भावी पीढ़ी को ज्यादा बेहतर, ज्यादा संवेदनशील, ज्यादा मानवीय बनाएगी।”
मीडिया से जुड़े लोगों के बीच अब साहित्यिक विमर्श अंधों के आगे रोने की तरह है। मीडिया में साहित्य की जगह ढूंढते रह जाएंगे आप। सर्वेश्वरदयाल सक्सेना जैसे कवि-साहित्यकार-पत्रकार कभी ‘दिनमान’ के माध्यम से पत्रकारिता तो करते ही थे, साहित्य से भी उनका निरंतर जीवंत सरोकार बना हुआ था। बस्ती जैसे छोटे से कस्बे से निकल कर सर्वेश्वर राष्ट्रीय क्षितिज पर चमके थे। अपनी धधकती हुई अभिव्यक्ति के कारण बहुत जल्द ही सर्वेश्वर एक प्रखर पत्रकार और ओजस्वी रचनाकार के रूप में तत्कालीन युवा पीढ़ी के बीच लोकप्रिय हो गए थे। (इन पंक्तियों के लेखक का सौभाग्य था कि छत्तीसगढ़ कॉलेज की हिंदी साहित्य परिषद के अध्यक्ष के नाते सर्वेश्वर जी को व्याख्यान के लिए बुलाने और उनको निकट से देखने-समझने का अवसर मिला था) संभवतः वह पहली बार ही है कि संजय द्विवेदी ने “सर्वेश्वर दयाल सक्सेना और उनकी पत्रकारिता” पर लघु शोध करके उनके व्यक्तित्व को बेहद निकट से समझने का अवसर सुलभ करा दिया है। सात अध्यायों में विभाजित इस पुस्तक में हिंदी पत्रकारिता का सैद्धांतिक विवेचन, हिंदी पत्रकारिता ऐतिहासिक समसामयिक परिदृश्य, सर्वेश्वर का जीवन परिचय एवं रचनात्मक आयाम, व्यक्तित्व, सर्वेश्वर की पत्रकारिता का निरंतर विकास और उनकी उपलब्धि आदि विषयों का सूक्ष्म विवेचन किया है। और जो मक्खन निकला है, वह मक्खन ऐसे आदमकद व्यक्तित्व में तब्दील हो जाता है जो कहता है कि “एक युद्ध हर क्षण/ मैं अपने भीतर लड़ता हूँ/ धरती को बड़ा करने के लिए/ और दृश्यों को सुंदर/ सौन्दर्य को उदारकरने के लिए/ और आस्थाओं का समुन्दर”।
सर्वेश्वरदयाल पत्रकारिता और साहित्य के सेतुबंध थे। उन्होंने दोनों में भेद नहीं किया। पत्रकारिता और साहित्य उनके लिए एक ही सिक्के के दो पहलू की तरह थे। उनकी पत्रकारिता में साहित्य था और साहित्य में पत्रकारिता। उनका तमाम साहित्य हमारे समय का ऐसा हलफनामा है जो आज भी टंच सच्चा है। आम आदमी की पीड़ा को स्वर देने वाले सर्वेश्वर ही थे जो संघर्ष के लिए प्रेरित भी करते थे और भेड़िए की सुर्ख लाल आँखों में आँखें डालने का आह्वान भी करते थे। बड़ों से लेकर बच्चों तक के लिए लिखने वाले सर्वेश्वर का न होना मन को दुखी करता है। ऐसे में संजय की यह पुस्तक हमें अतीत की मधुर स्मृति लोक तक ले जाती है और सुकून प्रदान करती है। दिनमान में ‘चरचे और चरखे’ पढ़कर बड़ी हुई पत्रकारों की पीढ़ी के सामने सर्वेश्वर आदर्श की तरह थे। सर्वेश्वर की भाषा विद्रोही आदमी की दो टूक तल्ख भाषा का नमूना थी। आज की भाषा में कहूं तो वे बिंदास थे। विसंगतियों पर क्षुब्ध होकर लिखे गए उनके तमाम लेख गंभीर विमर्श के लिए बाध्य कर देते थे। ‘संदर्भ और दृष्टि’ नामक अध्याय में संजय ने सर्वेश्वरजी के बहुचर्चित स्तंभ चरचे और चरखे के कुछ अंश भी दिए हैं, जिनमें उनकी विद्रोही पत्रकारिता की झलक देखी जा सकती है। सर्वेश्वर के लिए पत्रकारिता प्रोफेशन नहीं मिशन थी। यह सभी स्वीकारते थे। वह दिनमान में रहे या फिर पराग के संपादक भी बने। दिनमान में अगर वह अपने समय के सवालों से दो-तार होते रहे तो पराग के माध्यम से बाल साहित्य में वैज्ञानिक चेतना के नवाचार की परंपरा भी शुरू की। बच्चों की कोमल भावनाओं के साथ वह उन्हें कठिन समय के विद्रूप से भी अवगत कराते रहे। अपने नाटकों के माध्यम से यह काम उन्होंने और बेहतर ढंग से किया। चाहे वह ‘लाख की नाक’ हो चाहे ‘भों-भों-खों-खों’ हो।
संजय द्विवेदी ने सर्वेश्वरजी के इन्हीं तमाम व्यक्तित्वों को सोदाहरण प्रस्तुत करते हुए उनकी जो मूरत गढ़ी है, वह नई पीढ़ी के लिए पाथेय हो सकती हैं। लोहिया जैसे महान चिंतक से अनुप्राणित होने वाले सर्वेश्वर समाजवादी चिंतन के बौद्धिक पुरोधा थे। उनका तमाम लेखनी में उनका समाजवादी रूप स्पष्ट दिखता है। यही कारण है कि दिल्ली में रहकर भी वह अपनी मिट्टी, अपनी बस्ती को भूल नहीं सके। ‘इस सूचना समर में’ में और ‘मत पूछ हुआ क्या-क्या’ के आलेख तो समय के साथ-साथ महत्वहीन होते चले जाएंगे, लेकिन सर्वेश्वरदयाल सक्सेना पर किया संजय का यह काम हर काल में प्रासंगिक बना रहेगा। आज जब पत्रकारिता से उसकी भाषा, उसके संस्कार छीनने की पुरजोर कोशिश होरही है तब सर्वेश्वरजी की चर्चित कविता (जिसका जिक्र संजय ने भी किया है) सार्थक हो जाती है –
“और आज छीनने आए हैं वे
हमसे हमारी भाषा
यानी हमसे हमारा रूप
जिसे हमारी भाषा ने गढ़ा है”
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