1956 में केरल प्रदेश के त्रिशूर में जन्मी मेमी राफ़ेल, बाद में सिस्टर जेस्मी, अपने माता-पिता की चौथी संतान थीं। त्रिशूर और पालक्काड से उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई। जून, 1974 में, उन्होंने धार्मिक प्रशिक्षण लेना आरंभ किया, मगर विशेष अनुमति पाकर उन्होंने भारत सरकार से प्राप्त मेरिट स्कॉलरशिप पर एम फ़िल एवं पीएच डी की। 1980 से वे त्रिशूर के दो कैथोलिक कॉलेजों में शिक्षण कार्य कर रही हैं: तीन-तीन साल तक एक में वे वाइस-प्रिंसीपल रही और दूसरे में प्रिंसीपल। अगस्त, 2008 में जेस्मी ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के लिए कॉलेज मे प्रार्थनापत्र दे दिया।
31 अगस्त , 2008 को सिस्टर जेस्मी ने कॉन्ग्रीगेशन ऑफ़ कार्मेल’ छोड़ दिया। उनका कहना है कि धर्माधिकारियों द्वारा उन्हे विक्षिप्त करार दिए जाने के प्रयासों ने उनके सामने और कोई रास्ता नही छोड़ा था। भारत में लिखी गई अपनी तरह की इस पहली पुस्तक में एक नन के रूप में सिस्टर जेस्मी की तैंतीस साल की ज़िंदगी के अनुभवों का बेबाक ब्योरा है। कैथोलिक मत में गहरी आस्था रखने वाले एक अच्छे परिवार की, ज़िंदगी से भरपूर और खिलंदड़े स्वभाव की जेस्मी सत्रह साल की उम्र में जूनियर कॉलेज में आयोजित एक रिट्रीट (धार्मिक एकांतवास) में भाग लेने के बाद धार्मिक जीवन की ओर अकर्षित हुईं। कॉन्वेंट में सात साल तक एक नन के रूप में करनें के बाद सिस्टर जेस्मी वहां पनपती अनेक बुरासइयों के बारे में खा़मोश रहने पर मजबूर किए जाने पर हाताश हो उठीं कॉलेज में दाखिले के लिए चंदा लिए जाने के रूप में भ्रष्टाचार व्याप्त था: कुछ पादरियों और ननों के बीच और कुछ ननों के आपस में भी जिस्मानी संबंध थे: वर्ग-भेद था-जिसकी वजह से चेडुथियों (ग़रीब और अल्पशिक्षित नन) को तुच्छ काम करने पड़ते थे। इतना ही नही, पादरियों और ननों को मिलने वली सुख-सुविधाओं में भी बहुत ज्यादा फ़र्क़ था। आध्यात्मिक और संवेदनशील आमीन चर्च में सुधार लाने की एक अपील है और एक ऐसे समय में सामने आई, जब ननों और पादरियों को लेकर चर्च की चिंताएं बढ़ा रही थीं। यह आत्मकथा कॉन्वेंट की चारदीवारी के बाहर रहकर भी नन की तरह जीवनयापन करती जेस्मी की जीज़स और चर्च में अटूट निष्ठा और आस्था पर मुहर लगाती है।
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