Friday 5 July 2013

सरोजिनी साहू से डॉ. मीना सोनी की एक अन्तरंग बातचीत


प्रस्तुति : उमा शिवप्रिया

सरोजिनी साहू का नाम न केवल भारत के वरन् अन्तर्रास्ट्रीय स्तर के गिने-चुने साहित्यकारों में लिया जाता है। अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त इस महान नारीवादी लेखिका के ओडिया भाषा में अब तक दस कहानी-संग्रह तथा दस उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। नारीत्व से संबंधित विभिन्न  समस्याओं को उजागर करने में स्पष्टवादिता व पारदर्शिता के लिये साहित्य जगत में उन्होंने अपनी एक अमिट छाप छोडी है। आपके उपन्यास व कहानी- संग्रह देश-विदेश की विभिन्न भाषाओं जैसे बंगाली, मलयालम, अंग्रेजी व फ्रेंच में अनूदित हो चुके हैं। पाश्चात्य जगत में आपको 'इंडियन सीमोन डी बीवोर' के नाम से जाना जाता है। साहित्य में आपके उत्कृष्ट योगदान के लिये उडीसा साहित्य अकादमी, झंकार पुरस्कार, भुवनेश्वर पुस्तक मेला पुरस्कार, प्रजातंत्र पुरस्कार एवं नेशनल एलायंस आँफ वूमेन आर्गेनाइजेशन द्वारा समय-समय पर सम्मानित हो चुकी हैं ।
डॉ. मीना सोनी: आपके भीतर लेखन का रुझान कैसे पैदा हुआ? अपनी अबतक  की रचना यात्रा के बारे में बतायें. पहली कहानी और उसका अनुभव.
डॉ.सरोजिनी साहू: मेरे पिताजी कभी कहानी कवितायेँ लिखा करते थे. आजतक उनकी रचानों का पाण्डुलिपि मैं सहेज कर राखी हूँ. पिताजी पेशे से व्यापारी थे, पर उनकी रुझान साहित्य की और था. घर में ढेर सारी साहित्यिक पत्रिकाएं आती थीं. मेरी बड़ी बहन भी कवितायेँ लिखा करती थी,  आप बोल सकते हैं हमारे घर और परिवार की माहौल से मैं लिखने के लिए उत्साहित हुई. मेरी पहली कहानी 'अबशेष ओ अबशोश' ओडिया के एक अख़बार की रविवार की साहित्य पृष्ठ में प्रकाशित हुई थी. तब मैं हाईस्कूल की छात्रा थी.उस समय ओडिया में 'झंकार' पत्रिका  को बड़े ही सम्मान की दृष्टि से देखा जाता था. किसी रचनाकार या कवि का उस पत्रिका में छाप पाना ही प्रतिष्ठित होने का सबूत माना जाता था. मेरी पहली कहानी 'झंकार' में छपी जब मैं अंडर-ग्रेजुएट  कक्षा की छात्रा थी. कहानी प्रकाशित होने के बाद, हमारे कॉलेज के अध्यापकों ने मुझे  बुला कर ख़ुशी से पूछने लगे," क्या  सचमुच में तुम ही वही सरोजिनी  साहू हो जिसकी कहानी 'झंकार' में छपी है?" उस समय से लगातार  ३५ साल से अधिक वर्ष मेरी कथा-यात्रा जारी है.

डॉ. मीना सोनी: आप ओडिया और अंग्रेजी दोनों भाषायों में समान्तर रूप से लिखती हैं. क्या दोनों भाषाओँ में लिखते समय आप कभी अपने को असहज  या असमंजस अवस्था में अपने को नहीं पाती हैं ? क्या एक ही  अनुभूति को दोनों भाषाओँ में लिखते समय यह नहीं लगता की यह सृजन  मूलतः अनुवाद भर रह जाता है?
डॉ.सरोजिनी साहू: मैं अपने सृजनात्मक लेखन, यानि कहानी, उपन्यास या कवितायेँ अपनी मातृभाषा ओडिया में ही लिखती हूँ. अंग्रेजी में सिर्फ मैं अपने विचारशील लेख ही लिखती हूँ. मैं मानती हूँ कि अपनी अनुभूतियों को, अपनी सांस्कृतिक विरासत को अपने पहचान को किसी लेखक ने  सिर्फ अपनी मातृभाषा में ही व्यक्त कर पाता है. शेक्सपियर अगर अंग्रेजी छोड़ फ्रेंच भाषा में लिखते तो वह शेक्सपियर न बन पाते. इसलिए कहानी कविता या उपन्यास जैसे सृजनशील कर्मों  में ओडिया की ही सहायता लेती हूँ. पर लेख लिखने के लिए जितना शब्दों का भंडार चाहिए, वह भारतीय भाषायों में पर्याप्त रूप से नहीं है. अंग्रेजी में वोकाबुलारी (शब्द भंडार) अमाप है. भारतीय भाषायों में अनेक शब्दों की कमी मुझे अंग्रेजी में निबंध लेखन की ओर आकर्षित करता है.

डॉ. मीना सोनी: आप के चर्चित उपन्यास 'गंभीरी घर' बिभिन्न भाषायों में अनुदित हुआ है. हिंदी में 'बन्द कमरा' शीर्षक से राजपाल एंड सोंस ने प्रकाशित किया है. अंग्रेजी में 'द डार्क एबोड' शीर्षक से मलयालम में 'इरुंडा कुदरमा' शीर्षक से तथा बंगलादेश से बंगला में 'मिथ्या गेरोस्थल' नाम से प्रकाशित हो कर देश -विदेश में अपर ख्याति अर्जित किया है. पर जब ओडिया में उसका प्रथम प्रकाशन हुआ उसे 'अश्लील' करार दिया गया. क्या आप समझते हैं ओडिया पाठकों में कुछ कमियां हैं जो उसे अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक नहीं पहुंचा पाता है?
डॉ.सरोजिनी साहू: ऐसा नहीं की ओडिया पाठक उसे नकारा है. आज भी 'गंभीरी घर' उपन्यास 'बेस्ट सेलर' माना जाता है. ओडिया साहित्य से परिचित ऐसा कोई भी व्यक्ति न होगा जिसने मेरा वह उपन्यास  न पढ़ा हो. असल में उपन्यास में सेक्स को गौरवान्वित कभी नहीं किया गया है. यह वस्तुतः एक सेक्स- विरोधी उपन्यास है, जिसमें सेक्स से ऊपर उठकर प्रेम को पहचानने की बात कही गयी है. उपन्यास का दुसरा केंद्र विन्दु  है आतंकवाद. सूक्ष्म-स्तर ( माइक्रो लेवल) से   ले कर स्थूल रूप (माक्रो  लेवल) में कैसे आतंकवाद मानव को एक असहाय खिलौना बना देता है, उसका वर्णन है. इस सारी बातों को अनदेखा कर जिन लोगों ने मेरे उपन्यास में अश्लीलता ढूँडते हैं, उन्हें क्या कह सकती हूँ?

डॉ. मीना सोनी:' गंभीरी घर ' ( हिंदी में 'बन्द कमरा') उपन्यास दरअसल एक पाकिस्तानी मुस्लिम  चित्रकार और भारतीय गृहिणी महिला के बीच इन्टरनेट के जरिये पनपा प्यार की कहानी है जिसे प्रमुख हिन्दू वादी संगठनों ने एतराज भी जताया है. इस प्रसंग पर आपका क्या कहना है?
डॉ.सरोजिनी साहू: मौल-वाद हमारी सोच को इतना घटिया बना देता है कि हम किसी  भी सुन्दर चीज को अपने सांप्रदायिक-स्वार्थ से ऊपर उठकर देख नहीं पाते. जब 'गंभीरी घर' का बंगला  अनुवाद बंगलादेश में लोकप्रिय होने लगा तब ओडिशा के अध्यात्मिक गुरु बनने का ढोंग रचाने वाले एक  प्रमुख साहित्यकार ने  मुझसे प्रश्न किया था , क्या अगर नायक हिन्दू और नायिका मुस्लमान होती तो क्या यह उपन्यास बंगलादेश में इतना लोकप्रिय होता? अब इनसे कौन बताये कि उपन्यास लिखते समय यह प्रश्न कदापि मेरे मन में भी नहीं आया था कि नायक नायिका के धर्म क्या होना चाहिए. दो देशों के  पनपते कटुता के बीच भी प्रेम का बीज  उग सकता है, यही था  प्रमुख थीम जो आगे चलकर राष्ट्र वनाम व्यक्ति के प्रश्न पर उलझ गया.

डॉ. मीना सोनी: आप के और एक उपन्यास  ‘पक्षी-वास'  का  हिंदी रूपांतर 'पक्षी-वास' शीर्षक से दिल्ली के यश प्रकाशन ने प्रकाशित किया  है. बंगलादेश से भी इस पुस्तक का बंगला अनुवाद  प्रकाशित हो चूका है. पर 'गंभीरी घर' के विपरीत इस उपन्यास में दलित जीवन चर्या का वर्णन है. जिस प्रसंग से आपकी लड़ाई शुरूहुई थी, 'पक्षी-वास' पहुँचते पहुँचते वह स्वर बदल कैसे गया?
डॉ.सरोजिनी साहू: यह कहना गलत होगा कि 'गंभीरी घर' किसी प्रमुख मुद्दा के साथ मेरी लड़ाई कि शुरुआत थी. 'गंभीरी घर' मेरा पहला उपन्यास नहीं है. यह मेरा पांचवां उपन्यास है. मेरे हर उपन्यास के स्वर भिन्न-भिन्न है. 'उपनिवेश' तथा 'प्रतिवंदी' में जहाँ नारी कि अस्मिता-बोध कि बात है,वहीँ 'महायात्रा' में अध्यात्मिक धरातल पर जीवन कि खोज कि बात कही गयी है. वहीँ 'स्वप्न खोजाली माने’ में भूख को  कैमरा में बंद कर फिल्म बनाने वालों के मन-मस्तिष्क में छाई हुई गरीबी की कथा का वर्णन है.  तो, हम पाते हैं कि मेरा हर उपन्यास दूसरे उपन्यास के साथ कथ्य के स्तर पर मेल नहीं खाता है. यहाँ तक किउपन्यासों की शैली तथा भाषा भी अलग हो जाती है. शायद एक ही बात को हर उपन्यास्र  में दोहराने का  मतलब लेखक की कथा-यात्रा में आगे की ओर बढ़ने में दिशा-हीनता ही दर्शाता है. 'पक्षी-वास' असल में एक दलित परिवार की मर्म- कथा है. श्रीमद भगवत की एक कहानी को आधार बनाकर इस उपन्यास की कहानी गढ़ी गयी है. सतनामी संप्रदाय पश्चिम ओडिशा तथा छत्तीसगढ़ इलाके में पाए जाते हैं. इस जाति के लोगों का पुश्तैनी धंधा गावों में घूम-घूमकर जानवरों की अस्थि, मांस-मज्जा एकत्रित कर मुर्शिदाबादी पठानों को बेचकर अपनी आजीविका कमाना है. उपन्यास मूल से एक मानवीय चीत्कार है उस परिवार की, जिसमें केवल दुःख के काले बादल  मँडराते रहते है। कोई भी परिवार का पुश्तैनी धंधा अपनाना नहीं चाहता है। पहला बेटा ‘सन्यासी’ बचपन में फादर इमानुअल साहिब के धर्मांतरण पर्व में ‘क्रिस्टोफर’ बन जाता है, बड़ा होकर जापान चला जाता है, फिर कभी लौटता ही नहीं है। दूसरा बेटा ‘डाक्टर’ बंधुआ मजदूर बनकर गाँव से गायब हो जाता है तीसरा बेटा ‘वकील’ नक्सल में भर्ती हो जाता है और जंगल में पुलिस-मुठभेड़ में मारा जाता है। सबसे छोटी इकलौती बेटी परबा पापी पेट की खातिर रायपुर के कोठे में पहुंच जाती है, जहाँसे उसका लौट आना संभव ही नहीं है। उपन्यास का विस्तार भोपाल से जापान, किसिंडा से रायपुर, सिडिंगागुड़ा से सीनापाली तक है। अतः यह कहना गलत होगा कि इस उपन्यास तक्पहुंचते पहुँचते मेरा स्वर बदल गया. मेरे लेख्सं कर्म के पश्चात निहित उद्देश्य है जीवन के भिन्न-भिन्न रंगों को पहचानना, उखेरना और विश्लेषण करना. मेरा लेखन  मूलभूत तौर पर जीवन आधारित कुछ प्रश्नों का उत्तर ही ढूँडते रहना ही  है.

डॉ. मीना सोनी: आप  सिर्फ ओडिशा की  ही नहीं, समग्र भारत की  एक जानी- मानी नारीवादी साहित्यकार हैं. विदेशों में आपको 'भारत कि सिमोन द बोभर' के नाम से जाना जाता है.  साहित्य में नारीवाद को आप किस नजरिया से देखते हैं?
डॉ.सरोजिनी साहू: साहित्य में नारीवाद को लेकर अबतक कई शंका, कुंठा और संदेह बरक़रार है. हमारे ओडिया साहित्य में सत्तर-अशी दशक तक किसीभी लेखिका केलिए 'नारी वादी' शब्द किसी प्रकार की  गालियों से कम नहीं था. एक बार जगदीश जी ने अपनी पत्रिका में एक लेखिका को 'नारी वादी’ के रूप से परिचित क्या करवाया, वह लेखिका ने गुस्से से तम तमाकर एक लम्बा पत्र संपादक के नाम लिख डाला, अभी भी ओडिशा के दूसरी एक प्रमुख लेखिका ने विकिपीडिया के अपने प्रोफाइल पर लिखा कि वह नारीवादी कतई नहीं है, बल्कि उन्हें मानव-वादी कहना ठीक होगा. मानो नारी मानव श्रेणी में नहीं आती है. मानो नारी की बातें करना मानवों कि बातों से अलग है.
मैंने एक जगह पर लिखा था, लेखिका के स्तर पर मैं अपने को  ज्यादा ही नारीवादी मानती  हूँ और नारीवादी के स्तर पर मैं अपने आपको पहले लेखिका ही मानती हूँ. मैं अपनी कहानियों में एक नारी का दर्द को ही ज्यादा मायने देना चाहती हूँ. क्योंकि मेरा मानना है नारी की अनुभूति, संवेदना, सोच, जीवन चर्या, यहाँ तक कि नारी की संस्कृति भी पुरुषों से अलग है. इस अलग दुनिया कि बात एक नारी ही कर पयेगु. पुरुषों कि पहुँच कि बहार है  वह दुनिया. क्या कभी किसी पुरुष ने अनुभव कर सकता है गर्भ-वेदना कैसा होता है? मेरी कहानियों में इस लिए पहला मासिक धर्म कि अनुभूति भोगने वाली किशोरी से लेकर मासिक-बंद कि मानसिक यातनाओं से गुजर रहे प्रौढ़ा तक कि अनुभूतियों का वर्णन किया है.

डॉ. मीना सोनी::  आप की  एक  चर्चित  कहानी है 'रेप'. राजपाल एंड सोंस द्वारा प्रकाशित आपका हिंदी कहानी -संग्रह 'रेप तथा अन्य कहानियां' कि शीर्षक  कहानी है 'रेप'. हर भारतीय भाषा तथा अंग्रेजी में अनुदित यह कहानी को भी अश्लील माना गया था ओडिया साहित्य में,  जबकि उसमें एक भी ओडिया अश्लील शब्द नहीं है एक अंग्रेजी शब्द 'फक' को छोड़कर. ऐसा क्यों हुआ?
डॉ.सरोजिनी साहू: इस कहानी अपने आप में एक प्रश्न  ही है. क्या एक नारी का इतना भी अधिकार नहीं है वह अपने ईच्छानुसार सपना देख सके? इस कहानी की नायिका सुपर्णा एक बहुत ही मामूली परिचित डॉक्टर के साथ सम्भोग का सपना देख कर अपने पति को बोल देती है और कहानी के अंत में वह महसूस करती है. पति इस बात को सहज रूप से पचा नहीं पता है और बच्ची को दिखने के वहाने सुपर्णा को उस डॉक्टर के पास लेकर जाता है और रत में अपनी पत्नी से पूछता है: क्या अपने स्वप्न-पुरुष से तुम्हारी भेंट हो गयी? सुपर्णा को लगता है जैसे किसीने उसे बलात्कार कर कर डाला है. वह महसूस कर पाती है की रेप केवल शारीरिक ही नहीं बल्कि मानसिक रूप से भी कियस जा सकता है. असल में इस कहानी पुरुष तांत्रिक समाज पर एक प्रश्नवाची खड़ा कर देता है,जिसे सहन कर पाना उस समाज के लिए संभव नहीं होता. १९८० में लिखी गयी वह कहानी अभी भी  चर्चा के मूल केंद्र में है. अभी हाल ही एक कनिष्ठ  कहानीकार रात के १ बजे मुझे फ़ोन पर मेरी 'रेप' कहानी के लिए गाली देते हुए पाए गए थे. इससे आप अनुमान लगा सकती हैं इस कहानी किस कदर पुरुष तांत्रिक समाज को मानसिक रूप से अस्थिर किया होगा.

डॉ. मीना सोनी:: 'सेंस एंड सेंसिबिलिटी' आप की जानी-मानी अंग्रेजी पुस्तकों में एक है. अभी हाल  में वाग्देवी प्रकाशन इसका हिंदी अनुवाद प्रकाशित करने जा रहा है. पहले से ही इसका बंगला और मलयालम अनुवाद निकल चूका है. सिर्फ देश में ही नहीं विदेशों में भी यह पुस्तक चर्चित रही?  बोला जाता है इस पुस्तक के माध्यम से आप ने  पाश्चात्य नारीवाद पर प्रहार किया है. क्या है  उस पुस्तक में?
 डॉ.सरोजिनी साहू: असल में पाश्चात्य नारीवाद क्रमश; पुरुष विरोधी होते होते द्वि-लिंग तत्त्व को अस्वीकार करने लगा. नारी-पुरुष के स्वाभाविक सहवास को विरोध किया गया. १९६०  के वाद  नारी-पुरुष के विवाह, मातृत्व, शिशु-पालन आदि को नारी प्रगति के प्रमुख बाधा माना गया.  क्रमश; समकमिता को बढ़ावा मिला और नारी पुरुषों के  संपर्क को नारी के लिए घातक बनाया गया. मेरा विरोध उन तथाकथित राडिकल  नारीवादिओँ से है जिन्होंने नारी वाद  को  अपने लक्ष्य से दूर ले गए हैं. मेरा मानना है की नारीवाद नारी के नारीत्व के साथ अपने अस्मिता बोध के परिपूर्ण विकशित करने का ही अन्य नाम है. यह मानना गलत है कि नारीवाद एक पुरुष विरोधी आन्दोलन है, बल्कि नारीवाद  नारी पुरुषों के सामान अधिकार के लिए एक लड़ाई मात्र है.  सिमोन द बेवोर से अलग मैं मानती हूँ कि नारी अपने शारीरिक, मानसिक और चेतना के स्तर  पर अलग है और इस नारीत्व को कभी भी अस्वीकार नहीं करना है. विवाह, मातृत्व के प्रति पाश्चात्य नारीवादिओँ  की विचारों से मैं कतई सहमत नहीं हूँ. नारीत्व के पूर्ण परिप्रकाश के साथ अस्मिता बोध का अहसास ही नारी को अपने वन्दित्व से मुक्त करा सकता है.

डॉ. मीना सोनी: कल की और आज की स्त्री में क्या अंतर देख पा रही हैं आप?
डॉ.सरोजिनी साहू: ओडिया की पहली कहानी की नारी 'रेवती' ने प्यार किया था, पर मुहँ से बोल नहीं पाई थी . पिछले सदी के दूसरे-तीसरे दशक में लिखी गयी 'नील-माष्टरानी' कहानी की नायिका ने  न केवल अपने प्यार को इज़हार किया पर जात विरादरी  से दूर जाकर ब्रह्मण होते हुए भी एक धोबी जात के लड़के से शादी किया. मेरे उपन्यास 'गंभीरी घर' की कुकी घरेलु हिंसा से तंग आकर अपने पति के अलावा दूसरे पुरुष के प्रति  आकर्षित हुई. इसीसे पता चलता है कल की और आज की नारी में क्या अंतर है.   अभी भी नारी पुरुष  तांत्रिक समाज के बनी बनाई  देवी, माता, प्रेमिका सम्बन्धित पुरुष तांत्रिक धारणाओं से निकल नहीं पाई है. नारी में अभी भी अपने अस्मिता-बोध की पहचान की कमी देखी जा सकती है.मेरा तो मानना है पुरुष तांत्रिक समाज की इन धारणाओं को पुरुष ही नहीं, कई महिलाओं का भी प्रोत्साहन मिल रहा है. नारी का शत्रु अब मुख्य रूप से पुरुष नहीं बल्कि नारी ही बन गयी है.

डॉ. मीना सोनी:: यूँ तो कथा साहित्य के दो मुख्य विधाओं (उपन्यास एवं कहानी) पर आपकी लेखनी सामान रूपसे चलती है. फिर भी आप अपने आपको मूलतः किस विधा में सहज पाती हैं?
डॉ.सरोजिनी साहू: पहले मैंने कहानी से ही मेरी  कथा-यात्रा शुरू की थी. बीस साल तक मैं  सिर्फ  कहानी  ही लिखती रही. उस समय उपन्यास लेखन के प्रति दर सा था. मेरा पहला उपन्यास नब्बे दशक में  छप कर आया. उसके वाद उपन्यास लिखना सहज बन गया.लगा, उपन्यास में किस बिशाल कैनवास उपलब्ध है, उसके उपयोग से एक लेखक को अपनी बात प्रस्तुत करने में ज्यादा आज़ादी मिल जाती है. आज कल उपन्यास ही ज्यादा लिखती हूँ, कहानी की संख्या कम हो गयी है.

डॉ. मीना सोनी:: अन्य भारतीय भाषायों की कहानियों के बीच ओडिया कहानीकी कैफियत को आप कैसा पाती हैं?
डॉ.सरोजिनी साहू: भारतीय भाषा की कहानियों  में ओडिया कहानी का  अव्वल दर्जा हासिल है.मैं अपने अनुभव से बोल सकती हूँ, जिस सेमिनार में र्में भी मैं गयी हूँ,  ओडिया की कहानी का चर्चा मुख्य धारा में पाई जाती है.१९ वीं सदी के कथाकार फकीर मोहन की लिखी हुई कहानियां तथा उपन्यास अपने समकालीन दूसरी भाषाओँ  में लिखी गयी कथाओं से कहीं ज्यादा आधुनिक और सशक्त माने जाते हैं.अभी भी ओडिया कहानी पाश्चात्य साहित्य के समकक्ष्य आधुनिक चिंता चेतनाओं  से अछूता नहीं है. मेरे खयाल में ओडिया कहानी अब अपने शीर्ष विन्दु पर है.

डॉ. मीना सोनी:: ओडिशा साहित्य अकादेमी की साहित्यिक गतिबिधियों के बारेमें आपकी क्या राय है?
डॉ.सरोजिनी साहू: साहित्य अकादेमी एक सरकारी संस्था है. नौकरशाही  से आप क्या उम्मीद बना सकते हैं? हाँ, यह बाटी की तारीफ करनी चाहिए की अकादेमी ने कई अछि पुस्तकें प्रकाशित की है. पर उन पुस्तकों का वितरण, आवंटन  तथा विक्रय का बंदोबस्त ठीक तरह से नहीं हो पाने के कारण उनके यह प्रयास भी सफल होते नहीं दिख रहा है.

No comments:

Post a Comment