Friday 5 July 2013

चार्ल्स डार्विन और मिलर


चार्ल्स डार्विन ने क्रमविकास के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। उनका शोध आंशिक रूप से १८३१ से १८३६ में एचएमएस बीगल पर उनकी समुद्र यात्रा के संग्रहों पर आधारित था। इनमें से कई संग्रह इस संग्रहालय में अभी भी उपस्थित हैं। डार्विन महान वैज्ञानिक थे - आज जो हम सजीव चीजें देखते हैं, उनकी उत्पत्ति तथा विविधता को समझने के लिए उनका विकास का सिद्धान्त सर्वश्रेष्ठ माध्यम बन चुका है। संचार डार्विन के शोध का केन्द्र-बिन्दु था। उनकी सर्वाधिक प्रसिद्ध पुस्तक ऑरिजिन ऑफ स्पीसीज़ प्रजातियों की उत्पत्ति सामान्य पाठकों पर केंद्रित थी। डार्विन चाहते थे कि उनका सिद्धान्त यथासम्भव व्यापक रूप से प्रसारित हो। डार्विन के विकास के सिद्धान्त से हमें यह समझने में मदद मिलती है कि किस प्रकार विभिन्न प्रजातियां एक दूसरे के साथ जुङी हुई हैं। उदाहरणतः वैज्ञानिक यह समझने का प्रयास कर रहे हैं कि रूस की बैकाल झील में प्रजातियों की विविधता कैसे विकसित हुई।
कई वर्षों के दौरान, जिसमें उन्होंने अपने सिद्धान्त को परिष्कृत किया, डार्विन ने अपने अधिकांश साक्ष्य विशेषज्ञों के लम्बे पत्राचार से प्राप्त किया। डार्विन का मानना था कि वे प्रायः किसी से चीजों को सीख सकते हैं और वे विभिन्न विशेषज्ञों, जैसे, कैम्ब्रिज के प्रोफेसर से लेकर सुअर-पालकों तक से अपने विचारों का आदान-प्रदान करते थे। बीगल पर विश्व भ्रमण हेतु अपनी समुद्री-यात्रा को वे अपने जीवन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना मानते थे जिसने अनके व्यवसाय को सुनिश्चित किया। समुद्री-यात्रा के बारे में उनके प्रकाशनों तथा उनके नमूने इस्तेमाल करने वाले प्रसिद्ध वैज्ञानिकों के कारण, उन्हें लंदन की वैज्ञानिक सोसाइटी में प्रवेश पाने का अवसर प्राप्त हुआ। अपने कैरियर के प्रारंभ में, डार्विन ने प्रजातियों के जीवाश्म सहित बर्नाकल (विशेष हंस) के अध्ययन में आठ वर्ष व्यतीत किए। उन्होंने 1851 तथा 1854 में दो खंडों के जोङों में बर्नाकल के बारे में पहला सुनिश्चित वर्गीकरण विज्ञान का अध्ययन प्रस्तुत किया। इसका अभी भी उपयोग किया जाता है।
पृथ्वी पर जीवन के प्रारंभ को लेकर दो प्रमुख विचारधाराएँ विज्ञान और धर्म की हैं। बाइबल में उल्लेखित तथ्य वर्षों तक अकाट्य बने रहे हैं। अब भी उन तथ्यों के समर्थक हैं लेकिन विज्ञान की प्रगति ने धर्म आधारित इस व्याख्या को भी विश्लेषण में जाने के लिए मजबूर किया। विज्ञान ने जीवन के प्रारंभ को क्रम विकास की यंत्रवत प्रक्रिया के ही इस या उस स्वरूप में स्वीकार किया जबकि धर्म एक अचानक घटित अलौकिक घटना को जीवन की उत्पत्ति का श्रेय देता रहा।
जीवन के सफर को विज्ञान की नजर से समझने में अपना जीवन खपा देने वाले मिलर का निधन अभी बीस मई को सतहत्तर वर्ष की आयु में हुआ। करीब चौपन वर्ष पहले मिलर ने एक बहुत ही आसान प्रयोग के तहत हाइड्रोजन, मीथेन, अमोनिया तथा जलवाष्प का मिश्रण तैयार कर उसे जीवाणुरहित गैस कंटेनर से गुजरने का मौका दिया।
इसी बीच इन गैसों को विद्युत ऊर्जा दी गई। उनकी यह कल्पना जीवन के प्रारंभ के वक्त मौजूद वातावरण पर आधारित थी। जलवाष्प को प्रारंभिक काल के महासागरों के स्थान पर उपयोग किया गया था। नतीजा चमत्कारिक निकला था। मिश्रण द्रव्य भूरे रंग का हो गया तथा उसमें अमीनो एसिड पाए गए जो प्रोटीन के मूल निर्माण तत्व होते हैं और प्रोटीन जीवन का प्रमुख तत्व है। आगे चलकर न्यूक्लिक एसिड भी इसी तरह पाया गया। यह सिद्ध हुआ है कि प्राणी में आनुवांशिक सूचनाएँ एकत्र कर उनके रूपांतरण का काम यही एसिड करता है। सच है, मिलर ने जीवन के प्रारंभ की तलाश को एक निश्चित दिशा दे दी थी। इस महान जीव विज्ञानी का यह योगदान विज्ञान के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज रहेगा।
अब तक की खोज के आधार पर विज्ञान मानता है कि पृथ्वी पर प्रारंभिक काल में मौजूद महासागरों में अमीनो एसिड रासायनिक क्रियाओं से सबसे पहले बना था। जबकि महान दार्शनिक एरिस्टोटल का मानना था कि गैर-प्राण वस्तुओं जैसे मिट्टी आदि के रासायनिक संसर्ग से मेंढक, साँप, कीट जैसे प्राणियों का निरंतर जन्म होता रहता है (क्या मिट्टी में घोंघा भी इसी तरह बनता है?)। धर्म के बाद जीवन के प्रारंभ को खोज रहे विज्ञान को अब भी वह निश्चित ठिकाना नहीं मिला है जहाँ से प्राण का जन्म होता है।
1859 में चार्ल्स डार्विन के क्रम विकास के सिद्धांत ने पहली बार एक विज्ञान सम्मत और तर्कसंगत आधार प्रस्तुत किया था। अभी इसी सिद्धांत को जीवन विकास का वैज्ञानिक आधार माना जाता है। डार्विन की मान्यता थी कि प्रारंभिक स्वरूपों से ही ऊँची तथा जटिल प्राणी किस्में पनपी हैं। सुधार की यह पद्धति मूलतः चरणबद्ध, धीमी है और प्राकृतिक परिवर्तनों के माध्यम से आगे बढ़ती है।
दरअसल 17वीं और 18वीं सदी में जीवन की उत्पत्ति की धार्मिक व्याख्या को चुनौती मिली और उसका निराकरण डार्विन के सिद्धांत की स्थापना से हुआ। लेकिन मूल प्रश्न को लेकर धर्म तथा विज्ञान के बीच रस्साकशी अब भी जारी है।
अब दो महत्वपूर्ण तथ्य शेष रह जाते हैं। एक, लगभग एक हजार वर्षों तक स्वीकार किया जाता रहा यह सिद्धांत क्या सच है कि जीवन विकास एक सहज, नैसर्गिक प्रजनन है जैसा प्राचीनकाल में मान्य था? दूसरा तथ्य दिलचस्प है। यह माना जाता है कि पृथ्वी पर जीवन के प्रारंभिक काल में स्वास्थ्य की चिंता (या जिज्ञासा कहें?) से प्राणी जगत के अध्ययन की आवश्यकता जन्मी थी। यह व्याख्या तर्कसंगत भी दिखती है।
यहाँ एक ताजा खबर का उल्लेख प्रासंगिक होगा। कुछ रिपोर्टों के अनुसार मानव गतिविधियों (विनाशकारी) के कारण पृथ्वी पर प्रत्येक घंटे में प्राणी पर वनस्पति जगत की तीन किस्में लुप्त होती जा रही हैं। स्वास्थ्य की चिंता से प्रारंभ प्राणी जगत के अध्ययन के संदर्भ में यह खबर गौरतलब है। अभी जीवन का निश्चित प्रारंभ खोजा जाना शेष है और इधर जीवन के खत्म होने की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई है। बेहतर और सुधरी किस्म को जगह देने के लिए पुरानी किस्म का घटना प्राकृतिक है (डार्विन) लेकिन किस्मों का तेजी से लुप्त होना अलग और चिंताजनक बात है।

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