किताबों की भीड़ में कुछ और किताबें : देवेंद्र कुमार मिश्र को पिछले कुछ सालों से जानता हूँ। ज़ाहिर है इसकी वजह सनद ही रही है। सनद के लिए अपनी कुछ रचनाएँ उन्होंने भेजी थी। वे बहुत ही निष्ठा और समर्पण के साथ रचने में जुटे हैं। बिना किसी शोर-शराबे के वे कविताएँ और कहानियाँ रच रहे हैं। लेकिन मेरा ताल्लुक़ उनकी कविताओं से ही रहा है। उनकी कविताएँ पढ़ता रहा हूँ। अभी हाल ही में उनकी दो काव्य संग्रह प्रकाशित हुए हैं ‘प्रजातंत्र का फ़्लाप शो’ और ‘कल तुम्हारा होगा’ (प्रकाशक: उद्योगनगर प्रकाशन, 695 न्यू कोट गाँव, जीटी रोड, गाजियाबाद-201001, मूल्य: सौरुपए) के नाम से। किसी कवि के दो संग्रहों का एकसाथ प्रकाशन निश्चित ही महत्त्व की बात है। वह भी समय के उस दौर में जहाँ शब्द अपने अर्थ खोते जा रहे हों।
देवेंद्र कुमार मिश्र के कविताओं में अपने समय और समाज को देखा जा सकता है। पहला संग्रह व्यंग्य कविताओं का है तो दूसरे संग्रह में सामजिक सरोकार के रंग बिखरे पड़े हैं। ‘प्रजातंत्र का फ़्लाप शो’ के नाम से ही पता चलता है कि संग्रह की कविताओं के केंद्र में राजनीति और व्यवस्था है। संग्रह में मिश्रा की 106 कविताएँ हैं। संग्रह की कवितओं में राजनीतिक रंग भी है और इस राजनीति से उपजी सड़ी-गली व्यवस्था का ज़िक्र भी। जीवन से जुड़े सरोकारों और सवालों को देवेंद्र कुमार मिश्र बार-बार हमारे सामने रखते हुए कहते हैं ‘आजकल बिकता है/सच/अजकल बेईमान कहलाता है/व्यवहार कुशल, दक्ष, होशियार’। बाज़ार में बदलती दुनिया भी उनकी कविताओं में दिखाई देती है। वे कहते हैं-‘अब जब सब कुछ बाज़ार है/सब कुछ व्यापार है/तो रिश्ते-नातों का क्या’। देवेंद्र कुमार मिश्र की कविताओं में जीवन के कई रंग बिखरे दिखाई पड़ते हैं। उन रंगों में यक़ीन की दपदपाती लौ हमें बेतहर दुनिया को लेकर आश्वस्त भी करती है। ‘कल तुम्हारा होगा’ में उनकी छोटी-बड़ी 118 कविताएँ हैं। समाज में फैली विसंगतियों पर वे बहुत ही सलीक़े से बात करते हैं। अच्छी बात यह है कि दमोह में रह कर भी वे लगातार लिख रहे हैं और अच्छा लिख रहे हैं। उनकी कविताओं में ताज़गी भी है और अपने समाज की चिंता भी। उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में उनकी और भी बेहतर रचनाएँ सामने आएँगी और व्यापक दुनिया से सरोकार बनाएँगी।
‘अनुकथन’ श्याम सुंदर निगम की कृति है। विभिन्न रचनाकारों के कृतित्व और व्यक्तित्व पर प्रकाशित लेखों के इस संग्रह की बड़ी ख़ूबी यह है कि श्याम सुंदर निगम ने गीतकारों को अपने लेखन के केंद्र में रखा है। ‘कोशिश’ के तहत लिखी गई भूमिका में बहुत ही साफ़गोई से वे साहित्य की राजनीति का ज़िक्र करते हुए साहित्य के मठों में बैठे महंतों पर सवाल खड़े करते हैं। अपने इस संग्रह को लेकर भी वे किसी तरह की लम्बी-चौड़ी बात नहीं करते हैं। वे कहते हैं कि ‘अनुकथन’ मेरे पाठकीय सोच का प्रतिफल है। यानी एक पाठक की हैसियत से ही उन्होंने उन रचनाकारों का आकलन किया है जिनके गीतों ने उन्हें प्रभावित किया। संग्रह में शामिल गीतकारों के गीतों को देकर श्याम सुंदर निगम ने पाठकीय दायित्व का बख़ूबी निर्वाह किया है।
ऋषभ देव शर्मा का संग्रह ‘ताकि सनद रहे’ (तेवरी प्रकाशन, 4-7-419,इसामिया बाज़ार, हैदराबाद-500027, मूल्य-120रुपए) कुछ साल पहले प्रकाशित हुआ था। शर्मा लम्बे समय से सृजनरत हैं। संग्रह की कविताएँ एक बेहतर दुनिया को लेकर हमें आश्वस्त करती हैं। ‘घर बसे हैं’ जैसी कविताएँ उम्मीद और यक़ीन की कविता है। ‘हाथ में रथचक्र’ ‘धुआं और गुलाल’ ‘सूरज होने का दर्द’ शिल्प और प्रयोग के स्तर पर अच्छी कविताएँ हैं। दिल्लीलोक निर्माण विभाग ने ‘काव्यांजलि’ नाम से अपने यहाँ कार्यरत कर्मचारियों की कविताओं का संग्रह प्रकाशित किया है। संग्रह के संपादक हैं सुरेंद्र मोहन कोहली और संयोजक हैं भीष्म कुमार चुघ। सरकारी कार्यलयों में काम करने वालों को आमतौर पर यह मान लिया जाता है कि उनका साहित्य से सरोकार न के बराबर है। लेकिन यह संग्रह उन मान्यताओं को तोड़ता है। संग्रह में नीलमा शर्मा, पीके शर्मा, उत्सव श्रीवास्तव, हेमंत कुमार, शशि, अवनेश शर्मा, रेखा कुमार, अजय कुमार श्रीवास्तव, एलपी श्रीवास्तव, कमलप्रीत सिंह, एचएस रोहिला, सुमो कोहली, अविनाश चंद्र ‘फ़ितरत’ के अलावा राजेंद्र नागदेव व अलका सिन्हा की कविताएँ संकलित हैं। इस तरह की कोशिश दूसरे सरकारी दफ़्तरों में भी हो तो हिंदी का सरोकार भी बढ़ेगा और साहित्य का भी।
इक़बाल का पुनर्पाठ : डॉ. मोहम्मद इक़बाल उर्दू के उन गिने-चुने शायरों में हैं जिन्होंने अपनी कविताओं से अपने समय और समाज से मुठभेड़ किया। यह बात अलग है कि उर्दू शायरी का ज़िक्र आते ही बात मीर से शुरू हो कर ग़ालिब पर ख़त्म हो जाती है। इक़बाल जैसे शायरों की यह बदक़िस्मती ही कही जाएगी कि न तो उर्दू में उनका मूल्याँकन ठीक से किया गया और न ही हिंदी वालों ने उन्हें समझा।
कभी-कभी लगता है कि इक़बाल ने अगर ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ सरीखा गीत नहीं लिखा होता तो क्या उन्हें हम एक बेहतरीन शायर के तौर पर जानते-समझते। इक़बाल की बदक़िस्मती ही कही जाएगी कि हिंदी समाज में भी उनकी शायरी के बहुत ज़्यादा क़द्रदान नहीं हैं। ऐसा क्यों और किन वजहों से हुआ ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता। हिन्दुस्तान छोड़ कर पाकिस्तान जा बसना एक वजह हो सकती है, पर यह वजह मुझे बहुत क़ायल नहीं करता है क्योंकि जोश मलीहाबादी से लेकर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ तक को लोगों ने सर-आँखों पर बैठाया। पर इक़बाल को वह रेक्गनाइज़ेशन नहीं मिली। हालाँकि इक़बाल के यहाँ रचना का जो विस्तार मिलता है, वह विस्तार दूसरे बहुत सारे शायरों के यहाँ कम ही दिखाई देता है। उन्होंने बच्चों के लिए भी नज़्में लिखीं और बड़ों के लिए भी। इन नज़्मों में जीवन की लय और दर्शन के रंग बहुत ही शिद्दत से दिखाई पड़ते हैं। न जाने क्यों मुझे आज भी इक़बाल दूसरे शायरों से कई अर्थों में बेहतर लगते हैं क्योंकि उनके पास जो रेंज़ है वह बहुतों के यहाँ नहीं है। मीर और ग़ालिब की शायरी का मैं भी क़ायल हूँ लेकिन इक़बाल मुझे इनसे कई मानों में अलग और बेहतर लगते हैं। ऐसा इसलिए भी कि उन्होंने आसान और सरल भाषा में नज़्में लिखीं और ज़िंदगी को नए अर्थ दिए। उनकी नज़्में मुश्किल घड़ी में जीने के लिए प्रेरित करती हैं। ‘मुसीबत में न काम आतीं हैं तदबीरें, न तक़दीरें, जो हो जौक़-ए-यक़ीं पैदा तो कट जाती है जंजीरें’ या कि फिर ‘यक़ीन महकम, अमल पैहम, मोहब्बत फ़ातह-ए-आलम, ज़हाद-ए-ज़िंदगानी में यही होती हैं मर्दों की शमशीरें’ जैसी पँक्तियां ज़िंदगी को बड़े अर्थ तो देती ही हैं, हमें कुछ करने के लिए भी बार-बार प्रेरित करती हैं। शायद यही वजह है कि इक़बाल मेरे प्रिय शायरों में सबसे ऊपर हैं। ‘शिकवा’ और ‘जवाब-ए-शिकवा’ जैसी कालजयी नज़्में पढ़ते हुए बार-बार जीवन के नए अर्थ खुलते हैं। पर उर्दू वाले मीर-ग़ालिब से आगे सोचते ही नहीं और हिंदी में भी इक़बाल के प्रशंसक कम ही हैं। हालाँकि इक़बाल की शायरी हमसे बार-बार एक अंतरंग संवाद बनाती है।
यह बात भी कम चौंकाने वाली नहीं है कि ‘सारे जहाँ से अच्छा हिंदोस्तां हमारा’ जैसी कालजयी रचना लिखने वाले इक़बाल पर कुछ-कुछ सांप्रदायिक होने का इलज़ाम भी समय-समय पर लगता रहा है। उनके कई ऐसे आलोचक भी मिल जाएँगे जो इक़बाल को महज़ हिन्दुस्तान से हिज़रत करने की वजह से उन्हें सांप्रदायिक क़रार देकर कटघरे में खड़ा कर डालते हैं। पर सच यह भी है कि जो उन्हें इस कसौटी पर कसने की कोशिश करते हैं, उन्होंने इक़बाल को एक मुकम्मल शायर के तौर पर कभी न तो पढ़ा न पढ़ने की कोशिश की। इक़बाल के यहाँ जीवन का जो राग है, उसे अगर अक़्ल व शऊर के साज़ पर सुनें तो जो आवाज़ सुनाई देगी, उसमें अमन है, मोहब्बत है और आपसी रिश्तों को मज़बूत करने की वकालत है। भारतीय भाषाओं के ढेरों कवियों ने मोहब्बत के तराने तो गाए हैं पर उनमें एक व्यापक संसार की कमी दिखाई पड़ती है। जबकि इक़बाल के यहाँ वह सरोकार बहुत शिद्दत के साथ दिखाई पड़ते हैं। वह इक़बाल ही हैं जिनकी कविाताओं में गौतम बुद्ध, विश्वामित्र, राम, भर्तृहरि का ज़िक्र मिलता है। ‘हिन्दुस्तानी बच्चों का क़ौमी गीत’ में चिश्ती के साथ गुरुनानक की ज़िक्र है तो ‘नानक’ नज़्म में गौतम बुद्ध को पैगंबर बताया गया है। अपनी नज़्म ‘राम’ में उन्होंने भगवान राम का गुणगाण करते हुएस उन्हें ‘हिन्दुस्तां के इमाम’ से संबोधित किया है। इसी तरह पंजाब के मशहूर संत रामतीरथ की मौत के बाद ‘स्वामी रामतीरथ’ शीर्षक से नज़्म लिखी। इक़बाल ने दूसरे कौमों और उनके धार्मिक नायकों का पूरा-पूरा सम्मान किया है। वे इस बात को पसंद नहीं करते थे कि दूसरी कौमों के महान कामों की तारीफ़ न की जाए। उनकी नज़र में यह नैतिक अपराध था। हैरत इस बात की है कि भारतीय भाषाओं के दूसरे कवियों की सोच में मुसलमानों के नायकों को लेकर बहुत कम ही लिखा गया है। पर इस पर ज़िक्र फिर कभी।
फ़िलहाल मेरे सामने ‘जावेदनामा’ का हिंदी अनुवाद है। फ़ारसी में उनका लिखा यह मशहूर महाकाव्य है। अब इसका हिंदी में तर्जुमा मोहम्मद शीस ख़ान ने किया है। क़रीब साढ़े तीन सौ पृष्ठ में फैले इस महाकाव्य को पढ़ना इक़बाल को नए अर्थों में जानने जैसा है। शीस ख़ान ने कोई ग्यारह साल पहले इक़बाल की कृति ‘रिकंस्ट्रक्शन आफ रिलीज़ियस थाउट्स ऑफ़ इस्लाम’ का अनुवाद किया था। ग्यारह साल बाद उन्होंने इक़बाल के इस फ़ारसी महाकाव्य का अनुवाद किया है। बड़ी बात यह है कि शीस ख़ान ने इसका अनुवाद बहुत ही मेहनत और लग्न से किया है। इक़बाल के पूरे संसार को हिंदी दुनिया के सामने रखने के लिए उन्होंने हिंदी मुहावरों और देसी कहावतों का इस्तेमाल किया है। ये मुहावरे और कहवातें हमारे समाज के बीच से उठाई गई है इसलिए ‘जावेदनामा’ पढ़ते हुए ठेठ भारतीय रंग दिखाई देता है। इन रंगों में दर्शन भी है, अध्यात्म भी है, तस्सववुफ़ भी है और राष्ट्रीयता भी है। ज़ाहिर है कि इसे पढ़ते हुए इक़बाल का नया रंग हमारे सामने आता है।
इक़बाल की कृति ‘जावेदनामा’ काव्य-नाटक है क्योंकि इसमें देश-दुनिया के कई पात्र आपस में संवाद करते हैं। इन पात्रों में फ़ारसी के महान शायर रूमी भी हैं और बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध भी। ऋषि विश्वमित्र और दार्शनिक भर्तृहरि भी हैं। जर्मन दार्शनिक नीत्शे हैं तो सूडान के सूफ़ी-संत मेहदी भी हैं। ग़ालिब भी इस कृति में अपने रंग में दिखाई देते हैं तो रूसी साहित्यकार टालस्टाय भी हैं। नर्तकी मणिका भी है और टीपू सुल्तान भी। मीर जाफ़र और मीर सादिक़ भी हैं। इनके अलावा ढेरों पात्र हैं जो अपने समय और समाज की अक्कासी करते हैं। शीस ख़ान पुस्तक की भूमिका में लिखते हैं कि ऐसा माना जाता है कि दांते की मौत के छह सौ साल बाद ‘जावेदनामा’ सामने आया और इक़बाल ने एशिया की तरफ से यूरोप को ‘डिवाइन कामेडी’ का जवाब दिया। ‘जावेदनामा’ को एशिया की डिवाइन कामेडी इसलिए भी कहा जाता है क्योंकि नीत्शे और लार्ड किचनर को छोड़ कर इसके सभी मुख्यपात्रों का ताअल्लुक़ एशिया से है। जावेदनामा में हिंदुस्तामन से उनके जुड़ाव को गहरे महसूस किया जा सकता है। शीस ख़ान के लिए सचमुच फ़ारसी की इस कृति का अनुवाद करना बहुत कठिन रहा होगा। उर्दू में हालांकि दो लोगों ने इसका अनुवाद किया है पर हिंदी में इस कृति का यह पहला अनुवाद है। इक़बाल के नाम पर जो लोग नाक-भौं सिकोड़ते हैं और उन पर हिन्दुस्तान विरोधी होने का ठप्पा लगाते हैं, उन्हें इस कृति में इक़बाल का वह रूप दिखाई देगा जो ख़ालिस हिन्दुस्तानी है। ऐसे समय में जब इक़बाल पर कुछ लोग फिर से सवाल उठा रहे हों और उन्हें भारत के विभाजन का ज़िम्मेदार मान रहे हैं, जावेदनामा वैसे लोगों के सारे सवालों का जवाब देता है और यक़ीनन इसके लिए शीस ख़ान को जितनी भी बधाई दी जाए कम है। इक़बाल को लेकर जिन लोगों के मन में किसी तरह का भी भ्रम है, उन्हें यह पुस्तक ज़रूर पढ़नी चाहिए।
साहित्यकारों की एक छोटी मगर ख़ूबसूरत दुनिया : क़रीब दो साल पहले रायपुर में वहाँ के लेखकों ने मुलाक़ात के दौरान मुझे कई किताबें दी थीं। उनमें से बहुतों को मैं जानता तक नहीं था। फिर भी उन्होंने मुझे अपनी पुस्तकें भेंट की। उन किताबों को लेकर दिल्ली आया और उनमें से कुछ पुस्तकों पर लिखा भी। हालाँकि मेरा यह अनुभव भी रहा है कि इस तरह मिलने वाली किताबों को कई लोग होटल या जहाँ उन्हें ठहराया गया होता है छोड़ कर चले आते हैं। अपने साथ के ही कई लेखकों को ऐसा करते देखा है। मुझे कम से कम यह बात अच्छी नहीं लगती है कि आपको किसी शहर में कोई अगर किताब देता है तो आप उसे अपने साथ लाना भा गवारा नहीं करते हैं। अगर किताबों को कूड़ा समझ कर फेंकना ही है तो फिर उन लेखकों को ही मना कर दें कि मुझे किताबें भेंट न करें, क्योंकि मैं इन किताबों को पढ़ नहीं पाऊँगा। पर ऐसा कहने की हिम्मत वे जुटा नहीं पाते और किताब को कूड़ा समझ कर वहीं फेंक आते हैं। यह लेखक का अपमान तो है ही, किताब और शब्दों का अपमान भी है।
पीड़ा तब और होती है जब ऐसा करने वाले ख़ुद को शब्दों का साधक कहते हैं और शब्द, भाषा और शब्दों के महत्त्व पर प्रवचन करते रहते हैं। लेकिन इस तरह का प्रवचन देते वक़्त वे उन लोगों को बिसरा देते हैं जो छोटे शहरों या क़स्बों में रह कर साहित्य साधाना में लगे रहते हैं। इन पँक्तियों को लिखते हुए कमलेश्वर जी याद आ रहे हैं। एकबार बातचीत में उन्होंने बताया था कि दिल्ली से लेखकों का दल पूर्वी उत्तर प्रदेश के दौरे पर गया था। क़रीब पंद्रह दिनों तक हम लोग कई शहरों और क़स्बों में गए थे। हमारे साथ राजेंद्र यादव भी थे। स्थानीय साहित्यकार हमें सर-माथे पर बिठाते। जहाँ-जहाँ हम गए, वहाँ के साहत्यिकार अपनी किताबें भी देते। एक जगह हमें कुछ किताबें मिलीं। राजेंद्र यादव ने एक युवा साहित्यकार को एक पुस्तक देते हुए कहा कि इसे पढ़ें बहुत ही अच्छी किताब है। वह युवा साहित्यकार पहले तो सकुचाया फिर उसने हौले से कहा - यह किताब उसी की लिखी हुई है और उसने ही उन्हें भेंट की थी। इस एक घटना से दिल्ली के बड़े साहित्यकारों की मानसिकता को बेहतर ढंग से समझा जा सकता है। रचना और रचनाकार की किस तरह से उपेक्षा दिल्ली में बैठे हमारे ‘साहित्यिक महानायक’ करते हैं, यह आसानी से समझा जा सकता है। रायपुर से लौटने के क्रम में भी कई लेखकों ने इसी तरह का काम किया। किताबें जो मिलीं थीं, उसे होटल के उस कमरे में छोड़ दिया था, जहाँ उन्हें टिकाया गया था।
यह सही है कि घर में किताबों की बहुत जगह नहीं होती। लेकिन यह भी तो सही है कि किताबें और शब्द ही तो हमारी संपदा हैं। इनकी इस तरह उपेक्षा करना कहाँ तक और कितना उचित है। घर में किताबों के लिए जगह अगर नहीं भी है तो ढेरों पुस्तकलायें ऐसी हैं जिन्हें किताबों की ज़रूरत होती है । हम इन किताबें को ऐसी पुस्तकालयों को भेंट कर सकते हैं। लेकिन किताबें ‘ढो’ कर लाने की ज़हमत से बचने की कोशिश में हम किताबों और साहित्यकारों दोनों का अपमान करते हैं।
पिछले साल खगड़िया में आयोजित प्रेमचंद समारोह में जाना हुआ। किंकर जी की देखरेख में यह समारोह आयोजित होता है। दो दिनों तक चले इस समारोह में कई स्थानीय साहित्यकारों से भेंट-मुलाक़ात रही। चूँकि मैं दिल्ली से गया था इसलिए लोगों ने मुझ दिल्ली वाला ही समझा। कई लेखकों ने अपनी किताबें भेंट की। उन्हें सहेज कर दिल्ली लेते आया। साहित्य के केंद्र से दूर रहने वाले लेखकों की त्रासदी है कि उनकी रचनाओं का ज़िक्र तक नहीं होता। जबकि वे लेखन से लेकर प्रकाशन तक के लिए दौड़-धूप करते रहते हैं। पहले वे रचते हैं फिर प्रकाशक न मिलने की वजह से घर से पैसे लगा कर पुस्तकें प्रकाशित करवाते हैं फिर अपनी ही गाँठ ढीली कर वे अपनी पुस्तकों को आलोचकों-समीक्षकों तक पहुँचाते हैं। इतना करने के बावजूद उनकी पुस्तक पर न तो एक लाइन की कोई समीक्षा लिखता है और न ही कोई आलोचक उनका ज़िक्र करता है। हालाँकि उन किताबों में कई ऐसी रचनाएँ होती हैं जो अपने समय और समाज से मुठभेड़ करती हैं। लेकिन चूँकि वे दिल्ली से दूर रहते हैं इसलिए दिल्ली भी उनसे दूर-दूर ही रहती है।
खगड़िया से लौटते हुए यह संकल्प लिया था कि दूर-दराज़ के इन साहित्यकार मित्रों की पुस्तकों पर जब भी मौका मिलूँगा ज़रूर लिखूँगा। हालाँकि ऐसा पहले भी करता रहा। ढेरों ऐसे रचनाकारों की पुस्तकों की समीक्षाएँ की हैं जो साहित्य के केंद्र में भले नहीं हों लेकिन साहित्य उनके केंद्र में ज़रूर है। इसी शीर्षक से यह सिलसिला लगातार बनाए रखने की कोशिश करूँगा। एक जगह और इलाक़े के साहित्यकारों की पुस्तकों पर इस तरह से लगातार टिप्पणी कर उनके साहित्य का मूल्याँकन करने का प्रयास रहेगा। यह सही है कि हर किताब अच्छी नहीं हो सकती। लेकिन यह बात तो दिल्ली में बैठे साहित्यकारों पर भी लागू होती है।
खगड़िया में साहित्यकारों ने मुझे कई पुस्तकें दीं। इनमें से स्वतंत्रता सेनानी जगदंबा प्रसाद मंडल पर प्रकाशित पुस्तक ‘स्मृति शेष-जगदंबा प्रसाद मंडल’ (प्रकाशक: जगदंबा प्रसाद मंडल प्रकाशन समिति, कोलबारा, खगड़िया) का विमोचन तो मेरे हाथों ही हुआ था। पुस्तक का प्रकाशन जगदंबा प्रसाद मंडल प्रकाशक समिति ने किया है। पुस्तक के प्रधान संपादक हैं तेजनारायण कुशवाहा और संपादन किया है मणिलाल मंडल ‘मणि’ ने। पुस्तक न सिर्फ़ जगदंबा प्रसाद मंडल के व्यक्तित्व पर केंद्रित है बल्कि इस पूरे इलाके का इतिाहस और भूगोल को भी समेटा गया है। ज़ाहिर है कि इस इलाक़े को जानने-समझने में यह पुस्तक मदद देती है, मंडल जी के व्यक्तित्व और उस दौर के आदर्श मूल्यों को भी हमारे सामने रखता है। झिटकिया के मज़ार की जानकारी बिहार के कितने लोगों को होगी यह तो नहीं पता लेकिन सांस्कृतिक एकता के इस प्रतीक की जानकारी इस पुस्तक के ज़रिए मिलती है। फिर अघोरी स्थान, हरिपुर गाँव को एक नए रूप में हम जानते हैं। खगड़िया की साहित्यक अवदान की चर्चा कर संपादकों ने बेहतर काम किया है।
बोढ़न मेहता ‘बिहारी’ का खंडकाव्य ‘स्वयं सिद्धा: माँ शबरी’ (प्रकाशक: प्रगति मंच प्रकाशन, गांधी नगर, खगड़िया) भील संस्कृति पर आधारति है। ज़ाहिर है कि महतों ने काफ़ी मेहतन से इस ग्रंथ को तैयार किया है। हालाँकि यह बात अटपटी लगती है कि उन्होंने पुस्तक पर यह मुहर क्यों लगाई कि इसका विमोचन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने किया है। इससे पुस्तक का महत्त्व बढ़ता तो नहीं है।
मुक्तेश्वर मुकेश से पुराना परिचय है। उनकी कविता पुस्तक ‘रंग-बदरंग’ (प्रकाशक: खोजी पूर्वांचल टाइम्स, बेगुसराय) में उनकी उनसठ कविताएँ संकलित हैं। कविताएँ छंद में भी है औंर मुक्त छंद में भी। कुछ कविताएँ ज़रूर प्रभावित करती हैं। सहरसा के नीलमणि सिंह की काव्य पुस्तक ‘युगध्वनि’ की कविताएँ बहुत ज़्यादा प्रभावित नहीं करतीं। इसकी एक बड़ी वजह ग़ज़लों की तरह यह लिखी गई हैं और तुकबंदी ही ज़्यादा है। डॉ. सुरेश प्रसाद सिंह की पुस्तक ‘छायावाद-युग की कविताओं में मानवतावादी’ (प्रकाशक: अपर्णा प्रकाशन, पसराहा, खगड़िया) अच्छी पुस्तक है। पाँच खंडों में प्रकाशित इस पुस्तक में लेखक ने कुछ अच्छी बातें हमारा सामने रखी है, हालाँकि यह बात समझ से परे है कि उन्होंने पुस्तक का नाम ऐसा क्यों रखा क्योंकि बिना मानवता के साहित्य तो रचा ही नहीं जा सकता। यह बात थोड़ा चौंकाती भी है और अचंभित भी करती ही है।
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