मनोज सिंह
विगत सप्ताह बड़ी बेटी ने चेतन भगत की किताबें फुटपाथ से खरीदीं। इनमें उनकी अब तक प्रकाशित तीनों उपन्यास थीं। चेतन भगत आज की तारीख में एक लोकप्रिय नाम है। अंग्रेजी लेखन के भारतीय इतिहास में तीव्र गति से इतनी अधिक सफलता शायद पहले किसी को न मिली हो। इनकी पुस्तकों को शुद्ध साहित्य तो नहीं कहा जा सकता, इस बात को लेखक स्वयं भी स्वीकार करता है, हां बिक्री के आंकड़े स्वयं ही इसे बेस्ट सेलर के वर्ग में रखने के लिए काफी हैं। आकर्षक युवा, आईआईटी व आईआईएम के विद्यार्थी द्वारा सरल व सहज लेखन, वैसे यही काफी नहीं है इतनी बड़ी सफलता के लिए। और न ही कहानी की पकड़ व इसमें आम लोगों की बातों से भी इतनी बिक्री हो सकती है। इस फास्टफूड की तर्ज वाली सफलता के लिए यकीनन प्रचार व प्रसार की कला के साथ ही किस्मत का भी धनी होना आवश्यक है। बहरहाल, बेटी के प्रथम आग्रह पर ही मैंने भी तुरंत पुस्तक बेचने वाले को सहर्ष दो सौ पचास रुपए निकाल कर दिये थे। यह मेरा लेखक होने से अधिक पुस्तक प्रेम है जो मैं बचपन से आज तक नियमित रूप से पुस्तक खरीदने में आनंद महसूस करता हूं। बच्चे मां-बाप से बहुत कुछ सीखते हैं, शायद इसीलिए पहले मैंने अपने पिता से और फिर मेरे बच्चों ने मुझसे यह आदत सीखी है। अमूमन इसे ही संस्कार कह दिया जाता है। इस बात पर कोई इसे मेरा घमंड व आत्म प्रदर्शन समझे तो मुझे कोई तकलीफ न होगी क्योंकि इस बात का मुझे गर्व है कि मैं पुस्तक खरीदता भी हूं फिर पढ़ता भी हूं। और फिर इस खरीदारी में तो शायद मूल कीमत की आधी से भी कम राशि थी। यहां फुटपाथ के नाम से लोग नाक-मुंह निचोड़ सकते हैं लेकिन समझदार पाठक जानते हैं कि पुस्तक के लिए यह कोई प्रमुख मुद्दा नहीं। वैसे भी किताब के नाम पर खर्च करने के लिए हिन्दुस्तान में यह कोई छोटी रकम नहीं। और फिर फुटपाथ पर अंग्रेजी की नयी-नयी किताबें सस्ते दामों में मिल भी जाती हैं। इसीलिए पढ़ने के शौकीन अक्सर इसकी तलाश में रहते हैं। निष्पक्ष रूप से भी देखें तो इस तरह के उपन्यासों को खरीदने के लिए यह बुरा सौदा नहीं। मगर यहां गौर करने वाली बात यह है कि इन फुटपाथों पर हिन्दी की किताबें क्यों नहीं मिलती? अंग्रेजी की सामान्य किताबें जिसमें जासूसी, ऐतिहासिक, साहित्यिक, रोमांच, प्रेम-कहानी, डिटेक्टिव, इस तरह से सिडनी सैल्डन से लेकर शेक्सपियर तक सभी लेखकों की किताबें आसानी से मिल जाती है लेकिन हिन्दी तकरीबन पूर्णतः गायब है। प्राचीन धार्मिक किताबें या फिर पाठ्यपुस्तकों को छोड़ दें, जिनसे गरीब छात्र गुजारा करते हैं। सवाल यह भी उठता है कि कितने लोग हैं जो हिन्दी में दो सौ पचास रुपए की किताब अमूमन खरीदा करते हैं? सच पूछिये यह संख्या उंगलियों पर गिनने वाली हो सकती है। शायद यही कारण है जो हिन्दी की पुस्तकें दुकानों पर उपलब्ध नहीं होती। कोई यह भी कह सकता है कि किताबें नहीं दिखती इसलिए नहीं बिकती। यहां मुर्गी और अंडे वाली कहानी ‘पहले कौन’ दोहरायी जा सकती है लेकिन इसके और भी कई पहलू हो सकते हैं। एक तो यही पहलू है कि जहां अंग्रेजी का जासूसी उपन्यास खरीदने वाला पाठक भी अपने आप को बहुत ऊंचे दर्जे का समझता है वहीं हिन्दी में बिकने वाली रोमांचक किताबें, जो आज भी शहर के कुछ एक क्षेत्रों में दिख व बिक जाती हैं, इसके खरीदारों को बड़ी हिकारत की दृष्टि से देखा जाता है। हिन्दी की दुर्गति व दुर्भावना के लिए चाहे जितने कारण हो, मगर यह मानसिकता हर जगह हर रूप में मिल जायेगी। वैसे इसे और अधिक गहराई से समझने के लिए बहुत अधिक समझदारी की आवश्यकता नहीं।
बात हो रही थी कि अंग्रेजी की तीन किताब की खरीदारी को लेकर। जब मेरी बेटी ने इसे खरीदा तो मैं किताब का प्रेमी इस बात के लिए खुश हुआ था। मगर यहां मुझसे पूछा जा सकता है कि चेतन भगत की तरह की किताबें अगर हिन्दी में खरीदी जाती तो मैं कैसा महसूस करता? सच पूछिए तो शायद उतना अच्छा नहीं। वो भी तब जबकि मैं भी हिन्दी का लेखक हूं। अजीब परिस्थिति है। चेतन भगत की इसी अंग्रेजी पुस्तक पर हिन्दी में अगर फिल्म बनती है तो हम उसे देखने के लिए उमड़ पड़ते हैं। लेकिन इसी लेखक ने अगर हिन्दी में पुस्तक लिखी होती तो हम उसे पढ़ना भी पसंद नहीं करते। बड़ी हास्यास्पद स्थिति है। हिन्दी के गाने, हिन्दी फिल्में, हिन्दी के हीरो-हीरोइन, हिन्दी के गायक हमारे प्रिय हो सकते हैं लेकिन हिन्दी के लेखक नहीं, हिन्दी का लेखन नहीं। आखिरकार ऐसी परिस्थिति क्यों? सवाल आसान लगता है लेकिन जवाब सरल नहीं।
विगत सप्ताह एक लोकप्रिय हिन्दी समाचार पत्र के रविवारीय विशेषांक के पूरे प्रथम पृष्ठ पर चेतन भगत के संदर्भ में एक विस्तृत लेख छपा था। मैंने संपादक से पूछा कि क्या आप इतनी बड़ी स्टोरी किसी हिन्दी लेखक के लिए छापेंगे? जवाब आया था कि अगर किसी लेखक की किताब लाखों में बिकी होगी तो जरूर छापेंगे। मैंने तुरंत दूसरा सवाल किया था, क्या आपको नहीं लगता कि आपके इस तरीके से छापकर हिन्दी पाठक वर्ग में भी चेतन भगत के हजारों खरीदार पैदा कर दिए? कोई जवाब नहीं मिला था। यह सत्य है कि चेतन भगत और उनके प्रकाशक व पीआर कंपनी ने प्रारंभ से ही प्रचार व प्रसार के लिए प्रयास किए होंगे, और यह सिलसिला निरंतर जारी रहा होगा तब जाकर वे लाखों में बिके होंगे। यह एक प्रतिक्रियात्मक श्रृंखलाबद्ध क्रियाएं हैं। उदाहरणार्थ उपरोक्त अखबार ने इस प्रतिक्रिया को आगे बढ़ाया है। यह हमें मान लेना चाहिए कि पुस्तक का मात्र अच्छा होना, इतनी तीव्र गति से बिकने का कारण कदापि नहीं हो सकता। वर्तमान के आधुनिक युग में विज्ञापन की शक्ति को कमतर नहीं किया जा सकता। तो क्या हिन्दी का कोई लेखक अपने प्रचार व प्रसार के लिए प्रयास करता है? नहीं। और अगर हां भी तो बहुत छोटे स्तर पर। इसी संदर्भ में मेरे मन में एक सवाल उत्पन्न हुआ था कि अगर किसी हिन्दी लेखक के लिए इतना बड़ा लेख छापा होता, तो भी क्या इतने ही खरीदार पैदा होते? शायद नहीं। बात अटपटी लग सकती है मगर यही वास्तविकता है। इस विडम्बना को समझने व इसका जवाब ढूंढ़ने में बहुत कुछ कहा जा सकता है, लेकिन निष्कर्ष पर पहुंचना आसान नहीं। और फिर समाज के इस चलन को रोकना, धारा को मोड़ना आज असंभव-सा प्रतीत होता है।
अंत में हारकर कभी-कभी मेरे मन में भी एक विचार आता है कि इतना ही लेखन मैंने अगर अंग्रेजी में किया होता तो शायद कुछ अधिक प्रसिद्धि और सफलता अर्जित की होती। लेकिन फिर दिल की आवाज उभरती कि वो मेरा स्वाभाविक सृजन नहीं होता। अपने हृदय के स्पंदन को शब्दों में नहीं उतार पाता, भावनाओं को भाषा नहीं दे पाता। संतुष्टि भी नहीं होती। क्या इतना ही काफी नहीं कि जो भी लिखा जा रहा है वो कागज पर पूरा डूब कर उतर रहा है। सफल व संवेदनशील लेखन के लिए मातृभाषा से बढ़कर कोई बेहतर माध्यम नहीं हो सकता। मातृभाषा का कोई विकल्प नहीं। आज हिन्दी अंग्रेजी के बीच चल रहे चूहे बिल्ली के खेल के संदर्भ में बहुत कुछ लिखा जा रहा है। मगर भविष्य की स्थितियां पूर्णतः स्पष्ट नहीं हैं। आज अगर अंग्रेजी भाषा का शासन है तो हिंग्लिश लोकप्रिय हो रही है। इन परिस्थितियों में हिन्दी को अगर कोई बचायेगा तो वो है उसका उपयोग करने वाला विशाल जनसमूह। मगर जब तक इस हिन्दी भाषी को दो वक्त की रोटी सुनिश्चित नहीं होती और वो अपने व्यावसायिक महत्व को नहीं जान लेता, वर्तमान परिस्थितियों में बदलाव मुश्किल है।
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