Saturday 6 July 2013

विश्व साहित्य और अनुवाद


डॉक्टर पद्मा पाटिल

विश्व साहित्य की संकल्पना बहुत ही व्यापक है। रवीन्द्रनाथ टैगोर ,प्रेमचंद , मैक्सिम गोर्की , टोल्स्तोय ,चेखोव , वर्डस्वर्थ, शैली ,अलेक्जेंडर पोप ,इब्सेन आदि अनगिनत नाम हैं जिन्होंने विश्व साहित्य की अवधारणा को अपने लेखन से मजबूत बनाया। हिन्दी साहित्य विश्व के समृद्ध साहित्यों में एक है। हिन्दी भाषा सरल तथा सहज ग्राह्य है। हिन्दी साहित्य भक्ति ,प्रेम, वेदना और संवेदना से सिक्त है। उसमें आधुनिकता की ओर प्रवाहित रहने की क्षमता भी है।हिन्दी में अपार साहित्य है। विश्व के अनेक देशों में हिन्दी जानने की, सीखने की उत्सुकता बढ़ती जा रही है।
विश्व साहित्य को समृद्ध बनाने में इन साहित्यकारों के साथ–साथ अनेक अनुवादकों का भी कार्य उल्लेखनीय है। इन साहित्यकारों में से अनेक स्वयं ही अनुवादकों की भूमिका अत्यंत सफलता से निबाही हैं ।वस्तुतः अनुवाद केवल साहित्यकार के क्षेत्रीय ,सामाजिक ,राजनीतिक ,सांस्कृतिक आदि से परिचित नहीं कराता तो मानव मन समग्र भावनाओं से भी गहराई से जोड़ता है । कुछ साहित्यकारों ने मूल सृजनात्मक रचना का आनंद लेने उसकी मूल भाषा सीखने का प्रयास तककिया है। हम भारत से ही प्रारम्भ करें तो महाकवि कालिदास की ख्यात संस्कृत रचना ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’का काव्यानन्द लेने सर विलियम जोन्स ने भारत आकार संस्कृत सीखी। संस्कृत सीखकर ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ का  आनंद लिया । वे विभोर हुये।  फिर उन्होंने उसका अंग्रेजी में अनुवाद कर डाला । हम परिचित हैं ही कि उस अंग्रेजी अनूदित रचना को जैसे ही जर्मनी के गटे ने पढ़ा ,वे भी झूम उठे,उन्होंने उसका जर्मन भाषा में अनुवाद किया । ऐसे अनेक उदाहरण देखे जा सकते हैं।
‘श्रीमद्भगवत् गीता ’ की  संत ज्ञानेश्वर ने लिखी मराठी टीका ‘ज्ञानेश्वरी’ है । उसी प्रकार हिन्दी सेवी विनोबा भावे ने ‘ गीता ’का ‘ गीताई ’नाम से मराठी अनुवाद किया है।‘ऋग्वेद ’का मराठी अनुवाद भी उतना ही ख्यात हुआ है । अनेक प्राकृत ग्रन्थों की संस्कृत छाया , रामायण,महाभारत के अलग -अलग भारतीय भाषाओं मेन सम्पन्न रूपांतर  अनेक भाषिक अथवा भिन्न भाषिक अनुवाद हैं। इस भिन्न भाषिक अंतरण को ही व्यापक रूप में 'भाषांतर 'या 'अनुवाद ' कहा जा सकता है। अनुवाद एक व्यापक संज्ञा है । उसमें सारांश ,स्पष्टीकरण , विस्तार,संकोच ,गद्य रूपांतर ,पद्य रूपांतर आदि प्रकार संभवनीय हैं। परंतु एक भाषिक अनुवाद में प्राप्त न होनेवाला एक प्रकार भिन्न भाषिक अनुवाद में है। वह है एक भाषा की सामग्री का अर्थ दूसरी भाषा में शब्द के लिए शब्द के रूप में लेकर प्रतिसामग्री तैयार करना । इसे रूढ अर्थ में भाषांतर कहा जाता है। परंतु भिन्न भाषिक अनुवाद स्वतंत्र क्षेत्र ठहरता है। इस भिन्न भाषिक अनुवाद को रूपांतर भी कहा जाता है। इसमें मूल सामग्री को शब्दशः न लेकर उसके आशय को केंद्र में रखा जाता है। अनुवाद में मूल रचना या कृति का शब्दशःअर्थ लेने का प्रयास होता ही है परंतु उसके साथ मूल रचना द्वारा प्राप्त होनेवाला सौंदर्यानुभव ,काव्यानुभव,शैलीगत सौंदर्य आदि भी पाठकों तक पहुंचाने का प्रयत्न रहता है। मूल रचना का आशय पाठकों तक पहुंचानाएक कुशलता होती है। उसकेशैलीगत सौंदर्य को दूसरी भाषा में उतारने का कौशल भी उतना ही महत्त्वपूर्ण होता है। प्राचीन मराठी भाषा में संत ज्ञानेश्वर ने‘ज्ञानेश्वरी’लिखी। उसकी टीका हंसराज स्वामी ने 19 वी शती में 'समओवी टीका ' नाम से लिखी। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित मराठी साहित्यकार विं. दा. करंदीकरने 20 वी शती में अर्वाचीन मराठी में उसे पुनः रूपांतरित किया । माना जाता है कि संत ज्ञानेश्वरकी भाषा 19 वी शती में बहुत ही दुर्बोध होने से उसका समकालीन मराठी भाषा में अनुवाद किया । विं.दा. करंदीकरने भी समओवी रूप में अनुवाद किया है। दोनों के अनुवाद में अंतर यह है कि हंसराज स्वामी ने‘ज्ञानेश्वरी’की ‘ओवी ’(मराठी छंद) का आशय स्पष्ट किया तथा उसके दर्शन को आसान बनाकर पाठकों तक पहुंचाया है। प्रथम को आशयनिष्ठ शब्दानुवाद और दूसरे को शैलीनिष्ठ शब्दानुवाद कहना संभव है। शैलीनिष्ठ अनुवाद को ही पुनः सर्जन कहा जा सकता है । सीमित अर्थ में अनुवाद एक नवनिर्मिति ही होती है। अनुवादक मूल से जुड़कर परंतु समृद्ध ,सौंदर्यानुभव तथा काव्यानुभवों के निरूपण और सुरक्षा के साथ पाठकों तक पहुंचाता है। अनुवाद की यह ज़िम्मेदारी है कि वह अनूदित रचना को पाठकों के मर्म तक पहुंचाएं । अनूदित रचनाएँ साहित्यिक मूल्य और सौंदर्य से परिपूर्ण ,पठनीय एवं मूल के अत्यंत सन्निकट रहनेवाली होनी चाहिए ।यह तभी संभव होता है जब अनुवादक अपने –अपने विशिष्ट समय के साथ ‘समकालिक’ बना रहता है। अनुवाद किस प्रकार के पाठकों के लिए है , इसे ध्यान  में रखना अनिवार्य है। कुछ हिन्दी या अन्य भारतीय भाषाओं की रचनाओं में अभिव्यंजित विशिष्ट सामाजिक रूढ़ियों के वर्णन का अंग्रेज़ी में भले ही अनुवाद किया जाए,वे रीतिरिवाज पौर्वात्य पाठकों की समझ में आने में कठिनाई होती है। अनुवादक को मूल रचना का सांस्कृतिक परिवेश,उद्देश्य आदि की पूरी समझ और जानकारी होनी चाहिए। ‘उमरख़ैयाम ’की एक सौ एक रुबाइयों का ‘उमरशतक’ नाम से न .गो .सुरु ने संस्कृत अनुवाद किया है। उन्होंने यह अनुवाद मूल पर्शियन से नहीं किया है। उन्होंने फिट्ज़जेराल्ड के अंग्रेजी अनुवाद से संस्कृत अनुवाद किया है। उमरख़ैयाम की हिन्दी में अनूदित रुबाइयों से भी वे संस्कृत में करते तो मूल के नजदीक पहुँचना संभव होता । मूल रचना में रचनाकार अपने समय का सामाजिक, धार्मिक ,सांस्कृतिक संदर्भ अनायास ही रखता है। इतिहास और पुराणों के प्रमाणों के साथ भावों की अभिव्यंजना करता है। अर्थात् साहित्यकार अपनी रचना में अपने –अपने अर्थ को रखता है। वह अपने भावों को अर्थ व्यंजना तथा काव्यसौंदर्य से परिपूर्ण बनाता है।
भारतीय भाषाओं में लिखी साहित्य कृतियों का परस्पर विशिष्ट प्रादेशिक भाषाओं में अनुवाद बहुत बार कठिन होता है। इसे आसान हिन्दी ने बनाया है । किसी भी भारतीय भाषा की ख्यात रचना पहले हिन्दी में अनूदित होती है। बाद में हिन्दी से पुनः दूसरी भारतीय भाषाओं में । जैसे – पंजाबी कुछ ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित अमृता प्रीतम , गुरुदयाल सिंह के साथ ख्यात साहित्यकार राजिन्दर सिंह बेदी ,नानक सिंह आदि की विख्यात रचनाएँ क्रमशः रसीदी तिकट , पिंजर आदि , अध चाँदनी रात ,मढ़ी का दीवा आदि ,एक चादर मैली सी ,श्वेत रक्त आदि रचनाएँ प्रादेशिक भाषा पंजाबी से पहले हिन्दी में आयीं और बाद में हिन्दी से मराठी ,गुजराती,कन्नड़ा आदि भारतीय भाषाओं में । बंगाली साहित्यकार शरदचंद्र चटर्जी की परिणीता , श्रीकांत ,देवदास आदि रचनाएँ बंगाली से सीधा मराठी में आयीं । कारण यह था कि मराठी के लेखक मामा वरेरकर एक साथ दोनों भाषाओं के ज्ञाता थे। वे समग्र रवीन्द्रनाथ, शरदचंद्र, बंकिमचन्द्र मराठी में ले आए। उसीतरह वीणा आलासे भी दोनों भाषाओं की जानकार होने से वे भी सीधा बंगाली रचनाएँ मराठी में ले आयीं । उसमें ख्यात हैं महाश्वेतादेवी का ‘जंगल के दावेदार’आदि। विख्यात कन्नड साहित्यकार ,रंगकर्मी ,अभिनेता गिरीश कर्नाड की सभी रचनाएँ अंग्रेजी ,हिन्दी, मराठी , बंगाली आदि भाषाओं तक अनुवाद के माध्यम से पहुंची हैं।हिरेमठ पंचाक्षरी ने भारतीय और विश्व कविताओं का कन्नड अनुवाद, रूपांतर शीर्षक से किया है।  ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित मराठी साहित्यकार वि.स.खांडेकर का उपन्यास ‘ययाती’ हिन्दी,गुजराती,उड़िया ,मलयालम , कन्नड़ा, बंगाली ,तेलुगू ,अंग्रेजी आदि भाषाओं में आ गया है। और उसने विश्व साहित्य में स्थान पाया है।उसीतरह मराठी के अन्य ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित साहित्यकार कुसुमाग्रज, विं . दा. करंदीकर आदि का साहित्य भी विविध भाषाओं में अनूदित हुआ है। साथ ही अन्य साहित्यकारों में नारायण सुर्वे, दलित साहित्यकार शरणकुमार लिम्बाळे,बाबुराव बागुल , भारत सासणे ,राजन खान ,शांता शेळके आदि का साहित्य अनूदित हुआ है। ललितेतर साहित्य का अनुवाद भी बड़ी मात्र में होता रहा है। मराठी भाषी संस्कृत विद्वान डॉ.आ.ह. साळुंखे की ‘वैदिक धर्मसूत्र और बहुजनों की ग़ुलामी’(2009),‘चार्वाक दर्शन’,‘महाभारत की स्त्रियाँ’,‘भूमिपुत्र गोतम बुद्ध ( 2011 ) आदि अनेक कृतियाँ हिन्दी और अंग्रेजी में आई हैं। कोल्हापुर के ब्रिटिशकालीन महाराजा राजर्षि शाहु की जीवनी तथा उनका कार्य का मराठी से हिन्दी(2009 )तथा अंग्रेजी अनुवाद महाराष्ट्र राज्य विधान मंडळ,मुंबई ने प्रकाशित (2009) किया है।ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित पंजाबी साहित्यकार गुरुदयाल सिंह के ‘ मढ़ी का दीवा ’ उपन्यास का रूसी भाषा में 1968 ई.में अनुवाद हुआ है। प्रथम संस्करण हाथों हाथ समाप्त हुआ । फिर इतने संस्करण आए कि लगभग 50,000 प्रतियाँ बिक चुकी हैं। इसी उपन्यास का मराठी अनुवाद ‘भेटी लागी जीवा ’ (2012) नाम से हुआ है। गुजराती में अनुवाद हो रहा है।इनके अनेक उपन्यास प्रकाशित हुये हैं। लगभग सभी उपन्यास भारतीय भाषाओं के साथ अंग्रेजी में भी आए हैं। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित हिन्दी साहित्यकार कुंवरनारायण के ‘आत्मजयी ’ खंडकाव्य का इतालवी भाषा में 1976 ई .में इतालवी हिन्दी प्रोफेसर मारियोला ओफ़्रेदी ने ‘नचिकेता ’शीर्षक से अनुवाद किया है। इटली में कुंवरनारायण बड़ी रुचि से पढे जाते हैं। इसी कृति का मराठी अनुवाद हुआ है।(2012)
2003 में पोलैंड के पोजनान विश्वविद्यालय में कार्यरत हिन्दी की प्राध्यापिका मोनिका से मिलना हुआ । अकादमिक चर्चा काफी ज्ञानवर्धक रही । उस समय की हमारी चर्चा के केंद्र में भारतीय तथा विश्व की स्त्रियाँ थीं। उनका सामाजिक स्थान ,दशा आदि पर बातें होती रही। उन्होंने स्त्रियों की क्रियाशीलता ,सृजनात्मकता ,आचरण  आदि पर अपने मत व्यक्त किए।उन पर भारतीय और मिस्र की पुराख्यानों का प्रभाव दिखाई दे रहा था । हमारा मत पूछने पर हमने प्रतिगामी मतों को छोड़कर प्रगतिशील मत व्यक्त किए। स्त्री की पारंपरिक छवि हमने नकारी। उन्हें अच्छा लगा। हमारे सामने उन्होंने एक विषय रखा‘ समकालीन स्त्रियों की रचनात्मकता ’।एक महीना समय  दिया गया।हमने लेख भेजा । उन्होंने इसी विषय पर नकारात्मक दृष्टि से लेख पोलिश भाषा में लिखा और हमारे हिन्दी लेख का पोलिश में अनुवाद कर वहाँ की  अकादमिक पत्रिका में प्रकाशित कराया। बहुत ही सराहा गया। यदि माध्यम अनुवाद न होता तो विचारों एवं सामाजिक, सांस्कृतिक मूल्यों का वहाँ तक पहुंचना असंभव हो जाता ।
फ़्रांस की अना नामक अध्ययनकर्त्री भारत में शिवाजी विश्वविद्यालय में 1999 ई. में आयीं थी।वे फ़्रांस सरकार की सहायता से ‘नीतिमूल्य संवर्धन तथा चरित्र गठन ’ विषय पर परियोजना कार्य कर रही थीं। उन्होंने अध्ययन के दरमियान जितनी जानकारी लीं ,भले ही वह फ्रेंच भाषा की हों या अंग्रेजी ,उन्हें बार-बार महाराष्ट्र के 17 वी शती के महाराजा शिवाजी और उनका चरित्र गठन करनेवाली उनकी राजमाता जिजाबाई के उल्लेख पढ़ने को मिले । फिर वे महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई आयीं ।उन्हें शिवाजी विश्वविद्यालय,कोल्हापुर के हिन्दी विभाग के प्रथम अध्यक्ष डॉ.वसंत मोरे से संपर्क करने कहा गया । वे हिन्दी प्राध्यापक तो थे ही पर इतिहासकार भी रहे हैं।हमारी बहुत अच्छी चर्चा हुई। हमने मराठी में मौजूद सभी प्रमाण अनूदित कर उन्हें दिये । यहाँ भी अनुवाद ही संपर्क, संवाद एवं जानकारी का सशक्त माध्यम बना। अॅना ने पुनः फ़्रांस जाकर अपनी परियोजना पूरी की । यह परियोजना वहाँ के बालकों का मूल्य संवर्धन करने हेतु सम्पन्न की गयी थी । ऐसे अनेक उदाहरण देना संभव होगा ।
फ्रेंच साहित्यकार विक्टर ह्यूगो का ‘ला  मिजराबल ’बहुत ख्यात उपन्यास है। उस उपन्यास का विश्व की विविध भाषाओं में अनुवाद हुआ है। उसका मराठी अनुवाद भी काफी लोकप्रिय रहा। मराठी के विद्वान भा.रा.भागवत ने ‘दु:खपर्वताएवढे ’शीर्षक से किया है। अब तो उसकी प्रतियाँ उपलब्ध ही नहीं होती।मॅक्सिम गोर्की के ‘मदर’उपन्यासका मराठी अनुवाद अनिल हवालदार ने ‘आई’शीर्षक से किया है।मराठी कवि ग.दि.माडगुळकर के ‘गीत रामायण ’का हिन्दी अनुवाद ‘दूसरा सप्तक ’ के कवि हरिनारायण व्यास ने उसी शीर्षक से किया है। विख्यात उक्रेइनी हिन्दी विशेषज्ञ और उर्दू ,अंग्रेजी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के अनुवादक स्तेपान इवानविच नालिवायको ने प्रेमचंद ,कृष्णचन्द्र ,भीष्म साहनी,नागार्जुन आदि भारतीय लेखकों और कवियों की  रचनाओं के उक्रेइनी भाषा में अनुवाद किए हैं। (2003)उन्होंने भारतीय मुहावरों तथा लोकोक्तियों का भी उक्रेइनी में अनुवाद किया है।
अनुवाद कार्य भाषा साहित्यान्तर्गत समन्वय स्थापित करने का कार्य है। दो अथवा उससे अधिक भाषा साहित्य के बीच के सुसंवाद का वह माध्यम है। एक भाषा साहित्य दूसरे भाषा साहित्य के साथ अनुकरण ,प्रतीक, बिम्ब की विकसित दृष्टि ,विधा,रूप ,व्यंग्य आदि अनेक प्रकारों से जुड़ जाता है। जब कभी भाषा साहित्य के इतिहास में साहित्यिक मूल्यों का पतन हो जाता है ,तभी किसी अनूदित साहित्य कृति का गहरा प्रभाव जन मन पर हो जाता है।पुनः सृजन की प्रक्रिया नए सिरे से प्रारंभ होती है। अनुवाद के लिए कौनसी पुस्तक का चयन करना है, यह बात तो साहित्यकार और पाठकों की रुचि पर निर्भर है। शेक्सपियर के अनेक नाटकों के मराठी में अनुवाद हुये हैं। परंतु आभिजात्य आधुनिक अंग्रेजी साहित्य के अनुवाद बहुत ही कम हुये हैं । अंग्रेजी बेस्ट सेलर उपन्यास साहित्य –कोमा, फीवर , मार्कर ,ब्रेन – लेखक रॉबिन कुक के मराठी अनुवाद रवीन्द्र गुर्जर ,विजय देवधर ने किए हैं। उसी प्रकार शॅरीयट्स ऑफ दी गॅाडका मराठी अनुवाद ‘देव ! छे,परग्रहावरील अंतराळवीर ’ शीर्षक से काफी ख्यात हुआ। ‘ बर्म्युड़ा ट्रंगल ’का रवीन्द्र गुर्जर ने किया मराठी अनुवाद पाठकों ने काफी सराहा ।जॉन ग्रिशम, शेरलॉकहोम्सआदि के मराठी ,हिन्दी अनुवाद भी बड़ी रुचि से पढे गए । विख्यात मराठी समीक्षक गं.बा.सरदार का मत है कि उच्च साहित्य का आस्वाद करने योग्य कलात्मक दृष्टि का प्रायः अभाव दिखाई देता है। बहुत ही कम लोगों में यह दृष्टि होती है। पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों एवं मराठी साहित्य के इतिहास के आधार पर कहा जा सकता है कि मराठी पर पाश्चात्य वैचारिक साहित्य का प्रभाव तो हुआ परंतु तुलना में ललित साहित्य का नहीं हुआ। संभवत: इसीकारण ललित साहित्यिक रचनाएँ अनूदित न हो सकीं ।
अनुवाद एक तरह से तुलनात्मक भाषा अध्ययन का उपयोजित क्षेत्र है।जिस प्रकार लैटिन , इतालवी और फ्रेंच भाषाओं से अंग्रेजी अनुवाद कराते समय भले वह गद्य हों या पद्य आधुनिकअंग्रेजी में अनेक नवीन शब्द लाने पड़े। इसीप्रकार भारतीय भाषाओं में भी अनुवाद कराते समय उस प्रांत कि भौगोलिक ,सांस्कृतिक,सामाजिक ,सभ्यता आदि महत्त्वपूर्ण बातों का ध्यान रखना पडा। शब्द,वाक्प्रचार,संकल्पनाएँ नवीन बनानी पडी। मूल के ‘भाव ’ को सुरक्षित रखा गया परंतु अनूदित रचना में संकल्पना को स्पष्ट करना पडा । विलियम वॉन हयूमबोल्ड्ट अनुवाद के महत्त्व को इसप्रकार दर्ज कराते हैं। ‘ किसी भी साहित्य सृजन के लिए अत्यंत अनिवार्य श्रम होते हैं। इसके दो कारण हैं। एक है विदेशी भाषा से अनभिज्ञ लोगों को अनुवाद के माध्यम से साहित्य के नवीन रूपों का परिचय होता है और दो अपनी भाषा के अभिव्यक्ति सामर्थ्य की भी वृद्धि होती है। ’हम इस बात से परिचित हैं कि ब्रिटन में 18 वीं सहती तक अनुवाद का एक महत्त्वपूर्ण स्थान तथा सम्मान था। बाद में वह बहुत ही उपेक्षित होता गया । अनुवाद गौणता प्राप्त करता गया। इसके लिए फ्रेंच तुलनात्मक साहित्य के अध्येताओं को जिम्मेदार भी माना गया । इन्होंने किसी देश कि मौखिक सांस्कृतिक विरासत ,लोकसाहित्य , परिकथाएं आदि का स्थान नकारा । अनामिक साहित्य को इतिहास में जगह नहीं होती ,ऐसा उनका मत था। इसीकारण अनुवाद दुर्लक्षित होता गया । उनके मतानुसार तुलनात्मक साहित्य के अध्येता को दो भाषाओं का ज्ञान होना ही चाहिए। परंतु अनुवाद की प्रक्रिया से जुड़कर इतने अनुवाद सम्पन्न करने के बाद हमारा स्पष्ट मत बना है कि एक व्यक्ति को भले ही दो भाषाओं का ज्ञान होना चाहिए परंतु भाषा साहित्य के साम्य –भेद के विवेचन से कुछ अधिक उपलब्ध नहीं होगा। अलग – अलग भाषाओं के साहित्य में मानव मन के विविध भाव ,स्पंदन अभिव्यंजित होते हैं। उनके आधार पर वे वैश्विक तथा वैविध्यपूर्ण कैसे हैं ,इसे यदि सभी पाठकों तक पहुंचाना है तो ‘अनुवाद ’के अतिरिक्त कोई बेहतर, अनिवार्य मार्ग ही नहीं है। अनुवाद के कारण अनेकविध अंतरराष्ट्रीय विचार ,अभिव्यक्ति ,सौंदर्य मूल्य ,साहित्यिक मूल्यों का परिचय होता है। अनुवाद और अनुवाद विषयक मतों का इसीकारण महत्त्व होता है।अनेक भारतीय भाषाओं कि साहित्यिक रचनाओं का हिन्दी से अंग्रेजी तथा सीधे अंग्रेजी के माध्यम से विश्व साहित्य के साथ संपर्क हुआ । प्रत्येक भारतीय भाषा में अंग्रेजी से कमोबेश मात्रा में अनुवाद हुये हैं। संस्कृत से हिन्दी और हिन्दी से अंग्रेजी में भी कुछ साहित्यकृतियां आ गयी हैं एवं उन्होंने विश्व साहित्य में अपना स्थान बना लिया है। हिन्दी अनुवाद का सशक्त माध्यम बनी है। आज विश्व स्तर पर हिन्दी का एक असाधारण स्थान है। इंटरनेट कि वह द्वितीय भाषा साबित हो चुकी है। अनेक प्रवासी भारतीयों ने हिन्दी को विश्व साहित्य में स्थान देने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है।
प्रवासी भारतीय साहित्यकारों में प्रोफेसर हरिशंकर आदेश का नाम अग्रणी रखना पड़ेगा। उन्होंने हिन्दी से अंग्रेजी ,संस्कृत से अंग्रेजी ,संस्कृत से हिन्दी एवं अंग्रेजी से हिन्दी में आभिजात्य रचनाओं के अनुवाद विश्व साहित्य की गरिमा और बढ़ाई है। उनकी कर्मभूमि त्रिनिदाद एंड टुबेगो (वेस्ट इंडीज) रही है । मन में भारतीयता का प्रखर भाव लिए वे सृजनात्मक लेखन के साथ अनुवाद भी करते रहे हैं। उन्होंने विलियम शेक्सपियर और वर्ड्सवर्थ की अनेक कविताओं का हिन्दी अनुवाद किया है। इनका उपयोग उन्होंने उनके निष्कलंक नाटक में भी किया है। संस्कृत से हिन्दी में उन्होंने वेदों का अनुवाद किया जो ‘ वैदिक नीहारिका ’ नाम से संकलित किया गया। इसके साथ ही ‘श्रीमद्भगवत्गीता’का सहजगेय छंद में हिन्दी अनुवाद किया जो ‘ आत्म –विवेक ’नाम से प्रकाशित हुआ। ‘श्रीमद्भगवत्गीता’के श्लोकों का सहज गेय गीतों में भी अनुवाद किया जो ‘संगीत गीता ’ नाम से संकलित किया गया है। इसीप्रकार ‘श्रीमद्भगवत्गीता’के अध्यायों से संबन्धित कथाओं का हिन्दी में सहज गेय छंदों में ‘जन गीता ’नाम से अनुवाद प्रकाशित किया। उन्होंने हिन्दी कवयित्री महादेवी वर्मा और कवि हरिवंशराय बच्चन की अनेक रचनाओं का अंग्रेजी अनुवाद लंदन विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में पढ़ाने के लिए किया । साहित्यकार आदेश ने हिन्दी में तीस नाटक लिखे हैं जिनका अंग्रेजी अनुवाद भी भारत के बाहर के पाठकों के लिए उन्हें करना पड़ा । अशोक वाटिका- Ashok Vatika The Royal Garden of Lanka , देशभक्ति -Patriotism, छत्रपति शिवाजी का न्याय - Justice of Chhatrapati Shivaajee ,  शांतिदूत Ambassader of Peace आदि अनेक । इस प्रवासी भारतीय साहित्यकार का उल्लेखनीय कार्य यह है कि उन्होंने त्रिनिदाद एंड टुबेगो (वेस्ट इंडीज ) के राष्ट्रीय गीत का हिन्दी में अनुवाद  किया है। उन्हें इस अनुवाद के कारण ‘राष्ट्र कवि ’ की उपाधि से सम्मानित किया गया है। विगत पैंतीस वर्षों से यह वहाँ की भारतीय आकाशवाणी केंद्र द्वारा प्रसारित किया जाता है।
अर्थात् कहना ठीक रहेगा कि अनुवाद के कारण हमारे सामने केवल दूसरे जगत् की खिड़कियाँ ही नहीं खुलती तो उससे विदेशी संस्कृति का बहुत ही नजदीक से परिचय हो जाता है।उसका प्रभाव पड़ता है। अनुवाद से मानव मन की समग्र संवेदनाएं परस्पर संप्रेषित हो जाती हैं। अनुवाद के माध्यम से दूसरी भाषाओं का साहित्य हम तक पहुंचता है । साथ में वहाँ की संस्कृति, इतिहास,  पुराख्यान, आभिजात्य साहित्य , साहित्यिक विचार, वैज्ञानिक और तकनीकी जानकारी आदि से परिचित हो जाते हैं। अनुवाद में भाषा तथा भाव दोनों का सामंजस्य संपूर्णता के साथ होता है तो अनूदित रचना सहजग्राह्य होती है। उसे पढ़ने का आनंद अधिक आता है। विश्व भाषा तथा साहित्य के परिप्रेक्ष्य में अनुवाद का महत्त्व अक्षुण्ण है। स्पष्ट है कि विश्व साहित्य के साथ संवाद स्थापित करने अनुवाद एक सशक्त औज़ार या माध्यम है।

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