Saturday 6 July 2013

भारतीय पत्रकारिता, मुद्दे और अपेक्षाएँ


सुरेश कुमार पंडा

विषय शुष्कता का सीमोलँघन कर इतिहास और वर्तमान की बहुचर्चित, बहु प्रचारित घटनाओं को सरस ढंग से प्रस्तुतकर पाठक को आकर्षण की अदृश्य लहरियों में किल्लोल कराने में समर्थ श्री बबनप्रसाद जी मिश्र का शोध एवँ बोध परक कृति " भारतीय पत्रकारिता, मुद्दे और अपेक्षाएँ अपने आप में पत्रकारिता के समस्त आयामों का एक सम्पूर्ण दस्तावेज है । यह आपकी पाँचवीं प्रकाशित कृति है । प्रकाशक हैं श्री प्रकाशन, दुर्ग, छत्तीसगढ़ ।

मिश्र जी समाचार पत्र सम्पादक के रुप में पत्रकारिता से एक लम्बे समय तक जुड़े रहे हैं । वर्तमान में आप सुप्रसिद्ध साहित्यकार पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी सृजनपीठ, भिलाई तथा छत्तीसगढ़ हिन्दी साहित्य परिषद जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं के अध्यक्ष हैं । अपने सुदीर्ध कार्यकाल में आपको उत्कृष्ट कार्य तथा साहित्य सेवा हेतु अनेकानेक बार सम्मानित किया गया है ।

मिश्र जी ने अपने सुदीर्घ पत्रकार जीवन में अनुभूत राजनीतिक और सामाजिक सर्जनाओं एवँ वर्जनाओं को इस पुस्तक के बहाने नैष्ठिक इमानदारी के साथ विश्लेषित किया है । ऐसे अनुभव सम्पन्न, जागरुक और एकत्र ज्ञान के धरोहर को अगली पीढ़ी को सौंप रखने में कटिबद्ध विवेकवान से इसकी प्रत्याशा रहती ही है । इसीलिये मिश्र जी ने अपने विश्लेषण को गवेषणात्मक ढ़ाँचे के भीतर आगुँफित कर अकादमिक चर्चा का रुप देने का प्रयास किया है । आप अपने इस प्रयास में प्रत्याशित रुप से सफल भी रहे हैं ।

मीडिया और बाजार, लेख में प्रतिबद्धता का सवाल उठाते हुए मिश्र जी संयम के बाँध को टूटने से बचाते नजर आते हैं । आपने तथाकथित उच्चस्तरीय घटनाओं और पत्रजगत द्वारा स्पेस और टाइम को आलोच्य विषय बनाकर गुणवत्ता एवँ सँवेदना का प्रश्न उठाया है । पत्रकारों के समाज के अँग के रुप में अपने दायित्व की ओर से आँख फेर लेने की घटनाओं से मिश्र जी व्यथित हुए हैं और उन्होने इस व्यथा को सटीक ढंग से अभिव्यक्त भी किया है । वे कहते हैँ, " एक आदमी जन समस्याओं को लेकर अपने शरीर को आग लगा रहा है और मीडिया देश को केवल उसका तमाशा दिखा रहा है । यह कौन सा सामाजिक दायित्व है ।"

आप आगे एक जगह लिखते हैं, " हम पुलिस का रोजनामचा, बुराई के रोज के सँदेशवाहक नहीं हैं, समाजोत्थान की बड़ी भूमिका के आधार स्तँभ हैं ।" मेरे विचार से यह मीडिया का नीति वाक्य होना चाहिये ।

अधिकार और दायित्व लेख मिश्र जी के पाँडित्य का लेखा जोखा है । वे किसस्तर के विषय विशेषज्ञ हैं । उनकी दृष्टी कितनी सूक्ष्म है । सम्प्रेषणीयता के आयामों पर उनकी पकड़ कितनी है तथा लेखन में कितनी धार है इसके सूत्र तो पूरे ग्रँथ में विखरे पड़े हैं, परन्तु इस लेख में ज्यादा मुखर हैं । मिश्र जी ने मीडिया की सीमारेखा को बड़ी ही सूक्ष्मता से परखा है और कुशलतापूर्वक अँकित किया है, साथ ही मीडिया के शक्तिकेन्द्रों को भी सूचिबद्ध कर दिया है जहाँ से पत्रकार अपने अधिकार आहरित कर आवश्यक शस्त्रों से लैस हो सकें ।

मिश्र जी भावी पीढ़ी को जहाँ एक ओर अधिकार के प्रमाद से सतर्क रहने के लिये आव्हान करते हैं, वहीं कर्तव्यों के प्रति सजग व्यवहार के लिये
अनेकों उदाहरण देकर अभिप्रेरण की दिशा में आगे बढ़ते दिखते हैं । यह एक ऐसा विषय है जो शाश्वत है, सार्वजनीन है तथा सार्वकालिक है । इसमें आश्वस्ति की संभावना भले ही निशेष हो परन्तु सजग अभिप्रेरण निरन्तरता की सदैव माँग करता है ।

मिश्र जी की दृष्टिबाजार के प्रति सकारात्मक है । वे सुरसा की तरह समस्त संभावनाओं को आत्मसात करने के लिये आकुल निरंतर बिस्तारित होते जाते बाजार से भयभीत नहीं होते वरन् बाजार की विशिष्टताओं, तकनीकी उन्नति और लाभ आधारित क्रियाशीलता को कुछ अँशों में मीडिया के लिये आवश्यक मानते हैं ताकि समाचार का श्रोत सूख न जाय । मीडिया का अपना अर्थतंत्र ही न बिखर जाय । निश्चय ही मिश्र जी का विविध आयामी सुदीर्ध अनुभव उन्हें ऐसी संतुलित विचारधारा में सहयोगी रहा प्रतीत होता है । फिर भी बाजारवाद के बढ़ते हुए दुष्प्रभावों तथा पत्रकार | सम्पादक की आर्थिक लाचारी के कारण समझौता परक व्यवहार को व्यापक ढंग से न सही अपने व्यथित होने के कारणों में गिनाकर अपना असंतोष, अस्विकृति तथा नाराजगी व्यक्त करने से नहीं चूकते ।

पुस्तक का एक चौथाई भाग मिश्र जी ने विषय विशेषज्ञों, राजनीतिज्ञों, ब्यूरोक्रेटस्, और वरिष्ठ मीडियाजनों के लेख से संजोया है । ऐसे संयोजन
के पीछे मिश्र जी की क्या मँशा थी मैं नही जानता । हाँ एक बात जरुर स्पष्ट है कि जिन बिन्दुओं पर मिश्र जी ने कम लिखा है या अपेक्षित गहराई तक नहीं गये हैं उन पर इन विद्वानों ने भरपूर प्रकाश डाला है । हो सकता है मिश्र जी ने विषय को अधक स्पष्ट, अधिक ग्राह्य के रुप में प्रस्तुत करने के लिये ऐसा किया हो । ये लेख किसी भी तरह से अनावश्यक नहीं कहे जा सकते वरन् पुस्तक की उपादेयता में वृद्धि ही करते हैं ।

मिश्र जी के इस प्रयास को मैं संदर्भ ग्रँथ की उपादेयता से लवरेज पाता हूँ । उन्होने पत्रकारिता के इतिहास को शब्द दिया ही दिया है साथ ही १९७५ के आपातकाल के दिन के घटनाक्रम को यथातथ्य देकर उस परिदृश्य को सजीव कर दिया है जिससे अगली पीढ़ी घटनाओं के घटने की दशा और दिशा का अनुमान ज्ञान कर सके ।

इधर कुछ समय से मीडिया, खासकर कार्पोरेट मीडिया, आर्थिक सक्षमता के चक्कर में एक नये बने कार्टेल का सदस्य बनता दिख रहा है जिसके अन्य सदस्य राजनेता, व्यूरोक्रेटस्, तथा उन्ही के बनाये तदर्थ सामाजिक संगठन हैं । यह कार्टेल राजनीति साधने, आर्थिक कालाबाजियों को छुपाने, तथा कतिपय गाभीर कदाचारों के अभियोग से बच निकलने के लिये अराजनीतिक दाँवपेंच अख्तियार कर जनमानस को दिग्भ्रमित करने में सक्षम हो रहा है । यह प्रजातंत्र के लिये, सामान्य जन के लिये तो हानिकारक है । इसके परिणाम भी दूरगामी होंगे । मिश्र जी से इसपर टिप्पणी करने की अपेक्षा करना हो सकता है जल्दबाजी हो परन्तु श्री बबन प्रसाद जी मिश्र जैसे प्रकाश स्तँभ से ही निरापद मार्ग की अपेक्षा सर्थक हो सकती है ।
कृति- भारतीय पत्रकारिता, मुद्दे और अपेक्षाएँ

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