Saturday, 6 July 2013

सच और साहस की पत्रकारिता


फ़ज़ल इमाम मल्लिक

हो सकता है कि यह महज़ इत्तफ़ाक़ हो लेकिन दिल और दिमाग़ दोनों ही इसे इत्तेफ़ाक़ मानने को तैयार नहीं हो रहे हैं। हो सकता है कि इसकी एक वजह लंबे समय तक प्रभाष जोशी के साथ बिताए क्षण भी हों। लेकिन यह सच है कि जिन दिनों प्रभाष जोशी की हाल ही में प्रकाशित पुस्तकें ‘21वीं सदी पहला दशक’ और ‘आगे अंधी गली है’ को पढ़ने के लिए समय निकाला, उन दिनों ही देश में दो बड़ी घटनाएं हुईं। यों तो इन घटनाओं और किताब का तालमेल नहीं बैठता है लेकिन पता नहीं क्यों दोनों घटनाओं का ताल्लुक प्रभाष जोशी की पत्रकारिता से कहीं न कहीं जा जुड़ता है। सामजिक सरोकारों और क्रिकेट से उनके जुड़ाव से हर कोई वाक़िफ़ है। इसलिए पहले भारत का विश्व कप क्रिकेट जीतना और फिर भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ अण्णा हज़ारे के हल्ला बोलने को उनकी पुस्तकों और उनसे अलग करके देखने की ज़रा भी कोशिश नहीं की है क्योंकि प्रभाष जोशी की सोच में कहीं न कहीं ये शामिल हैं और भारत को विश्व चैंपियन बनते देखना और भ्रष्टाचार मुक्त और बेहतर समाज का सपना तो उन्होंने भी अपनी आंखों में न जाने कब से बसा रखा था। इन सपनों को उनकी इन दोनों किताबों में भी देखा जा सकता है। इसलिए इन किताबों को पढ़ते हुए ये दोनों घटनाएं ज़ेहन में बार-बार कौंधती है।

घटनाएं तो और भी हैं जिन्हें लेकर प्रभाष जोशी बेतरह याद आते हैं लेकिन भारत का विश्व कप जीतना और अण्णा हजारे के अनशन को प्रभाष जोशी के लिखे शब्दों में तलाशने की कोशिश इन दोनों पुस्तक में लगातार करता रहा। पहली पुस्तक ‘21वीं सदी पहला दशक’ में ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित उनके नियमित कालम ‘कागद कारे’ के तहत छपे आलेखों को संकलित किया गया है तो दूसरी पुस्तक ‘आगे अंधी गली है’ में ‘प्रथम प्रवक्ता’ और ‘तहलका’ में प्रकाशित उनके कालम ‘लाग लपेट’ और ‘शून्य काल’ में लिखे आलेख शामिल हैं। हालांकि इस पुस्तक में ‘जनसत्ता’ में प्रकाशित कुछ चुनिंदा आलेखों को भी शामिल किया गया है। इनमें उनके अंतिम दिनों में लिखे गए आलेख भी हैं। प्रभाष जोशी ने हिंदी में कालम लेखन को भी एक नई धार दी थी और ‘जनसत्ता’ में कागद कारे से पाठकों के एक बड़े वर्ग से सरोकार बनाया। बाद के दिनों में उन्होंने ‘प्रथम प्रवक्ता’ और ‘तहलका’ में कालम लिखना शुरू किया और सामाजिक राजनीतिक मुद्दों पर अपनी बेबाक टिपण्णी से पाठकों के एक विशाल वर्ग से अपना रिश्ता जोड़ा।

प्रभाष जोशी के लेखने के केंद्र में वे राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक मुद्दे थे जिनका सरोकार आम आदमी से था। इन पुस्तकों में इसे देखा जा सकता है। इक्कीसवीं सदी को लेकर जिस तरह के लंबे चौड़े दावे किए गए थे और देश की ग़रीब और मज़लूम अवाम की आंखों में जिस तरह के लुभावने और हसीन सपने बोए गए थे, हक़ीक़त इससे एकदम उलट है। सच तो यह है कि इस देश की अस्सी फीसद आबादी की आमदनी आज भी बीस रुपए रोजाना है। सरकारों ने सारी क़वायद देश के कुछ लोगों को फायदा पहुंचाने के लिए किया। देश में उदारीकरण के नाम पर जो तमाशा हुआ और उसके जो नतीजे सामने आए, प्रभाष जोशी ने बड़ी मुखरता के साथ और बेलाग-लपेट इन पर लिखा और सरकारों का कठघरे में खड़ा किया। इस उदारीकरण ने आम आदमी की मुशिकलों को तो बढ़ाया ही, प्राकृतिक संसाधनों और देश की संपदा को भी कम नुकसान नहीं पहुंचाया। आर्थिक और सामाजिक स्तर पर जिस तरह की बाज़ीगरी सरकार दिखाई उससे इन मुश्किलों को और बढ़ाया ही, प्रबाष जोशी के लेखों में इसे देखा जा सकता है। उन्होंने सरकारों की मंशा को लोगों के सामने रखा और इस उदारीकरण के खतरों से भी आगाह किया। प्रभाष जोशी ने राजनीति के उस ग़लीज़ और बदसूरत चेहरे को सामने रखा जो आमतौर पर लोगों के सामने नहीं आता है और ऐसा करते हुए प्रभाष जोशी ने किसी तरह का समझौता नहीं किया। न तो अपने मित्रों को बख़्शा और न ही राजनीति के शिखर पर बैठे प्रधानमंत्रियों को। हाल के दिनों में कागद कारे या दूसरे कालमों में उनकी यह चिंता और भी मुखर होकर सामने आई है।

दरअसल प्रभाष जोशी की पत्रकारिता महज चिंतन और विशलेषण की पत्रकारिता नहीं थी। वे सामाजिक बदलाव के लिए प्रयासरत थे और उनके लेखन के केंद्र में देश का वह अस्सी फसद आबादी थी जिसे ठीक से रोटी मयस्सर नहीं होती। बीस रुपया रोज़ कमाने वाला आदमी प्रभाष जोशी के लेखन के केंद्र में हमेशा रहा। राजनीतिक स्तर पर जो सड़ांध हमारे आसपास फैली थी उसके ख़िलाफ़ वे हमेशा मुखर रहे और अपने लेखन से समय-समय पर ज़रूरी हस्तक्षेप भी किया और नेताओं व सियासतदानों से मुठभेड़ भी किया। हाल के कुछ सालों में तो वे जिस बेबाकी और मुखरता के साथ सत्ता की आंखों में आंखों डाल कर बातें करते थे वह आजकी पत्रकारिता में अब नहीं दिखाई देती है। दरअसल प्रभाष जोशी ने एक बेहतर समाज की चिंता भी की और शोषण व भ्रष्टाचार मुक्त समाज का सपना भी अपनी पलकों पर सजाया था। ज़ाहिर है कि इन सपनों की वजह से उन्हें कई बार कठघरे में भी खड़ा होना पड़ा। सियासतदानों ने कभी ढके-छुपे तौर पर उन पर हमले किए तो कभी पत्रकारिता के क्षेत्र में नए-नए वारिद हुए छुटभयै पत्रकारों और ब्लागियों ने प्रभाष जोशी की निष्ठा पर निशाना साधा और उन्हें दलित, महिला व मुसलिम विरोधी साबित करने की कोशिशें की जाती रहीं। ब्राह्मणवाद को लेकर भी उन पर हमले हुए ज़ाहिर है कि ऐसा करने वाले प्रभाष जोशी का पासंग भी नहीं थे लेकिन ख़ुद को ख़बरों में बनाए रखने के लिए उन्होंने प्रभाष जोशी पर हमले किए। कई तरह के हमलों को झेलते हुए भी प्रभाष जोशी विचलित नहीं हुए और उन तमाम लोगों को अपने तरीक़े से जवाब दिया।

‘21वीं सदी पहला दशक’ और ‘आगे अंधी गली है’ में संकलित आलेख उस इक्कीसवीं सदी के आमद के बाद लिखे गए हैं, जिसे लेकर सरकारों ने लंबे चौड़े दावे किए थे और भारत को ग्लोबलाइजेशन और उदारीकरण के रथ पर बिठा कर विकास के पथ पर ख़ूब तेज़-तेज़ दौड़ाया था। लेकिन सच्चाई बस इतनी है कि इन तमाम दावों के बावजूद आदमी महंगाई, बेपोज़गारी, सांप्रदायिकता और सियासत की अंधी गली में खड़ा आज भी विकास से कोसों दूर है। विकास के दरवाज़े नेताओं, व्यापारिक घरानों और सेठों के लिए ज़रूर खुले। दलाल स्ट्रीट में सूचकांक के गिरने और उतरने और निवेश के ज़रिए सरकारी संपत्तियों को बेचना विकास का पैमाना माना गया। ज़ाहिर है कि प्रभाष जोशी ने विकास के इन पैमानों पर बार-बार सवाल खड़ा किया। ‘इंडिया’ और ‘भारत’ के बीच की विभाजन रेखा का ज़िक्र उनके लेखने के केंद्र में रहा है। दोनों पु्स्तकों में उनकी इस चिंता को देखा जा सकता है। क्रिकेट के बड़े रसिया होने के बावजूद बाज़ार में बदलते क्रिकेट को देख कर वे इस बात की जम कर आलोचना करते हैं। ‘क्रिकेट का विश्व कप कि बाज़ार का’ और ‘इक्कीसवीं सदी में क्या बीस-20 का खेल’ या ‘मुनाफ़े का बीसम-बीस’ में उनकी चिंता को देखा जा सकता है। सचिन तेंदुलकर के मुरीद प्रभाष जोशी ने ‘शतकों के शतक तक खेलो’ या फिर ‘सोलह वर्ष के एक और लड़के की खोज’ और ‘युवराज और धोनी ने जिता दिया’ लेख लिखे तो दूसरी तरफ़ क्रिकेट में की जारही घपलेबाज़ी पर भी ‘क्रिकेट की कमाई और’ लिखा। आज जब किसानों के नाम पर राजनीति की जा रही है तो बहुत पहले प्रभाष जोशी ने किसानों से ली जारही ज़मीनों पर चिंता जताई थी। नंदीग्राम को केंद्र में रख कर उन्होंने अपने कालमों में लगातार लिखा। ‘नंदीग्राम के बाद सजा लेना सेज’ ‘नंदीग्राम की गैयाएं’ ‘बुद्धदेव के राज में गुंडों का नंदीग्राम’ ‘नंदीग्राम सीखने के लिए नहीं, सिखाने के लिए है’ ‘नंदीग्राम में मानवाधिकार’ और ‘नंदीग्राम का सबक़ सीखें तब न!’ में किसानों की पीड़ा शासन-प्रशासन के वही क्रूर चेहरे दिखाई देते हैं जो जैतापुर और भट्टा-पारसौल में दिखाई देता है।

निजीकरण, सांप्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता जैसे सवालों पर भी प्रभाष जोशी ने बिना लागलपेट के लिखा। पत्रकारिता और मित्रता से हमेशा अलग रखा। जीवन में उन्होंने मित्रता को तरजीह दी तो पत्रकारिता में सच्चाई को। इसलिए उन्होंने उन सियासी मित्रों पर क़लम चलाने में भी कंजूसी नहीं की जो उनके जीवन में उनके अंतरंग मित्र हुआ करते थे। संवेदना के स्तर पर समय को जहां परिभाषित किया तो दूसरी तरफ़ गांधीवादी विचारधारा और सोच को वर्तमान समय से जोड़ कर देखने की कोशिश की। उन्होंने समय, समाज और सत्ता की आंखों में आंखें डाल कर बातें की। नौ साल के अरसे में लिखे गए उनके क़ीरब दो सौ आलेखों में अमेरिका की दादागिरी पर भी उन्होंने जम कर कलम चलाई तो संघ परिवार और अटल-आडवाणी की चालाकियों को भी उजागर किया। हाल के दिनों में धर्मनिरपेक्षता और सांप्रदायिकता के ख़िलाफ़ उन्होंने जिस तरह से हल्ला बोला था इससे वे सांप्रदायिक ताक़तों के निशाने पर भी रहे। पत्रकारिता में पिछले दरवाज़े से काली कमाई का जो चलन बढ़ा है और चुनावों के वक्Þत पैसे लेकर ख़बरें छापने का जो नया धंधा शुरू हुआ है प्रभाष जोशी ने इन पर भी लिखा और अख़बार मालिकों की जम कर ख़बर ली। यह उनके लेखन का विस्तार ही है कि उन्होंने हर उस विषय पर लिखा जो आम पाठकों के सरोकारों से जुड़े है। खेल हो या सिनेमा या फिर संगीत, जिस विषय पर भी लिखा, दूसरों से कुछ अलग लिखा और शायद यही वजह है कि उनके लिखे को पढ़ने वालों की एक बड़ी जमात थी जिसे उनके कालमों का इंतज़ार रहता था।

‘आगे अंधी गली है’ की भूमिका में प्रभाष जोशी के अंतिम छह दिनों का ज़िक्र है। अंतमि दिनों में प्रभाष जोश्ी की सामाजिक सक्रियता काफ़ी बढ़ गई थी और लिखने के साथ-साथ सभा-समारोहों में भी वे लगातार शिरकत कर रहे। सामाजिक सरोकारों और विसंगतियों के ख़िलाफ़ व्याख्यान देने के लिए वे लगातार सफ़र पर रहे। इसका क्रमवार ज़िक्र पुस्तक में किया गया है। इससे उनकी सक्रियता का अंदाजा भी लगाया जा सकता है। इस भागमभाग में भी क्रिकेट से उनका लगाव नहीं छूटा था। सभा-समारोहों के बीच भी अगर कोई मैच हो रहा होता तो वे मौक़ा मिलते ही स्कोर ज़रूर पूछते। मौत से पहले तक क्रिकेट को लेकर उनका मोह नहीं छूटा था। भारत-आस्ट्रेलिया के बीच खेला जा रहा मैच वे देख रहे थे और सचिन तेंदुलकर के चमकदार प्रदर्शन के बावजूद भारत मैच हार गया था। बहुतों का यह मानना है कि इसी तनाव ने उनकी जान ली लेकिन वे लोग यह बात भूल जाते हैं कि जो क्रिकेट उन्हें सकून और जीवन देता था वह भला उनकी मौत की वजह कैसे बन सकता था।

‘21वीं सदी पहला दशक’ और ‘आगे अंधी गली है’ में प्रभाष जोशी की पत्रकारिता के कई शेड्स दिखाई देते हैं। खेल, समाज, जीवन, सियासत, निजीकरण जैसे सवालों से वे जूझते हैं और एक बेहतर समाज की चिंता उनमें दिखाई देती है। दोनों पुस्तकों का संपादन सुरेश शर्मा ने किया है।

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