गिरीश पंकज
युवा पत्रकार संजय द्विवेदी की फिर दो नई पुस्तकें मेरे सामने हैं। 'सुर्खियां' और 'यादें : सुरेन्द्र प्रताप सिंह'। इन पुस्तकों को देखते हुए मुझे एक बार फिर कहना पड़ रहा है कि संजय की रचनात्मकता दिनोंदिन परवान चढ़ रही है। पत्रकारिता अधिकांश युवकों का तेज छीन लेती है। पत्रकारिता की भारी व्यस्तता पत्रकार के भीतर बैठे पत्रकार को आने का मौका ही नहीं देती, लेकिन जो ऐसा कर पाते हैं, दरअसल वही सही मायने में पत्रकार हैं। पत्रकारिता केवल घटनाओं का सिलसिलेवार ब्यौरा देना भर नहीं है, वरन विशेषणात्मक दृष्टि की मांग भी करती है। इस दृष्टि से हिंदी में गिने-चुने पत्रकार ही ऐसा कर पाते हैं। संजय भी साहित्य की ओर पीठ खड़ी करके नहीं बैठे हैं वे भी पत्रकारिता में साहित्यिक आस्वादन के पक्षधर हैं। यह और बात है कि संजय ठेठ साहित्यिक विमर्श नहीं करते लेकिन उनकी दृष्टि से साहित्य ओझल भी नहीं है। वे पत्रकारिता करते हुए साहित्यिक मूल्यों का भी ख्याल रखते हैं। यही कारण है कि संजय की भाषा में साहित्यिक खिलंदड़पन दीखता है। उनके अखबारी लेखन में भाषा की अद्भुत लयकारी शैली पाठकों को बांध लेती है।
अनेक महत्वपूर्ण अखबारों के समाचार सपादक और संपादक के पद पर कार्य करने के बाद संजय द्विवेदी इन दिनों दैनिक 'हरिभूमि' रायपुर के स्थानीय संपादक हैं। समकालीन परिदृश्य पर नियमित लिखते हुए संजय ने यह साबित कर दिया है कि व्यक्ति चाहे तो व्यस्तताओं के बीच में रहते हुए भी सर्जना के लिए कुछ पल निकाल ही लेता है।
'सुर्खियां' संजय द्विवेदी की चौथी पुस्तक है। यह पुस्तक संजय के तिरासी लेखों एवं अग्रलेखों का संग्रह है। प्रकाशक ने संजय के बारे में बिल्कुल सही लिखा है कि ''संजय द्विवेदी ने कम समय में ही पत्रकारिता के क्षेत्र में एक गंभीर राजनीतिक-सामाजिक विश्लेषक के रूप में अपनी पहचान बना ली है। मीडिया विमर्श उनका प्रिय विषय है।'' और यह स्वाभाविक है। इस वक्त मीडिया हमारे सामाजिक जीवन का केन्द्र बिंदु बन गया है। समाज में घटित होने वाली घटनाओं पर मीडिया की सजग नजर रहती है। कभी साहित्य समाज का दर्पण हुआ करता था। अब मीडिया समाज का दर्पण है। यह और बात है कि इस दर्पण में समाज का चेहरा कुछ ज्यादा ही कुरूप नजर आने लगा है, जबकि समाज वैसा है नहीं। फिर भी मीडिया अपनी भूमिका में तैनात है। संजय भी अपनी सकारात्मक दृष्टि से सामाजिक-राजनीतिक घटनाओं को देखते हैं और अपनी सटीक टिप्पणी करके पाठक को अपने तर्कों से सहमत कर देते हैं।
विचार विहीन पत्रकारिता बैल की तरह होती है। पत्रकारिता में गाय तत्व की प्रधानता होनी चाहिए। संजय की पत्रकारिता में गाय तत्व प्रधान है। वे विचारों के उन्नायक नजर आते हैं। 'सुर्खियां' में अपनी भूमिका में भाषाविद् एवं साहित्यकार प्रो. चित्तरंजन कर एक जगह कहते हैं कि ''संजय द्विवेदी की यह किताब वैचारिक आंदोलन का शंखनाद करने का संकल्प है, ताकि छोटी-मोटी समस्याओं के हल के लिए जनांदोलन जैसा बड़ा कदम उठाने के पहले आपसी विमर्श और व्यक्तिगत प्रयासों का सिलसिला जारी रहे, और इस तरह व्यक्ति अपनी महत्ता की मूल्यवत्ता कायम रख सके।'' पत्रकार को अपने लेखन के माध्यम से समाज को झंकृत करने की कोशिश करनी चाहिए। ऐसा ही लेखन सार्थक लेखन है जिसका पाठ हृदयंगम हो जाए और पाठक को चिंतन की दिशा मिल सके। संजय के लेखन में ऐसी क्षमता है। यही कारण है कि उनका लिखा भी सुर्खी से कम नहीं होता, फिर जहां एक साथ अनेक धमाकेदार लेख संग्रहित हो जाएं तो सुर्खियां अपने आप बन जाती हैं।
संजय द्विवेदी छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में रहते हुए पत्रकारिता कर रहे हैं। इसलिए वे माटी के ऋण को चुकाने की कोशिश भी करते हैं, लेकिन वे राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर भी कलम चलाते हैं। अब जमाना वैश्विक दृष्टि संपन्न होने का भी है। हम स्थानीय होते हुए भी अपने चिंतन और लेखन से वैश्विक बनें। 'छत्तीसगढ़ के दर्द को भी समझें' तो 'आर्थिक सुधार की रफ्तार' पर भी नजर रखें। 'सुर्खियां' में ऐसे ही लेखों के साथ संजय 'विचारधारा के भाव' को भी परखते हैं। नक्सलवाद पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए निर्भीकता के साथ कहते हैं कि समस्याओं से निपटने के लिए 'लोकतांत्रिक रास्ता ही एक मात्र विकल्प' है। संजय 'दलित राजनीति का विस्तारवादी चेहरा' भी पढ़ने की कोशिश करते हैं और दो टूक कहते हैं कि ''छुटभैयों की बन आई। बाबा साहेब अम्बेडकर के बाद दलितों को सच्चा और स्वस्थ नेतृत्व मिला ही नहीं।'' अपने लेख में संजय यह भी साफ-साफ कह देते हैं कि दलित राजनीति से जुड़े लोगों के पास ठोस मुद्दों का अभाव है। इसीलिए ''एक बेहतर मानवीय जीवन के लिए संघर्ष के बजाय सिर्फ सत्ता उसका केन्द्रीय विचार बन गया है।''
छत्तीसगढ़ के 'चौरेंगा कांड' के बहाने संजय ने 'सवालों के ठोस उत्तर तलाशने की जरूरत' पर बल दिया है। बाहरी राज्यों से आने वाले लोगों का व्यवहार कैसा हो, न चाही जगहों में उद्योग लगाने की भी एक सीमा हो, समझदारी, सद्भाव, सामाजिक उत्तरदायित्व एवं सकारात्मक सोच को विकसित करने का संदेश देते हुए संजय कहते हैं ''उद्योगों को केवल धन कमाने की सोचने की बजाय अपने सामाजिक सरोकार भी जाहिर करने होंगे।''
संजय ने 'सुर्खियां' में हिंदी पत्रकारिता पर भी कुछ लेख समाहित किए हैं। जैसे 'हिंदी की आर्थिक पत्रकारिता : पहचान बनाने की जद्दोजहद' कैसे जिएंगे अखबार, बढ़ता प्रसार: घटता प्रसार, तंत्र से निराशा : मीडिया से बढ़ी आशा, हिंदी बाजार में मीडिया वार, टीवी चैनलों पर लगाम, बाजार की चुनौतियों से बेजार हिंदी पत्रकारिता, जो बिकेगा : वही टिकेगा, आदि लेखों में संजय समकालीन बाजार जनित प्रवृत्तियों का विशेषण करते हुए विद्रूपताओं के विस्तार और उसे नियंत्रित करने के सुझाव पेश करते हैं। जब समाज तंत्र से निराश हो जाए तो मीडिया से आशा करता है। लेकिन मीडिया खुद बाजार का हिस्सा बन जाए तो यह स्वाभाविक है कि उसका प्रभाव कम होगा। बाजार की चुनौतियों से पत्रकारिता को बेजार होने की जरूरत नहीं है। उससे जूझने की जरूरत है। अगर अखबार प्रोडक्ट बन गए और संपादक 'सीईओ' की भूमिका में आ गए तो पत्रकारिता कैसे बच पाएगी? बाजारवाद की चकाचौंध ने पत्रकारिता को दिशाहीन-सा कर दिया है, लेकिन आस्थावादी संजय कहते हैं कि ''इसके बावजूद रास्ता यही है कि हम अपने कटघरों से बाहर आकर बुनियादी सवालों से जूझें। हवा के खिलाफ खड़े होने का साहस पालें। हिंदी पत्रकारिता की ऐतिहासिक भावभूमि हमें यही प्रेरणा देती है।'' (बाजार की चुनौतियों से बेजार पत्रकारिता)।
संजय 'टीवी चैनलों पर लगाम' की बात भी करते हैं। क्योंकि अनेक मामलों में अक्सर टीवी चैनलों की निरंकुशता का घिनौना रूप ही सामने आता है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब यह कदापि नहीं हो सकता कि हम कपड़े उतार कर सड़कों पर दौड़ पड़ें। अब तो अति हो रही है। इसलिए अगर केन्द्र सरकार यह सोचती है टीवी चैनलों पर किसी न किसी यप में नियंत्रण जरूरी है तो गलत नहीं सोचती। संजय स्पष्ट करते हैं कि ''सेक्स, हिंसा और बच्चों के लिए जैसे घातक कार्यक्रम बताए और दिखाए जा रहे हैं, उससे अभिभावक भी खासे चिंतित हैं। हमारे घर-आंगन में इन चीजों का पहुंच जाना वास्तव में भारतीय समाज के सामने एक बड़ी चुनौती है।'' (पृष्ठ 84) प्रश् यही है कि ऐसी चिंताओं से कितने लोग सबक लेते हैं। समाज में कोई आंदोलन नहीं दिखाई देता। गोया अशीलता और हिंसा को लोगों की स्वीकृति मिलती जा रही है।
'सुर्खियां' में सामाजिक सरोकारों से जुड़े अनेक ज्वलंत मुद्दे भी संजय ने उठाए हैं। किसानों की हालत, रोजगार की समस्या, बिहार में बवाल, महिला बिल, मातृभाषा में शिक्षा, बाजार में शिक्षा, पूंजी से प्यार और पुलिसिया बर्बरता पर भी लेखक ने अपने विविध लेखों में गहरी चिंता व्यक्त की है। पुलिस की बढ़ती बर्बरता अब रोजमर्रा की बात हो गई है। लोकतंत्र में लोक पर ही डंडा चले, गोलियां चलें, यह कहां का न्याय है। संजय ने गुड़गांव में दिखी पुलिसिया बर्बरता पर अपनी तल्ख टिप्पणी करते हुए मेरे या सबके मन की बात लिखी है कि 'आज हालात यह है कि पुलिस को पैसे देकर आप कुछ भी करवा सकते हैं। पुलिस को वर्दीधारी गुंडा कहकर लांछित करने की जो परंपरा शुरू हुई है उसमें पुलिस का भी कम दोष नहीं है। लेकिन यह चेहरा बनाने के लिए बहुत हद तक पुलिस तंत्र स्वयं ही जिम्मेदार है। कानून की रक्षा के नाम पर राजनेताओं, अपराधियों और उद्योगपतियों की सेवा में लगा यह तंत्र कभी जन सम्मान का पात्र नहीं बन सकता। जरूरत इस बात की है कि हम अपनी पुलिस का चेहरा ज्यादा मानवीय और ज्यादा संवेदनशील बनाएं ताकि वह जनता की नजर में अपनी खोई प्रतिष्ठा को फिर से पा सके।' (पृष्ठ 143)
आए दिन ''सामाजिक समरसता में जहर घोलते प्रसंग'' कहीं न कहीं दिख जाते हैं। समीक्ष्य पुस्तक में संजय ने ऐसे कुछ मुद्दों पर भी गंभीर विमर्श किया है। चौरासी के दंगों के 'जख्म जो हरे हैं' उन पर भी चिंता व्यक्त की है। संजय ने माना है कि ''दंगों का देश के आर्थिक, सामाजिक विकास पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है।'' लेखक की महत्वपूर्ण पंक्तियां ये हैं कि ''ऐसे जघन्य नरसंहारों के आरोपी भी अपनी ऊंची पहुंच के सहारे बच निकलते हैं तो जनता का विश्वास आहत होगा।'' (पृष्ठ 83)
संजय ने वाजपेयी, आडवाणी, जॉर्ज, चटर्जी, ममता, मनमोहन सिंह, खुराना, बुखारी, लादेन आदि व्यक्तियों एवं उनकी राजनीतिक स्थितियों और प्रवृत्तियों पर भी ठोस विशेषण किए हैं। आडवाणी पर चार लेख हैं। आडवाणी के प्रति लेखक का एक साफ्ट कार्नर साफ दीखता है। इसमें कोई बुराई भी नहीं। वे आडवाणी की बुद्धि के कायल हैं लेकिन भाजपा के रवैये से सख्त नाराज हैं। 'भाजपा का सेकुलर चेहरा' बन सकता था लेकिन आडवाणी के विचारों से भाजपा ने पल्ला झाड़ कर एक तरह से अपना ही नुकसान किया है।
संजय के कुछ लेख बेहद मार्मिक बन पड़े हैं। मुद्दे भी ऐसे हैं कि उन पर उसी संवदेनात्मकता के साथ कलम चलाने की जरूरत है। 'गैस के बिना रसोई', 'बेटियों के लिए', महिला बिल पर शोक गीत, मातृभाषा में शिक्षा, बाजार में शिक्षा, आजादी की कीमत समझें, हादसे की ट्रेन आदि लेख इसी श्रेणी के हैं। ये लेख संवदेना को झकझोरते हैं। आत्ममंथन पर विवश करते हैं। 'भारतीयता का विस्तार' (पृष्ठ 65) में संजय ने केन्द्र सरकार के उस निर्णय की सराहना की है जिसमें सरकार ने पाक और बंगलादेश को छोड़कर भारतीय मूल के सभी नागरिकों को दोहरी नागरिकता देने का फैसला किया है। सरकार की इस सामयिक पहल से नि:संदेह भारतीयता का विस्तार होगा और भारतीय समृध्दि में निरंतर इजाफा होगा। आप्रवासी भारतीय भारत में उद्योग-धंधे शुरू करेंगे। आने-जाने का सिलसिला बनेगा। इसी बहाने हमारी भारतीयता वैश्विक बनती जाएगी। 'सुर्खियां' एक पठनीय पुस्तक है। संजय के हर लेख पर विमर्श किया जा सकता है। क्योंकि इनमें केवल सपाट बयानी नहीं है। अपना मौलिक चिंतन भी है। पत्रकारिता में मौलिक चिंतन गायब हो रहा है। 'सुर्खियां' इस कमी को पूर्ण करने में सहायक हो सकती है। कुछ लेख-अग्रलेख तो बेहद चलताऊ किस्म के हैं। वे इस संग्रह में न भी होते तो संग्रह का वजन कम न होता लेकिन कई बार सामयिकता का भी एक दबाव होता है। बावजूद इसके संजय के अधिकांश लेख पाठकों को भी गहरे सामाजिक सरोकारों से जोड़ने की क्षमता रखते हैं। क्या राजनीति, क्या पत्रकारिता, हर जगह ''विचारधारा को बाय-बाय'' कह दिया गया है लेकिन जहां कहीं भी विचार बचे हुए हैं, वहां-वहां जीवन-मूल्य बचे हुए हैं। संजय जैसे युवा पत्रकारों के लेखों में विचार तत्व की गहनता देखते हुए इस संभावना को बल मिलता है कि विचारशून्यता के इस दौर में विचारवानों की भी कमी नहीं रहेगी। इसीलिए तो संजय द्विवेदी संभावनाओं का ही नाम है। बस इस युवा पत्रकार की धार इसी तरह कायम रहे। संजय छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता कर रहे हैं। एक दशक से यहां रहते हुए संजय द्विवेदी ने यही निष्कर्ष निकाला है कि ''प्रतिबध्द पत्रकारिता की संस्कार भूमि है छत्तीसगढ़'' (पृष्ठ 167) जन्मभूमि का संस्कार और कर्मभूमि का संस्कार मिलकर जो शख्स बनता है उसे संजय द्विवेदी कहा जा सकता है। 'सुर्खियां' संजय की संस्कारित पत्रकारिता का एक नया पड़ाव है।
'यादें : सुरेन्द्र प्रताप सिंह' : संजय द्विवेदी की दूसरी पुस्तक संपादित ग्रंथ है। अपने समय के बेहद चर्चित पत्रकार सुरेन्द्र प्रताप सिंह से पत्रकारिता की दुनिया की चेतस पीढ़ी भली-भांति थी। श्री सिंह अनेक महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं में लिखते रहे। 'रविवार' जैसे साप्ताहिक के संपादक के रूप में सुरेन्द्र प्रताप की प्रतिभा का मानो विस्फोट हुआ था। 'रविवार' ने हिंदी पत्रकारिता को एक नए तेवर प्रदान किए। उस दौर की बेहद चर्चित-प्रतिष्ठित एवं बहुप्रसारित पत्रिका 'दिनमान' के गढ़ को भेदने वाली पत्रिका 'रविवार' थी। दुर्भाग्यवश बाद में 'रविवार' का प्रकाशन बंद हो गया। बाद में 'एसपी' इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से जुड़ गए। वहां भी उन्होंने नए आयाम स्थापित किए। आज भारतीय टीवी का जो चेहरा नजर आता है उसे गढ़ने में एसपी जैसे पत्रकार की महत्वपूर्ण भूमिका थी। संजय द्विवेदी ने ऐसे महत्वपूर्ण पत्रकार की स्मृतियों को संजोने के उद्देश्य से ही एक पुस्तक तैयार कर दी - 'यादें : सुरेन्द्र प्रताप सिंह'। इस संपादित पुस्तक में अट्ठाईस लेख हैं। इन्हें पढ़कर पत्रकारिता की वर्तमान पीढ़ी यह आसानी से समझ सकती है कि वर्तमान पत्रकारिता का थका-थका, उदास-सा चेहरा क्यों नजर आता है। इसका असली कारण है एसपी जैसे तेजस्वी पत्रकारों का अनायास महाप्रयाण कर जाना। संजय की यह संपादित कृति एसपी के कृतित्व एवं व्यक्तित्व के अनेक आयामों का उद्धाटित करती है। प्रकारांतर से यह कह सकते हैं कि कहीं न कहीं संजय भी एसपी को अपना आदर्श मानते हैं। इसीलिए तो उनकी यादों को संजोने के लिए इतनी जद्दोजहद करते हैं। एक पुस्तक तैयार करते हैं। 'यादें' में संकलित लेखों से एसपी के जीवट व्यक्तित्व को समझा जा सकता है। इनमें कुछ लेख उनके साथ काम करने वालों ने लिखे हैं। उनके अंतरंग मित्रों ने भी कलम चलाई है, तो कुछ लेख 'दूरदर्शकों' के भी हैं जो एसपी के प्रभा मंडल से प्रभावित थे। लेकिन सभी आलेख मन से लिखे गए हैं। प्रभाष जोशी उन्हें 'एक चमत्कारिक अलेखक संपादक' कहते हैं तो सुधीश पचौरी उन्हें 'टीवी पर हिंदी का जागृत चेहरा' मानते थे। राजकिशोर एसपी की 'जिद जीवट की सादगी' का मार्मिक वर्णन करते हैं तो कन्हैयालाल नंदन कहते हैं कि ''वो सारे शहर के आईने साफ करता था''। उदयन शर्मा उन्हें मील का पत्थर मानते थे। श्रीकांत सिंह कहते हैं कि एसपी ने ''बौध्दिक जागरुकता से ऊंचाई पाई थी''। तो रमेश नैयर बताते हैं कि एसपी ने अंग्रेजी के आतंक से मुक्ति दिलाई थी।
संजय द्विवेदी उन्हें अप्रतिम बताते हैं तो महेन्द्र सिंह का मानना है कि वे 'नई पत्रकार-पीढ़ी के प्रेरक थे'। एसपी के भाषिक चमत्कार पर डॉ. परमात्मानाथ द्विवेदी का लेख पठनीय है। द्विवेदी जी ने बात कहने भर के लिए नहीं कह दी है। सचमुच एसपी सिंह ने भाषा को नया कलेवर दिया था। चाहे प्रिंट हो चाहे इलेक्ट्रॉनिक, दोनों जगह एसपी एक नई अंतरंग, आक्रामक एवं प्रांजल बौध्दिक भाषा लेकर आए। द्विवेदी जी ने कुछ उदाहरण तो नहीं दिए, लेकिन वे कहते हैं कि ''आज की पत्रकारिता की भाषा जिस रूप-स्वरूप में हम देखते हैं, उसके निर्माण में इस परंपरा का बहुत महत्वपूर्ण योगदान है।''
'आजतक' जैसे टीवी चैनल को लोकप्रियता के शिखर तक पहुंचाने का श्रेय एसपी सिंह को ही है। ''खबरें अभी और भी हैं, देखते रहिए आज तक'' एसपी सिंह का यह जुमला आज तक चल रहा है। मतलब यह कि एसपी ने एक परंपरा बनाई। उन्होंने अंगरेजी के बरक्स हिंदी का प्रतिष्ठित किया। एसपी समकालीन साहित्य की अनेक श्रेष्ठ कृतियों को ध्यान से पढ़ते थे। भाषा के संस्कार साहित्य से ही तो लिए जा सकते हैं। एसपी साहित्यकार नहीं थे, लेकिन जो कुछ भी वे बन पाए, उसके पीछे साहित्य की अहम भूमिका रही। अजित राय के लेख से यही बात समझ में आती है। सुरेन्द्र प्रताप सिंह पर केन्द्रित इस पुस्तक का संपादन करके संजय द्विवेदी ने सही मायने में एक ऐसे पत्रकार को सच्ची श्रध्दांजलि दी है जो अपने अंतिम दिनों में बहुत अधिक लिख नहीं पाया लेकिन वाचिक परंपरा के सहारे हिंदी को अंगरेजी के मुकाबले में खड़ा करके दिखा दिया। पुस्तक के अंत में सुरेन्द्र प्रताप सिंह से अजित राय का साक्षात्कार भी छपा है। इसमें व्यक्त विचारों से एसपी का एक और बड़ा बौध्दिक चेहरा सामने आता है। हमारा समाज बहुत जल्दी विस्मृति का शिकार हो जाता है। पत्रकारिता की नई पीढ़ी एसपी सिंह के नाम से भी बहुत परिचित नहीं है लेकिन संजय द्विवेदी द्वारा संपादित इस पुस्तक के प्रकाशन के बाद कम से कम नई पीढ़ी को तो पता चले कि उनकी बिरादरी में कैसे कैसे तेजस्वी लोग हुए। संजय द्विवेदी से अभी और उम्मीदें हैं। 'सुर्खियां' और 'यादें' तो चौथे-पांचवें पड़ाव हैं। अभी तो सफर लंबा है। दुश्वारियां भी ढेरों हैं। पत्रकारिता की तिलिस्मी दुनिया में खुद को मनुष्य बनाए रखने के लिए बड़ी साधना चाहिए। संजय में यह सब बचा हुआ है। इसलिए मुझे उम्मीद है कि उनकी और बेहतर कृतियां भी सामने आती रहेंगी।
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