Saturday 6 July 2013

पाठकों के दिल में धड़कने वाली किताबें


डॉन किखोते : इस उपन्यास का मुख्य किरदार अलोंसो नाम का करीब 50 साल का एक शख्स है, जिसे किताबें पढ़ने का बेहद शौक है। वह किताबों की दुनिया में इतना खोया हुआ है कि उसमें वर्णित कथाओं और पात्रों में खुद को ढूंढने और उनके जैसे कारनामे करने की कल्पनाएं करने लगता है। अपनी कल्पनाओं को अमली जामा पहनाने के लिए वह कई साहसिक ऐडवेंचर को अंजाम देने की सोचता है और इस बाबत अपना नाम तक बदलकर डॉन किखोते रख लेता है। उसे यकीन है कि अपनी तलवार की धार पर वह असहाय और सताए हुए लोगों को बचा पाएगा। लेकिन ऐसा करते हुए वह हर बार लोगों की हंसी का ही पात्र बनता है। उपन्यास डॉन किखोते के इस खब्त की इंतहा और सामान्य जीवन में उसकी वापसी का रोचक बखान है। मिग्विल डी सर्वांते के इस स्पैनिश उपन्यास को पश्चिम में मील का पत्थर माना जाता है। इसकी वजह उपन्यास जैसी विधा में सर्वांते द्वारा संभावना की तलाश है। एक ऐसी कथा-संभावना जिसने स्पैनिश भाषा ही नहीं, अन्य यूरोपियन भाषाओं में भी कथा कहने के कई तरीकों को ईजाद किया।
क्राइम ऐंड पनिशमेंट : यह रसखलनिकोव नाम के एक ऐसे युवक की कहानी है, जो यह सोच कर एक बूढ़ी औरत का कत्ल कर देता है ताकि उससे हासिल पैसों का वह बेहतर कामों के लिए इस्तेमाल कर सके। लेकिन जिस मकसद से कत्ल किया गया, उसे पूरा करने की बजाय रसखलनिकोव की खुद की जिंदगी बदतर हो जाती है। वह लगातार एक ऐसे नैतिक पाप का अनुभव करते हुए जीता है, जिसके समर्थन में वह तर्क चाहे जितने जुटा ले, लेकिन हर बार उसके सामने खुद को लज्जित और पराजित ही महसूस करता है। अंतत: वह अपने अपराध को स्वीकार करने और उसका दंड भोगने के लिए खुद को तैयार करता है, लेकिन उसमें भी अजीबोगरीब अड़चनें पेश आती हैं। फिर भी, वह अपनी प्रेमिका के लगातार प्रोत्साहन की वजह से अपना अपराध कबूल कर पाने में सफल रहता है। इस उपन्यास में फ्योदोर दॉस्तोएवस्की ने रसखलनिकोव की भीतरी जद्दोजहद को जितनी बारीकी से उकेरा है, वह उपन्यास के जरिए सबसे कठिन मनोवैज्ञानिक और दार्शनिक सवालों का सामना करने का पहला ही प्रयास था।
अन्ना कैरेनिना : जैसा कि उपन्यास का नाम ही इशारा करता है, यह अन्ना कैरेनिना की कहानी है। अन्ना का ताल्लुक उस बुर्जवा रूसी वर्ग से है, जहां स्त्रियों के लिए सुख-समृद्धि, पति और बच्चे तो हैं, लेकिन उन सबको निबाहते हुए उनका अपना जीवन, इच्छाएं और आकांक्षाओं की जगह कहीं नहीं रह जाती। अन्ना के जीवन में इसकी गुंजाइश वोरोंस्की नाम का एक युवक पैदा करता है और अन्ना उसके संग घर की देहरी से निकल आती है। लेकिन इस जीवन में भी अन्ना को मुक्ति नहीं, उसका भ्रम ही मिलता है। सामाजिक दबावों में जब वह भ्रम टूटता है तो वह अन्ना को भी तोड़ देता है और वह आत्महत्या कर लेती है। लियो तॉल्सतोय के इस उपन्यास के केंद्र में अन्ना जैसी स्त्री पात्र का होना महत्वपूर्ण है। उसके जरिए परिवार, विवाह, सामाजिक दबाव, दैहिक लगाव और इन सबकी ट्रैजिक परिणति को पढ़ना पाठकों को सालता है, क्योंकि अन्ना जैसी तकलीफदेह स्थिति में स्त्रियां अब भी हैं।
इन सर्च ऑफ लॉस्ट टाइम : फ्रेंच लेखक मार्सल प्रूस्त ने अपनी मौत तक, करीब 15 साल, इस उपन्यास को लगातार लिखा। इस एपिक नॉवेल में जिंदगी के उस अमाप फैलाव को समेटने की कोशिश की गई है, जिसकी थाह तक कई दफा हमें जीते हुए नहीं लग पाती। यह जीवन स्मृति से बना है, जिसमें कई समयों और जगहों की बसावट है। इस फैलाव को प्रेम की जमीन मिलती है तो कलाओं का पोषण भी। इन मायनों में यह उपन्यास प्रेम में और कला में होने-जीने की अद्वितीय कथा भी है। इस उपन्यास का असर बीसवीं सदी के साहित्य पर बहुत गहरा पड़ा और माना जाता है कि इन सर्च ऑफ लॉस्ट टाइम ने पहली बार कइयों के मन में उपन्यास लिखने की ललक पैदा की। सात भागों में लिखे गए इस उपन्यास की शब्द संख्या करीब 15 लाख है। जाहिर है, आप इसे लंबे वक्त तक पढ़ेंगे। लेकिन अपने रोचक बखान और साहित्यिक खूबियों की वजह से इसे पढ़ना किसी ऐडवेंचर पर निकलने से कम नहीं।
द ट्रायल : फ्रांज काफ्का का यह जर्मन उपन्यास हमें उन भयावह जीवन स्थितियों से दो-चार कराता है, जिसमें आदमी को यह तक नहीं पता चल पाता कि वह किन वजहों से सताया जा रहा है। उपन्यास का मुख्य किरदार जोसेफ के. एक दिन अपने को बिना कारण न सिर्फ गिरफ्तार हुआ पाता है, बल्कि एक अनजाने-अनकिए गुनाह से खुद को बचाने की जद्दोजहद में भी धीरे-धीरे फंसता जाता है। पढ़ते हुए कई जगह उसकी ट्रैजिडी पर हंसी भी आती है, अफसोस भी होता है। लेकिन जो बात अंत तक एक आतंक की तरह जेहन में घर कर लेती है, वह यह कि जोसेफ के. जैसी नियति कोरी कल्पना नहीं थी। द ट्रायल के लिखे जाने के कुछ ही बरस बाद अनेक निर्दोष लोगों को बिना बताए यातना घरों में भेज दिया गया था! उनमें से कइयों के वापस न लौटने की याद भर से आज भी इंसानी रूह कांप उठती है। उस खास काफ्काई अनुभव की वजह से जो एक निगाह अपनी कॉमिडी से गुदगुदाती है तो दूसरी तरफ अपनी संजीदगी से डराती है। लेकिन आखिरकार हमें यह उस डर का सामना करने के लिये धीरे से तैयार भी करती है, जिससे बचे रहने की कामना करते हुए हम जीते हैं।
एनिमल फार्म : जॉर्ज ऑरवेल के इस अंग्रेजी उपन्यास में व्यंग्य की मारक शैली में मार्क्सिज्म जैसी राजनीतिक विचारधारा की खामियों को उजागर किया गया है। एक ऐसी विचारधारा जिसने बीसवीं शताब्दी में इंसानी जिंदगी की बेहतरी का सबसे सुंदर स्वपन दिखाया था, वह सत्ता और शासन प्रणाली का हिस्सा बन कर क्रूरता और बर्बरता के रास्ते पर चल निकलेगी, यह किसी के लिये भी अकल्प्नीय था। लेकिन जिसे हम इतिहास के दौर में स्तालिन की डिक्टेटरशिप के नाम से जानते हैं, वह बजरिये मार्क्सवाद ही आया था। जब ऑरवेल ने इसे छपवाया था तो इसे फेयरी टेल का नाम दिया था। लेकिन जानवरों की दुनिया में समता के नाम पर की जाने वाली ज्यादतियां दरअसल इंसानों की दुनिया की सचाइयां हैं। यह उपन्यास एक विचारधारा की तमाम सैद्धांतिक अच्छाइयों के बावजूद उसकी घोर व्यावहारिक सीमाओं को उजागर करने में जितना सफल हुआ उतना मार्क्सवाद को चुनौती देती तमाम ऐतिहासिक बहसें भी नहीं कर सकीं। यही वजह है कि आज तक यह राजनीतिक उपन्यासों की श्रेणी में प्रतिमान सरीखा है।
फेटलेसनेस : यह उपन्यास दूसरे विश्व युद्ध की यातना शिविर के अनुभवों की उपज है। लेकिन इसमें यातना शिविरों के क्रूर अनुभवों का बयान भर दर्ज कर देने की बजाय लेखक ने उन अनुभवों की तीखी रोशनी में आगे की मानव नियति को पहचानने की कोशिश की है। कथा के केंद्र में 14 साल का लड़का ग्यूरी है जो बुखेवाल्ड की यातना शिविर से किसी तरह बच कर अपने शहर बुदापेस्त लौटता है। लेकिन उसे न तो उसका शहर, न उसके पिता और न ही वह बचपन मिलता है जिसकी दहलीज वह यातना शिविरों के पहले धीरे-धीरे पार कर रहा था। फटलेसनेस ग्यूरी के जीवन के इसी बदलाव और त्रास का दस्तावेज है। नोबेल पुरस्कार से सम्मानित हंगरी भाषा के उपन्यासकार इमरे कर्तेश ने खुद यताना शिविरों में भारी तकलीफ झेली थी। कर्तेश समेत कई लेखकों ने इस त्रासदी पर लिखा, लेकिन फेटलेसनेस कथा की इंटेंसिटी और कलात्मक ऊंचाई की वजह से यह खास महत्व रखता है।
द नेम ऑफ द रोज : इटैलियन लेखक उम्बेर्तो ईको का यह उपन्यास एक ऐसी मर्डर-मस्ट्री है, जिसकी लिटररी वैल्यू भी उतनी ही है जितनी एक उपन्यास के तौर पर बेस्ट-सेलर की। 14 वीं सदी के इटैलियन मठों को केंद्र में रख कर ईको जिस रक्तरंजित कथा का आपको हिस्सेदार बनाते हैं, उसमें सिर्फ हत्या और उसकी गुत्थी सुलझाने की कवायद भर नहीं है। इन्हीं मायनों में यह एक आसान, रोचक और चाव से पढ़े जानेवाले सामान्य जासूसी उपन्यासों से अलग ठहरता है। उपन्यास में रहस्य-रोमांच के अलावा तर्क और बुद्धि का एक तनाव भरा संतुलन जिसे लेखक ने शुरू से अंत तक कायम रखा है। उपन्यास के पन्नों पर ईको नैतिक, धार्मिक और साहित्यिक मान्यताओं और उनके बीच उभरनेवाली जिंदा जिरहों के लिए भी जगह बनाते हैं। इससे न इस गेनर में एक ताजगी पैदा होती है और बहुत बाद में इसके नक्शेकदम पर द विंची कोड जैसे ढेरों लोकप्रिय उपन्यास भी संभव होते हैं।
लव इन द टाइम ऑफ कॉलरा : कहते हैं प्रेम एक बार ही होता है। फ्लोरेंतिनो अरिजा को कम उम्र में ही ऐसा प्रेम फरमीना डाजा से हुआ। लेकिन दोनों जुदा हो गए। फरमीना शादी कर अलग जीवन जीती रही जबकि फ्लोरंतीनो एक बोहेमियन जिंदगी जीते हुए भी अपने प्रेम को पाने की असंभव संभावना में 53 साल, 7 महीने और 11 दिन-रात जीता रहा। यह उपन्यास गम-ए-आशिकी के इसी लंबे दौर और प्रेम को पाने की करुण जिद की दास्तान है। आधुनिक साहित्य में मारकेज जैसे सिद्धहस्त लेखक की जादुई कलम से लिखी गई यह सबसे चर्चित प्रेम-कथा है, जिसमें तमाम ट्रैजिक स्थितियों के बावजूद उम्मीद की नाजुक डोर अंत तक नहीं टूटती। स्पैनिश कथाकार गेब्रियल गार्सिया मारकेज की किस्सागोई, पात्रों की अद्वितीयता और प्रेम की नई और एपिक संभावनाएं तलाशने की वजह से यह उपन्यास एक आधुनिक क्लासिक का दर्जा पा चुका है।
द वाइन्ड-अप बर्ड क्रॉनिकल : जापानी लेखक हरुकी मुराकामी के बारे में यह कहा जाता है कि वे पेज-टर्नर नॉवेल्स लिखते हैं। यानी एक बार आपने उनके उपन्यासों को पढ़ना शुरू किया तो उसे खत्म करके ही दम लेंगे। इस बात की सबसे अच्छी ताकीद उनका यह उपन्यास करता है, जो एक ऐसे आदमी को केंद्र में रखकर लिखा गया है, जिसे अपना जीवन बेहद मामूली जान पड़ता है। मुराकामी इसी मामूलियत की परतों को कुछ इस खूबी से उघारते हैं मानो कोई घरु महिला महीन बुने हुए स्वेटर से ऊन का रेशा-रेशा निकाल लेती है। मुराकामी में किस्सा कहने का यह हुनर ही उन्हें किसी एक थीम या ढर्रे पर लिखने से बचाता है और वह एक उपन्यास में ही कई वैरियेशन ला पाते हैं। क्यों है खास : वह खास अंदाजेबयां जो फिक्शन को जितना भीतर से बदलता है, उतना ही उसे पढ़ने के आपके मिजाज को भी।
शेखर: एक जीवनी : सच्चिदानंद हीरानंद वात्सालयन का यह बहुचर्चित उपन्यास दो खंडों में ही छप सका, हालांकि लेखक ने इसके तीसरे खंड की बात शुरू से ही की, लेकिन वह कभी छपा नहीं। कहने को तो यह शेखर नाम के एक युवक की आधी-अधूरी जिंदगी का लेखा-जोखा है, जिसमें उसका बचपन, यौवन, प्रेम, विद्रोह और असफलताएं हैं, लेकिन शेखर की जीवनी से गुजरते हुए ऐसा कई जगहों पर लगता है कि हम अपनी जिंदगी के ही पन्ने पढ़ रहे हैं। इन मायनों में यह उपन्यास अपना सामना करने और अपने भीतर अपने आप को तलाशने-तराशने का भी विवेक देता है। व्यक्ति को नियंत्रित करनेवाली शक्तियों के प्रति विद्रोह और स्वतंत्र व्यक्तित्व की चाह जैसे रूमानी आग्रहों के बावजूद शेखर का जीवन और चरित्र आज भी पाठकों को अपनी तरफ खींचता है। अज्ञेय ने जब इस उपन्यास को प्रकाशित करवाया था तो अपनी थीम, प्रस्तुति और वैचारिक आग्रहों की वजह से यह खासा विवादास्पद बना। लेकिन, बहुत जल्द यह साबित हो गया कि दरअसल ये तमाम बातें ही इसे हिंदी का पहला आधुनिक उपन्यास भी बनाती हैं।
मैला आंचल : फणीश्वरनाथ रेणु ने पूर्णिया के जिस अंचल की कहानी इस उपन्यास में कही है, वही इसका नायक भी है। इसके भूगोल में वह सब मौजूद है, जिसे प्रेमचंद अपनी किसान-कथाओं में लिखते रहे हैं। जो बात इस उपन्यास को प्रेमचंद की कथाओं से अलग करती है, वह यह है कि इसके मैले दामन में जितना किसानी दुख-तकलीफ है, उतना ही उस जीवन का राग-रस भी। इस तरह रेणु ने मैला आंचल में साधारण के संघर्ष के साथ उसकी सुंदरता को भी उभारा। इस उपन्यास के साथ अंचल विशेष को केंद्र में रखकर अनेक उपन्यास लिखे गए, लेकिन मैला आंचल ने जो मुकाम हासिल किया, वह किसी के हिस्से नहीं आया। मिट्टी को ऐसे लिखना कि मिट्टी पढ़ो तो उससे सोंधी सुगंध आए, यह रेणु का अद्भुत गद्य-गुण है। ग्रामीण सहजतता और स्वाभाविकता इस उपन्यास का प्राण है।
उसका बचपन : बचपन को अमूमन खेलने-कूदने की उम्र और इसी नाते इसे हल्के में लेने की सयानी आदत हम सब में होती है। लेकिन कृष्ण बलदेव वैद के इस उपन्यास में बीरू का बचपन पढ़ते हुए न सिर्फ बचपन को हल्के में लेने का हमारा नजरिया बदल जाता है, बल्कि जर्मन कवि रिल्के की यह बात भी याद आती है कि बचपन सबसे बड़ी पाठशाला है, जहां उम्र के हर पड़ाव में आदमी को लौटना चाहिए। इस छोटे से उपन्यास में एक बच्चे की निगाह से उसके घर-परिवार, उसकी गुरबत और निजी उदासी का जितना इंटेंस चित्र खींचा गया है, प्रभाव की दृष्टि से उसकी तुलना आलोचकों ने ठीक ही किसी लंबी कविता से की है। कृष्ण बलदेव वैद उन गिने-चुने लेखकों में से हैं जिनकी जुबान को न तो खालिस हिंदी कहा जा सकता है, न उर्दू। यही हिंदुस्तानी जुबान और बीरू के बचपन की दास्तान इस उपन्यास की खासियत है।
झूठा-सच : भारत विभाजन से देश का एक बहुत बड़ा तबका बुरी तरह प्रभावित हुआ था। आज भले विभाजन के दर्द को ज्यादातर लोग भारत बनाम पाकिस्तान के बीच जंग और क्रिकेट के मुकाबलों के बाद महसूस तक नहीं करते, क्रांतिकारी लेखक यशपाल का दो खंडों में लिखा गया यह उपन्यास हमें बरबस उस दौर में खींच लाता है। यह वही दौर था, जब करोड़ों लोगों को विभाजन पर यकीन नहीं होता था। फिर भी झूठ से राहत और सच से आहत होते लोगों ने देश-बदल किया था। उपन्यास के केंद्र में जयदेव पुरी, उसकी बहन तारा और पुरी से संबंध जोड़ती-तोड़ती कनक है। लेकिन इनकी कहानी असल में भारी उथल-पुथल के उस दौर में तबाह हो चुकी पीढ़ी की फिर से उठ खड़े होने की ही साहस-कथा है। विभाजन की पृष्ठभूमि पर अनेक किताबें आईं लेकिन कुछ कम कला होने का जोखिम उठाकर भी झूठा-सच जिस बड़े फलक पर इसे दर्ज करती है, उससे इसका महत्व उन नीरस इतिहास पुस्तकों से भी अधिक जान पड़ता है, जिसमें एक बड़ी त्रासदी को सिर्फ तथ्यों में दर्ज किया जाता है।
राग दरबारी : नए आजाद भारत का सबसे खरा और प्रामाणिक हाल राग दरबारी देता है। इसका ताना-बाना लेखक ने शिवपालगंज नाम के हिंदी पट्टी के एक गांव में भले बुना है, लेकिन वह गांव अपने आप में पिछड़े हुए भारतीय समाज और उसमें पनपने वाली तमाम गड़बड़ियों का प्रतीक बन जाता है। गांव की जगह, वहां के लोग, उनकी मानसिकता, वहां की राजनीति, उसमें भ्रष्ट नेता और अफसर की शिरकत इस बात की ताकीद करते हैं कि आजाद भारत में कुछ भी ठीक नहीं। शिवपालगंज में हालांकि लंगड़ जैसे पात्र जरूर हैं, लेकिन उसकी आवाज नक्कारखाने में तूती जैसी ही है। व्यंग्य की मारक शैली की वजह से यह उपन्यास बहुत लोकप्रिय हुआ। व्यंग्य जैसी विधा में अमूमन सामने का समय पकड़ा जाता है, लेकिन श्रीलाल शुक्ल ने इस उपन्यास में भारतीय समाज की जिस दुखती रग को उभारा है, वह कमोबेश आज भी उतनी ही दुखती और तकलीफ देती है।
आधा गांव : अगर यशपाल का झूठा-सच भारत विभाजन की कथा कहता है तो राही मासूम रजा का आधा गांव सोच की उस फांक को दर्शाने में सफल हुआ है, जिससे देश में सांप्रदायिक ताकतों को बल मिला। इससे वह बड़ा जनसमुदाय प्रभावित हुआ जिसका जोर हिंद और मुसलमान होने के पहले इंसान होने पर था। रजा ने गंगौली के जिस भूगोल को अपने उपन्यास में लिया है, उसमें सोच की यह फांक इतनी गहरी है कि गंगौली पूरा गांव न होकर, आधा-अधूरा होने को अभिशप्त है। आजाद भारत में हिंदू-मुस्लिम दंगे, बाबरी मस्जिद के ध्वंस और गुजरात के नरसंहार के बाद इस कड़वी सचाई से किसे इनकार है कि सद्भावना के तमाम दावों के बावजूद इस देश में हिंदू-मुसलमानों के बीच कई गंगौली बसते हैं और इन सबके पीछे सियासत जितनी विभाजन के दरम्यान थी, दुर्भाग्य से अब भी उतनी ही है! विभाजन के बाद के उस ऐतिहासिक समय के संकट की पहचान कराने की वजह से जिससे हमारा देश और समाज अब तक नहीं उबर पाया है।
नौकर की कमीज : इस उपन्यास में ऐसा कुछ नहीं जिसे एक साधारण जिंदगी जीते हुए आदमी के अहसास से अलग किया जा सके। संतु बाबू की साधारण मध्यवर्गीय जिंदगी, साधारण गृहस्थी, साधारण प्रेम, साधारण नौकरी, नौकरी की साधारण दिक्कतें और उससे भी साधारण उनसे निपटने के तरीके। लेकिन फिर भी यह अगर हिंदी उपन्यासों में मील का पत्थर है तो इसलिए क्योंकि ऐसी तमाम साधारणताओं को इतने असाधारण ढंग से किसी ने पेश नहीं किया था कि साधारण खास लगने लगे, उसमें जीवन का कुछ अर्थ निकल आए। यह उपन्यास इस बात की तस्दीक करता है कि जिन मामूली लगने वाली जीवन-स्थितियों में हम जी रहे होते हैं, उससे बड़ी फैंटेसी कोई दूसरी नहीं। इस फैंटेसी को विनोद कुमार शुक्ल की कवि-दृष्टि ने सचाई के करीबतर किया है।
कसप : हिंदी में जितनी प्रेम कथाएं लिखी गई हैं, उनमें सबसे अनूठी है कसप। कसप से पहले हिंदी उपन्यासों में प्रेम या तो लिजलिजी भावुकता (गुनाहों का देवता), नहीं तो बहुत बौद्धिक तेवरों (नदी के द्वीप) के साथ पेश किया जाता रहा था। प्रेम की ट्रैजिडी में या दूसरे शब्दों में कहें तो जिन बातों से हमारा दिल गमगीन हो जाता है, उनमें हंसने की कई वजहें भी हो सकती हैं, मनोहरश्याम जोशी ने कसप में इसे ही अपने हुनर से उभारा है। विट् और ह्यूमर का ऐसा सुंदर प्रयोग न सिर्फ इस प्रेम कहानी को असाधारण बनाता है, बल्कि हिंदी उपन्यासों के छोटे से इतिहास में अपना ऊंचा मुकाम भी हासिल करता है। मनोहरश्याम जोशी का खिलंदड़ापन जिसने हिंदी उपन्यास को स्कूल ऑफ हाई सीरियसनेस से उबारा। कुमाऊंनी बोली ने उपन्यास में हिंदी की संगत कर एक नई भाषिक ताजगी पैदा की है।
अंतिम अरण्य : अंतिम अरण्य में महत्वपूर्ण घटनाएं नहीं, वे पात्र हैं जो अपने भीतर प्रेम, प्रतीक्षा, मृत्यु और अनुपस्थिति की पीड़ा झेलते जीते हैं। इन इंसानी अहसासों से हरेक का मन कहीं न कहीं जुड़ा हुआ है। निर्मल वर्मा के गद्य की तरफ आकर्षण का एक बड़ा कारण भी यही है कि अपनी ज्यादातर कथा-कृतियों की थीम उन्होंने इन अहसासों के इर्द-गिर्द ही रखा। अपने इस आखिरी उपन्यास में निर्मल ने इन अहसासों को जो सृजनात्मक ऊंचाई दी है, उसे एक लेखक से बढ़कर एक भाषा की उपलब्धि कहना ज्यादा ठीक होगा। निर्मल वर्मा का ट्रेडमार्क गद्य, जिसमें जितनी कथा है, उतनी ही कविता भी। और अगर आप कान धर कर सुनें तो आपके लिए वह संगीत भी जो शब्दों से पैदा होता है।
सोमदेव रचित कथासरित्सागर, मिर्जा हादी 'रुस्वा' की उमराव जान 'अदा', कुर्तुलऐन हैदर का आग की दरिया, यू. आर. अनंतमूर्ति की संस्कार, आर. के. नारायण की गाइड, सलमान रश्दी की मिडनाइट चिल्ड्रंस, इंदिरा गोस्वामी की दक्षिणी कामरूप की कथा, तकषि शिवशंकर पिल्लै की रचना मछुआरे और अमृता प्रीतम की पिंजर भी साहित्य जगत में हलचल मचाती रही हैं।

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