Saturday 6 July 2013

आज हिंदी के बेस्ट सेलर की परिभाषा मुश्किल


संजय जोठे

आजकल सोशल मीडिया और पत्रकारिता एवं साहित्य की भिडंत एक मुद्दा बनती जा रही है. सोशल मीडिया एक उभरती हुयी सच्चाई है और बहुत तरह के नए संघर्षों को जन्म दे रही है. जिस तरह पत्रकारिता के सामंतों को सोशल मीडिया से चुनौती मिल रही है, उसी तरह साहित्यिक मठाधीशों को भी सोशल मीडिया से कष्ट हो रहा है. जो साहित्यकार किताबों के उस पार और दुर्लभ रहा करते थे और जिनसे मिलने या बात करने का सौभाग्य या दुर्भाग्य आमजन को कभी कभार ही मिल पाता था, आज सोशल मीडिया ने उन्हें भी सुलभ बना दिया है.
अब साहित्यकारों के अंतर्संघर्ष, विचारधाराओं के कलह और गुटबंदियों ने एक नए किस्म का आयाम खोला है. संस्थागत पत्रकारिता और साहित्य के मठाधीशों को सोशल मीडिया के मजबूत होने से कष्ट हो रहा है. इसके मजबूत होने के निहितार्थ इतने विराट हैं कि किसी भी तरह की संस्थागत गुलामी करने वालों को इससे कष्ट होगा.
जैसे संस्थागत धर्म के गुलामों को स्वतंत्र और स्वच्छंद लोगों, विचारधारा से भय होता है, उसी तरह मीडिया घरानों और साहित्यिक कबीलों के लठैतों को भी इससे अपार कष्ट हो रहा है. सोशल मीडिया की बेबाकी और पारदर्शिता की चाह ने न सिर्फ राजनीति और पत्रकारिता, बल्कि साहित्य का भी नए ढंग से मूल्यांकन किया है. अब इस नए कलेवर में बढ़ती हुई अपेक्षाओं के विस्फोट से सब विधाओं के मठाधीश असुरक्षित महसूस कर रहे हैं.
सभी तरह के पत्रकार कबीले और साहित्यिक कबीले जो किसी एक तरह की विचारधारा से बंधकर उसी रंग में समय के प्रवाह की व्याख्या करने का दुराग्रह करते आये हैं - आज उनके आधार शिथिल हो रहे हैं. और उनके प्रति आमजन में समर्थन या सहानुभूति नहीं बन पा रही है. ये आमजन के लिए अच्छा ही है. इस अर्थ में पत्रकारिता/ साहित्य और पत्रकारों, साहित्यकारों का दुर्भाग्य आम जन का सौभाग्य है.
जैसे धर्मों के सर्वमान्य शास्त्र और पारंपरिक मान्यताएं अब नए समय का मुकाबला नहीं कर पा रही हैं - ठीक उसी तरह नए समाज में जिस तेज़ी से सब कुछ नया होता जा रहा है उसका मुकाबला कोई साहित्यिक विचारधारा या परम्परा नहीं कर पा रही है. लगता नहीं की कभी कर भी पाएगी. ये एक दुर्भाग्य है, लेकिन एक तरह का सौभाग्य भी है. जिस तरह की आजादी और वैयक्तिक स्वतन्त्रता के स्वप्न सदा से देखे गए हैं, उन स्वप्नों का विवरण देने वालों की व्याख्यायें ही नए कारागार निर्मित कर रही हैं, दवाई ही नयी बीमारी बनती जा रही है. ये काम पहले सदियों के अंतराल में होता था, अब हर दस पंद्रह साल में हो रहा है. इस तेजी से हो रहे परिवर्तन को प्रतिबिंबित करने वाली पत्रकारिता और साहित्य आज के समय की पहली जरुरत बनता जा रहा है और सोशल मीडिया उस जरूरत को पूरा करने की कोशिश कर रहा है. इस बात से कई पत्रकार और साहित्यिक सामंत राजी नहीं होंगे.
तकनीक जिस तेजी से विकसित हो रही है और जिस तेजी से मनुष्य के सामान्य-अन्तरंग मनोविज्ञान में 'तकनीक की त्वरा' प्रवेश कर गयी है, उसके प्रकाश में समाज और जीवन के बहुत सारे मुद्दों की व्याख्याएं बहुत तरह से बदल रही हैं. कोई आश्चर्य नहीं कि हमारे साहित्यकारों को आज कोई पढ़ना नहीं चाहता. ऐसा होना ही चाहिए. हमारा साहित्य आज की पीढ़ी की समस्याओं के साथ विकसित नहीं हो पा रहा, शायद हो भी नहीं सकता. जिस युग में बहुत धीमे धीमे परिवर्तन होते थे, उस युग में भी साहित्य बहुत थोड़े संभ्रांतों के वाक् विलास का विषय था, तकनीक ने हर हाथ में मोबाइल दे दिया, हर टेबल पर लेपटॉप है, हर घर में टीवी है जिसमे राजनीति, खेल और धर्मों के पाखंडों के रोज रोज नए खुलासे होते हैं.
मीडिया खुद हर तरह से सेलेक्टिव रिपोर्टिंग करता है. सरकारों/ उद्योगपतियों के साथ मिलकर षड़यंत्र रचता है - ये सब जान गए हैं. ऐसे हालात में कोई भी इन बिके हुए पत्रकारों पर भरोसा नहीं करना चाहता. अमेरिका में बहुत लम्बे समय से प्रचलित मीडिया की विश्वसनीयता खो चुकी है. वहां लोग मुख्यधारा के चैनलों-अखबारों पर भरोसा नहीं करते. अब ये भारत में हो रहा है. नयी पीढी इन राजों को समझ चुकी है.
पहले विज्ञान लेखन के जगत में ये मुहावरा चलता था कि एक वैज्ञानिक अगर कोई किताब लिख रहा हो, तो उसकी किताब के पूरे होने के पहले ही नयी खोजें उसकी किताब को 'आउट ऑफ़ डेट' बना डालती हैं. इसलिए विज्ञान के लेखक या तो अब पत्रिकाओं पर आ गए हैं या फिर फंतासी में उतर गए हैं. यही साहित्य के साथ हो रहा है. जीवन के जिस विराट विस्तार की चिंता करने का साहित्य दावा करता है - उस सन्दर्भ में उसकी क्षमताओं और प्रवृत्तियों के मूल्यांकन की बात भी उतने ही विस्तार में होनी चाहिए. ये सौभाग्य का विषय है कि इसमें साहित्य की वर्त्तमान धाराएँ धराशायी हो रही हैं. ये एक नए तरह के साहित्य की संभावना के लिए आधार बनेगा.
अभी जैसा लिखा जा रहा है वो नयी पीढी और नए समाज से बिलकुल भी मेल नहीं खाता. इसमें दोष साहित्य-साहित्यकारों का कम, समय की विसंगतियों का ज्यादा है. आज हिंदी के बेस्ट सेलर की परिभाषा करनी मुश्किल है. सर्वस्पर्शी साहित्य को ढूँढना या परिभाषित करना लगभग असंभव काम, ऊपर से राजनीति के नाग इन साहित्यिक बाम्बियों में डेरा डाले बैठे हैं. इस दशा में अगर साहित्यिक कबीले भी पत्रकारी कबीलों की तरह निंदा और गालियाँ झेल रहे हैं तो ये शुभ है. ये सब नए समय की अनिवार्य हकीकतें हैं और ये संघर्ष अपरिहार्य है. इस सडांध में ही नए कमल खिलेंगे.
सोशल मीडिया ने एक तरह से बहुत से लोगों की आँखें खोल दी हैं. राजनीति और पत्रकारिता तो इससे परेशान है ही, अब साहित्य के कबीलों ने भी इस हलचल को स्वीकारना शुरू कर दिया है. हालांकि बहुत पहले से ही कई साहित्यकार इस बात को कहते आये हैं कि साहित्य का पतन हो रहा है या युवा पीढी साहित्य में रस नहीं ले रही है, एक अर्थ में ऐसा कहकर उन्होंने ये मान लिया था कि कहीं न कहीं एक दरार है जो चौड़ी होती जा रही है. ये दरार आज इतनी चौड़ी हो चुकी है कि इसे भरना तो दूर इस पर कामचलाऊ संवाद के लिए एक पुल तक बनाना मुश्किल हुआ जा रहा है.
आज के समाज में जिस पीढी का सब तरफ वर्चस्व है वो अंग्रेजी शिक्षा के गर्भ में पली है. ये पीढी सांस्कृतिक रूप से कुपोषित है जिसे अपनी संस्कृति, लोकजीवन, मुहावरों, विश्वासों और यहाँ तक की भारतीय भाषाओं से भी वंचित रखा गया है. साहित्य दबे कुचलों की बात अवश्य करता है, लेकिन संभ्रांतो की सहानुभूति पर जीता है. जब किसी समाज का बौद्धिक अभिजात वर्ग एक भाषा और संस्कृति को ही पूरी तरह भूल चुका हो, ऐसे में उस भाषा के साहित्य के साथ ये होना तय ही है. एक और दुर्भाग्य इससे जुडा है, उस पीढी की उस अंग्रेजियत में भी ठीक से जड़ नहीं जम पायी है और मूल अंग्रेजी के साहित्य की बराबरी करने सकने वाला साहित्य भी हमारे पास नहीं है. ये दोहरे दुर्भाग्य हैं, जो हम एक वर्णसंकर संस्कृति की संतानों की तरह झेल रहे हैं.
इस खिचडी मानसिकता का परिणाम सब तरफ से उभरकर नज़र आ रहा है. समाज मनोविज्ञान के जो "स्थापित सत्य" राजनीति और मीडिया ने पकड़ रखे थे, वो आज नए सिरे से परिभाषित और उपयोग किये जा रहे हैं, जो इस काम में सफल हो पा रहे हैं उनको सब तरह से लाभ हो रहा है. जिस तेजी से बिके हुए इलेक्ट्रानिक मीडिया, फिल्मों, टेलीविजन सीरियल, विज्ञापनों और राजनीति में प्रयोग हो रहे हैं, उस तेज़ी से ये प्रयोग प्रिंट मीडिया और साहित्य में बिलकुल ही नहीं हो पा रहे हैं.
जिन सामान्य उद्देश्यों को लेकर पत्रकारिता और साहित्य चलते आ रहे हैं, वे उद्देश्य ही संदिग्ध हुए जा रहे हैं. आम आदमी से जुडी हुई वे विधाएं जो तेजी से आगे बढ़ रही हैं उनके पीछे हमारी पत्रकारिता और साहित्य हांफते हुए दौड़ रहे हैं. अगड़ों की छोड़ी हुई जमीन पर अपने लिए झोपडी बनाने का संघर्ष कर रहे हैं.

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