Saturday, 6 July 2013

सुरेन्द्र प्रताप सिंह के प्रतिमान


बलराम

बांकेबिहारी भटनागर अथवा चंद्रगुप्त विद्यालंकार के बारे में तो दूर, सुरेंद्रप्रताप सिंह और उदयन शर्मा तक के बारे में पूछा जाए तो युवा पत्रकार बगलें झांकने लगते हैं, जबकि सुरेंद्रप्रताप सिंह द्वारा शुरू किया गया आधे घंटे का कार्यक्रम आज तक अब टीवी चैनल बन चुका है। सुरेंद्रप्रताप सिंह सुलझे हुए इंसान, विचारवान व्यक्ति और लोकप्रिय पत्रकार होने के साथ-साथ अनेक समाचार संस्थानों के बडे बैनरों का रुतबा भी रखते थे। इसके बावजूद उनके लिखे लेखों को पढना-जानना तो दूर, अब कोई उनकी बात तक नहीं करता। ऐसे में अनुराधा द्वारा संपादित पत्रकारिता का महानायक सुरेंद्रप्रताप सिंह के रूप में सुरेंद्रप्रताप सिंह की कलम से लिखी गई रचनाएं पुस्तक रूप में पहली बार पाठकों के सामने पहुंची हैं। साढे चार सौ पृष्ठों के संयोजन-संपादन की इस कोशिश के लिए अनुराधा की प्रशंसा होनी चाहिए।
अनुराधा ने लिखा है- ..तो ये थीं खबरें आज तक, इंतजार कीजिए कल तक। 90 के दशक के टीवी दर्शकों को यह जुमला अब तक याद होगा, लेकिन इसे बोलने वाले सुरेंद्रप्रताप सिंह का नाम हर किसी को शायद याद न हो। आज तक के अलावा युवाओं में सुरेंद्रप्रताप सिंह का कोई और परिचय कम ही है, लेकिन पत्रकारिता जगत के लोग जानते हैं कि एसपी के नाम से मशहूर सुरेंद्रप्रताप सिंह ने प्रिंट और टेलीविजन, दोनों ही माध्यमों में पत्रकारिता के नए प्रतिमान गढे और नई परंपराएं शुरू कीं। जन पक्षधरता और राजनीति की पैनी समझ उनकी अभिव्यक्ति को धारदार बनाती थी। खबर के पीछे की खबर को सूंघ लेने की उनकी काबिलियत ने उन्हें अपने समकालीनों से एकदम अलग खडा कर दिया था। अखबार के किसी कोने की सिंगल कॉलम खबर को कवर स्टोरी बना देने की उनकी जैसी हिम्मत और प्रतिभा हर किसी में नहीं होती।

एसपी के महत्वपूर्ण लेखन को इस पुस्तक में अनुराधा ने कालखंड में नहीं, विषयों में बांटा है। जब भी एसपी सिंह किसी अखबार या चैनल के प्रमुख रहे, तब उन्होंने या तो नहीं लिखा या फिर बहुत कम लिखा। जब एसपी सिंह रविवार के कर्ता-धर्ता रहे, तब उन्होंने सबसे कम लिखा। कहा जा सकता है कि एसपी रविवार में खुद नहीं लिखते थे, लेकिन वे जिस तरह से लोगों तक बात पहुंचाना चाहते थे, वह काम पूरी पत्रिका करती थी। नवभारत टाइम्स छोडने के बाद स्वतंत्र पत्रकार के रूप में उन्होंने काफी लिखा और कुछ मुद्दों पर पक्ष लेकर सिलसिलेवार भी लिखा। इस संचयन में सभी मुद्दों पर एसपी बिना किसी लाग-लपेट के सत्य और न्याय के पक्ष में खडे दिखते हैं। एसपी की यह निरंतरता कभी टूटी नहीं। कांग्रेस विरोध उनके लेखन में निरंतर रहा। वे देश भर में चल रहे जनांदोलनों के पक्षधर के रूप में सामने आए थे। भ्रष्टाचार को लेकर हमेशा सख्त रहे। छद्म और अनावश्यक महिमामंडन से परहेज किया।

अनुराधा के अनुसार, सवाल पूछने और संदेह करने के पत्रकारीय धर्म के प्रति उनकी प्रतिबद्धता कभी कमजोर नहीं पडी। माध्यम बदलकर टेलीविजन में काम करते हुए दूरदर्शन जैसे सरकारी प्लेटफॉर्म पर सेंसर से बंधे होने के बावजूद आज तक की छवि कभी सरकारी नहीं बनी, तो इसका श्रेय एसपी को ही जाता है। दूरदर्शन पर बाहरी कार्यक्रमों की अनिवार्य स्क्रीनिंग और जरूरत पडने पर सेंसरिंग भी होती है, मगर एसपी आधे घंटे के आज तक कार्यक्रम के टेप प्रसारण से पहले स्वीकृति के लिए इतनी देर से दूरदर्शन को भेजते थे कि उसे सेंसर करना संभव नहीं हो पाता था। समय पर टेप न भेजने पर दूरदर्शन के अधिकारी कार्यक्रम प्रसारित न करने का निर्णय ले सकते थे, लेकिन जोखिम उठाने की वजह से ही तो एसपी, एसपी थे। एसपी के लेखों के इस संचयन को अनुराधा ने आठ हिस्सों में बांटा है।

पहला हिस्सा सामाजिक न्याय है। 1990 के मध्य में वीपी सिंह की सरकार ने मंडल कमीशन की सिफारिशें लागू करने की घोषणा कर दी तो विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक रथयात्रा निकाली। ऐसे समय में एसपी ने लिखा था कि इन तात्कालिक भावनात्मक मुद्दों से लोगों को बहलाने वाले राजनीतिज्ञ आम जन की बेरोजगारी, अशिक्षा, सामाजिक असमानता तथा आर्थिक पिछडेपन जैसे मुद्दों पर असंतोष की भाषा नहीं पढ पा रहे हैं। इसलिए दोनों ही विचारधाराओं के सहारे वे लंबे समय तक सत्ता में नहीं रह सकते। इस संदर्भ में एसपी का अनुमान एकदम सही निकला। पुस्तक का अगला खंड राजनीति है। महंगाई, अर्थनीति तथा अर्थव्यवस्था पर उनके उपलब्ध आलेख अर्थनीति खंड में हैं। देश और राज्यों में चल रहे कुशासन पर केंद्रित लेख राजकाज भ्रष्टाचार खंड में हैं, तो कश्मीर की उलझनों पर केंद्रित लेख कश्मीर खंड में। पत्रकारिता के व्यवसाय और विचार में अपने समय से आगे रहे एसपी के विचार अनुराधा ने पत्रकारिता खंड में संग्रहीत किए हैं।

एसपी ने अपने को हिंदी की पत्रकारिता के तथाकथित पतन के निरर्थक विलाप से हमेशा अलग रखा। पत्रकारिता की भाषा और तरीके में आ रहे बदलावों पर उनकी सोच सकारात्मक रही। हिंदी साहित्य की पढाई करने के बावजूद एसपी भाषा के मामले में उदार थे। भाषा को राष्ट्रीय अस्मिता से जोडने की महीन राजनीति करने वालों को उन्होंने अपने लेखन में लगातार आडे हाथों लिया। उन्होंने उस समय विकसित हो रही अखबारी और मीडिया भाषा को नई दिशा दी। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि दोनों भाषाओं के जानकार एसपी ने अपनी ज्यादातर पत्रकारिता हिंदी में की और अंग्रेजी के मुकाबले हिंदी पत्रकारिता को दोयम दर्जे की मानने के विचार को तथ्यों और तर्को के साथ हमेशा नकारा। वे अंग्रेजी के भी लोकप्रिय पत्रकार और कॉलम राइटर बने।

इकोनॉमिक टाइम्स तथा बिजनेस स्टैंडर्ड में उनके नियमित स्तंभ छपते थे तो बिजनेस स्टैंडर्ड और टेलीग्राफ में वे वरिष्ठ संपादकीय पदों पर रहे। हिंदी की तरह उनके अंग्रेजी लेखन का भी संचयन छपना चाहिए, ताकि एसपी का अंग्रेजी पत्रकार रूप भी सामने आ सके। पार जैसी कुछ फिल्मों की पटकथाएं भी एसपी ने लिखी थीं। अनुराधा लिखती हैं कि एसपी सिंह टेलीविजन पत्रकारिता के शुरुआती लोगों में तो थे ही, वे कई अर्थो में टीवी पत्रकारिता के पायनियर भी थे।

हिंदी में टीवी समाचार की भाषा, विषय, प्रस्तुतीकरण और स्टाइल को महत्वपूर्ण मुकाम तक पहुंचाने में एसपी की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण रही। आज तक उनकी समग्र अभिव्यक्ति का मंच बना। वे खुद रिपोर्टिग भले ही न करते रहे हों, लेकिन आज तक की हर स्टोरी में आइडिया से लेकर ट्रीटमेंट, स्क्रिप्ट, भाषा और अंतत: प्रस्तुतीकरण तक सभी में उनकी छाप रहती थी। कुल मिलाकर अनुराधा ने नई पीढी को एसपी सिंह के जीवन, कामों, सरोकारों और लेखन से परिचित कराने का जो काम शुरू किया है, उसे अगले मुकाम तक भी पहुंचना चाहिए, ताकि अच्छी पत्रकारिता के जो प्रतिमान सुरेंद्रप्रताप सिंह ने कायम किए, वे हमारे सामने बने रह सकें और नई पीढी उनसे भी आगे के प्रतिमान कायम कर सके।

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