रूसी कवि ब्लोक के लिए
तुम्हारा नाम जैसे हाथ पर बैठी चिड़िया,
तुम्हारा नाम जैसे जीभ पर बर्फ़ की डली
होठों का हल्का-सा कम्पन।
तीन अक्षरों का तुम्हारा नाम
जैसे उड़ती हुई गेंद आ गई हो हाथ में
जैसे चाँदी की घण्टी की टनटनाहट।
तुम्हारे नाम का उच्चारण
जैसे शान्त तालाब में पत्थर की छपाक्
रात की धीमी-सी आहट के बीच
गूँजता है तुम्हारा नाम
कनपटियों के पास
जैसे बन्दूक के घोड़े का स्पर्श ।
तुम्हारा नाम...उफ़्फ़ ! क्या कहूँ मैं
जैसे चुम्बन कोमल कुहरे का
सहमी आँखों और पलकों पर
तुम्हारा नाम
जैसे बर्फ़ पर चुम्बन
नीले शीतल झरने के पानी का घूँट।
गहरी नींद
सुलाता है
तुम्हारा नाम !
(1916)
शनि और रविवार के बीच*
शनि और रविवार के बीच
लटकी हूँ मैं—
बैंत के झाड़ में रहने वाली चिड़िया।
चाँदी है मेरे एक पँख पर
और दूसरे पर—
सोना ।
सुख-दुख के बीच
बँटी हुई हूँ मैं आधी-आधी
शनिवार है रजत मेरा
और स्वर्ण मेरा—
रविवार ।
उदासी बहती है मेरी धमनियों में
स्वभाव से मैं कोई चट्टान नहीं,
अपने दाहिने पँख से मैंने
गिरा दिया है एक पर ।
यदि नींद से फिर जाग गया ख़ून
और छा गया है गालों पर
तो इसका मतलब है यह कि
मैंने मोड़ दी सोने की पीठ
इस संसार की तरफ़ ।
मन भरकर देख लो—
जल्द ही दूर देशों की तरफ़
चल देगी रंग-बिरंगे पँखों वाली
बैंत के झाड़ में रहने वाली चिड़िया ।
* मरीना स्विताएवा का जन्म शनि और रवि की आधी रात को हुआ था।
(1919)
साइके
(एक)
मैं घर लौट आई हूँ
मैं छद्मवेशी नहीं हूँ ।
रोटी नहीं चाहिए मुझे
मैं नौकरानी नहीं हूँ ।
मैं हूँ तुम्हारी वासना का आवेग
आराम हूँ तुम्हारा रविवार का ।
दिन हूँ तुम्हारा सातवाँ और
हूँ तुम्हारा सातवाँ आकाश ।
एक पैसा क्या मिला भीख में
चक्की के बाँध दिए पाट मेरे गले में ।
ओ प्रिय, पहचान नहीं पा रहे हो क्या
मैं अबाबील हूँ—
तुम्हारी आत्मा।
(दो)
अभी तक जो रहा कोमल शरीर
आज ढका है चीथड़ों से,
टुकड़े-टुकड़े हो गया सब कुछ
साबुत बचे है सिर्फ़ दो पँख ।
बचाओ, तरस खाओ मुझ पर—
पहनाओ मुझे अपनी गरिमा
और ले जाओ मेरे फटे चीथड़े
अपने परिधानों के पवित्र भण्डार में ।
(1918)
मैं लिखती रही
मैं लिखती रही स्लेट पर
लिखती रही पँखों पर
समुद्र और नदी की रेत पर
बर्फ़ पर, काँच पर ।
लिखती रही सौ-सौ बरस पुराने डण्ठलों पर
सारी दुनिया को बताने के लिए
कि तू मुझे प्रिय है, प्रिय है, प्रिय है
लिख डाला यह मैंने
इन्द्रधनुष से पूरे आकाश पर
कि इच्छा थी मेरी कि हर कोई
सदियों तक खिलता रहे मेरे साथ,
कि मेज़ पर सिर टिकाए
एक के बाद एक
काटती रही
सबके सब नाम ।
पर तू जो बँध गया है बिके हुए क्लर्क के हाथ
क्यों डंक मारता है मेरे हृदय में
जिसे मैंने बेचा नहीं वह अँगूठी
आज भी रखी है मेज़ पर
(1920)
ज़माने ने सोचा नहीं
ज़माने ने कुछ सोचा नहीं कवि के बारे में
और मुझे भी ज़माने से क्या मतलब !
भाड़ में जाए यह गड़गड़ाहट, यह शोर
जो आ नहीं रहा है
मेरे अपने वक़्त के बीच से ।
यदि इस युग को कोई मतलब नहीं
अपने पुरखों से
तो मुझे भी कोई मतलब नहीं
पोतों-पड़पोतों की भीड़ से ।
मेरा युग— ज़हर है मेरा, बुख़ार है मेरा,
मेरा युग— दुश्मन है मेरा, नरक है मेरा ।
(1934)
न सोच कोई, न शिकायत
न सोच कोई, न शिकायत,
न विवाद कोई, न नींद
न सूर्य की इच्छा, न चन्द्रमा की
न समुद्र की, न जहाज़ की ।
महसूस नहीं होती गरमी
इन दीवारों के भीतर की,
दिखती नहीं हरियाली
बाहर के उद्यानों की ।
इन्तज़ार नहीं रहता अब
उन उपहारों का
जिन्हें पाने की पहले
रहती थी बहुत इच्छा ।
न सुबह की ख़ामोशी भाती है
न शाम को ट्रामों की सुरीली आवाज़,
जी रही हूँ बिना देखे
कैसा है यह दिन ।
भूल जाती हूँ
कौन-सी तारीख़ है आज
और कौन-सी यह सदी ।
लगता है जैसे फटे तम्बू के भीतर
मैं एक नर्तकी हूँ छोटी-सी
छाया हूँ किसी दूसरे की
पागल हूँ दो अँधियारे चन्द्रमाओं से घिरी।
माथा चूमने पर
माथा चूमने पर
मिट जाती हैं सब चिन्ताएँ-
मैं माथा चूमती हूँ ।
आँखें चूमने पर
दूर हो जाता है निद्रा-रोग-
मैं आँखें चूमती हूँ ।
होंठ चूमने पर
बुझ जाती है प्यास-
मैं होंठ चूमती हूँ ।
माथा चूमने पर
मिट जाती हैं आहें-
मैं माथा चूमती हूँ ।
(रचनाकाल : 5 जून 1917)
कोरा पन्ना
मैं कोरा पन्ना हूँ तुम्हारी क़लम के लिए
सब-कुछ स्वीकार है मुझे । सफ़ेद पन्ना हूँ मैं एक ।
मैं रक्षक हूँ तुम्हारी अच्छाइयों की ।
लेती रहूँगी सौ-सौ जन्म तुम्हारे लिए ।
गाँव हूँ मैं, काली ज़मीन हूँ
और तुम- धूप और वर्षा,
ईश्वर हो तुम
और मैं काली ज़मीन और सफ़ेद पन्ना ।
(रचनाकाल : 10 जुलाई 1918)
अब
अब ईश्वर नहीं पहले की तरह उदार
न ही वे नदियाँ उन तटों पर।
साँझ के विशाल द्वारों पर
चली आओ, ओ ख़ूबसूरत फ़ाख़्ताओ !
और मैं ठण्डी रेत पर लेटी
चल दूँगी बिना गिनती, बिना नाम के उस दिन...
जिस तरह पुरानी छोड़ देता है साँप केंचुल
छोड़ आई हूँ पीछे अपना यौवन।
(रचनाकाल : 17 अक्तूबर 1921)
मायकोव्स्की के लिए
जो ऊँचा है चिमनियों और सलीब से,
बप्तिस्मा हुआ है जिसका आग और धुएँ में,
आदि देवदूत भारी-भरकम
सदियों में एक होता है व्लादीमिर।
घोड़ा और घुड़सवार-- दोनों है वह
सनक है वह और विवेक भी।
साँस लेता, थूक से मलता है हथेलियाँ।
सम्भल जाओ, ओ भार ढोती महानता !
चौराहों के आश्चर्यों का गायक
स्वस्थ, स्वाभिमानी, मलिनमुख,
हीरे भी न कर पाए आकर्षित
चट्टान की तरह भारी उसे।
चट्टानों से चट्टान का शोर।
उबासी लेता, अभिवादन करता और पुन:
लकड़ी के हत्थे-जैसे पंखों पर
सवार होता भारी-भरकम देवदूत।
(रचनाकाल : 18 सितम्बर 1921)
नियति
निर्धन हूँ मैं और नश्वर-
अच्छी तरह मालूम है तुम्हें यह ।
प्रशंसा का तुम बोलते नहीं हो एक भी शब्द ।
पत्थर हो तुम और मैं एक गीत
स्मारक हो तुम और मैं एक चिड़िया ।
अर्थहीन होता है मई का महीना
काल की विराट आँखों के सामने ।
दोष न दो मुझे
मैं तो बस चिड़िया हूँ
मुझे मिली है नियति भारहीन ।
(रचनाकाल : 16 मई 1920)
पहला सूरज
ओ, पहले माथे के ऊपर के पहले सूरज।
सूरज की ओर धुआँ छोड़ती
बंदूक की दो नालियों-सी
ये विशाल आँखें आदम की।
ओ पहली ख़ुशी
ओ बाँये पक्ष के पहले सर्पदंश।
ओ, ऊँचे आकाश पर नज़र गड़ाए
हौवे की झलक पाते आदम।
उच्च आत्माओं के जन्मजात घाव-
ओ मेरी ईर्ष्या, मेरी जलन।
ओ मेरे सब आदमों से अधिक जीवन्त पति
ओ प्राचीनों के निरंकुश सूरज।
(रचनाकाल : 10 मई 1921)
मालूम है मुझे
मालूम है मुझे
कैसी होती हैं दुनिया की सुन्दरताएँ,
कि यह सुन्दर नक्काशी किया प्याला
इस हवा
इन तारों
इन घोसलों से अधिक है नहीं हमारा।
मालूम है मुझे
जानती हूँ कौन है मालिक इस प्याले का।
हल्के पाँवों से आगे बढ़ता
मीनार की तरह ऊँचा
ईश्वर के डरावने और गुलाबी होंठों से
पंखों की तरह अलग हो गया है प्याला !
(रचनाकाल : 30 जून 1921)
चाँद बोला पागल से
यहीं रहेंगे
जो गुँथे हुए हैं इस जगह से ।
आगे ऊँचाईयाँ हैं
यदि खो जाए आख़िरी बार स्मरणशक्ति
तुम पुन: होश में आना नहीं।
मित्र नहीं होते
प्रतिभाओं और पागलों के।
अन्तिम ज्ञान-प्राप्ति के अवसर पर
ज्ञान तुम प्राप्त करना नहीं।
मैं- आँखें हूँ तुम्हारी
छतों की उल्लू-दृष्टि।
पुकारेगा जब कोई तुम्हारा नाम-
तुम सुनना नहीं।
मैं आत्मा हूँ तुम्हारी : यूरेनस
देवत्व का द्वार।
मिलन के अन्तिम अवसर पर
तुम परखना नहीं ।
(यूरेनस= यहाँ यूरेनस का उल्लेख सम्भवत: एफ़्राडायटी के लिए है। रचनाकाल : 20 जून 1923)
प्रेम
खंजर? आग?
धीरे से।
इतनी ज़ोर से बोलने की क्या ज़रूरत!
चिर-परिचित यह दर्द
जैसे आँखों के लिए हथेली,
जैसे होंठों के लिए
अपने बच्चे का नाम।
(रचनाकाल : 1 दिसम्बर 1924)
हथेली
हथेलियाँ ! (युवक और युवतियों
के सन्दर्भ-स्रोत)
चूमी जाती है दाईं हथेली
बाँची जाती है बाईं।
आधी रात के षड्यन्त्र के भागीदार-
मालूम करो :
क्या दिखा रही है दाईं हथेली
और क्या छिपा रही है बाईं।
बाईं हथेली- सिब्बिल-
बहुत दूर रहती है ख्याति से।
इतना ही पर्याप्त है दाईं हथेली के लिए
कि स्त्सेवोला की हथेली बनना लिखा है उसकी नियति में।
पर नफ़रत की इन लम्बी घड़ियों में भी
हम दुनिया के हाथों
सौंपते हैं पूरे दिल से
अपनी बाईं हथेली।
और ईश्वर के आक्रोश के सम्मुख
हमने कभी नहीं हिम्मत हारी
दाएँ हाथ के बल पर
हम जीते रहे बाईं हथेली की नियति।
(शब्दार्थ :सिब्बिल=पौरोणिक कथाओं में भविष्यवाणी करने वाली स्त्री, जिसे अपोलो से दीर्घायु का वरदान मिला था। स्त्सेवोला=रोम की एक दन्तकथा का नायक, जिसने अपने साहस व निडरता का परिचय देने के लिए अपना दायाँ हाथ जलती आग पर रख दिया था। रचनाकाल : 27 अप्रैल 1923)
घर
जिन लोगों ने
घर नहीं बनाए
वे अयोग्य हैं
इस धरती के
जिन लोगों ने
घर नहीं बनाए
इस धरती पर
लौट कर
नहीं आ सकते वे
भूसे या भस्मी हित शायद
कभी न धरती पर आ सकते
मैंने भी घर नहीं बनाए
ज़िन्दगी से
नदियों के उफ़ान की तरह मेरे
गालों की छिन नहीं सकोगी लाली ।
तुम-- शिकारी, पर हार नहीं मानूँगी मैं
तुम दौड़ हो तो मैं रफ़्तार ।
तुम ज़िन्दा नहीं पकड़ सकोगी मेरी आत्मा-
अपनी दौड़ की पूरी तेज़ी में
अपनी नसें चबाता हुआ
यह लचीला अरबी घोड़ा ।
(रचनाकाल : 25 दिसम्बर 1924)
जीवन जिया मैंने
जीवन जिया मैंने
कहूँगी नहीं ये मरते हुए ।
अफ़सोस नहीं, न ही किसी पर आरोप लगाने की ज़रूरत ।
उन्माद के तूफ़ानों और प्यार के कारनामों से अधिक
और भी हैं ज़रूरी चीज़ें इस दुनिया में ।
तुम जो पँखों से
दस्तक देते थे मेरी छाती पर
अपराधी हो मेरी युवा प्रेरणा के ।
तुम मान लो ज़िन्दा रहने का मेरा आदेश,
मैं भी मानती रहूँगी तुम्हारी हर बात ।
(रचनाकाल : 30 जून 1918)
इस महानगर में
रात छाई है मेरे इस विराट महानगर में,
और मैं... दूर जा रही हूँ सोए पड़े इस घर से।
लोग सोचते हैं... होगी कोई लड़की, कोई औरत,
पर यह मैं ही जानती हूँ
क्या हूँ मैं और क्या है यह रात।
मेरा रास्ता साफ़ कर रही है जुलाई की हवा
संगीत गूँज रहा है धीमा-सा एक खिड़की में।
आज रात सुबह तक बहते रहना है हवा को
एक छाती की पतली दीवारों से दूसरी छाती में।
खड़ा है काला चिनार
खिड़की में रोशनी
घंटाघर में घण्टियों की आवाज़
हाथों में फूल।
किसी का पीछा न करता यह पाँव, यह छाया...
सब-कुछ है यहाँ
बस एक मैं नहीं।
रोशनियाँ जैसे सुनहरे मनकों के धागे,
मुँह में रात की पत्तियों का स्वाद।
मुझे मुक्त करो दिन के बंधनों से,
दोस्तो, विश्वास करो, मैं दिखती हूँ तुम्हें सिर्फ़ सपनों में।
(रचनाकाल : 17 जुलाई 1916)
आएँगे दिन कविताओं के
आएँगे दिन उन कविताओं के
जिन्हें लिखा मैंने छोटी उम्र में
मैं कवि हूँ-
जब स्वयं को भी नहीं था मालूम यह ।
आएँगे दिन राकेट के अँगारों के
और फव्वारों से छूटते छींटों-सी कविताओं के ।
धूप और आलस के नशे में झूमते
मन्दिर में घुस आए शिशु-देवदूतों-सी
यौवन और मृत्यु की
जो पढ़ी नहीं गईं
आएँगे दिन उन कविताओं के ।
दूकानों की धूल में बिखरी हुई
ख़रीदारों की उपेक्षा की शिकार
महँगी शराब की तरह
मेरी कविताओं के भी दिन आएँगे ।
(सभी कविताओं का मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह)
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