Sunday, 7 July 2013

एक अंक 'हरिगंधा' का



संपादक डा. मुक्ता

'हरिगंधा' साहित्य की महत्त्वपूर्ण पत्रिका है। इसका एक लघुकथा विशेषांक है। अतिथि संपादक अशोक भाटिया ने अपने अपने सम्पादकीय के द्वारा लघुकथा के प्रति जो वैचारिक भूमिका बाँधी है उसी को आगे बढ़ाते हुए जिन आलेखोंका चयन किया ,उसे को दो खण्डों में बाँटा गया है ---पहला ‘अभिमत’ और दूसरा ‘आलेख’ खंड है । डा शशि भूषण सिंघल ने अपने अभिमत में लघुकथा के सन्दर्भ में कथा के भीतर भाव की अनुगूँज को महत्त्वपूर्ण बताया तो राजकुमार कुम्भज ने कसे हुए अनुशासन के बिना लघुकथा को कच्ची माटी का घड़ा कहा है । कुल मिलाकर लघुकथा के मार्मिक पक्ष की बकालत है । आलेख खंड के सोलह आलेखों के माध्यम से लघुकथा के सन्दर्भ में बहुत सारे महत्वपूर्ण प्रश्न उठाये गए और उनके समाधान भी प्रस्तुत किये गए हैं ; जो समकालीन लघुकथा के अस्तित्व निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करते दिखाई दे रहे हैं ।
सूर्यकान्त नागर ने सांकेतिकता को लघुकथा के प्राण के रूप में महत्त्व दिया है और किसी भी स्तर पर लघुकथा के अनर्गल संख्या बल को पैमाना न मानकर गुणवत्ता पर जोर दिया है । माधव नागदा ने भी कुकुरमुत्तों की तरह उग आये लघुकथाकारों पर प्रहार करते हुए पहचान के रूप में लघुकथा को 'जीवन के किसी सूक्ष्म कालखंड की कथात्मक अभिव्यक्ति’ माना है । बलराम अग्रवाल ने मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के दायरे को फ्राम ,फ्रायड और रॉक आदि मनोवैज्ञानिकों के सिद्धांतों की ज़मीन पर फैलाकर समकालीन लघुकथा को जाँचने परखने का ऐसा आधार दिया है जहाँ न केवल दमित इच्छाओं और काम आदि पुराने कारकों के दबाव में पड़ने वाले प्रभावों को परखा गया है बल्कि आज के समाज की विद्रूपताओं ,विसंगतियो ,प्रतिरोधों के बीच आम आदमी की सहज प्रतिक्रियाओं और इच्छाओं -आकांक्षाओं की लघुकथा में व्याप्ति को सटीक उदाहरणों से स्पस्ट किया है । अशोक भाटिया ने अपने आलेख 'बीच बहस 'में जनता के बीच लघुकथा अथवा लघुकथा के बीच जनता की आवश्यकता को उसकी स्वीकार्यता से जोड़ कर ऐसा प्रश्न खड़ा किया है ;जो लघुकथा के अस्तित्वसे जुडा है साथ ही आकार को लघुकथा की पहचान के रूप में स्वीकार नहीं किया है । डा पुरुषोत्तम दुबे ने शिल्प के विविध रूपों की व्यापक धरातल पर सोदाहरण व्याख्या की है,जो लघुकथा की शिल्पगत पड़ताल को महत्त्वपूर्ण मुकाम देती है । डा शमीम शर्मा ने कहानी से लघुकथा को अलग दिखने के चक्कर में सारांश प्रस्तुत करने की कृत्रिम प्रवृत्ति को कटघरे में खड़ा किया है और जटिलता के प्रति भी आगाह किया है । इसी क्रम में डा बाबूराम ने लघुकथा को किसी घटना का संक्षिप्त और मर्मस्पर्शी विवरण कहा है जिसमें ‘संक्षिप्त और विवरण’ स्वीकार करने में हिचक हो सकती है; क्योंकि विवरण के लिए लघुकथा में ज़्यादा गुंजाइश नहीं होती ।इन्होंने हरियाणा के लघुकथाकारों तथा उनकी प्रकाशित पुस्तकों का ऐतिहासिक विवरण दिया है जो कि 1966 में सुगन चंद मुक्तेश की ‘स्वातिगूंज’ से लेकर 1910 में अशोक भाटिया की महत्त्वपूर्ण लघुकथा कृति ‘अंधेरे में आँख’ तक प्रस्तुत करते हुए हरियाणा के लघुकथाकारों के के द्वारा उठाए गए नवीनतम विषयों तथा प्रस्तुत करने के अलग–अलग तेवरों की कलात्मक विशेषताओं सहित व्याख्या की है तथा इसी क्रम में भूगोल की विस्तार देते हुए डॉ रामकुमार घोटड़ ने पाठकों और समीक्षकों को महत्त्वपूर्ण जानकारी दी है। डॉ। सत्यवीर मानव ने गभीरतापूर्व लघुकथा लेखन का विवेचन विशेषण करते हुए हरियाणा के लघुकथा रचनाकार पर शोध के सन्दर्भ में डॉ रामनिवास मानव का विशेष उल्लेख किया है।
आज के समय में प्रिंट मीडिया से अलग अंतर्जाल पर साहित्य खूब फल–फूल रहा है। लघुकथा को पूरे महत्त्व के साथ प्रस्तुत करने में श्री सुकेश साहनी तथा रामेश्वर काम्बोज’हिमांशु’ का कार्य लघुकथा डॉट कॉम के माध्यम से सामने आया है और यहॉं अपने आलेख में ’हिमांशु’ जी ने तमाम महत्त्वपूर्ण वेवसाइटों का परिचय दिया है; जिन्होंने भारत समेत दुनिया के बहुत सारे देशों में लघुकथा की पहचान को रेखांकित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इस अंक में संपादकों ने लघुकथाओं को विभिन्न स्तम्भों के अंतर्गत प्रकाशित करके के लघुकथाओं तथा हरिगंधा पत्रिका को गरिमा प्रदान की है। लघुकथा के आलोक स्तम्भ के अंतर्गत विश्व और भारत की आठ भाषाओं के सशक्त रचनाकारों की लघुकथाओं को प्रस्तुत किया गया है जिनमें खलील जिब्रान (अरबी), शेख सादी (फारसी), तयाड़ च्येनहवा (चीनी), वाङ मङ (चीनी), लियो तोलस्तोय (रूसी), इवान तुर्गनेव (रूसी), बर्तोल्त ब्रेख्त (जर्मन), फ़्रांस (जर्मन), समरसेट मॉम (अंग्रेजी), ओ हेनरी (अंग्रेजी), कार्ल सेंडवर्ग (अंग्रेजी),सआदत हसन मंटों (उर्दू), रतन सिंह (उर्दू), वरयाम सिंह (पंजाबी), की विश्व प्रसिद्ध लघुकथाएँ समाहित है।
‘हिन्दी की विरासत’ के अंतर्गत महान रचनाकारों की प्रसिद्ध लघुकथाओं को समाहित किया गया है जिसमें माधव राव सप्रे की लघुकथा ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ समाहित हैं। लघुकथाएँ एक, लघुकथाएँ दो तथा लघुकथाएँ तीन अलग–अलग स्तम्भों में रचनाकार की गरिमा, लघुकथा के प्रति लेखक का समर्पण और पाठकों में लोकप्रियता को ध्यान में रखकर चयनित की गई प्रतीत होती है। इस एक में तमिल एवं पंजाबी से अनूदित लघुकथाएँ है और उनका चयन बुद्धिमतापूर्ण है ।
15 पुस्तकों की समीक्षा की गई है जो कि सभी पुस्तकें लघुकथा की है। ये समीक्षा समीक्षकों के द्वारा की गई यद्यपि वे बहुत जाने माने है और सभी समीक्षाएँ गंभीरता लिये हुए हैं परन्तु एक–एक समीक्षक को कई कई पुस्तकों की समीक्षा करनी पड़ी है तो इस बात को भी प्रमाणित करता हैं कि अभी साहित्य जगत ने लघुकथा के लिए बहुत अधिक समीक्षक नहीं दिये हैं । निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि हरिगंधा का यह लघुकथा विशेषांक, लघुकथाओं को उनकी साहित्यिक पहचान दिलाने में महत्त्वपूर्ण कदम साबित होगा। इस अंक के माध्यम से लघुकथा को जानने -समझने के लिए पाठकों को और रचनाकारों को भी व्यापक फलक प्राप्त होगा। लेखों एवं लघुकथाओं का चयन यद्यपि बहुत मेहनत से किया गया है; फिर भी कुछ कमजोर लघुकथाएँ न होती तो मानक लघुकथाएँ के संकलन के रूप में इस अंक को स्वीकार किया जाता। वर्तनी- संबंधित अशुद्धियाँ कम नही है ; परंतु उन्हें अनदेखा करना इसलिए उचित है ;क्योंकि हरिगंधा का यह अंक जिस सजे -सँवरे रूप में पाठकों के सामने आया है ,वह आकर्षक है, संग्रहणीय ,पठनीय है और सच कहा जाए तो अदभुत भी है।

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