दयानंद पांडेय
चंद्रधर शर्मा गुलेरी के बाद हिंदी कहानी में सब से कम लिख कर अगर कोई दूसरा नाम मुझे सूझता है तो वह नाम है ज्ञानरंजन का। तीसरा नाम है शिवमूर्ति और चौथा नाम है उदय प्रकाश का। ज्ञानरंजन के पास तो गुलेरी की तरह एक उपन्यास भी नहीं है। उदय प्रकाश ने तो कम लिख कर भी अंतरराष्ट्रीय छवि अर्जित कर ली है। वह हिंदी से ज़्यादा विदेशी भाषाओं में अब पाए जाते हैं। वह कई बार साफ-साफ बोल भी जाते हैं। बाज़ दफ़ा वह ठकुरसुहाती करने वालों पर प्रहार भी कर लेते हैं सो बहुतेरे उन के खिलाफ़ खड़े हुए दीखते हैं, लगभग दुश्मनी की हद तक। लेकिन उदय प्रकाश हथियार नहीं डालते। प्रहार और तेज़ कर देते हैं। इस से उपजा अवसाद भी वह कभी किसी से छुपाते नहीं। सो विदेशी भाषाओं में भले वह दुलरुआ हैं पर हिंदी में उन के निंदक कई एक मिल जाते हैं। लेकिन उन की रचनाओं का बाल भी बांका नहीं होता और उन की टी.आर.पी. बढ़ती जाती है। उन की कहानियों की मिठास आलोचना की आंच का पाग पा कर और बढ़ जाती है। ज्ञानरंजन की स्थिति उदय प्रकाश जैसी तो नहीं है पर हिंदी में तमाम चर्चा के बावजूद वह भी दुलरुवा नहीं हैं। उन के निंदक भी बहुतेरे मिल जाते हैं। पर जैसे कोई गुलेरी का कोई निंदक नहीं मिलता, शिवमूर्ति को भी कोई निंदक नहीं मिलता । हां, भीतर-भीतर जलता-भुनता हुआ एक तबका ज़रुर दिखता है। अकुलाता और अफनाता हुआ। उन की प्रसिद्धि की आंच में झुलसता और खीजता हुआ।
मैं समझता हूं कि कम लिख कर ज़्यादा चर्चित लोगों में कथामूर्ति शिवमूर्ति ने जितना लिखा है, उस से ज़्यादा ही उन पर लिखा गया है। यह सौभाग्य मैं समझता हूं हिंदी में सिर्फ़ शिवमूर्ति को ही नसीब है। लेकिन शिवमूर्ति खतरे नहीं उठाते। उन की कहानियां या उपन्यास भी खतरे से खारिज़ हैं। हां, वह अपने पाठकों और पात्रों के बीच एक ऐसा मधुमास रचते हैं जिस की धूप मीठी लगती है, तीखी नहीं। जैसे कभी ज्ञानरंजन शहरी मध्यवर्ग की कहानियां लिख कर, उन के बारीक व्यौरे परोस कर आज तक हिंदी कथा-जगत में खलबली मचाए हुए हैं, ठीक वैसे ही शिवमूर्ति गंवई निम्न-वर्ग या मध्य-वर्ग की कहानियां लिख कर, दबे कुचलों की धूप-बरसात, दिखा कर सन्नाटा तोड़ते दीखते हैं। वह अपनी कहानियों में एक सिनेमाई जादू रचते हैं। जैसे कभी द्विजेंद्रनाथ मिश्र निर्गुण रचते थे। निर्गुण की कहानियों में भी मध्य-वर्ग का मधुमास और उस की इमली सी खट- मिठास वैसे ही मिलती है जैसे शिवमूर्ति के यहां मिलती है। शिवमूर्ति की एक बहुत बड़ी थाती है उन की औरतें। उन की कहानी की औरतें भी और उन की ज़िंदगी की औरतें भी। एकदम उन की कहानियों और ज़िंदगी की तरह दिखने में ऊबड़-खाबड पर भीतर से पूरी तरह से व्यवस्थित। चाक-चौबंद। इतना व्यवस्थित, संतुष्ट और निश्चिंत लेखक हो सकता है और भी हों पर मुझे शिवमूर्ति के सिवाय हिंदी में कोई और नहीं दिखता। संघर्ष तो बहुतेरे लेखकों के जीवन में है पर शिवमूर्ति जैसा जीवन-संघर्ष भी बिलकुल अकेला है।
अब दिक्कत यह है कि हिंदी में आलोचक पहले तो फ़ासिस्ट हुए फिर आलसी सो आलोचना नाम की संस्था लगभग समाप्त है। सो आलोचना में अब एक भेड़-चाल की सी स्थिति है। कोई एक भेड़ जिस राह पर चलती है, सभी भेंड़ें उसी राह चल निकल पड़ती हैं। फिर राह पकड़ कर तू एक चला चल मिल जाएगी मधुशाला वाली स्थिति तो है ही। समीक्षा अब जैसे मूंगफली हो गई है। टाइम काटने के लिए। अब एक कवि, अपने परिचित या दोस्त कवि के लिए लिखता है, मूंगफली की तरह, कोई कहानीकार, अपने दोस्त कहानीकार के लिए लिखता है। सिर्फ़ चर्चा के स्तर पर या सूचना के स्तर पर। आज-कल तो संपादक भी सिर्फ़ दोस्ती ही निभाते हैं, रचना से उन का कोई सरोकार नहीं, रचनाकार की शकल से मतलब रह गया है या फिर अपने अहंकार से मतलब है। सो संपादकों और पत्रिकाओं की स्थिति तो और बुरी है। सो सब कुछ के बावजूद शिवमूर्ति पर लिखा तो खूब गया है लेकिन जैसे तुलसी दास या प्रेमचंद के लिए रामचंद्र शुक्ल ने लिखा, कबीर के लिए हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा निराला के लिए रामविलास शर्मा ने लिखा, निर्मल वर्मा के लिए नामवर सिंह ने लिखा या फिर फणीश्वरनाथ रेणु के लिए सेल्यूलाइड के परदे पर जैसा शैलेंद्र ने लिखा बरास्ता बासु भट्टाचार्य वैसा अभी ज्ञानरंजन, उदय प्रकाश और शिवमूर्ति जैसे लेखकों पर नहीं लिखा गया है। अब इस शार्ट-कट और ठकुरसुहाती के दौर में कब और कौन लिखेगा इन कथामूर्तियों पर कहना कठिन है।
शिवमूर्ति जैसे लेखकों के लिए एक चुनौती और है कि प्रेमचंद की परंपरा की बात तो बहुत होती है इन की पैरवी में पर अभी तक हिंदी में एक भी लेखक ऐसा नहीं हो पाया है जिस के खाते में प्रेमचंद की तरह प्राइमरी कक्षा से लगायत एम.ए. तक पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रम लायक रचनाएं हों। प्रेमचंद की परंपरा की बात और पैरवी करना तो बहुत आसान है पर ईदगाह, पंच परमेश्वर, कफन, पूस की रात से लगायत रंगभूमि, गोदान तक की अनमोल यात्रा किसी भी के पास नहीं है। शिवमूर्ति के पास भी नहीं। लेकिन शिवमूर्ति के पास एक ऐसा अनुभव संसार है, समय है, मन है और कि स्वास्थ्य और सुविधाएं भी कि वह प्रेमचंद के इस प्रतिमान को न सिर्फ़ छू सकते हैं बल्कि उसे और आगे भी बढा सकते हैं। इस लिए भी कि वह अभी भी लिख रहे हैं, ज्ञानरंजन लिखना बरसों से छोड़ चुके हैं, उदय प्रकाश अंतरराष्ट्रीय हो चुके हैं, सिनेमा वगैरह में उलझ चुके हैं। शिवमूर्ति के पास ऐसा कोई स्पीड-ब्रेकर नहीं है। न ही अहंकार पालने और उस में बिला जाने के लिए वह किसी पत्रिका के संपादक हैं। उन के लिए यह बहुत बड़ी सुविधा है। ज़िम्मेदारियों से मुक्त हैं। अनुभव-संपदा के साथ-साथ उन के पास गहन यायावरी भी है, उन की पत्नी और बच्चे भी यही चाहते हैं कि 'ए' कुछ बड़ा लिखें। साहित्य अकादमी वगैरह उन को नहीं मिला है, वह इन चिंताओं को भी अपने विशाल पाठक-संसार के प्यार से धो सकते हैं। कमलेश्वर, अमरकांत, मनोहर श्याम जोशी, काशीनाथ सिंह आदि की तरह प्रतीक्षारत भी रह सकते हैं।
दो पत्रिकाओं मंच और लमही ने दो साल के भीतर ही जिस तरह बारी-बारी उन पर केंद्रित अंक निकाले हैं वह हर्ष का विषय तो है ही, उन की स्वीकृति का बैंड-बाजा भी है। उन की लोकप्रियता का मानक भी। पर लमही में अपनी एक टिप्पणी में जो बात दूधनाथ सिंह ने कही है वह भी एकदम से टाल देने वाली नहीं है। दूधनाथ लिखते हैं :
समकालीन हिंदी कथा साहित्य में शिवमूर्ति की छवि एक भले मानुष की है। वह सब के मित्र हैं। किसी के बारे में बुरा नहीं कहते और भला भी नहीं कहते। हिंदी के आधुनिक समाज में इस तरह का निरपेक्ष नाम लोकप्रियता की एक बहुत बड़ी साधना और पूंजी है। यह घातक और क्रूर है। ऐसे लोग अच्छे नहीं होते क्यों कि वे अपनी अधिकांश धारणाएं गोपनीय बना कर रखते हैं। फूलने-फलने का यह कायदा हिंदी में इन दिनों आम तौर पर प्रचलित है। शिवमूर्ति भी कुछ ऐसे सय, सुसंकृत, भोले-भाले, कठोर और मन में सब को ठेंगे पर रखने वाले इंसान हैं यह हिंदी लेखकों की एक अनन्य इच्छा भी है।
शिवमूर्ति को दूधनाथ सिंह के इस कहे पर गौर ज़रुर करना चाहिए।
नहीं अभी और बिलकुल अभी पाखी ने भी ज्ञानरंजन पर केंद्रित एक अंक निकाला है। पाखी में ज्ञानरंजन के लिए एक भरा-पूरा प्रतिपक्ष भी है। पर बीते साल मंच और अब की साल लमही ने जो शिवमूर्ति पर अंक केंद्रित किए हैं, इन दोनों ही पत्रिकाओं में शिवमूर्ति का प्रतिपक्ष बिलकुल नदारद है। है भी तो दशमलव शून्य के बराबर भी नहीं। जैसे लमही में यह दूधनाथ की टिप्पणी है। या मंच में एक जगह राजेंद्र यादव अपने पत्र में चुटकी काटते हुए पूछते हैं कि, 'तुम ने अपने कुछ गुणों के विज्ञापन के लिए राजेंद्र राव से कितने का सौदा किया? और?' पर यह कुछ-कुछ गुदगुदाने और परिहास के ही भाव में ही है। ठीक वैसे ही जैसे राजेंद्र यादव शिवमूर्ति को कभी दुष्ट शिरोमणि या राक्षस शिरोमणि से संबोधित करते मिलते हैं। तो इस में उन का प्यार भी छलकता है और वात्सल्य भी। जैसे कि अपनी डायरी में ही एक जगह शिवमूर्ति अपनी बीमारी और अस्पताल के व्यौरे बांचते हुए लिखते हैं कि : 'यादव जी पास आ गए। बोले-तुम हरामी हो। सुंदर चेहरों से घिरे हो इस लिए घर जाने का जल्दी नाम नहीं लोगे। मैं मुस्करा उठा। बेचारी सी मुस्कराहट। पास खड़ी नर्स भी मुस्कराने लगी।'
एक दिक्कत और है इन पत्रिकाओं में कि इन में शिवमूर्ति की रचनाओं से ज़्यादा बात और चर्चा उन के व्यक्तित्व पर है। व्यक्तित्व बहुत ज़रुरी है, पर रचना ज़्यादा ज़रुरी है। मेरा मानना है कि शिवमूर्ति की रचना पर ज़्यादा बात होनी चाहिए। इस लिए भी कि शिवमूर्ति के व्यक्तित्व से बड़ी उन की रचनाएं हैं। यह ठीक है कि उन का जीवन भी, जीवन संघर्ष उन की रचनाओं जितना ही उद्वेलित करता है, उन का संघर्ष भी अब मोहित करता है। इस लिए कि उन्हों ने अपनी कहानियों में रावणों की शिनाख्त कर दी है। अब अगर उन की कहानियां न होतीं तो उन के संघर्ष को भला कोई क्यों अगरबत्ती दिखाता? कहानियां हैं तभी उन का यह संघर्ष है। नहीं इस से भी ज़्यादा और लोमहर्षक संघर्ष आज भी करोड़ों लोगों के जीवन में हलकोरे मार रहा है। लेकिन हम उन करोड़ों लोगों के संघर्ष को भूल जाते हैं, शिवमूर्ति को याद रखते हैं। तो इस लिए कि उन के पास कसाईबाड़ा, सिरी उपमा जोग, भरत नाट्यम, केशर-कस्तूरी, तिरिया-चरित्तर, तर्पण और छलांग है। ख्वाजा ओ मेरे पीर है।
एक समय था कि पाठ्यक्रम बनाने वाले कुछ मूर्ख विशेषज्ञों के चलते हम तुलसी दास के पत्नी प्रेम के बाबत लाश पर तैर कर जाने, सांप को रस्सी समझ कर पकड़ कर घर में घुस जाने जैसी कथाएं भी पढ़ते थे। हालां कि तुलसी दास के जीवन में और भी तमाम ऐसी घटनाएं जो हमें कई बार सोचने के लिए विवश कर देती हैं। हिला कर रख देती हैं। खैर तो भी क्या हम सिर्फ़ इन कथाओं के चलते ही तुलसी दास को जानते हैं या पढते हैं? या कि जैसे कालीदास के बारे में भी हमें पढ़ाया गया है कि वह जिस डाल पर बैठे थे उसी को काट रहे थे, और फिर विद्योतमा से उन का मूर्खता भरा शास्त्रार्थ भी पढ़ा़या गया है। ठीक वैसे ही बाल्मिकी के डाकू होने का प्रसंग। पर क्या बाल्मिकी या कालिदास को हम क्या सिर्फ़ इन या ऐसी घटनाओं के बाबत ही जानते हैं? या कि फ़िराक को हम उन के होमो या शराबी होने के नाते जानते हैं कि उन की शायरी के नाते? बिलकुल इसी तरह हम बाद के दिनों में प्रेमचंद की गरीबी, उन का संघर्ष आदि भी पढ़ते रहे थे। उन के जीवन में औरतों आदि का भी विवरण मिलता है। तो क्या प्रेमचंद को क्या हम सिर्फ़ इन्हीं अर्थों में जानते हैं या कि उन की कालजयी रचनाओं के लिए। सारे जहां से अच्छा हिंदोस्तां हमारा लिखने वाले इकबाल का हाथ सांप्रदायिक दंगों में भी सना था पर हम उन्हें उस के लिए भूल कर उन की रचना के लिए ही याद करते हैं। इसी तरह और भी कई लेखकों कवियों के जीवन चरित से जुड़ी तमाम बातें भी आती रही हैं तो सिर्फ़ इस लिए उन का रचनाकार भी बड़ा था या है। पर यह बातें दाल में नमक की तरह होती रही हैं या हैं। नमक में दाल की तरह नहीं। लेकिन इधर परंपरा ऐसी चर्चाओं के मामले में नमक में दाल की तरह हो गई हैं। इस से बचना ज़रा ज़रुरी है।
एक बार नामवर जी से लेखक-आलोचक संबंधों पर बात चली। मैं ने उन से स्पष्ट कहा कि आज की तारीख में आलोचक बडा़ हो गया है और लेखक छोटा। तो उन्हों ने इस का कडा़ प्रतिवाद किया। और साफ कहा कि यदि रामचंद्र शुक्ल जैसा आलोचक हो तो रचना भी उस दौर की उतनी बड़ी थी। आलोचक किसी लेखक को बड़ा नहीं बनाता, उस के बड़प्पन को स्वीकार करता, करवाता है। अब निराला को ही लीजिए। निराला को उस दौर के आलोचकों ने नहीं माना था। पर आलोचक गलत साबित हुए और निराला बड़े हो गए। प्रेमचंद के ज़माने में भी रामचंद्र शुक्ल थे और शुक्ल ने उन को स्वीकार किया था। पर तब एक आलोचक थे अवध उपाध्याय। अवध उपाध्याय को लोग भूल गए हैं। पर इन्हीं अवध उपाध्याय ने प्रेमचंद के उपन्यास ‘प्रेमाश्रम’ को टॉलस्टाय के एक उपन्यास का अनुवाद तथा ‘रंगभूमि’ को मैकरे का अनुवाद कहा था। पर देखिए कि प्रेमचंद को आज लोग जानते हैं, लेकिन अवध उपाध्याय को कोई नहीं जानता। नामवर जी ने कहा कि यह मत भूलिए कि रचनाकार भी आलोचक होते हैं। वह भी किसी को स्वीकार करते हैं और किसी को खारिज। पर साहित्यिक दुनिया किस को स्वीकार करती है, मुन:सर इस पर होता है। किसी एक-दो आलोचक का सवाल नहीं होता। इस कसौटी पर तो नामवर की बात सही लगती है। ऐसे में यह आकलन करना ज़रुरी हो गया है कि क्या तमाम रचनाकारों की उपस्थिति के बावजूद आज आलोचना क्यों गायब है? क्या रचना में कहीं कमी है या आलोचना सचमुच लुप्त हो गई है, इस की पड़ताल ज़रुरी है।
एक समय था कि साहित्य में एक वामपंथी शब्दावली खूब चली थी वर्ग-चेतना, वर्ग-संघर्ष, वर्ग-शत्रु। वामपंथी राजनीति में भी यह शब्द आम था। पर बाद के दिनों में यह सारे शब्द तिरोहित हो गए। खास कर वामपंथ के पतन और देश में मंडल-कमंडल की राजनीति के गरमाने के बाद। वह वामपंथी शब्दावली जाति-चेतना, जाति-संघर्ष, जाति-शत्रु में तब्दील हो गई। भारतीय राजनीति में भी और साहित्य में भी। राजनीति में थोड़ी परदेदारी के साथ पर साहित्य में खुल्लम-खुल्ला। वर्ग-शत्रु का जाति-शत्रु में तब्दील होना समाज, राजनीति और साहित्य तीनों के लिए घातक है। राजनीति में तो वोट-बैंक के चलते यह सब हुआ पर साहित्य में इन शब्दों का पतन क्यों और कैसे हुआ यह ज़रुर पड़ताल का विषय है। आखिर साहित्य में कौन से वोट-बैंक की ज़रुरत आ पडी़ भला? प्रेमचंद का वह कहना कि साहित्य आगे-आगे चलने वाली मशाल है, लोग कैसे भूल गए? यह भी भला कैसे भूल गए कि साहित्य जोड़ने का काम करता है, तोड़ने का नहीं। लोहिया कहते रहे हैं, नारा लगाते ही रहे हैं कि जाति तोड़ो ! और अपने लेखक लोग हैं कि अब पूरी ताकत से जातियों की चौहद्दी बना कर क्रांति करने में लग गए हैं। आखिर करुणानिधि-जयललिता, मायावती-मुलायम-लालू जैसे तमाम भ्रष्ट लोग वर्ग-शत्रु नहीं तो क्या हैं? क्या इस बिना पर इन्हें वर्ग-शत्रु के खाने से मुक्त कर ही दिया जाना चाहिए कि यह लोग पिछड़े हैं या दलित हैं? राजनीति तो इसी तरह बेईमान और तबाह हुई ही है, साहित्य में भी यही खेती और यही सोच ज़रुरी है? अमृतलाल नागर सवर्ण थे तो इस बिना पर उन्हें स्वच्छ्कारों पर नाच्यो बहुत गोपाल नहीं लिखना चाहिए था? प्रेमचंद ने कफ़न लिख कर दलित विरोध की कहानी लिख दी? तो फिर क्या प्रेमचंद की ठाकुर का कुंआ ब्राह्मण विरोध की कहानी है? ब्राह्मणवादी व्यवस्था और ब्राह्मण दोनों दो बातें हैं, यह क्या लोग नहीं जानते? राजनीति की तरह साहित्य में भी सवर्णों को गरियाना और निंदा भी एक फ़ैशन सा क्यों हो गया है? इन सवालों की भी पड़ताल ज़रुरी है। शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सर धंसाना ठीक नहीं है।
दुर्भाग्य से तमाम स्वनाम-धन्य लेखकों के साथ-साथ शिवमूर्ति के साथ भी यह हुआ है। उदय प्रकाश के साथ भी। उदय प्रकाश की बहुप्रशंसित कहानी पीली छतरी वाली लड़की में तो यह जातिगत बदले का जोश इस कदर मदमस्त हो जाता है कि बताइए कि नायक राहुल एक सवर्ण लड़की अंजलि जोशी के साथ प्रेम करता है। प्रेम करता है बदला लेने के लिए। लड़की को भगा ले जाता है। कोई व्यक्तिगतगत रंजिश नहीं। बस जातिगत बदले के लिए। जो कि प्रेम में पागल लड़की नहीं जानती। संभोग भी करता है नायक प्रेम की बिसात पर उस सवर्ण लड़की के साथ तो हर आघात पर उस के मन में प्रेम नहीं, बदला होता है। संभोग के हर आघात में वह बदला ही ले रहा होता है। अदभुत है यह जातिगत बदला भी जो प्रेम का कवच पहन कर लिया जा रहा है। पुरखों के ज़माने के अपमान का बदला ले रहा है राहुल। प्रेम में ऐसा भी होता है भला? लगता ही नहीं कि यह वही लेखक है जिस ने वारेन हेस्टिंगस का सांड़ या और अंत में प्रार्थना लिखने वाला लेखक ही है। छप्पन तोले की करधन या तिरिछ जैसी कहानियों का लेखक है। पर उदय प्रकाश की यह कहानी तमाम सहमतियों-असहमतियों के बावजूद उन के लेखन का एक महत्वपूर्ण पड़ाव बन चुकी है। इसी तरह मैत्रेयी पुष्पा के यहां भी यह जातिगत बदले की बिसात बिछी हुई है। अपनी रचनाओं में वह वही चौकाने वाला आख्यान और सेक्स विमर्श रख देती हैं जो मृदुला गर्ग शहरी पृष्ठभूमि दिखा कर चितकोबरा में रखती हैं। मैत्रेयी अपनी रचनाओं में शहर के बजाय गांव की औरत का सेक्स आख्यान रख कर चौंकाती हैं और उस में जातिगत बदले का एक गणित भी भर देती हैं। जाने भारत के किस गांव का वह वर्णन लिखती हैं। आज का बता कर। और महौल अठारहवीं सदी के सामंती-संस्कृति का रचती हैं। आप आज के गांव में जाइए तो पाएंगे कि लोग दलित एक्ट के हद से अधिक दुरुपयोग में कराह रहे हैं। जेल और फर्जी मुकदमे भुगत रहे हैं। हकीकत तो यह है। दलितोत्थान की गाथाएं अब सब की जुबान पर हैं। ए राजा से लगायत मायावती तक। राजधानियों के राजमार्गों से लगायत गांवों की मेड़ों तक। पर मैत्रेयी की रचनाओं के गांव में दलित सवर्णों के सामने खड़े और बैठने की स्थिति में ही नहीं पाए जाते हैं। दलित और गांव कितना बदल चुके हैं, मैत्रेयी पुष्पा या दलित आह की आंच पर भात पकाने वाले और तमाम रचनाकार जानते ही नहीं।
अफ़सोस कि इसी फ़ैशन में समा कर शिवमूर्ति भी तर्पण में बदला लेने का आख्यान लिख लेते हैं।
कसाईबाड़ा की कसक और उस का सरोकार, भरतनाट्यम की तड़प और उस का सरोकार, सिरी उपमा जोग की संवेदना, उस की मासूमियत और उस की वह हूक, केसर कस्तूरी का वह कसाव, कसैलापन, आंच और तिरिया-चरित्तर की वह छ्टपटाहट भरी आकुलता और उस का सरोकार तर्पण तक आते-आते शिवमूर्ति से बिखरने लगता है तो क्यों? छलांग में वह व्यवस्था से मोर्चा लेते हुए थोड़ा वह संभलते हैं पर वह उसे अभी अधूरा ही बताते हैं। तो उस का आधा-अधूरा प्रकाशन क्या किसी दबाव में वह स्वीकार बैठे? यह दबाव भी ठीक नहीं है। इसी तरह तर्पण के बनावटीपन में जो दबाव है वह भी ठीक नहीं है। तर्पण हालां कि अपनी बुनावट और कहन में अदभुत है पर जो दलित उभार के उफ़ान पर जो भात वह पकाते हैं वह कच्चा रह जाता है। जैसे ऐलान ही करते हैं वह: वह संघर्ष था रोटी के लिए। यह वर्ण संघर्ष है। इज्जत के लिए। इज्जत की लड़ाई रोटी की लड़ाई से ज़्यादा ज़रुरी है। इसी लिए इस लडा़ई के लिए सरकार ने हमें अलग से कानून दिया है। हरिजन एक्ट। हम इस कानून से इस नाग को नाथेंगे।'
सूत्र वाक्य में तो यह बात एक बार बहुत अच्छी लगती है। पर कहानी की बुनावट और कथ्य में बात और तरह से मिलती है। जैसे डावरी एक्ट और दलित एक्ट का ज़रुरत से ज़्यादा दुरुपयोग बीते सालों में हुआ है, इस तर्पण में भी यह दुरुपयोग सामने आया है। शिवमूर्ति एक ईमानदार कथाकार हैं। इस लिए वह कथ्य में अपने जातिगत विरोध वाले मित्रों की तरह बेईमानी नहीं कर पाते। पर डायलागबाज़ी और सूत्र वाक्यों मे फंस जाते हैं इस कहानी में। बताइए कि चोरी करती पकड़ी गई लड़की परिजनों के उकसाने पर झूठे बलात्कार का केस दर्ज करवा देती है। फिर हत्या आदि की बातें, गांव की राजनीति और दलितों पर अत्याचार आदि के पुराने किस्से तक तो ठीक है यह कथा पर यह जो तर्पण का शहीदाना भाव है वह कहानी में ही पूरी तरह फ़र्जी है और यही कहानी का संदेश भी। तो बात बिगड़ जाती है। आप अगले को फ़र्जी मामले में फ़ंसा भी दें और 'गया-जगन्नाथ' में तर्पण का भी ताव रखें तो यह क्या है? क्या पाठक इतना मूर्ख है? यहीं प्रेमचंद के नमक का दारोगा की याद आ जाती है। वह ईमानदार दारोगा अंतत: उस बेईमान व्यापारी के यहां नौकरी करने लगता है जिस को वह बेईमानी के आरोप में पकड़ चुका होता है। प्रेमचंद की यह बहुत कमजोर कहानी इस अर्थ में भी है क्यों कि वह आदर्शवादी कथाकार के रुप में जाने जाते हैं। पर आदर्शवाद और तार्किकता दोनों ही कसौटी पर नमक का दारोगा एक विफलता की कहानी है और विवशता की भी। यही स्थिति शिवमूर्ति के तर्पण के साथ भी गुज़रती है। जैसे कि अखिलेश की एक बेहद खराब, हवा-हवाई कहानी ग्रहण भी इसी बिना पर खोखली क्रांति दिखाती है। तर्पण उपन्यास कथावस्तु आदि के लिहाज़ से शानदार रचना है बस उस का अंत भहरा गया है दलित उफान की आंच में भात पकाने के चक्कर में। नतीज़तन दलित उफान के नाम पर लिखी यह कहानी दलित के संघर्ष कथा के बजाय सवर्ण उत्पीड़न के खाते में दर्ज हो जाती है। जो कि इन दिनों अब गांव क्या, शहर क्या आम बात हो गई है। जब कि शिवमूर्ति का यह लक्ष्य हर्गिज नहीं है। वह लिख रहे हैं दलित उत्पीड़न की ही कथा। लेकिन जाने क्यों अभी तक किसी आलोचक ने तर्पण के इस एप्रोच की पड़ताल नहीं की। सब ने सिर्फ़ वाह-वाह की। तो क्या दूधनाथ वाली बात यहां मौजू है? कसाईबाडा़ की सनीचरी और विमली यहां याद आ जाती हैं जो अपने पूरे तेवर में पूरी निर्भीकता से पूरी पारदर्शिता और जुझारूपन के साथ उपस्थित हैं। यह चरित्र भी शिवमूर्ति के ही रचे चरित्र हैं।
एक बात और। कि कोई कितना भी बेहतरीन रचनाकार क्यों न हो, हर कोई उसे पढ़ेगा ही यह भी कतई ज़रुरी नहीं है। पढ़ेगा भी और उस की संवेदना भी समझेगा यह भी ज़रुरी नहीं है। अशोक वाजपेयी का ज़िक्र यहां ज़रुरी लग रहा है। बीते दिनों वह शिवमूर्ति पर केंद्रित लमही के अंक का विमोचन करने और शिवमूर्ति को लमही सम्मान देने के लिए आयोजित समारोह में आए। अशोक वाजपेयी की छवि एक अतिशय पढ़ाकू व्यक्ति, आलोचक, कवि और कुशल वक्ता की है। उम्मीद थी कि वह शिवमूर्ति पर औरों से कुछ अलग ढंग से बोलेंगे। लेकिन उन से क्या सभी से अच्छा तो शिवमूर्ति अपने गंवई ठाठ के साथ बोल गए। लेकिन अशोक वाजपेयी को सुन कर समझ में आ गया कि उन्हों ने शिवमूर्ति की एक भी कहानी नहीं पढ़ी है। वह सिर्फ़ शोभा की चीज़ बन कर आए और चले गए। माना कि वह शहरी बाबू हैं, कलावादी हैं पर आते समय शिवमूर्ति की दो चार कहानी भी नहीं पलट सकते थे? एक गंवई कथाकार के साथ यह सौतेलापन? आप फ़्रांस आदि के परदेसी लेखकों पर हरदम जांनिसार रहते हैं, अपनी विद्वता से सब को आक्रांत रखते हैं और अपनी ही माटी के एक सशक्त कहानीकार को जो बीते तीन दशक से भी ज़्यादा समय से चर्चा के शिखर पर है, उसे पढने, जानने की भी सलाहियत नहीं रखते? और तो और नामवर जैसे लोगों को बरंबार टोकते भी रहते हैं बाकायदा लिख-लिख कर कि वह बिना तैयारी के बोले ! तो भारत भवन क्या ऐसे ही बनते हैं कि शहर ऐसे ही संभावना बनते हैं? छोड़िए निर्मल वर्मा तो शहरी भी नहीं विलायती बाबू ठहरे। पर एक बार वह इसी लखनऊ में आए और ठेंठ गंवई कथाकार जिन को लोगों ने कई बार आंचलिक कथाकार भी कहा है उन फणीश्वर नाथ रेणु पर क्या तो बढ़िया व्याख्यान दिया था। डेढ़ दशक से ज़्यादा हो गए रेणु पर विलायती बाबू निर्मल वर्मा को सुने पर लगता है जैसे अभी कल ही बोल कर गए हों। उस की गूंज मन में इस तरह बाकी है। तो कथामूर्ति शिवमूर्ति वेणु को अपनी वेणु को रेणु से भी आगे ले जाने पर गौर करना चाहिए। इस लिए कि वह हिंदी कथा के अनन्य और विलक्षण लेखक हैं। इस लिए भी कि लिखा तो रेणु ने भी बहुत ज़्यादा नहीं लिखा है। और कि उन के समय में तो संचार क्रांति भी नहीं थी न सूचना का विस्फ़ोट ही। पर उन के पात्रों का गरल-पान, उन का भोलापन और कांइयापन आज भी वैसे ही सुलगता और सुलगाता रहता है। शिवमूर्ति के पास म्यान से बाहर ही सही शिव कुमारी जी आदि हैं तो उन के पास भी लतिका जी आदि थीं। और उस समय एक साथ एक म्यान में दो तलवार रखना बड़ा चुनौतीपूर्ण और मानीखेज़ था। गरज यह कि तमाम लोगों की तरह इन दोनों ही लोगों के पास राधा और रुक्मणि का संयोग है। प्रेमचंद के साथ भी था। शिवमूर्ति के पात्र भी लोगों के सामने हैं। उन के भी थे। फ़र्क ज़रा यह है कि वह उन पर हमलावर भी थे। मुकदमे से भी और आक्रमण से भी। उन की रचनाओं पर सफल फ़िल्म और धारावाहिक भी हैं। शिवमूर्ति अभी इस धार में बावजूद बासु चटर्जी और सुशील कुमार सिंह और मनहर चौहान आदि के स्टेज शो के अभी मजधार में हैं। बल्कि एक अर्थ में किनारे ही खड़े हैं। किसी नाव के इंतज़ार में। पर प्रेमचंद की रचनाओं पर भी सफल सिनेमा नहीं बन पाया है। सिवाय सत्यजीत रे की शतरंज के खिलाड़ी के। नहीं बनाई तो सत्यजीत रे ने प्रेमचंद की सदगति भी थी पर वह बह गई थी। गोदान भी बस बन गई थी। सिनेमा और साहित्य का रिश्ता वैसे भी कोई बहुत मधुर कभी रहा नहीं। खास कर हिंदी में। पर कमोबेश जैसे हर गरीब की तमन्ना और जद्दोजहद अमीर बनने की होती है, वैसे ही हर लेखक की तमन्ना तो रही है, रहती ही है कि उस की रचना किसी भी तरह सिनेमा के पर्दे पर दिख जाए। शिवमूर्ति की भी है। ठीक वैसे ही जैसे हर गीतकार या कवि की इच्छा रहती है कि उस के गीत-गज़ल या कविता, नज़्म को गायक मिल जाए। जो अकसर नहीं ही मिलता। बहुत कम को नसीब होता है यह संयोग। जैसे कि महादेवी वर्मा हैं। महादेवी ने भी बहुत कम लिखा है। पर जो भी लिखा है वह प्रतिमान है। बावजूद इस के उन को भी बहुत कम लोगों ने गाया है। यह साध बहुतों की पूरी नहीं होती। क्यों कि गायन और सिनेमा, थिएटर आदि प्रदर्शनकारी कला हैं। और लेखन प्रदर्शनकारी कला नहीं है।
बहरहाल बात यहां हम शिवमूर्ति और उन के कथा संसार की कर रहे हैं। शिवमूर्ति से तमाम लोगों की तरह मेरे भी घरेलू और आत्मीय संबंध हैं। और बतौर पाठक बहुत सारी अपेक्षाएं भी हैं। तो अगर घरेलू बातचीत के अंदाज़ में बात करें तो प्रेमचंद अगर ग्रामीण संवेदना के राजा हैं तो रेणु राजकुमार हैं और शिवमूर्ति राजा बेटा । इस राजा बेटा को अभी राज तक पहुंचना शेष है। शिवमूर्ति की स्वीकृति का यह बैंड-बाजा तब और जोर से बजेगा, जब राजा बेटा राज तक पहुंचेगा। (sarokarnama.blogspot.in से साभार)
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