- ‘क्रांतियों का युग’, ‘पूंजी का युग’, ‘साम्राज्य का युग’ और ‘अतिरेकों का युग’
जाने-माने मार्क्सवादी इतिहासकार एरिक हाब्सबाम दुनिया भर में अपनी चार किताबों की उस श्रृखंला के कारण विशेष तौर पर जाने जाते रहे हैं जिनमें पिछली करीब दो शताब्दियों का इतिहास वर्णित है। 1789 की महान फ्रांसीसी क्रांति से शुरू होने वाली और 1991 में सोवियत संघ के विघटन के साथ समाप्त होने वाली यह श्रृखंला न केवल पूंजीवाद के इस काल के विकास को समेटती है अपितु इसमें समाजवादी क्रांतियों की पहली श्रृंखला का काल भी समाहित हैं। ‘क्रांतियों का युग’, ‘पूंजी का युग’, ‘साम्राज्य का युग’ और ‘अतिरेकों का युग’ नाम से प्रकाशित ये किताबें अभी हाल के बीते इतिहास के विकास का सामान्यीकरण करने का प्रयास करती है और किसी हद तक इसमें सफल भी होती हैं।
एरिक हाब्सबाम अपनी युवावस्था के शुरूआती दौर में ही इस विचारधारा की ओर आकर्षित हुए और ताजिंदगी इससे जुडे़ रहे। एरिक हाब्सबाम का अपना जीवन ही जो ‘अतिरेकों के युग’ का जीवन है, इस पूरे काल के पश्चिमी जगत की एक खास प्रवृत्ति का प्रतिनिधिक उदाहरण है। यह प्रवृत्ति है समाज विकास की प्रक्रिया को समझ लेना पर वास्तविक परिवर्तन, खासकर क्रांतिकारी परिवर्तन की प्रक्रिया से भयभीत होकर यथास्थिति को स्वीकार करने को ढुलक पड़ना। जब समूची पार्टियों के संदर्भ में यह बात होती है तो क्रांतिकारी पार्टियां सुधारवादी हो जाती है और जब व्यक्तियों के संदर्भ में यह बात होती है तो व्यक्ति यथास्थितिवादी हो जाते हैं। या सुधारवादी पार्टियों के समर्थक। वे क्रांतिकारी विचारधारा के केवल उस हिस्से तक स्वयं को सीमित कर लेते हैं जो वर्तमान समाज का विश्लेषण करते हैं और समाज बदलने के सक्रिय प्रयास वाले हिस्से से स्वयं को अलग कर लेते हैं। लेकिन क्रांतिकारी विचारधारा तो प्रथमतः समाज बदलने की विचारधारा है। इसलिए यह किनाराकशी स्वयं विश्लेषण को एकांगी और विकृत बना देती है।
जैसा कि बहुत अच्छी तरह कहा गया है क्रांति कोई लेख लिखने, कविता करने या दावत आयोजित करने जैसी चीज नहीं है। क्रांति का निर्मम चरित्र ढेरों लोगों को असहज या यहां तक कि भयभीत कर देता है। महान फ्रांसीसी क्रांति को ही लें जिससे एरिक हाब्सबाम ने अपनी ‘युग’ श्रृंखला की किताबों की शुरूआत की थी। इस क्रांति के जैकोबिन काल से, 1793-74 के काल से ज्यादातर इतिहासकार आज भी संगति नहीं बैठा पाये हैं। ज्यादातर पूंजीवादी इतिहासकार इन सवालों का जवाब मैक्सिमिलियन राब्सेपियरे की व्यक्तिगत तानाशाही की इच्छा और उसके कार्यान्वयन में देखते हैं। पर एक समूची क्रांति, पूंजीवादी क्रांतियों में सबसे संपूर्ण महान क्रांति, के एक महत्वपूर्ण काल को महज एक व्यक्ति की इच्छा का परिणाम घोषित कर देना कुछ भी स्पष्ट नहीं करता। यह तो इस व्याख्या के दीवालियेपन को ही दिखाता है। इस व्याख्या से हिंसा के प्रति, ‘आतंक’ के प्रति, ‘आतंक राज’ के प्रति व्यक्तिगत वितृष्णा तो प्रकट की जा सकती है पर इससे कोई ऐतिहासिक व्याख्या नहीं प्रस्तुत की जा सकती।
वास्तव में ‘आतंक का राज’ राब्सेपियरे के नेतृत्व में जैकोबिन काल फ्रांसीसी क्रांति के अपने नारों को व्यवहार में सचमुच उतारने का प्रयास था। फ्रांसीसी क्रांति स्वतंत्रता, समता, बंधुत्व के नारे के तहत सम्पंन हुयी थी। लेकिन क्रांति के तीन साल बाद भी क्रांति के वास्तविक लड़ाकों, फ्रांस के गरीब लोगों ने पाया कि उन्हें न तो स्वतंत्रता मिली और समानता, बंधुत्व तो और भी दूर की बात थी। तब उन्होंने इन्हें व्यवहार मंे हासिल करने की कोशिश की, खासकर समता को। इसमें उनको नेतृत्व पूंजीपति वर्ग के निचले हिस्से ने जो अपने ऐतिहासिक भोलेपन मंे इन नारों के वास्तव मंे विश्वास करता था और उन्हें समाज में फलीभूत होे, देखना चाहता था। राब्सपियरे इन्हीं लोगों का नेता था।
लेकिन समूचा समाज अभी वहां नहीं खड़ा था जहां इन नारों को वास्तव में समाज में लागू किया जा सके। अभी क्रांति के द्वारा जो समाज जन्म ले रहा था वह औपचारिक तौर पर इन नारों की घोषणा कर सकता था। कानूनन अब सभी (सीमित संख्या में नागरिक) स्वतंत्र और समान थे पर वास्तव में नहीं। वस्तुतः जन्म ले रहा पूंजीवादी समाज भीषण असमानता को आगे लाने वाला था।
ऐसे में असंभव को संभव करने के प्रयास में भीषण मार-काट होनी ही थी। केवल भीषण मार-काट के बाद ही इस सपने को तब हकीकत में बदलने की अव्यवहार्यता साबित होनी थी।
लेकिन ‘आतंक का राज’ केवल इतना भर नहीं था। इसका एक और मतलब था। जैसा कि पूंजीपति वर्ग के समूचे इतिहास ने दिखाया है, पूंजीपति वर्ग स्वभावतः गैर क्रांतिकारी रहा है। अपने सबसे क्रांतिकारी क्षणों में भी इसने भीरूता और समझौता परस्ती का जमकर प्रदर्शन किया है। महान फ्रांसीसी क्रांति में भी ऐसा ही था। इस क्रांति में न केवल पूंजीपति वर्ग का ऊपरी हिस्सा, बड़ा वित्तीय और व्यापारिक वर्ग सामंती अभिजातों से समझौता करने को उत्सुक था बल्कि मध्यम पूंजीपति वर्ग भी। मीरोबो और लाफायते पहले के नेता थे तो जिरांेदे दल वाले दूसरे के। लुई सोलहवें को जिरोंदे दल वालों की अनिच्छा के बावजूद गिलोटिन पर चढ़ाया गया।
यदि पूंजीपति वर्ग के इन हिस्सों का बस चलता तो पुरानी सामंती शक्तियों से कोई समझौता हो जाता और क्रांति बीच मे छूट जाती। लेकिन एक तो बचे-खुचे अभिजात अभी भी अडि़यल थे (साथ ही क्रांति को कुचलने को आतुर यूरोपीय सामंत भी), दूसरे मेहनतकश जनता क्रांति को आगे ले जाना चाहती थी। क्रांति से उसे अभी बहुत कुछ हासिल नहीं हुआ था। इस तरह मेहनतकश जनता- किसान, दस्तकार और मजदूर क्रांति को आगे ले गई और उसे उसके मुकाम तक पहुंचा। सामंती कूडे़-कचडे़ का ज्यादातर सफाया कर दिया गया और पुरातन यूरोपीय शक्तियों के साथ युद्ध में फ्रांस नामक राष्ट्र का जन्म हुआ। इस तरह यह हुआ कि पूंजीपति वर्ग की सबसे मुकम्मल क्रांति में भी पूंजीवादी क्रांति को उसकी इच्छा के विपरीत ठेल कर अंजाम तक पहुंचाया गया। यह जिस तरह हुआ उससे पूंजीपति वर्ग इतना भयभीत हुआ कि वह आज भी उसे ‘आतंक का राज’ के नाम से ही याद करता है।
एक इतिहासकार के तौर पर एरिक हाब्सबाम इस सबसे परिचित थे और उन्होंने ‘क्रांति के युग’ मे इसका वर्णन भी किया है। पर बात जब उनके अपने जमाने की समाजवादी क्रांति की आती तो वे उतने ही असहज और किसी हद तक भयभीत साबित हुये।
‘युग’ श्रृंखला की उनकी चार किताबों में अंतिम किताब- ‘अतिरेकों का युग’- ही कमजोर साबित होती है। इसमें हाब्सबाम उतना आश्वस्त इतिहासकार नहीं दीखते जितना पहले की तीन किताबों में।
अपनी पुस्तक ‘एज ऑफ एक्सट्रीम्स’ में एरिक लिखते हैं कि ’फासीवाद चरम साम्राज्यवादियों के हित में काम करता है, लेकिन जनता के सामने खुद को एक दुर्व्यवहार के शिकार राष्ट्र के झंडाबरदार के आवरण में पेश करता है और विक्षुब्ध राष्ट्रीय भावनाओं का दोहन करता है। बड़ी पूंजी किसी भी निजाम से नाता कायम कर सकती है, बस वह उसे हड़प कर जाने वाला नहीं होना चाहिए और वह उसके साथ नाता कायम करने के लिए तैयार हो जाए। कारोबार की दुनिया के लिए, अन्य निजामों के मुकाबले फासीवाद में कुछ बड़ी अच्छाइयां होती हैं। वह कारोबार की नजर में फासीवाद की विभिन्न ‘अच्छाइयों’ को गिनाते हैं, जिनमें मजदूर यूनियनों का खात्मा और वामपंथ का कमजोर या पराजित होना शामिल है। इसके बल पर ही 1930 के दशक की महामंदी से उबरने के लिए बड़ी पूंजी के लिए असामान्य रूप से अनुकूल हालात बनाए जा सके थे। फासीवाद, जनता को सबसे भ्रष्ट तथा सबसे घटिया तत्वों के रहमोकरम पर लाकर रख देता है, लेकिन उसके सामने एक ईमानदार तथा भ्रष्ट न हो सकने वाली सरकार का नारा पेश करता है। अवाम के गहरे मोहभंग का अनुमान कर, फासीवाद हरेक (स्थिति) की विशिष्टताओं के अनुरूप अपनी लफ्फाजी को ढालता है।’
एक सधा हुआ प्रयास !
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