Friday, 12 July 2013

बेस्ट सेलर होने की मृगमरीचिका



अवनीश मिश्रा

बेस्ट सेलर. अंगरेजी प्रकाशन जगत का पसंदीदा शब्द. अंगरेजी में हर दूसरी किताब बेस्ट सेलर है. प्रकाशकों के आंकड़े बताते हैं कि अंगरेजी में किताबें छपने के महीने भर के भीतर हजारों की संख्या में बिकती हैं. यह आंकड़ा अक्सर लाखों में पहुंच जाता है. बेस्ट सेलर शब्द हिंदी वालों के बीच नहीं चलता. माना जाता है कि हिंदी प्रकाशक किसी किताब की हद से हद 1100 कॉपियां छापते हैं और उसके अधिकांश हिस्से को पुस्तकालीय खरीद में खपाते हैं.
किताबें सामान्य पाठकों तक नहीं पहुंचतीं. हिंदी साहित्य का केंद्र माने जाने वाले दिल्ली, इलाहाबाद, भोपाल, पटना, रांची जैसे शहरों में हिंदी किताबें खोजनी हों, तो भारी मशक्कत करनी पड़ती है. जिन्हें हिंदी किताबों के ठिकानों के बारे में पता है, वे उन ठिकानों तक पहुंचते हैं, जिन्हें नहीं मालूम वे अकसर स्टेशन पर व्हीलर दुकानों से प्रेमचंद की गोदान और गबन को खरीद कर या फ़िर सस्ते गत्ते वाली किताबों को खरीद कर अपना काम चलाते हैं. यह बेवजह नहीं है कि हिंदी लेखन का मतलब आम आदमी के लिए या तो गोदान और गबन है या फ़िर रेलवे प्लेटफ़ार्म पर बिकने वाला सस्ता पॉपुलर साहित्य. हिंदी सहित्य के मुख्यधारा के लेखकों की किताबें न तो बेस्ट सेलर हैं, न ही वह खुद किसी किस्म के सेलिब्रिटी.
धूमधाम से मनाये गये जयपुर लिटचरेचर फ़ेस्टिवल में अंगरेजी के सेलिब्रिटी लेखकों का तांता लगा हुआ था. दर्शक टिकट कटाकर उस मेले में शामिल होने पहुंचे. वहां जाने वाले लोग बताते हैं कि लोगों की भीड़ इतनी थी कि लोगों को अपना रास्ता तक बनाने में दिक्कत हो रही थी, सीट हासिल करने की बात तो दूर. उधर दूसरा आलम हिंदी साहित्य का है. पिछले दिनों दिल्ली में भारतीय भाषाओं के लेखकों को एक मंच पर लाने के लिए समन्वय नाम से एक महत्वाकांक्षी कार्यक्रम का आयोजन किया गया. साहित्य से जुड़े बड़े-बड़े नामों ने उसमें शिरकत की. लेकिन पूरे कार्यक्रम से दर्शक नदारद रहे. जितने लोगों के खाने-पीने की व्यवस्था की गयी, उतने लोग भी वहां नहीं पहुंचे. क्या यह माना जाये कि हिंदी साहित्य हाशिये का साहित्य है और उसमें बेस्ट सेलर की तलाश एक मृगमरीचिका है?
इस तसवीर का दूसरा पहलू हमें देश के विभिन्न कोनों में होने वाले पुस्तक मेलों के दौरान देखने को मिलता है. करीब 12-13 साल पहले जब मैं पटना पुस्तक मेले में पहली बार शामिल हुआ था. उस समय से अब तक विभिन्न पुस्तक मेलों में शिरकत करने का अनुभव बताता है कि हिंदी किताबों के प्रकाशनों के स्टॉल पर किसी भी दूसरी भाषा के स्टॉल की तुलना में ज्यादा भीड़ होती है.
और आम धारणा के उलट यह भीड़ खरीददारों की होती है, न कि बस किताबों की विंडो शॉपिंग करने वालों की. इन मेलों में आप बड़े आराम से हिंदी बेस्ट सेलरों की पहचान कर सकते हैं. गोदान, गबन, मैला आंचल, गुनाहों का देवता, मुङो चांद चाहिए, निर्मल वर्मा की कहानियां, हरिशंकर परसाई के व्यंग्य तो सामान्य बेस्ट सेलर हैं ही, इसके अलावा हिंदी पाठक दूसरे लेखकों की किताबों को पूरी तवज्जो देता दिखाई देता है. यहां अंगरेजी किताबों के स्टॉल से एक ठीक उलट स्थिति दिखाई देती है. अंग्रेजी किताबों की दुनिया जहां क्लासिक्स से पूरी तरह से कटी दिखाई देती है, वहीं हिंदी प्रकाशकों की दुकान पर पुरानी किताबें, नयी की तुलना में ज्यादा खरीदी जाती हैं.
इस बात को वाणी प्रकाशन के प्रबंध निदेशक अरुण माहेश्वरी अपनी तरह से कहते हैं. माहेश्वरी का कहना है कि हिंदी किताबें समय की छन्नी से छनकर आम पाठकों के बीच अपनी पहचान बनाती हैं, जबकि आज अंगरेजी किताबों की बेस्ट सेलर की दुनिया में किताबों की आयु दो से चार महीने होती है. उस पर सारी चर्चा महीने भर ही होती है, उसके बाद वे पटरियों की शोभा बढ़ाती हैं. जबकि हिंदी किताबें धीरे-धीरे बिकती रहती हैं. इस तरह से वे बेस्ट सेलर के आंकड़े की सच्चाई पर सवाल उठाते हैं.
वे कहते हैं कि अंगरेजी प्रकाशन जगत छह महीने के बाद किताब की परवाह नहीं करता. जबकि हिंदी में किताबें बीस-तीस वर्षो के बाद भी न सिर्फ़ बिकती रहती हैं, बल्कि उनकी खरीद में कई बार इजाफ़ा देखा गया है. इसके लिए नरेंद्र कोहली की महाभारत पर लिखी गयी किताबों के सेट का उदाहरण देते हैं. वे कहते हैं कि यह किताब आम पाठकों के बीच काफ़ी लोकप्रिय है और अपने अच्छे खासे मूल्य के बावजूद नरेंद्र कोहली की किताबों का सेट खूब खरीदा जाता है.

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