जयप्रकाश त्रिपाठी
मेरे पिता
तुम्हे क्यों मारते हैं मां,
क्या तुम्हारे
पिता भी तुम्हे मारते थे?
पिता ऐसे
क्यों होते हैं मां,
तुम्हारी तरह
क्यों नहीं?
आओ मां
सहला दूं तुम्हारे
तन के घाव
जो हैं इतने सारे।
मन पर भी
होंगे जाने कितने
घाव,
छिपाती रही हो जिन्हें तुम
मेरी आंखों से
आज तक, अनवरत
पिता के लिए।
लेकिन
बुरा मत मानना
मां,
मैंने देख लिया था
उन्हें भी,
तुम्हारे
सपनों में सिसकते
और लोरियों में
पिघलते हुए।
मां
इसी तरह
तुम्हारे पिता के घर में
पिघले होंगे
तुम्हारी भी मां के
सपने और सिसकियां।
कब से
ऐसा चलन है मां,
कौन था
वह पहला पिता,
जो दे गया
बेटियों के लिए
ऐसे
रिवाज,
इतने
घाव
और
इतनी
सिसकियां।
तुम
उसे जानती हो
मां!
चुप क्यों हो
तुम
इस तरह
इतनी उदास
और
अकेली-सी
बिल्कुल मेरी तरह।
फिर
डरने लगती हूं मैं
अपने उस समय से
जब
मेरी भी बेटियां होंगी
और होंगे
कोई-न-कोई
उनकी भी बेटियों के
पिता।
.....तो मां,
आओ न हम-तुम
उन अंधेरे दिनों के खिलाफ
अभी से करें
कोई ऐसी शुरुआत
जिसमें हो,
लोरियों की मिठास,
सपनो की आजादी और
पिताओं के कबाइली, बर्बर इतिहास
का मोकम्मल जवाब।
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