Friday 12 July 2013

चेखव की ‘दुखद’ प्रेम कहानी


योगेंद्र नागपाल

एक बार चेखोव ने एक उपन्यास लिखने की सोची, विषय चुना “प्रेम”| महीनों तक लिखते रहे कितने ही पन्ने रंगे और फाड़े| अंततः सारा उपन्यास एक वाक्य में सिमट कर रह गया: “वे एक-दूसरे पर फ़िदा हुए, विवाह किया और अंत तक दुखी रहे!” चेखोव के मित्रों का कहना था कि चेखोव ने अपनी पत्नी – प्रसिद्ध अभिनेत्री ओल्गा क्निप्पेर के साथ अपने संबंधों का सारा मर्म इस वाक्य में उंडेल दिया|
एक बार चेखोव के एक मित्र, भावी नोबल पुरस्कार विजेता लेखक इवान बूनिन उनसे मिलने आए| चेखोव की तबियत ठीक नहीं थी, तपेदिक का कोप बढ़ गया था| उन्हें आराम करना चाहिए था| परन्तु दोनों लेखक साहित्य चर्चा में इतने मग्न थे कि उन्हें समय की कोई सुध-बुध ही नहीं थी| बात यह चल रही थी कि अच्छी रचना के लिए कथानक ढूँढ पाना कितना मुश्किल है| वे दोनों इस सिलसिले में अखबारों के पन्ने पलटने लगे, उनमें छपे विज्ञापनों पर चुटकियाँ लेते हुए ठहाके लगा रहे थे| तभी ओल्गा घर लौट आईं| सारा हंसी-मज़ाक छू-मंतर हो गया| “अच्छा, चलता हूँ,” बूनिन बोले और मित्र की पत्नी
को हाथ जोड़कर तुरंत चले गए| उन्हें वह बिलकुल नहीं सुहाती थीं| चेखोव के सगे-संबंधी, मित्र-परिचित, सहयोगी और पाठक – किसी को भी वह नहीं भाती थीं|
चेखोव स्वभाव से बड़े संयमी और शांत थे, हल्की मुस्कान के साथ ही वह सामान्यतः चुटकियाँ लेते थे| उधर ओल्गा थीं स्वभाव से खुशदिल, सदा खुले दिल से सबसे मिलती-जुलती थीं| एक ओर तपेदिक से पीड़ित चेखोव और दूसरी ओर सदा खिलखिलाती उनकी पत्नी – यह विरोधाभास लोगों को बहुत अटपटा लगता था| उनका उलाहना था कि इस सुन्दरी को अपने रोगी पति से अधिक नाटकों में अपनी भूमिकाओं को चिंता है| पति को अकेले सागर तट पर याल्टा में छोड़कर खुद मास्को में बैठी रहती है| जब जर्मनी में चेखोव चल बसे और पत्नी उनकी देह रेफ्रिजरेटर वाले रेलडिब्बे में मास्को लाई तो सारी दुनिया ने ही उन्हें दुत्कारा : छी-छी! कोई नेक इंसान भला ऐसे करेगा? ऑयस्टर और मछलियों भरे रेल-डिब्बे में पति का, रूस के महान लेखक का शव ले आई!
नहीं-नहीं कोई मछलियाँ या ऑयस्टर वगैरा उस रेलडिब्बे में नहीं थे| हां, यह सच है कि रेफ्रिजरेटर वाले ऐसे रेलडिब्बों में ही यूरोप में मछलियाँ आदि एक स्थान पर दूसरे स्थान तक भेजी जाती थीं| यही था इस स्त्री का भाग्य – कहीं ज़रा सी कोई चूक हुई, सोचे समझे बिना एक शब्द भी मुंह से निकल गया, बस तुरंत चारों ओर वह बात खूब बढ़ा-चढाकर फैलाई जाती थी, और मिलता था उसे धिक्कार ही धिक्कार! हां, थियेटर में जहां वह काम करती थीं, सभी जानते थे कि ओल्गा का बस चले तो वह एक दिन के लिए भी चेखोव को अकेले न छोड़े, क्योंकि इस धरती पर ओल्गा की नज़रों में चेखोव से अच्छा कोई इंसान नहीं था|
उसके पिता जर्मन थे जो रूस में आ बसे थे| यहाँ तरक्की करते हुए वह एक बड़ी मिल के मैनेजर बन गए थे| माता सधी हुई पियानोवादक थीं और उनका कंठ सुरीला था| उनके घर पर अक्सर संगीत-संध्याएं होती थीं| घर पर एक शौकिया थियेटर भी था और नन्ही ओल्गा उसकी दीवानी थी| रंगमंच का, थियेटर का सपना बचपन से ही उसके मन में बस गया था| परन्तु पि़ता को यह कतई मंजूर नहीं था कि बेटी अभिनेत्री बने| इसे तो वह परिवार पर कलंक ही मानते थे| ओल्गा अभी किशोरावस्था में ही थी कि अचानक पिता का देहांत हो गया| पता चला कि पिता का खाता तो खाली है| घर के गुज़ारे के लिए मां को संगीत विद्यालय में नौकरी करनी पड़ी| कुछ समय बाद मां की सिफारिश पर बेटी को इसी विद्यालय के अभिनय विभाग में दाखिला मिला|
ओल्गा सौभाग्यशाली थी – उसे जाने-माने रंगमंच-निर्देशक व्लादीमिर नेमिरोविच-दानचेंको के कोर्स में दाखिला मिल गया| विद्वान और प्रतिभावान शिक्षक ने ओल्गा को विमुग्ध कर लिया| जिन दिनों यह कोर्स चल रहा था, उन्हीं दिनों नेमिरोविच- दानचेंको अपने युवा अभिनेता मित्र कोंस्तान्तीन स्तानीस्लावस्की के साथ एक नया थियेटर खोलने की योजना बना रहे थे| तीन साल की पढ़ाई खत्म होते-होते ओल्गा समझ गई थी कि उसे अवश्य ही इस नए खुलने जा रहे “मास्को कला थियेटर” की मंडली में शामिल होना है| सन् 1898 की गर्मियों में मंडली पहली बार रिहर्सल के लिए जमा हुई, ओल्गा भी उसमें आमंत्रित थी| शुरू में तो मास्को के बाहर एक ग्रामीण घर के कोठारे में ही रिहर्सलें हुईं और फिर वे थियेटर के मंच पर जारी रहीं|
कुछ ही समय बाद नाटककार और अभिनेत्री की पहली भेंट भी हो गई| अपने नाटक “जलपंछी” (सी-गल) की रिहर्सल देखने चेखोव खास तौर पर इस नए थियेटर में आए थे| वह थे एक नामी लेखक, जिसकी कहानियां दस वर्षों से पाठकों को आनन्दित कर रही थीं| व्यक्तित्व उनका आकर्षक था, शरीर सुघड़ और चुस्त-दुरुस्त| हर बात में हास्य-व्यंग्य का पुट देखते थे, साथ ही शांत नज़रों में विवेक छलकता था| उन्हें देखकर कोई यह नहीं सोच सकता था कि वह तपेदिक के गंभीर रोग से ग्रस्त हैं| ओल्गा का नारी-हृदय तुरंत ही बोल उठा: यही है इस धरती का सर्वोत्तम पुरुष – इसी के साथ होगा जीवन सफल!
ओल्गा ने सुन रखा था कि वह डाक्टर हैं, यदि किसी के पास इलाज के लिए पैसे नहीं होते तो उसका इलाज मुफ्त में करते हैं, कि उन्होंने कई अस्पताल और स्कूल बनवाए हैं| इस सब के बीच में कुछ “लिखते-विखते” भी रहते हैं, कि वह चालीस बरस के होने वाले हैं, शादी उनकी कभी नहीं हुई, कहते हैं एकाकी हैं|...
चेखोव के अनेक समसामयिकों ने अपने संस्मरणों में लिखा है कि न जाने कितनी महिलाएं उन पर फ़िदा हुई थीं, किंतु महिला-मन में उठते तूफ़ानों की उनके मन में प्रायः कोई प्रतिध्वनि नहीं होती थी| महिलाओं के प्रति उनके रुख में उदासीनता ही अधिक होती थी| यों तो रोमांस भी उनके बहुतेरे हुए, किंतु हर बार बड़ी जल्दी ही दिल उचाट हो जाता था और निराशा ही हाथ लगती थी|
ऐसा भी नहीं है कि शादी का ख्याल मन में कभी आया ही न हो| कई बार अपने सगों से उन्होंने यहाँ तक कहा कि बस जल्दी ही विवाह करने वाले हैं| परन्तु विवाह की उनकी अपनी कुछ शर्तें थीं| अपने एक मित्र को उन्होंने अपने मज़ाकिया अंदाज़ में लिखा था: “देखो भई, शादी मैं सिर्फ इस शर्त पर करूँगा कि शादी के बाद कुछ बदलेगा नहीं| वह मास्को में रहेगी और मैं गाँव में| मैं उसके पास जाया करूँगा| रोज़-रोज़, सुबह-शाम मिलने वाला सुख मैं नहीं झेल सकता|.. मुझे तो ऐसी बीवी चाहिए जो चाँद की तरह मेरे आसमान पर रोज़ाना नहीं दिखा करेगी|” ऐसी शर्त सुनते ही स्त्रियों का सारा प्यार तुरंत धुंए की तरह उड़ जाता था|
ओल्गा के साथ चेखोव के संबंध शुरू से ही दूसरी सभी स्त्रियों के साथ संबंधों से भिन्न रहे| वह सुंदरी नहीं थी, बहुत जवान भी नहीं थी – उनतीस वर्ष की हो चुकी थी| किंतु उसमें जो उल्लास और उत्साह था, वह मानो चेखोव के जीवन में भी नई स्फूर्ति भरता था| वह सुशिक्षित थी, तीन विदेशी भाषाएँ जानती थी, विश्व साहित्य और इतिहास का उसे अच्छा ज्ञान था, साहित्यिक अनुवाद भी करती थी| सदा हंसमुख नज़र आती थी, और उसकी हर बात में नफासत थी| वह जहां आती वहां खुशी फ़ैल जाती| एक और बात थी जिसने चेखोव को उसकी ओर आकर्षित किया – वह प्रतिभावान अभिनेत्री थी| नाटक कला की सारी परम्पराओं को तोड़ते हुए चेखव ने एकदम नए नाटक रचे थे, इन नए नाटकों के लिए अभिनय कला भी नई चाहिए थी| ओल्गा में उन्हें इसी के बीज पनपते दिखे|
यहां यह भी बता दें कि शुरू में तो चेखोव के ये नए नाटक एकदम विफल रहे थे, हालांकि मास्को और पीटर्सबर्ग के उस ज़माने के अव्वल रंगमंचों पर उन्हें पेश किया गया और अपने समय के सबसे जाने-माने कलाकारों ने उनमें भाग लिया| सौभाग्यवश निर्देशक कोंस्तान्तीन स्तानीस्लावस्की ने चेखोव को इस बात के लिए मना लिया कि वह उन्हें अपने नाटक के मंचन का एक अवसर दें| जी हां, ये वही स्तानीस्लावस्की थे, जिनकी प्रणाली से आज संसार भर में अभिनय कला की शिक्षा दी जाती है| प्रीमियर शो आरम्भ हुआ – हाल आधा खाली था| जब तक नाटक चलता रहा, हाल में सन्नाटा छाया रहा| आखिर पर्दा गिरा, एक क्षण को वही सन्नाटा बना रहा, परन्तु फिर मानो बादल गरजा – हाल तालियों की गूंज से कांप उठा| कुछ लोग तो कुर्सियों पर चढ़ गए – यह देखने कि लिए कि कौन है यह ओल्गा क्निप्पर, जिसका पहले कभी नाम नहीं सुना| इस शाम के बाद चेखोव का ओल्गा से रोमांस शुरू हुआ|.. उनकी सेहत उन्हें ज्यादा दिन मास्को की ठंडी, सीलन भरी जलवायु में रहने की इजाज़त नहीं देती थी, समुद्री जलवायु में रहना ही उनके लिए उपयुक्त था| वह याल्टा चले गए और वहां से चला पत्रों में रोमांस।
अपने मनोभाव खुलकर व्यक्त करना चेखोव को पसंद नहीं था, तो भी विवाह से कुछ महीने पहले, सितम्बर 1900 में उन्होंने ओल्गा को लिखा: “... नहीं जानता तुम्हें और क्या कहूं, सिवाय उसके जो लाख बार कह चुका हूं और सदा कहता रहूंगा, कि मैं तुमसे प्यार करता हूं, बस और कुछ नहीं”|
अंततः वे विवाह-सूत्र में बंध गए, किंतु अपने विवाह की बात दोनों ने गोपनीय रखी| यह चेखोव की शर्त थी| “पता नहीं क्यों इन सारी रस्मों से मुझे डर लगता है, शैम्पेन का जाम उठाए लगातार मुस्कराते रहो, सबकी बधाइयां सुनते रहो”| विवाह से एक घंटे पहले अपने सगे भाई से अचानक उनकी मुलाकात हो गई थी, उसे भी उन्होंने नहीं बताया कि विवाह करने जा रहे हैं| अपनी बहन को कुछ दिन बात उन्होंने लिखा: “मैंने शादी कर ली है| लेकिन मेरे इस कदम से मेरी जिंदगी में कुछ बदलने वाला नहीं है|”
मई 1901 में विवाह हुआ, अगस्त तक पति-पत्नी साथ रहे और फिर शुरू हो गया जुदाई और मिलन का सिलसिला| आए दिन वे एक दूसरे को पत्र लिखते थे| भाग्य ने उन्हें केवल छह वर्ष दिए थे एक दूसरे के लिए| इस बीच चेखोव ने ओल्गा को साढ़े चार सौ पत्र लिखे और ओल्गा ने भी चार सौ से अधिक|
ओल्गा ने अनेक बार कोशिश की कि लंबे समय तक चेखोव के साथ तक याल्टा में रहे, पर वह इसके लिए तैयार नहीं होते थे, ओल्गा को बस यही समझाते थे कि थियेटर के हित में उनके लिए मास्को में रहना ही ठीक है| कहना न होगा कि अपने मन की इस भावना को वह प्रकट नहीं होने देते थे कि “रोज़-रोज़, सुबह-शाम मिलने वाला सुख मैं नहीं झेल सकता|..”
कभी-कभी ओल्गा विद्रोह कर देती थी “यह भी कोई ज़िंदगी हैं भला!” पर चेखोव का उत्तर होता था: “ सुनो, जान, पहले दिन से ही मुझे पता था कि मैं ऐक्ट्रेस से शादी कर रहा हूँ| विवाह से पहले ही मैं अच्छी तरह समझता था कि सारा जाड़ा तुम्हें मास्को में बिताना होगा| पर मैं रत्ती भर भी यह नहीं मानता कि मैं कोई अभागा हूं, बदकिस्मत हूं, नहीं, मुझे तो यही लगता है कि सब ठीक चल रहा है|”
ऐसे विचित्र हालात मे रहते हुए भी पति-पत्नी दोनों संतान के लिए लालायित थे| सन् 1902 के वसंत में ओल्गा समझ गई कि उसका पांव फिर से भारी हो गया है| इससे पहले एक बार गर्भ गंवा चुकी थी| इस बार वह अपना बहुत ख्याल रख रही थीं| उसने थियेटर से छुट्टी भी मांग ली| पर थियेटर वालों ने कहा, छुट्टी पर जाने से पहले बस एक बार पीटर्सबर्ग में नाटक दिखा दें| यहां जब नाटक चल रहा था तो मंच पर एक मैनहोल खुला रह गया... ऑपरेशन के बाद डाक्टरों ने कह दिया कि अब वह कभी मां नहीं बन पाएंगी|
ओल्गा उन व्यक्तियों में से नहीं थीं जो किस्मत की मार खाकर हार मान लेते हैं| जीवन में खुशी पाने को वह अभी भी आतुर थीं| लगता था बस वह क्षण भी आ गया| पहले तो मास्को में जब किसी नए नाटक का पहला मंचन होता था उन्हीं दिनों उनके पति उनके साथ होते थे, मगर इस बार उन्होंने लंबे समय तक पत्नी के साथ रहने का निश्चय किया| किंतु सुख ने एक बार फिर दगा दे दिया| जिस दिन चेखोव मास्को पहुंचे उसी दिन उन्हें ज़बरदस्त सर्दी लग गई और उससे तपेदिक का रोग इतना उग्र हो गया कि डाक्टरों ने तुरंत उन्हें दक्षिण जर्मनी में श्वास रोगियों के लिए बने विशेष स्वास्थ्य-विहार में ले जाने को कहा| ओल्गा ने थियेटर से लंबी छुट्टी हासिल कर ली| अब अंततः वह पति के साथ थीं, परंतु उनके भाग्य में यह सुख लिखा होता तब न!
शुरू में तो लगा चेखोव स्वास्थ्य लाभ पा रहे हैं| वह ओल्गा के साथ टहलने निकलते थे या फिर वह उन्हें पहिया-कुर्सी में बिठाकर घुमाती थीं| फिर अचानक चेखोव की हालत बहुत बिगड़ गई| वह बुरी तरह दुबला गए, चेहरे पर मानो खून का एक कतरा तक न बचा था| सारा-सारा दिन वह सोफे पर लेटे रहते थे - अगल-बगल तकिए लगे हुए, कम्बल में लिपटे| 14 जुलाई 1904 की रात को चेखोव ने डाक्टर को बुलाने को कहा| उसे जर्मन भाषा में कहा: “Ich sterbe” – “मर रहा हूँ”| डाक्टर ने रोगी को देखा, शैम्पेन पिलाने को कहा| चेखोव ने शैम्पेन का गिलास लिया, ओल्गा की ओर देखकर मुस्कराए और बोले : “बड़े दिनों से शैम्पेन नहीं पी”| ओल्गा भी उन्हें देखकर मुस्करा रही थी, उसे सहसा यह याद हो आया था कि शादी से पहले कैसे चेखोव शैम्पेन पीने से घबराते थे| उस रात को भी उसे यह विश्वास नहीं था कि उसके 44 वर्षीय पति दम तोड़ रहे हैं| उसे पता ही नहीं चला कब उनके सांस रुक गए – वह न जाने कहाँ से कमरे में आ पहुँचे बड़े-से काले पतंगे को भगाने में लगी हुई थी, जो बिजली के बल्ब पर मंडराता हुआ अपने पंख झुलसा रहा था| चेखोव ने शैम्पेन का गिलास खाली किया, करवट बदली और चिर-निद्रा में सो गए|..
पति की मृत्यु के बाद ओल्गा कई महीनों तक थियेटर नहीं गईं, बस घर में बंद बैठी रहती थीं| परन्तु उनकी प्रकृति तो खाली बैठने वालों की नहीं थी| फिर से थियेटर में उन्हें नई-नई भूमिकाएं मिलीं, उनकी कला के दीवानों की कोई कमी नहीं थे| अब वह स्वयं भी अभिनय-कला के पाठ देने लगी थीं| 91वर्ष का लंबा जीवन रहा उनका| अंतिम वर्ष में तो उनके लिए बिस्तर से उठ पाना भी मुश्किल हो गया था| बहुत मोटे, बड़े लैन्स की मदद से ही वह कुछ पढ़ पाती थीं| सांस लेने में भी उन्हें कठिनाई होती थी| अकेली रह गई थीं वह – एकदम एकाकी| पर सदा सजीली और नफीस नज़र आती थीं| आखिरी दिन तक जब कोई उनसे मिलने आता तो उनके घर में घुसते ही उसे उनकी खनकती आवाज़ सुनाई देती : “अरे, वाह! यह कौन आ गया! जी खुश कर दिया!”
चेखोव के जाने के बाद 55 वर्ष तक वह जीवित रहीं| एक महान लेखक-नाटककार की पत्नी के नाते ही नहीं, बल्कि चेखोव के नूतन थियेटर की सबसे अच्छी, सबसे अनोखी अभिनेत्री के रूप में भी उन्होंने इतिहास में अपना स्थान बनाया| “तीन बहनें” नाटक की माशा और “चैरी की बगिया” की रनेवस्कया की भूमिका ओल्गा के लिए ही चेखोव ने लिखी थीं| ओल्गा उन्हें ऐसे निभाती थीं कि दर्शक स्तब्ध रह जाते थे, अवाक हो जाते थे| उनका अभिनय अभिनय नहीं होता था – वह पूरी तरह अपने पात्र में ढल जाती थीं।

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