वैभव सिंह (आलोचना में सर्वाधिक आधुनिक हस्तक्षेप करने वाले नये लेखक)
क्या यह प्रश्न ही गलत है कि लेखक की नैतिकता क्या है? क्या यह लेखन-विरोधी और सृजन विरोधी सवाल है, क्योंकि लेखक के बारे में बात करते समय हमें उसके सृजन को केंद्र में रखना चाहिए, न कि उसकी नैतिकता या अनैतिकता को। मोल करो तलवार का, पढ़ी रहन दो म्यान... वाले अंदाज में। खराब प्रश्न उठाने वाले को सबसे अहमक माना जाता है। खुद उनके लिये भी यह सवाल बड़ा अहमकाना है जो मानते हैं कि उनका मुख्य कर्म कविता, कहानी, उपन्यास या अन्य विधाओं में लेखन करना है। इस तरह के नैतिकता, विचार या विचारधारा संबंधी सवालों से उनकी एकाग्रता भंग होती है। जब यह किसी रचनात्मक समय पर खामोश आसमान, बादलों के उजले टुकड़ों, भीगी धूप, बारिश की बूंदों, मां की पीड़ाओं या अपनी प्रेमिकाओं के कष्टों के बारे में रूपक या बिंब सोच रहे हों तब इतना नीरस सा दिखने वाला सवाल उछालकर क्यों उसका ध्यान भंग किया जाए। यह तो रसभंग का पाप करने जैसा है। हो सकता है कि इस विषय पर कुछ रचनाओं की प्रतिक्रिया ठीक वैसी ही है जैसा कि शायर अकबर कह गए हैं -
अल्ला-अल्ला के सिवा आखिर रहा कुछ भी न याद
जो किया था याद, सब था भूल जाने के लिए।
यानी विचार, नैतिकता और उसूल के जो पहाड़े महाख्यानों, महापुरुषों की जीवनियों या संतों की वाणियों के माध्यम से रटाए गए थे, वे रचनाधर्मिता में बाधक समझ भुला दिए जाने ही आवश्यक थे। पर मस्तिष्क और संवादना मूल्यनिरपेक्षता की ऐसी स्थिति की स्वीकार करने के लिए भी कहां तैयार हो सकते हैं। शून्य में मौन रह सकता है, पर जहां शब्द और अभिव्यक्ति है वहां दिक्काल जन्म लेता है और वहीं मूल्यों का शून्य असंभव होता है। चेतना इतिहास के भीतर है और इतिहास बनता है मान्यताओं से। चेतना में शाश्वत निरपेक्षता का आकर्षण हो सकता है पर वह शाश्वत निरपेक्षता स्वयं में एक मूल्य और स्वप्न ही है, ठीक वैसे ही जैसे समाज से आसक्तिपूर्ण जुड़ाव, उसके सुख-दु:ख के साथ जीना अपने में मूल्य-स्वप्न है।
लिखना वह कौशल है जिसमें कल्पनाओं का विस्तार होता है। एक कल्पनाशील प्राणी ही लेखक या ज्ञान की खोज में भटकने वाला दार्शनिक-वैज्ञानिक बन सकता है। बाज वक्त कुछ लेखक केवल विद्वतापूर्ण बातों और तर्कों के बीच रहना चाहते हैं और कल्पनाशीलता के जोखम से खुद को अलग कर लेते हैं। वे ज्ञान की बातें करते हैं जो जरूरी होती है पर वे सृजनशीलता की यातनाओं से बचते हैं। इसलिए भी क्योंकि कल्पनाओं की दुनिया नैतिकता और अनैतिकता के दायरों से बाहर जाकर ही संभव होती है। उसमें अक्सर ही एलओसी (नियंत्रण रेखा) का उल्लंघन होता है और लेखक नामक निरीह प्राणी की जान भी खतरे में पड़ जाती है। अनुशासन तोडऩे के कारण मौत के फतवे, देशद्रोह कानून, देश निकाला जैसे दंड हैं। एक समाज लेखक पर क्रोध उतारकर वस्तुत: अपने ही विकास के रास्तों पर रोकता है। पर इनसे पहले सृजन वह कार्रवाई है जिसमें व्यक्ति अंतिम रूप से केवल स्वयं के प्रति जवाबदेह होता है क्योंकि सृजन सबसे पहले अपने लेखक पर प्रभाव डालता है। उसके हृदय की कोमलता को चीथता-निचोड़ता है और समाज-परिवार से उसके संबंधों को बदलता है। लेखन और उससे जुड़ी संवेदनशीलता की इसी गहराई पर पहुंचकर कभी मायकोवस्की ने आत्महत्या की होगी जिस पर बोरिस पास्तरनाक ने लिखा था : 'मुझे लगता है कि मायकोवस्की ने एक दर्प के तहत खुद को गोली मार ली थी, क्योंकि वह अपने भीतर और अपने चारों ओर किसी ऐसी चीज की भत्र्सना करता था जिसे सहना उसके आत्माभिमान के लिए गंवारा न था।' ये किन चीजों से एक लेखक का थर्रा देने वाला टकराव था, अघोषित मुठभेड़ थी, जिसने उसके आत्माभिमान को आहत कर दिया? पास्तरनाक ने भी संभवत: भत्र्सना के उन कारणों को नहीं समझा और हो सकता है कि उस आत्महत्या को केवल रूसी क्रांति के विरोध में जोड़कर आत्महत्या का ही विद्रूपीकरण किया हो। मायकोवस्की पूरे विश्व के प्रति संवेदनशील थे और उस विराट संवेदनशीलता की तह में प्रवेश करने की आवश्यकता है जहां से हम उस आत्महत्या के सच को खोज सके। कोई लेखक सृजनशीलता के लिए ईमानदारी से प्रतिबद्घ है तो वह आसपास की चीजों की भत्र्सना करने के लिए बाध्य हो जाता है। उसका अपने समय की भीतरी तहों में प्रवेश करना, नंगे सत्य से साक्षात्कार करना या अभिव्यक्ति की निरंतरता के लिए बाध्य हो जाता है। उसका अपने समय की भीतरी तहों में प्रवेश करना, नंग सत्य से साक्षात्कार करना या अभिव्यक्ति की निरंतरता उसे एसे स्थलों पर पहुंचा देती है जहां पर उसका जीवन ही उसके लिए बोझ बनता चला जाता है। हर तरफ ब्लेड की ऐसी चमकती धारें दिखती हैं जिन्हें अभी-अभी कागजों के पैकेट से निकाला गया है। उसके बरक्स वह अपना बचाव भी ठीक उसी सृजनशीलता में ढूंढता है जिसने उसकी संवेदनशीलता को आत्मघाती अवस्था में पहुंचा दिया है। उसे जब समाज की सारी मर्यादाबद्घता के पीछे ही कुटिलताएं, संघर्ष और स्वार्थ दिखने लगते हैं और उसकी ओर गिद्घ की तरह झपटते हैं, तब वह मूल्यों की शरण ढूंढता है या अपनी ही कृतियों की शरण। वह यह समझने की कोशिश करता है कि उसका लेखन उसे किस सीमा तक सुरक्षा का अहसास दिला सकता है। शायद इसी कारण जर्मन कवि रिल्के ने बढ़ती उम्र के दौर में लिखा था - 'मेरी अब तक प्रकाशित पुस्तकें मुझे सुरक्षा का भाव नहीं दे पाई हैं। हो सकता है, आगे दे पाएं।'
सारे लेखकों के लिए कृतियों की शरण ही अंतिम शरण नहीं बनती क्योंकि उसे और कई तरह के सहारे चाहिए होते हैं, जहां पहुंचकर वह जीवन की सार्थकता को ही नहीं बल्कि उसकी निरर्थकता के विभिन्न रूपों को अपनी आंखों से देखता रह सके। एरिक फ्राम ने प्रेम की परिभाषा करते हुए लिखा - 'प्रेम की हमारी जरूरत विलगाव की भावना और एकात्मकता द्वारा उससे उबरने की तीव्र इच्छा से जुड़ी होती है।' लगभग यही बात लेखन और लेखक पर लागू होती है जो सृजन में अलगाव की भावना से मुक्ति का प्रयास करता है। अपने भीतर की दुनिया को स्पष्टता प्रदान करने की कोशिश करता है। इसीलिए वह कई बार बुरा, गैरजिम्मेदार या असामान्य प्राणी भी बनता है। समाज में कई जुमले हैं - अच्छा आदमी, समझदार लोग, सफल इंसान, खानदानी परिवार आदि आदि। इसमें से अच्छा, समझदार, सफल या खानदानी जैसे शब्द किसी सच्चे लेखक के लिए ठीक ऐसे होते हैं जैसे ततैयों का झुंड किसी नंगी पीठ वाले इंसान के पीछे छोड़ दिया गया हो। उसके लिए परंपराओं, अनुशासनों और नियंत्रणों से लडऩा भी ठीक वैसे ही अनिवार्य होता है जैसे किसी कैदी को जेल छोडऩे से पहले वहां के सारे कपड़े और बर्तन छोड़कर आने पड़ते हैं। यहीं से अच्छे नागरिक और अच्छे लेखक के बीच द्वंद्व का आरंभ भी होता है जिसमें लेखक के पास अक्सर चुनाव सीमित होता है और उसका अच्छी नागरिकता से बार-बार विचलन होता रहता है। प्राय: कम अच्छे लोग अच्छा लेखन करते हैं और अधिक अच्छे लोग खराब लेखन। मीरा हो या मंटो किसी के पास इसका प्रमाण नहीं था कि वे अपने समय के शरीफ और अच्छे नागरिक हैं। शराफत के बाड़ों को लांघकर, लोकलाज त्याग कर ही उन्होंने साहित्य के प्रति अपनी जिम्मेदारी या सही निर्वाह भी किया है। कथित नागरिक समाज ने मीरा को भी त्याग दिया और अक्सर ही मंटो को भी। लेखक का शब्द के प्रति दायित्व उसे हर क्षण सचेत करता है। वह शब्द को अपने साहस और कला-चेतना के बल पर मरने से बचाना चाहता है। केदारनाथ सिंह ने एक कविता में लिखा था - 'ठंड से नहीं मरते शब्द/वे मर जाते हैं साहस की कमी से।' यहां साहस के साथ अपने विचार, शब्द और निर्णयों के साथ खड़ा लेखक प्राय: अपने लिए नैतिकता का निर्माण भी करता है और यहीं से शुरू होती है उसकी अधिक कठिन लड़ाई। सामाजिक नैतिकता को छोड़ देना, उसका विरोध करना एक चरण होता है पर मुश्किल वहां से आती है जब उसके लिए नई नैतिकता का चुनाव करना भी उतना ही आवश्यक हो जाता है। वह शून्य में तैरने वाला परिंदा नहीं बन सकता बल्कि उसे भी मूल्यों की शाख पर आकर बैठना ही होता है। ताल्सताय ने एक स्थान पर लिखा है - 'उस दर्दनाक झूठ की पहचान बहुत जरूरी है जिसमें हर इंसान जी रहा है।' ताल्सताय की कृतियों में जीवन से चिपटे इन्हीं दर्दनाक झूठों की कहानियां हैं जो युद्घ और शांति, अन्ना कैरेनिना या द डेथ आफ इवान इलीच जैसी कृतियों में सामने आता है और बताया जाता है कि 1860 में ताल्सताय ने टीबी से पीडि़त होकर अपने भाई को तड़पते देखा था और उनके मन पर इसका बड़ा मर्मातक प्रभाव पड़ा था। उसी भीतरी रुदन के कारण उन्होंने इन कृतियों की रचना की थी। एक सत्य यह भी है कि दर्दनाक झूठ लेखक के द्वारा पहचाना जाता है, तभी वह नैतिकता और मूल्य के अगर चरण तक अपनी संवेदना को पहुंचा पाता है और उसकी संवेदना में गतिशीलता का जन्म होता है। संवेदना की यह गति और उसकी स्वच्छंदता अपने अराजक रूपों में भी उससे नए मूल्यों व नैतिकता की मांग करती हैं, उसे नए स्वप्नों को गढऩे और उसमें शामिल होने के लिए उकसाती है। उसका पलायन उसे संसारमुक्त नहीं करता है बल्कि अपने संसार से संबंधों को अधिक सार्थक तथा विस्तृत बना लेने के दबाबों से भी उसे गुजारता है।
यह सच है कि लेखक की हर इतिहास या देशकाल में समान भूमिका नहीं रही है। पुराने लेखक प्राय: वे थे जो राजाश्रयी दरबारी थे, या फिर फकीर, संत, उपदेशक अथवा घुमंतू संन्यासी। वे ठीक से अपने को लेखक या कलाकार भी नहीं मानते थे, जैसे की आज भी गांव में कुम्हार या शिल्पकार अपने को महान कलाकर्मी नहीं मानते हैं। प्राचीन यूनान के होमर जैसे लेखक अपने नायकों को देवताओं-दैत्यों से संघर्ष करते दिखाते थे। ट्राय युद्घ के बाद घर वापसी के लिए संघर्ष कर रहा ओडिसी का नायक ओडियस बार-बार यही पूछता है - 'किस देवता ने मेरा मार्ग अवरुद्घ कर रखा है?' फिर वह देवताओं और राक्षसों के जाल को काटकर जीवन को बचाता है। लेखक को तब केवल अपने नायक की जय-पराजय दिखाने की चिंता थी, जिससे लोगों में वीर पुरुषों पर विश्वास बना रहे। पर आज के लेखक के पास केवल नायक के सुख-दु:ख का नहीं बल्कि पूरे समाज का बोझ है और उसने इस सत्य का साक्षात्कार आधुनिक स्थितियों में ही किया है कि नायक की नियति पूरे समाज की नियति नहीं हो सकती है। महाकाव्यों का लेखन विज्ञान और प्रबोधन से पहले का है, इसलिए वह इन दोनों प्रवृत्तियों के विरुद्घ भी जाता है। आज का लेखक धर्म या सामंत के इशारों या उसके आश्रय में जीने की बाध्यता से मुक्त है और उसने फ्रेंच क्रांति, औद्योगिक क्रांति, रूसी क्रांति तथा आधुनिक भारतीय समाज निर्माण की प्रक्रिया से उपजे परिवर्तनों की परंपरा को आत्मसात किया और अपनी बदली हुई भूमिका का अनुभव भी किया है। धर्म या मनोरंजन तक लेखन को सीमित रखने की विवशता उसके आगे नहीं है पर इसी ने उसके दायित्व को बढ़ा भी दिया। इसीलिए नैतिकता और अपने लेखन की सामाजिक भूमिका के बारे में सचेत होना ऐतिहासिक रूप से तर्कसंगत और जरूरी भी लगता है। लेकिन इसी आधुनिकता ने उसे पहले से अधिक अंतद्र्वंद्व, व्यक्तित्व-विभाजन और अवसाद भी दिए हैं। इसी दौर में उसने मानवता के पक्ष में किए सबसे गंभीर वादों को चरमराकर टूटते भी देखा है। सबसे सभ्य कहलाने वाले यूरोप को विश्वयुद्घों में जघन्य हिंसा करते और सबसे आधुनिक कहलाने वाले अमेरिका को प्राचीन बर्बर समाज को लज्जित करने वाले प्रतिशोध लेते देखा है। लेखक के लिए नैतिकता और मूल्य का चयन करना ज्यादा चुनौतीपूर्ण कार्य भी बन गया और इस हताशा ने लेखकों को मूल्यहीनता की तरफ भी धकेला जहां सबसे अधिक उसे अपनी ही आत्मा से लहू रिसता हुआ नजर आया। उसने खुद को ऐसे भटकते हुए प्राणी के रूप में पाया है जिसकी दुनिया में अस्थिरता का कोई ओर-छोर नहीं है। उसकी अवस्था उस मोमबत्ती की लौ की तरह रही है जिसे अंधकार से ही नहीं बल्कि अंधकार को बढ़ाने वाली रोशनियों से भी अकेले ही लडऩा है। यानी लेखक अगर अपना खास विचार और नैतिकता को चुन लें तो भी उसके साथ उसका अकेलापन बढ़ जाता है। भाषा के भीतर की रहस्यमय और अपेक्षाकृत जटिल दुनिया में उसके प्रवेश ने उसे अर्थों के नए विराट विश्व के आगे खड़ा कर दिया जहां उसकी इंद्रियां, बोध और भावनाएं किन्हीं तूफानों का सामना करने लगती हैं और उसकी आवेगमयता उसके स्नायविक तंत्र की परीक्षाएं लेने लगती है। कुंअरनारायण ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था - 'प्रखर रचनात्मक प्रतिभा केवल अपने ही नहीं दूसरों के अनुभवों को भी आत्मसात करने में समर्थ होती है।' लेखक के लिए भीतर के संसार से बाहर निकलना, फिर भीतर लौटना और फिर बाहर आना एक पीड़ादायक पर आनंदपूर्ण क्रिया होती है जिसमें उसके लिए कई बार नैतिकता या विचारधारा के बाहरी तंत्र की तुलना में आत्म-निर्देशित विवेक ही उसका सबसे अच्छा दोस्त भी होता है। उसने जब खुद को भटकता हुआ व्यक्ति मान लिया, तभी उसे राह में पड़े हुए सत्य भी मिले।
लेखक के लिए प्रतिबद्घता के नए आधार और रूप भी सामने आए जिसमें मार्क्सवादी जनप्रतिबद्घता का भी विकल्प था। एक समय विश्व के हजारों छोटे-बड़े लेखकों ने इसके बल पर अपने लेखन और संवेदना को सार्थक बनाने के प्रयास किए। जनपक्षधरता ने उसे नैतिकता-बोध और यथार्थबोध तक पहुंचने में सहायता की। यथार्थ से उसके रिश्ते बनाए रखने में मदद की, हालांकि इसी दौर में लेखक से हमने कुछ ज्यादा बड़ी अपेक्षाएं करनी भी शुरू कर दीं। हमने उसकी कहानियों और उपन्यासों के पात्रों को कृत्रिम से रूप से क्रांतिकारी बनाने की मांग की। कई बार तो ऐसा हुआ कि किसी कहानी में अगर लेखक समाज के आम जनों की दारुण व लाचार स्थितियों को दिखा रहा हो तो हमने पूछा कि क्यों नहीं वह लेखक उन पात्रों को प्रतिरोध करता दिखाता है। क्यों उन्हें केवल अन्याय के हाथों पिसते दिखाया है, उससे लड़ते हुए नहीं। कविता-बिंब के रूप में हाथों का काम केवल प्रार्थना करना नहीं बल्कि शस्त्र थामना भी बताया गया है। ये मांगे इसलिए भी की गई ताकि पाठक के मन को कुछ तो सुकून मिले। गांव में किसी दलित स्त्री से बलात्कार का कथानक रचने वाले रचनाकार से हमने जानना चाहा कि क्यों नहीं वह कहानी में ही उस बलात्कार के प्रतिशोध को पूरा होते दिखाया है। इस मासूमियत भरे प्रश्न में इस पर ध्यान नहीं दिया गया कि उसी उस रचना की सफलता है कि वह यथार्थ को दिखाने के बाद पाटक के मन को इस तरह झकझोर दे कि वह पलटकर यह सवाल पर बैठे - इन स्थितियों का प्रतिवाद क्यों नहीं होता? वह कुछ बदलने के लिए बेचैन हो उठे। किसी कृति में अगर पात्रों का दु:ख और अकेलापन चमकता हुआ दिके तो भी यह प्रश्न पाठक के मन में पैदा करना लेखक की सफलता है कि ये दु:खी पात्र अपने दु:ख से लड़ते क्यों नहीं! क्यों वे अपने अकेलेपन की परिधि में जी रहे हैं! रचना की सफलता अन्याय-दु:ख का प्रतिवाद दिखाने में नहीं है बल्कि सच्चाई को इस तरह पेश करने में है ताकि पाठक खुद ही प्रतिवाद की नैतिक-राजनैतिक जरूरत का अनुभव करने लग जाए। यही रचना के सफल संप्रेषण का प्रमाण भी है। लेखकों पर बाहर से थोपी गई वैचारिक मांगों को दूसरा विस्तार लेखकों से अत्यधिक उद्दंड हो जाने की अपेक्षाओं के रूप में आया। लेखक को यह इलहाम सा हुआ कि वह किसी बड़े हिंदी समाज की आकांक्षाओं का प्रतीक है और उसे अधिक गर्जना-तर्जना के साथ कुछ मुद्दे उठाने हैं। तब उसके हाथ से क्रांति-सृजन का परचम फिसलने लगा और गले में दूसरों की कटी मुंडियां पहनने का शौक परवान चढऩे लगा। निजी निर्लज्जताएं किसी बड़े आप्तवचन की शक्ल में पत्रिकाओं के पन्ने पर उतरने लगीं। लेखक का काम सज्जन दिखना नहीं है पर उद्दंडता भी उसकी एकमात्र पहचान नहीं है। एक हिंदी लेखक ने अपनी समकालीन लेखिकाओं को 'छिनाल' बताकर अपनी उद्दंड मौलिकता का परिचय देना चाहा तो दूसरे से बयान दिया - मैं उद्दंड इसलिए हूं क्योंकि अन्याय का विरोध करना चाहता हूं। बाद में छिनाल बताने वाले लेखक कड़े प्रतिरोध के आगे झुकने पर म•ाबूर हुआ और क्षमायाचना करता देखा गया तो दूसरा लेखक यह समझने से चूक गया कि उद्दंता अन्याय का विरोध करने की एक विशेष शैली है, एकमात्र शैली नहीं। अन्याय का सतत रूप से विरोध करने के लिए कई शैलियों और कई तरीकों का सहारा लेना पड़ता है। अन्याय के विरोध की इन्हीं बहुविध शैलियों का प्रयोग लेखक का अपनी रचना में करना पड़ता है और जीवन में भी।
लेकिन बाद में इतिहास ने उसके आगे फिर से मुश्किलें खड़ी कर दीं। राजनीति ने उसे इन जनपक्षधरता के मूल्यों के साथ जोडऩे में सहायता तो की, पर जब वह राजनीति विश्व भर में स्वयं संकटग्रस्त हो गई तो लेखक को अनाथ-सा छोड़ गई। जैसे किसी को सुरक्षित नाव से उतारकर फिर से लहरों के हवाले कर दिया गया हो। अब हाल यह है कि लेखक जिस राजनीति को अपने लिए मूल्य-स्रोत के रूप में देखता था, वह विश्व में हाशिए पर जाने लगी और लेखक ऐसी अंतर्विरोधी दशा में पहुंच गया जहां लगभग सौ साल पुराने प्रश्न उसके सामने थे कि - 'किधर जाए'। गनीमत है कि इस बीच नई लोकतांत्रिक निष्ठाएं विकसित हुईं जिन्होंने लेखक से भी इसकी मांग की है कि वे इन निष्ठाओं को दृढ़ करने में समाज का हाथ बटाएं। लेखक के लिए यह स्थिति त्रासद भी है और सुखद भी। त्रासदी वहां है जहां नैतिकता-मूल्य के नाम पर लेखन का काम केवल समाज के किसी उद्देश्य में 'हाथ बंटाना' भर रह जाए और सुखद इस रूप में कि लेखन को वह किसी अध्यात्मवादी या आदर्शवादी भ्रमों से मुक्त रखकर किन्हीं नए बनते उदात्त लक्ष्यों के लिए समर्पित कर सकता है। लेखक के लिए यहां उजाला भी है और अंधेरा भी। वह स्वाधीनता पाता भी है और खोता भी। कह सकते हैं कि इस वातावरण में भी लेखक एक 'ट्विलाइट जोन' में जीने के लिए अभिशप्त हो जाता है जहां उसे निरंतर आत्म-संदेह की चुभन के साथ जीना है। वह निरंतर समाज के लिए प्रतिबद्घ है, साथ ही निरंतर सामाजिक क्रूरताओं के बीच खुद को अकेला भी पाता है। वह इस सत्य को भी जानता है कि जीवन केवल दु:खवाद नहीं है जैसा कि अस्तित्ववाद या बौद्घ धर्म बताता है। न ही केवल सुखवाद जिसका प्रचार आज का पूंजी पर आधारित उपभोक्तावाद करता है। मनुष्य केवल दु:ख से नहीं बना, और न केवल सुख से। वह दु:ख और सुख का सम्मिश्रण है और यही उसकी नियति है। ऐसी नियति जिसको देवताओं या दानवों के संसार की तुलना में गौरवान्वित करना कठिन है पर स्वीकार करना जरूरी है। वह स्वतंत्र होकर दुनिया को देखना चाहता है, उसकी संरचनाओं समझना चाहता है। पूर्ण स्वतंत्रता को हासिल कर नीत्शे के सुपरमैन की तरह बन जाना भी कई लेखकों का काम्य रहा है। पर संभवत: पूर्ण स्वतंत्रता जैसी किसी चीज का अस्तित्व नहीं होता है पर उसी को लेकर सबसे अधिक आकर्षण मन में मौजूद रहता है। उसकी निरंतर खोज अपने को लेकर भी है और अपने जीवन-मूल्यों की भी। अज्ञेय ने यह सवाल स्वयं अपने से इस अंदाज में पूछा था जैसे किसी दूसरे लेखक से पूछ रहे हो - 'क्या मेरा जीवन समाज में पहले से ही स्थापित और गौरवान्वित मूल्यों को और ज्यादा स्थापित करने के लिए तो नहीं है? अगर ऐसा है तो मेरा जीवन और लेखन दोनों ही व्यर्थ है।' किसने इस प्रश्न का किस प्रकार से उत्तर प्राप्त किया, यह अलग मसला है। महत्वपूर्ण बात यह है कि कोई लेखक यह महसूस करे कि जो जीवन मूल्य पहले से ही समाद्दत हैं और समाज में स्थापित हैं, उनका पक्ष लेने का क्या लाभ है और उस लेखन का क्या औचित्य है जो इस उपक्रम में शामिल है। विद्रोह स्वयं में किसी बड़े नैतिकता-बौध से संचालित भाव होता है, हालांकि वह कई प्रकार की नैतिकताओं के विरोध में होने के कारण आम जन समाज के बीच कोई अनैतिक कर्म के रूप में भी देखा जाता है। इसलिए सामाजिक मूल्यों से लड़ता, उन्हें ललकारता और बदले में खुद भी कई तरह के घाव लेता इंसान स्वयं में अगर लेखक है तो उसकी नैतिकता कहीं से असंदिग्ध नहीं है। बल्कि उसकी नैतिकता ही सबसे ज्यादा संदेहमुक्त भी है। लेखक अगर निरंतर विकासमान है और ईमानदार भी, तो वह ऐसा शख्स है जिसे सीधा रास्ता नहीं बल्कि मोड़, घुमाव और ऊबडख़ाबड़ पथ से भरी जिंदगी ही मिलती है। यह नियति उसके किसी निजी मानसिक विक्षेप नहीं बल्कि लेखन के प्रति ईमानदारी से पैदा होती है क्योंकि लेखन का संबंध स्थायी ठिकाने बनाने से नहीं बल्कि यायावरी के अनुभवों को जीने से भी होता है। लेखन भीतर की किसी हाहाकारी अशांति से जन्म लेता है और किसी भी निर्वाण या चरम शांति के लक्ष्य को निरर्थक सिद्घ करता है।
लेखक की नियति अलग-अलग समाज में अलग भी होती है। भारत जैसे समाज में जहां भूख, दमन और अराजकता एक सामान्य यथार्थ है, वहां लेखक अधिक विश्वसनीय तभी दिखता है जब वह स्वयं कलम के माध्यम से इनसे जूझ रहा हो। स्वनामधन्य समीक्षक लेखकों के इस 'पैशन' के खिलाफ होते हैं और अक्सर लेखकों को इसके लिए दंडित करने के पक्ष में होते हैं। वे घोषित करते हैं कि संवेदनशील-विद्रोही लेखक हर सफल इंसान को खलनायक बताने की ज्यादती कर रहे हैं। वे ऊंचे आदर्शों की चोटी पर खड़े होकर बाकी दुनिया को छोटा समझने का स्वंग कर रहे हैं। ऐसे लेखकों से इसलिए भी खतरा है क्योंकि वे कई लोगों का चरित्र-हनन कर रहे हैं और सफल लोगों को पीड़ा प्रदान करने का सुख प्राप्त करना चाहते हैं। अक्सर ये घटिया जुमला भी उछाला जाता है कि जो लेखक साहित्य में निजी प्रतिशोध लेते हैं, इतिहास उनसे प्रतिशोध लेता है। यह बात करने वाले इस सच्चाई को नहीं पहचानना चाहते कि लेखक के पास केवल कलम ही है जिससे वह इस समाज के सच को लिख सकता है, जिसे कुछ लोग प्रतिशोध, बदला या हिंसा की कार्रवाई सिद्घ करने पर आमादा होते हैं ताकि लेखक को खामोश किया जा सके। ठीक वैसे ही जैसे कोई मौलवी या पादरी किसी धर्मग्रंथ के अपमान पर चीख-पुकार मचाते हैं। वे लेखक को किसी फालतू बोझ, बौराए घोड़े या पागल दार्शनिक की तरह पेश करना चाहते हैं। उनके लिए व्यापक स्तर पर पढ़ा जा रहा है, सराहा जा रहा और आदर प्राप्त कर रहा लेखक खतरा है और इसीलिए वे उसे 'व्यवस्था पर खतरा' बनाने की मुहिम छेड़ देते हैं। अंग्रेजी की उस पुरानी कहावत की तरह - गिव ए बैड नेम टु डाग बिफोर किलिंग इट। पर समाज में यदि भूख, बेईमानी, अवसारवाद हर तरफ फैला है तो लेखन के विषय और अभिव्यक्तियों में इन विषयों की छायाएं मौजूद रहनी ही चाहिए और उसके भीतर की कथित आध्यात्मिक हलचलें भी इनसे उदासीनता का व्यवहार करके किसी ठोस और भरोसेमंद दिशा में सक्रिय नहीं हो सकती हैं। कह सकते हैं कि लेखक की नैतिकता अंतत: केवल लेखक के भीतरी संस्कारों पर नहीं बल्कि समाज की वर्तमान दशा और संघर्षों पर निर्भर होती है। नैतिकता की दृष्टि से भयंकर रूप से स्खलित हो रहा समाज लेखक की नैतिकता को सहन नहीं कर पाता पर ऐसे ही समाज में लेखक की नैतिकता एक सर्वाधिक आवश्यक सामाजिक यथार्थ के रूप में सामने आनी चाहिए। समाज के यथार्थ से जुड़ाव ही काफी नहीं है, वरन लेखक को युग की नैतिक चिंताओं के साथ जुड़कर लेखकों के यथार्थ का भी निर्माण करना पड़ता है। लेखन का अर्थ केवल साहित्यिक लेखन तक संकीर्ण नहीं करना चाहिए, अपितु उसके विस्तृत रूपों तथा उनके ज्ञानमीमांसीय हस्तक्षेपों को भी नोटिस में लेना उतना ही अनिवार्य है। बीसवीं सदी की ज्ञानमीमांसा अपने विराट मानवतावादी सरोकारों से अनभिज्ञ नहीं रही है और उसका प्रभाव उसने ग्रहण भी किया और स्वीकारा भी। एरिक हाब्सबाम जैसे प्रसिद्घ इतिहासकार ने इतिहास लेखन को केवल आंकड़ेबाजी या तथ्यपरकता नहीं बल्कि उसकी ऐतिहासिक भूमिका के संदर्भ में ही देखा। कौन भूल सकता है उनका यह प्रसिद्घ वाक्य - 'मानवता को केवल न्युक्लियर फिजिक्स की खोजों से ही खतरा नहीं है बल्कि भ्रष्ट तथा खराब इतिहास लेखन भी मानवता के लिए विराट खतरा है। ऐसा खराब इतिहास लेखन नरसंहारों के लिए उकसाता है, क्रूसेड की नृशंसता से लेकर नाजी यातना शिविरों (आउशवित्स) को जायज ठहराता है। इसलिए मनुष्यता को इतिहास लेखन के कार्य को भी गंभीरता से लेना चाहिए।' यानी लेखन का स्वप्न और उसकी चिंताएं साहित्य से बाहर भी हैं और उनका महत्व कहीं से भी साहित्य की तुलना में गौण नहीं है। लेखन के बुनियादी लक्ष्य और सामाजिक चिंताएं उनके लिए भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं जो साहित्येतर विधाओं और ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्रों में रचनात्मकता का परिचय दे रहे हैं।
लेखन की मन:स्थिति एक घुमंतू, व्यथासिक्त और किंचित अव्यवहारिकता के आकर्षण से बंधे व्यक्ति जैसी होती है। सहानुभूति, प्रेम और वासना को हर लेखक खुलकर जीना चाहता है और वही उसकी सृजनशीलता को शक्ति प्रदान करते हैं। दुनिया से वासना और आसक्ति भरा जुड़ाव ही किसी लेखक को प्रेरणा देता है। हालांकि लेखकों के लोकव्यवहार में प्रवीण होने की शिक्षा हमारी परंपरा में बड़ी मात्रा में उपस्थित है। वाल्मीकि, व्यास, तुलसी, सूर या बाद के रीतिकालीन कवि बड़े लोकव्यवहार के कुशल ज्ञाता प्रतीत होते हैं। कवियों या रचनाकारों की लोकव्यवहार के प्रति अनभिज्ञता, अथवा उनमें फक्कड़पन-मतवालेपन के प्रति जो खिंचाव है, उसे हिंदी के आदि समीक्षक रामचंद्र शुक्ल अच्छा नहीं मानते थे। उनका मानना था कि भारतीय परंपरा में फक्कड़पन या मतवालेपन का कोई स्थान नहीं है। यह ऐसी चीज है जो फारस के देशों में प्रचलित मद और प्याले की रूढिय़ों और उन रूढिय़ों को सूफी परंपरा में आत्मसात करने के नतीजे में हम तक पहुंची। उन्होंने राजशेखर के प्रसिद्घ ग्रंथ काव्यमीमांसा उदाहरण दिया है जिसमें कवियों के लक्षण गिनाते समय कहीं फक्कड़पन का जिक्र नहीं किया गया है। योरोप के बारे में वह लिखते हैं - 'योरोप में गेटे और वड्र्सवर्थ के समय तक मतवालेपन और फक्कड़पन की इस भावना का कवि और काव्य के साथ कोई नित्य संबंध नहीं समझा जाता था। जर्मन कवि गेटे बहुत ही व्यवहारकुशल राजनीतिज्ञ था, इसी प्रकार वड्र्सवर्थ भी लोकव्यवहार से अलग एक रिंद भी नहीं माना जाता था।' योरोप के समानांतर ही वह भारतीय साहित्य परंपरा में भी फक्कड़पन के अभाव को देखा है और लिखा - 'वाल्मीकी से लेकर भवभूति और पंडितराज तथा चंद से लेकर ठाकुर और पद्माकर तक कोई मद से झूमनेवाला, लोकव्यवहार से अनभिज्ञ या फक्कड़ नहीं माना गया।' पर स्वयं शुक्ल जी इस बात को नहीं समझ सके कि लोक व्यवहार के भीतर रहकर भी आधुनिक लेखकों-कवियों ने उसकी अमानवीयता को पहचाना है, उसके दंशों को झेला है। लोक-व्यवहार के साथ सामंजस्य का अभाव केवल उसके बारे में अनभिज्ञता को नहीं बल्कि लोक-व्यवहार को संवेदनशीलता से भोगने और उसके द्वारा दी पीड़ाओं को अपने चेतना पर सहने का परिणाम भी होता है। अराजक हो जाने की कामना और फक्कड़पन उसी समाज में लेकक को उपलब्ध हो सकता है जिसमें व्यक्ति को स्वायतता और स्वतंत्रता के लाभ प्राप्त होने लगे हैं। लेखक समाज के भीतर और उसके बाहर, एक साथ ही रहना चाहता है और अपनी प्रतिभा और कष्ट उठाने की क्षमता के बल पर वह इस कौशल को भी साध लेता है। उसका फक्कड़पन और समाज के साथ तादात्म्य, दोनों एक ही साथ संभव हो सकते हैं। स्वतंत्रता की विद्रोही आकांक्षा और समझौते की विवशता को वह एक ही क्षण में अपने भीतर अनुभव करता है और इस भयंकर अंतर्विरोध को समझ आत्महत्या से बचने के लिए अपनी संवेदनाओं को एडजस्ट भी करता है। लेखक की मुश्किल यह भी होती है कि वह सच के बहुविध रूपों को पहचानने लगता है और उन सभी से उसमें सहानुभूति भी रहती है। जैसे कि वह धर्म की निरर्थकता से परिचित होता है पर धर्म के प्रति सहानुभूति भी रखता है। वह मनुष्य और समाज द्वारा निर्मित की गई क्रूरताओं से विचलित होता है पर उसी मनुष्य-समाज को संवेदनशीलता से अपने भीतर आत्मसात भी करता है। वह संसार का चरम वासनापूर्ण प्राणी होता है पर संतों का वैराग्य भी अपने भीतर पालता है। वह सौंदर्य का दीवाना होता है पर सौंदर्य के फरेब से चौकन्ना भी रहता है। यानी लेखक इस दुनिया के सारे अंतर्विरोध को न केवल पहचानता है बल्कि उन अंतर्विरोधों को अपने भीतर जीता भी है। वह चूंकि निरंतर सोचने और लिखने की मनोदशा में होता है, इसीलिए वह बहुत कुछ जान लेने के आत्मविश्वास को हासिल कर लेता है। पर बहुत कुछ जान लेना ही उसकी मुसीबत बन जाता है क्योंकि उसके अंदर सृजनशीलता का सबसे अनिवार्य पहलू यह अहसास भी होता है कि वह कुछ नहीं जानता। जैसा कि विस्लोवा शिंबोस्की ने नोबल पुरस्कार के भाषण में कहा था कि दुनिया के कट्टर तानाशाह और उत्पीड़क लोग ही यह कहते हैं कि सब जानते हैं, जबकि कवि का काम बार-बार यह दोहराना है कि 'मैं नहीं जानता'। उन्हीं के शब्दों में - 'यह वजह है कि इस छोटे से कथन मैं नहीं जानती को मैं इतना ऊंचा स्थान देती हूं। यह हमारे जीवन को विस्तार देता है ताकि उसमें हमारे भीतर की खाली जगहें और वह बाहरी विराटता भी शामिल हो सके जिसमें हमारी यह छोटी सी धरती जाने कब से तैर रही है।'
कुछ न जानने का ऐलान, कुछ नया सीखने का उत्साह और कुछ नया करने का जोश हर लेखक का बुनियादी 'थ्रस्ट' बनना ही चाहिए। पर इसकी बड़ी बाधा वह तंत्र भी है जो लेखक को उसकी ईमानदारी से दूर करता है, उके अंत:करण को प्रलोभनों की ओर धकेलता है। लेखक पुरस्कारों या संस्थाओं को हथियाने की होड़ में खुद को पालतू, संपर्कवादी और अतिरिक्त सज्जनता के रोग से ग्रस्त होने के लिए तैयार होता जाता है। वास्तविकता यह भी है कि अगर आप अधिक पुरस्कृत हैं तो इसका सीधा अर्थ है कि सच नहीं लिख रहे हैं। पुरस्कार-तंत्र अगर आप पर मेहरबान हैं तो इसका मतलब है कि आप फिलहाल अपनी ढेर सारी ईमानदारी दांव पर लगा चुके हैं। जुएं के खेल में लगाई गई सबसे कीमती वस्तु की तरह। लेखक को समाज लेखन के लिए पुरस्कृत या सम्मानित करे, वहीं तक ठीक है। पर वह अगर सम्मान-पुरस्कार के तंत्र को इस प्रकार गढ़े कि लेखन-विरोधी हो जाए या लेखक की कल्पना को सीमित करे तो ऐसे तंत्र से लेखक का संघर्ष ठीक उसी प्रकार से अनिवार्य हो जाता है, जैसे वह शेष समाज में फैली रुग्ण कल्पनाहीनता और यथास्थिति को स्वीकारने की मजबूरी से लडऩे में लेखन की सार्थकता देखता है। वह केवल अपने नहीं बल्कि पूरे समाज के अवचेतन के साथ संवाद करता है। अवचेतन की दुनिया पर लज्जित होने और उसे पर्दे में ढंकने वाली व्यवस्था से जूझता है। लेखक दुनिया का वह प्राणी है जिसे खुद को अक्सर स्वतंत्र रखना पड़ता है ताकि वह दुनिया के मन-मस्तिष्क पर छाई परतंत्रता की बेडिय़ों को झकझोर सके। लेखक किसी रूढ़ नैतिकता का दुश्मन होता है पर लेखक मानव-आत्मा की अनंत गहराइयों में झांककर नैतिकता की ध्वनियों को भी सुन सकता है। वह अंतत: उस मानव के लिए प्रतिबद्घ है जिसे अपने अस्तित्व के लिए रोज लडऩा होता है और मनुष्य का यह रोजमर्रा का, निहायत साधारण प्रतीत होता, अक्सर ही ऊबाऊ और कम गरिमावन तथा भव्य प्रतीत होता अस्तित्व का संघर्ष ही लेखक को आकृष्ट करता है और लेखक इस अति साधारण जीवन से जुड़कर असाधारण साहित्य की रचना करता है। वह इस संसार का ऐसा प्राणी है जिसमे कान लगाकर हर आहट को सुनने की उत्सुकता है। समर्थ लेखन के लिए समर्थ और सच्ची आवाजों का इंतजार है। वह लिखते समय कुछ कहता है पर बहुत कुछ सुनना भी उसे होता है लिखने से पहले। सर्वेश्वर की उन पंक्तियों की तरह -
अब मैं कुछ कहना नहीं चाहता
सुनना चाहता हूं
एक समर्थ सच्ची आवाज
यदि कहीं हो।
(पहल से साभार)
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