जर्मन साहित्य, संसार के प्रौढ़तम साहित्यों में से एक है। जर्मन साहित्य सामान्यत: छह-छह सौ वर्षों के व्यवधान विभक्त माना जाता है। प्राचीन काल में मौखिक एवं लिखित दो धाराएँ थीं। ईसाई मिशनरियों ने जर्मनों को रुने वर्णमाला दी। प्रारंभ में ईसामसीह पर आधारित साहित्य (अनुवाद एवं चंपू) रचा गया। प्रारंभ में वीरकाव्य (एपिक) मिलते हैं। स्काप्स का "डासहिल्डे ब्रांडस्ल्डि", (पिता पुत्र के बीच मरणांतक युद्धकथा) जर्मन बैलेड साहित्य की उल्लेख्य कृति है। ओल्ड टेस्टामेंट के अनेक अनुवाद हुए। हिंदी के तथाकथित "वीरगाथाकाल" की भाँति वाक्यटु, घुमक्कड़, पेशेवर भट्टभड़ंतों (गायक) की वीर बैलेर्डे बनीं। यद्यपि इनसे शिल्प, भाषा एवं नैतिक मूल्यों में ह्रास हुआ तथापि साथ ही विषयवैविध्य भी हुआ। फ्रांस एवं इस्लाम के अभ्युदय तथा प्रभाव से अनेक "एपिक" बने। होहेस्टाफेन सम्राटों के अनेक कवियों में से वुलफ्राम ने "पार्जीवाल" महान् काव्यकृति रची। अज्ञातनामा चारणकृत "निवेलैंगेनलीड" वैसे ही वीरलोककाव्य है जैसे हिंदी में "आल्हा" है। वीरों एवं उनकी नायिकाओं के पारस्परिक प्रणय और युद्ध विषयक विशिष्ट साहित्यधारा "मिनेसाँगर" के प्रमुख कवियों में से वाल्थर, फॉनडेर फोगलवाइड को सर्वश्रेष्ठ प्रणयगीतकार (जैसे विद्यापति) कहा गया है।
परवर्ती जर्मन साहित्य अधिकांशत: पल्लवग्राही रहा। इसी काल में कवि बनाने के "स्कूल" खुले, जिन्हें इन्हीं कवियों के नाम पर उनकी पेचीली एवं अलंकृत शैली के कारण "माइस्तेसिंगेर" कहा गया। पद्य का विकास फ्रांसीसी लेखकों के प्रभाव से हुआ। पंद्रहवी शताब्दी से मुद्रण के कारण गद्य, कथासाहित्य बहुत लिखा गया। महान् सुधारक मार्टिन लूथर महान् साहित्यकार न था किंतु बाइबिल के उसके अद्भुत अनुवाद को तत्कालीन जनता ने "रामचरितमानस" की तरह स्वीकरा तथा परवर्ती लेखक इससे प्रेरित एवं प्रभावित हुए।
रेनेसाँ के कारण अनेक साहित्यिक एवं भाषावैज्ञानिक संस्थाएँ जन्मीं, आलोचनासाहित्य का अंग्रेजी, विशेषत: शेक्सपियर पद्धतिवाले, रंगमंच के प्रवेश से (1620 ई.) काव्य प्रधानत: धार्मिक एवं रहस्यवादी रहा। कवियों में ओपित्स, साइमन डाख तथा पाल फ्लेमिंग प्रमुख हैं। सत्रहवीं शताब्दीं के अंत तक नवसंगीतसर्जना हुई। लाइबनित्स जैसे दार्शनिकों के प्रभाव से साहित्य में तार्किकता एवं बुद्धिवाद आया। ग्रीमेल्सहाउसेन का यथार्थवादी युद्धउपन्यास "सिपलीसिसिमस" कृति है। अतिशयोक्ति एवं वैचित्र्यप्रधान नाटक तथा व्यंग्य साहित्य का भी प्रणयन हुआ किंतु वस्तुत: धार्मिक संघर्षों के कारण कोई विशेष साहित्यिक प्रगति न हुई। प्रसिद्ध नाटककार गाडशेड के प्रतिनिधित्व में यर्वादावादी एवं बुद्धिवादी जर्मन साहित्य प्रारंभ हुआ। कापस्टाफ ने उन्मादक रसप्रवाही काव्य लिखा। लैसिंग के नाटक (1779 ई.), आलोचना एवं सौंदर्यशास्त्र के क्षेत्र में महत्वपूर्ण निर्णायक योगदान किया। इसके आलोचना के के मानदंडों एव कृतित्व ने शताब्दियों तक जर्मन साहित्य को प्रभावित किया है।
समग्र रूप में हम पाते हैं कि जर्मन साहित्य में सार्वभौम दृष्टिकोण का अभाव है और संभवत: इसी से यह यूरोपीय सांस्कृतिक धारा से किंचित् पृथक पड़ता है। संकीर्ण और एकांगी दृष्टिकोण की प्रबलता, अत्यधिक तात्विकता, बाहर से अधिक ग्रहण करने की पारंपरिक प्रवृत्ति आदि कारणों से अंग्रेजी, फ्रेंच जैसे साहित्यों की तुलना में जर्मन साहित्य विदेशों में अपेक्षित प्रसिद्धि न पा सका। फिर भी काल्पनिकता, अतींद्रियबोध, रोमांस तथा लोकतात्विक भूमिका के कारण यह इतर साहित्यों से पृथक् एवं महत्वपूर्ण है। 18वीं शताब्दी के तीसरे चरण के जर्मन साहित्य का युग प्रारंभ होता है। उपर्युक्त बुद्धिवाद के विरुद्ध "स्तूर्मउश्ट्रांव" (तूफान और आग्रह) नामक तर्कशून्य, भावुक, साहित्यिक आंदोलन चल पड़ा। इसका प्रेरक ग्रांटफीटहर्डर था। नवयुवक गेटे तथा शिखर प्रचारक थे। सामाजिकता, राष्ट्रीयता, अतींद्रिय सत्ता पर विश्वास और तर्कशून्यभावुकता इसकी विशेषताएँ हैं।
इसके बाद क्लासिक काल (11786 ई. से) के देदीप्यमान नक्षत्र जोहानवोलगेंग गेटे ने विश्वविख्यात नाटक "फास्ट" लिखा। इसमें गेटे ने शांकुतलम्" का प्रभाव स्वीकारा है। "विलहेम मेइस्तर" प्रसिद्ध उपन्यास है। गेटे के ही टक्करवाले शिलर (साहित्यकार और इतिहासकार) ने "रूसो" से प्रभावित प्रसिद्ध नाटक "डी राउबर" (डाकू) लिखा। दार्शनिक कांट उसी समय हुए। इस काल का साहित्य आदर्शोन्मुखी, जनप्रिय एवं शाश्वत मूल्योंवाला है।
इस शताब्दी में रोमांटिक एवं यथार्थवादी दो परस्पर विरोधी चेतनाएँ विकसीं, परिणामत: क्लासिकल कालीन आदर्शों, मान्यताओं का विरोध हुआ तथा ऊहात्मक, स्वप्निल, आभासगर्भित विगत अतीत अथवा सुदूर भविष्य का सुखद धूमिल वातावरणप्रधान साहित्य लिखा जाने लगा। इसका सूत्रपात आर्थनाउम" (1798) पत्रिका के प्रकाशन से प्रारंभ होता है। अतींद्रिय तत्वों की स्वीकृति, बिंबात्मक एवं प्रतीकात्मक (विशेषत: परियों के कथानकों द्वारा), प्रणयगीतात्मक रूमानी साहित्य की प्रमुख विशेषताएँ थीं। गोट लिबफिख्ते, शेलिंग, श्लेगल, बंधुद्वप आदि प्रमुख रुमानी साहित्यकार हैं हाफमान गायक, गीतकार, और इन सबसे बढ़कर कथाकार था। उसके पात्र भीषण तथा अपार्थिव होते थे। इसका प्रभाव परवर्ती जर्मन साहित्य पर बहुत पड़ा।
परवर्ती शताब्दियों तक प्रभावित करनेवाली सर्वाधिक उपलब्धि शेक्सपियर के नाटकों का छंदविहीन काव्य में अनुवाद है। जर्मनी के राजनीतिक संघर्षों (जेना युद्ध 1806 ई. मुक्ति युद्ध 1813 ई.) में नैपोलियन विरोधी राष्ट्रभावनापरक साहित्य रचा गया। नाटकों में देशप्रेम, बलिदान एवं प्रतीकात्मकता है। अतीतोन्मुखता के परिणामस्वरूप लोकसाहित्य का संग्रह प्रारंभ हुआ, साथ ही जर्मन कानून, परंपराओं भाषा, साहित्य एवं संगीत को नवीन वैज्ञानिक संदर्भों में देखा गया। प्रसिद्ध भाषावैज्ञानिक "ग्रिम" ने भाषाकोश लिखा। अन्य भाषाविश्लेषक "बाप" भी उसी समय हुए। ग्रिम बंधुओं का कहानीसंग्रह "किंडर उँड हाउस मार्खेंव" (घरेलू कहानियाँ) शीघ्र ही जर्मन बच्चों का उपास्य बन गया।
मार्क्सवाद के आते-आते वर्ष-संघर्ष-विरोधी साहित्य का प्रणयत्र प्रारंभ हुआ। ऐसे साहित्यकर (हाइनृख हाइवे, कार्ल गुत्सको, हाइनृख लाउबे, थ्योडोर गुंट आदि) "तरुण-जर्मन" कहलाए। सरकार ने इनकी कृतियाँ जप्त करके अनेक को देशनिकाला दे दिया। हाइने अंतिम रोमंटिक कवि था किंतु उसमें थैलीशाहों का खुला विद्रोह मिलता है। उस समय ऐतिहासिक एवं समस्याप्रधान नाटक बने। भाव एवं भाषा दोनों ही दृष्टियों से आंचलिकता आने लगी। राजनीतिक कविताओं के लिए जार्ज हर्वे, फर्डीनेंथ फ्रालीग्राथ (वाल्टह्विट का पहला अनुवादक) आदि प्रसिद्ध हैं। फीड्रिख हैवेल ने दु:खांत नाटकों से विदेशियों को भी प्रभावित किया। यथार्थवादी उपन्यासधारा में मेधावी स्विस लेखक ग्रांटफीड कैलर हुआ। ओटो लुडविग का कथासाहित्य कल्पनाप्रधान है। सामाजिक उपन्यास वस्तुत: इसी काल में उच्चता पा सके। थ्योडर स्टोर्म ने मनोवैज्ञानिक कहानियाँ तथा प्रगीत लिखे। स्विस लिरिककारों में महान् "कोनराड फर्डीनेंड मेयर" ने अत्यंत ललित, भावप्रधान सुगठित प्रांजल भाषा में प्रगीत लिखे। साहित्य की समस्त यथार्थवादी विधियों ने विदेशी साहित्य से प्रेरणाएँ ग्रहण कीं। इन दोनों के प्रभाव से निराशावादी, प्रतिक्रियाप्रधान साहित्य रचा गया। नीत्से की "महामानव" संबंधी मान्यताएँ उसके साहित्य में व्यक्त हुईं। इसी से बाद में नाजी धारा प्रभावित हुई। "आर्नीहोल्स" के नेतृत्व में प्रकृतिवादी साहित्य (यथातथ्य प्राकृतिक निरूपण) की भी एक धारा पाई जाती है।
बर्लिन के प्रकृतिवादी साहित्य के समानांतर वियना की कलात्मक रसवादिता की धारा भी आई। इसमें सौंदर्य के नवीन आयामों की खोज हुई। उपन्यासजगत् में अत्यधिक उपलब्धि हुई। "टामस मान" जर्मन मध्यवर्ग का महान् व्याख्याता (उपन्यासकार एवं गद्य-महाकाव्य-प्रणेता) था। उसने डरजौबवर्ग (जादू का पहाड़ 1924 ई.) में पतनोन्मुख यूरोपीय समाज का चित्रण किया। मनोवैज्ञानिक विश्लेषण, ऐतिहासिक मिथ एवं प्रतीकात्मकता के माध्यम से उसने परवर्ती साहित्यिकों को बहुत प्रभावित किया। हरमन गैस ने वैयक्तिक अनुभूतियों के सूक्ष्म विश्लेषण प्रस्तुत किए। इस काल के सभी साहित्यिकों में रहस्यवाद और प्रतीकात्मकता है तथा प्राकृतिक साहित्य का विरोध पाया जाता है।
वर्तमान युग के सूत्र पहले से ही पाए जाने लगे थे। "टामस मान" स्वयं वर्तमान का प्रेरक था। प्रभाववादी धारा (इंप्रेशनिस्ट-लगभग 1910 ई.), जिसमें वर्तमान की ध्वंसात्मक आलोचना या आंतरिक अनुभूतियों की प्रत्यक्ष अनुभूति पाई जाती है तथा जिसमें जार्जहिम, हेनरिश लर्श आदि प्रमुख साहित्यिक हैं, वस्तुत: आधुनिक साहित्यक चेतना की एक मंजिल है।
महासमर के बाद अभिव्यंजनावाद की धारा वेगवती हुई। इनकी दृष्टि अंतश्चेतना के सत्योद्घाटन में ही है। नाटक के क्षेत्र में नई तकनीक, कथावस्तु एवं उद्देश्य की नवीनता के कारण रंगमंच की आवश्यकता बढ़ी। जार्जकैंसर, अर्नस्ट टालर के नाटक, वेपेंल के लिरिक प्रसिद्ध हैं। वेपेंल के 1914 के बाद के लिरिकों में व्यापक वेदांत - मृत्यु, मोक्षजगत् में ब्रह्म सत्ता का अस्तित्व - मिलता है। "वाल्टर वान मोलो" ने ऐतिहासिक नाटक लिखे। अर्नेस्ट तथा थ्योडर ने महाकाव्य लिखे। फ्रायड तथा आइंस्टीन के सिद्धांतों का प्रभाव इस काल के साहित्य में पड़ा तथा अलोचना के नए मानदंड आए। स्प्लेंजर आदिकों की मानवता की नवीन व्याख्या अत्यंत प्रभावकारी हुई।
1939 ई. के युद्ध के दौरान जर्मन साहित्य में भी उथल-पुथल मची तथा "थामस मान" जैसे लेखक देशनिष्कासित कर दिए गए। नात्सीवाद (नाजी) के समर्थक साहित्यकारों में पाल अर्नस्ट, हांस ग्रिम, हरमान स्तेह, विल वेस्पर आदि प्रमुख थे। युद्धोतर साहित्य में भी अस्थिरता रही, धार्मिक दृष्टिकोण से वर्तमान समस्याओं को देखा गया। काव्य एवं उपन्यासों में युद्धविभीषका चित्रित हुई। "गर्डगेसर" तथा हेनरिच बाल ने युद्धोत्तर परिस्थितियों का लोमहर्षक चित्रण प्रस्तुत किया।
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