Friday, 12 July 2013

मेटमॉर्फोसिस और काफ्का



जो समझ में न आये, उसे कहते हैं काफ्का, किसी ने उनके अंदर के रचनाकार को यही पहचान दी थी। काफ्का की रचनाशीलता पर चाहे कितने गुन गाये जायें, आम आदमी के पल्ले शायद ही कुछ पड़े।

फिर आइए पढ़ते हैं, बस यूं ही पढ़ लेने के लिए..

रहस्यों में डूबी, उलझाती सोच, कठिन भाषा और साफगोई नदारद, फ्रांत्स काफ्का के कलम की खूबी या मुश्किल? असहाय पड़ा इंसान, पीठ सख्त हो गई है, सिर उठाता है तो अपने भूरे पेट और उसके नीचे निकलते पतले पैरों को देखता है. क्या वाकई यह किसी इंसान का शरीर है, नहीं, यह एक बेहद गंदा कीड़ा है, ऐसा कीड़ा जो एक रात पहले तक इंसान था. मेटामॉर्फोसिस नाम की कहानी में इंसान से कीड़ा बने शख्स ने पढ़ने वालों की संवेदनाओं को इतने गहराई तक छुआ कि उसकी तकलीफ एक मिसाल बन गई.
1912 में लिखी गई मेटामॉर्फोसिस के कीड़े ने लोगों के रोंगटे खड़े कर दिए. यह किताब शायद काफ्का के लिखे साहित्य में सबसे प्रमुख है. सुबह उठ कर खुद को कीड़े के रूप में देखता शख्स इंसानी सोच के दायरे मिटा देता है. पढ़ने वाले यह महसूस करते हैं कि इंसान भी इस जहान में अमिट चीज नहीं है, उसे भी बदलना है, टूटना है, बिखरना है, उसे भी खत्म होना है.
काफ्का अपनी कहानियों को हमेशा रहस्यमय तरीके से पेश करते हैं. क्यों, वो वास्तविक दुनिया के किरदार नहीं गढ़ते, उन्हें वैसा नहीं दिखाते जैसे हमारी आस पास की दुनिया है, इससे कई पाठकों को शिकायत रही है. जब मेटामॉर्फोसिस छपी तब जर्मन साहित्य में रुचि रखने वाले डॉ जिगफ्रीड वल्फ ने काफ्का को पत्र लिख कर कहा, "डियर सर, आपने मुझे दुखी कर दिया. मैंने आपकी किताब मेटमॉर्फोसिस खरीदी और अपने रिश्ते की बहन को भेंट दी लेकिन उन्हें यह कहानी समझ में नहीं आई और फिर उन्होंने अपनी मां को यह किताब भेंट दे दी. उनकी मां को भी यह कहानी समझ में नहीं आई. सिर्फ आप ही मेरी मदद कर सकते हैं. आप मुझे बताइए कि मैं अपनी बहन को कैसे समझाऊं कि मेटामॉर्फोसिस किताब के पीछे आपने क्या सोचा है."
जर्मन साहित्य के जानकार मिषाएल ब्राउन बताते हैं कि काफ्का की रचनाओं में आधुनिकीकरण के प्रति एक चिंता दिखती है. जिस तरह से शहर बढ़ रहे हैं, जिस तरह से यातायात, निर्माण और उत्पादन की नई तस्वीर उभर रही है और तकनीक जैसी चीजों का हमारी जिंदगी में दखल बढ़ रहा है, उस पर उनकी चिंता बहुत ज्यादा दिखती है. यह चिंता आज भी है और गुजरते समय के साथ बढ़ रही है इसलिए ब्राउन मानते हैं कि काफ्का कभी पुराने नहीं हुए.
काफ्का ऐसे लेखक हैं जिन्होंने 1900 के आस पास यह कहा था कि इंसान पर बहुत नियंत्रण है, उसकी सोच आजाद नहीं है. इंसान को यातना दी जा रही है. उनकी एक किताब है, द पीनल कॉलोनी (जर्मन में स्ट्राफकोलोनी) इसमें जिन हालातों का जिक्र किया गया है उनकी आप ग्वांतानामो की जेल से तुलना कर सकते हैं. वैसे काफ्का ने जिस असहाय स्थिति का भाव दिखाया किया है वह आज कल के इंसानों में खूब देखी जा सकती है. दिलचस्प बात यह है कि जिस समाज में इंसानों को बहुत ज्यादा आजादी देने की बात कही जाती है वहां भी काफ्का की कहानियों के पात्र बड़ी आसानी से मिल जाते हैं.
जर्मनी की मारबुर्ग यूनिवर्सिटी में जर्मन साहित्य पढ़ाने वाले थोमास अंस का कहना है कि इन आजाद सामाजों में प्रशासनिक संस्थाओं की मौजूदगी संतुलित नहीं दिखती, जो चिंताजनक है. इन अथॉरिटीज को कभी खतरे के रूप में दिखाया जाता है तो कभी उनकी मजाक उड़ाया जाता है, दोनों ही स्थितियां बुरी हैं. इससे इंसानों की इनमें दिलचस्पी खत्म होती है और यह आधुनिकीकरण के बुरे अनुभव का हाल बताती है. काफ्का की सोच इस गहराई तक जाकर उनकी चिंता उभारती है.
जर्मन समाज और भाषा में काफ्का के महत्व को इस बात से भी समझा जा सकता है कि यहां उनके नामों पर मुहावरे और शब्द तक गढ़े गए हैं. इंसान की ऐसी स्थिती जिसमें उसके सामने कोई रास्ता नहीं दिखता और वो हर तरफ से मुश्किलों में घिरा होता है उसे काफ्काएस्क कहा जाता है. हिज्जे में मामूली फेरबदल के साथ जर्मन और अंग्रेजी भाषा में एक समान इस्तेमाल होने वाले इस शब्द का जन्म काफ्का के साहित्य का असर है.
मिषाएल ब्राउन कहते हैं कि काफ्का की कहानियों में जो बहुरंग दिखता है उसकी एक और वजह है, काफ्का की खुद की पहचान, जो बहुत से रंगों से बनी है और जो आधुनिकीकरण के असर का एक प्रतीक भी है. काफ्का यहूदी थे, काफ्का वकील थे, काफ्का लेखक थे, काफ्का प्राग के थे यानी वो चेक भी थे और जर्मन भी. ऐसे में उन्हें पढ़ने वालों की एक नहीं कई काफ्का से मुलाकात होती थी. अगर कोई काफ्का के भीतर कोई साफ सोच ढूंढने की कोशिश करता है तो उसे ऐसे काफ्का कभी नहीं मिलेंगे, यह एक समस्या है और लोगों की शिकायत भी. वैसे ब्राउन यह भी मानते हैं कि पाठक की यही समस्या काफ्का का आकर्षण है.

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