निकोलाई करमज़िन का जन्म अट्ठारहवीं सदी के मध्य में हुआ| इन्होने रूस के लिए बहुत कुछ ऐसा किया, जो इनसे पहले किसी ने नहीं किया था| आइए, देखें क्या कुछ किया इन्होंने! जवान होते ही इन्होने फैसला किया कि अपना जीवन साहित्य की सेवा में ही लगाएंगे| 17 साल के थे, जब मास्को आ गए और अपनी लेखनी से रोज़ी-रोटी कमाने लगे| रूस में उनसे पहले ऐसा कोई व्यक्ति नहीं हुआ था| खुद तो वह लिखते ही थे, साथ ही अनुवाद भी करते थे – दिन रात काम करते थे| रूस में बच्चों के लिए पहली पत्रिका निकलने लगी, तो करमज़िन उसके लिए भी लिखने लगे| शेक्सपियर का अनुवाद करने के साथ-साथ अपने समकालीन अंग्रेज़ और फ्रांसीसी लेखकों की रचनाओं का भी अनुवाद वह करते थे| शीघ्र ही खुद भी पत्रिकाएँ निकालने लगे| इनमें एक थी ‘मास्को पत्रिका’, जिसमें वह अपनी कहानियाँ, लेख, समीक्षाएँ और कविताएं छापते थे|
‘मास्को पत्रिका’ बेहद लोकप्रिय हो गई| इस पत्रिका के लिए ही करमज़िन ने कालिदास के नाटक ‘शकुंतला’ के कुछ अंशों का अनुवाद किया| इनकी भूमिका में पाठकों को संबोधित करते हुए उन्होंने लिखा: “इस नाटक के हर पृष्ठ पर मैंने काव्य का चरम सौंदर्य पाया, सूक्ष्मतम भावनाएं, मर्मस्पर्शी कोमलता, वसंत की संध्या जैसी पुनीत, अबोध प्रकृति और महानतम कला पाई| इस नाटक को तो हम प्राचीन भारत की अनुपम दृश्यावली कह सकते हैं| अपने रसपान के लिए मैंने ‘शकुंतला’ के कुछ दृश्यों का अनुवाद किया और फिर इन्हें छापने का निश्चय किया, इस आशा से कि सच्चे काव्य-प्रेमी पाठक एशियाई साहित्य की इस पुष्पावली की सुरभि का आनंद ले पाएंगे”|
करमज़िन का चहुंमुखी ज्ञान, उनका अध्यवसाय, साहित्य की उनकी सूक्ष्म परख और अभिरुचि – यह सब होनहार युवा रूसी लेखकों के लिए अनुकरणीय उदाहरण बन गया| रूस के महानतम कवि अलेक्सांद्र पुश्किन ने उन्हें अपना सच्चा मित्र और गुरु कहा, हाँ यह कुछ समय बाद की बात है| फिलहाल तो करमज़िन रूस के नंबर एक पत्रकार थे| ‘यूरोप संदेश’ नामक अपनी पत्रिका में रूस के बाहर होनेवाली सभी घटनाओं पर प्रकाश डालते थे|
साहित्य और पत्रकारिता से जुड़े करमज़िन के लेखन ने रूसी साहित्यिक भाषा के विकास पर अथाह प्रभाव डाला| उनकी कोशिश सदा यह रहती थी कि प्राचीन शब्दावली और व्याकरण का उपयग न करें, कि जहाँ तक हो सके अपनी रचनाओं की भाषा को बोलचाल की सजीव, स्वाभाविक रूसी भाषा के पास लाएं| आज जिस रूसी भाषा का चलन है, उसका गठन बहुत हद तक निकोलाई करमज़िन ने 18वीं सदी में ही किया|
साहित्य में एक नई दिशा – भावुकतावाद – की नींव उन्होंने रखी| इस दिशा में सर्वोपरि था मनुष्य के मनोभावों की ओर ध्यान| मनुष्य सुखी हो, संसार सार्वजानिक कल्याण की ओर बढ़े – इसके लिए यह ज़रुरी है कि लोगों के मनों में सद्भावना जगाई जाए| प्रेम और स्नेह एक मन से दूसरे में बहते हुए ही नेकी और दया का रूप लेते हैं| “पाठक जो आंसू बहाते हैं, वे सदा प्रेम से नेकी की ओर बहते हैं और इस नेकी को ही पोसते हैं,” करमज़िन ने लिखा| इस नई साहित्यिक दिशा के सारे सिद्धांतों को लेखक ने अपनी सबसे लोकप्रिय रचना ‘बेचारी लीज़ा’ में मूर्तित किया| दसियों बरसों तक यह कहानी रूसी साहित्य की एक सबसे लोकप्रिय रचना रही|
यह एक गरीब किसान लड़की लीज़ा की दुखभरी कहानी है| अमीर नौजवान एरास्त उसे धोखा देता है और वह तालाब में जा डूबती है| यह कथानक तो संसार भर के साहित्य में किसी न किसी रूप में हम पाते हैं| पर रूसी लोगों के लिए सबसे पहले करमज़िन ने ही यह कहानी पेश की| उन दिनों यह कहानी कितनी लोकप्रिय थी, इसका अंदाज़ आप इस बात से लगा सकते हैं कि बरसों तक हज़ारों युवक-युवतियों के लिए मास्को का वह तालाब एक “तीर्थ” बना रहा, जहां भोली लीज़ा ने प्रेम की वेदी पर अपनी जान दे दी| करमज़िन चाहते तो ऐसी और न जाने कितनी कहानियाँ लिख डालते और यश लूटते रहते| परंतु 37 वर्षीय लेखक ने जीवन में एक बिलकुल नया अध्याय शुरू किया – उन्होंने रूस का इतिहास लिखने का फैसला किया| उनसे पहले कभी किसी ने पुराने दस्तावेजों का अध्ययन करके उनके आधार पर रूस का इतिहास नहीं लिखा था|
उन्हें राजसी इतिहासकार का पद सौंपा गया| 19वीं सदी के आरंभ में उन्होंने ‘रूसी राज्य का इतिहास’ लिखना शुरू किया| तब से अपने जीवन के अंतिम दिनों तक वह इसी काम में लगे रहे| इतिहास लिखना भगीरथ परिश्रम का काम है| सबसे पहले तो सामग्री खोजनी थी| रूस की विज्ञान अकादमी, सार्वजनिक पुस्तकालय, मास्को विश्विद्यालय – जहाँ-जहाँ पुरानी पुस्तकों के संग्रह थे, वहाँ जा-जाकर करमज़िन उनका अध्ययन करने लगे| उनके कहने पर रूस के ईसाई मठों में, ऑक्सफोर्ड, पेरिस, वेनिस, प्राग, कोपेनहेगन के अभिलेखागारों में सामग्री की खोज होने लगी| क्या कुछ नहीं मिला इन खोजों में!
कहते हैं जब कोई नया दस्तावेज़, कोई इतिवृत्त मिल जाता था, तो करमज़िन खुशी के मारे कई-कई रातों तक सोते नहीं थे| दोस्त लोग उनका मजाक उड़ाने लगे कि उन्हें तो बस इतिहास के अलावा और कुछ सूझता ही नहीं| हां, प्रसंगतः, आपको यह भी बता दें कि अफानासी निकीतिन का ‘तीन समुद्र पार का सफरनामा’ भी करमज़िन ने ही ढूँढ निकाला था और छपवाया था| 19वीं सदी में, वस्तुतः 300 साल बाद जाकर ही रूस के और यूरोप के भी पाठकों को पता चला कि एक रूसी सौदागर ही भारत की यात्रा करके आया पहला यूरोपीय था|
1818 में ‘रूसी राज्य का इतिहास’ ग्रन्थ के पहले आठ खंड प्रकाशित हुए| इनकी 3000 प्रतियाँ तब छपी थीं, जो 25 दिन में ही बिक गईं| यह मत भूलिए कि इनकी कीमत कम नहीं थी|
तब से लगभग दो सौ साल बीत चले हैं| आज के इतिहासकार प्राचीन रूस के बारे में कहीं अधिक जानकारी रखते हैं| लेकिन करमज़िन की पुस्तक पहली और अद्वितीय है| कालांतर में अनेक इतिहासकारों ने इस कृति को ही अपनी रचनाओं का आधार बनाया| निकोलाई करमज़िन के ‘रूसी राज्य के इतिहास’ के न जाने कितने संस्करण निकल चुके हैं, लेकिन उसकी मांग आज भी कम नहीं हुई है।(योगेंद्र नागपाल)
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