अमित गुप्ता
अब क्या परंपरागत किताबों को छोड़ दें? नए ईश्टाइल की बिना कागज़ की किताबों को अपनाएँ? ये प्रश्न काफ़ी समय से बार-२ ज़ेहन में उठते और बार-२ मैं इनको टाल देता कि नहीं अभी ई-बुक पर कैसे जाएँ, कागज़ की किताब को हाथ में लेकर पढ़ने की जो फील है, उसमे जो बात है वह किसी और चीज़ में नहीं आ सकती। कुछेक वर्ष पूर्व मैंने प्रयास किया था ई-बुक पढ़ने का लेकिन मज़ा नहीं आया कंप्यूटर की स्क्रीन पर आँख गड़ाकर पढ़ने में, या यूँ कह सकते हैं कि मन में ही एक मेंटल ब्लॉक था जो कि इस डगर पर आगे बढ़ने नहीं दे रहा था।
बात यहाँ कागज़ पर छपने या न छपने की नहीं है, बात है आदत की। हमें जिस चीज़ की आदत बरसों से पड़ी हुई है प्रायः उसको बदलने के लिए मन सहज ही नहीं मान जाता, बदलाव सहज ही नहीं स्वीकारणीय हो जाता। व्यक्ति-२ पर निर्भर करता है, कोई बदलाव को आसानी से स्वीकार कर लेता है और कोई नहीं भी कर पाता। हम जिस चीज़ में अपने को जितना कंफ़र्टेबल पाते हैं उसमें बदलाव उतना ही हमारे लिए असहज हो जाता है। और फिर कोई एक वाक्या, कोई एक ऐसी बात होती है जो हमको पुनः अपनी प्रॉयारटीज़ यानि प्राथमिकताओं पर विचार करने को कहती है या बिना विचार किए ही हमें अपना रवैया बदलने को विवश करती है।
कुछ ऐसा ही किताबों को लेकर मेरे साथ काफ़ी समय से चल रहा था। पढ़ने का शौक मुझे बचपन से रहा है, कॉमिक्स से शुरुआत हुई और फिर कॉमिक्स से उपन्यास तक पहुँचा। आजकल कॉमिक्स तो पढ़ना हो नहीं पाता लेकिन उपन्यास पढ़ना अभी भी जारी है, गाहे-बगाहे जब मौका मिलता है तो पढ़ लेते हैं। कभी तो महीने में दस-बारह उपन्यास निपट जाते हैं और कभी तीन महीने में भी एक उपन्यास पूरा नहीं हो पाता। :) बीते सालों में उपन्यासों का जुड़ते-२ एक बड़ा कलेक्शन हो गया है, इनमें बहुत से उपन्यास मैंने बीच-२ में रफ़ा-दफ़ा भी किए क्योंकि वे रखने लायक नहीं लगे, कुछेक किसी ने पढ़ने के लिए मुझसे लिए तो वे कभी वापस नहीं आए और मुझे भी ध्यान नहीं रहा कि कौन सा उपन्यास किसको दिया था। अब किताबों का तो ऐसा है कि वे रखने की जगह माँगती हैं और जब जुड़ जाती हैं तो वज़नी भी हो जाती हैं।
रेड बुल
अभी कुछ महीने पहले घर शिफ़्ट किया, एक मोहल्ले से दूसरे मोहल्ले। दूरी तो अधिक नहीं लेकिन घर बदलना आसान भी नहीं। बाकी सब सामान के लिए तो खैर मज़दूर बुला लिए गए थे कि सामान बाँध टम्पो में चढ़ाएँगे और दूसरी जगह उतार देंगे लेकिन अपनी किताबों से मुझे कुछ अधिक ही प्रेम है इसलिए मैंने तय किया कि इनको मैं अपने आप ही ले जाऊँगा। एक भी किताब का पन्ना मुड़-तुड़ गया तो गले में फांस सी अटकी रहेगी महीनों तक कि उस किताब का पन्ना मुड़-तुड़ गया। पास ही में रहने वाले अपने एक ममेरे भाई को बुलाया और बोला कि भाई हाथ लगाओ, इन सब किताबों को हमें शिफ़्ट करना है। तो हम दोनों ने तकरीबन आधी किताबों को लेकर एक गट्ठर बाँधा कि आधा-२ करके ले जाएँगे। उस गट्ठर को उठा के गली के बाहर खड़ी अपनी गाड़ी में डालना था और फिर गाड़ी से उतार नए घर में ले जाना था। अब क्या बताएँ, गाड़ी तक ले जाते हुए ही हालत पतली हो गई, एक तो गट्ठर पर ठीक से पकड़ नहीं बन रही थी दूसरे वज़न इतना अधिक था कि हम दोनों गाड़ी तक पहुँचते-२ हाँफ़ गए!! फिर भी हिम्मत कर नए घर पहुँचे, गाड़ी से गट्ठर निकाला और किसी तरह अंदर कमरे में रखा। बस इसके बाद तो ममेरा भाई बैठ गया और हाथ खड़े कर दिए कि भईया अब अपने वश का नहीं है, एक ही में हवा निकल गई। एनर्जी के लिए एक रेड बुल (Red Bull) उसको पिलाई एक मैंने स्वयं पी तब जाकर ज़रा जान में जान आई। माँ को फोन कर कहा कि परवाह नहीं, बाकी की किताबों को गट्ठर में बंधवा दो ताकी वे भी टम्पो में आ जाएँ, हमारे वश का नहीं है अब दोबारा ऐसा किला फ़तह करना!!
बहरहाल बाकी सामान के साथ शेष किताबें भी आ गईं और सब मामला सैट हो गया लेकिन मन में एक विचार निर्णय की स्थिति में पहुँच गया था कि अब से छपी हुई किताबें खरीदनी बंद करनी होंगी और ई-बुक पर शिफ़्ट होना अनिवार्य हो गया है। किताबें पढ़ना तो छोड़ नहीं सकते, और अभी यह हाल है तो आगे और किताबें जुड़ेंगी तो उनके रख-रखाव की सिरदर्दी भी बढ़ेगी ही और वज़न को तो कतई नहीं भूलना चाहिए, उसी के कारण तो लफ़ड़ा हुआ था!! ई-बुक का यह रहेगा कि एक टैबलेट जैसे छोटे डिवाइस में सैकड़ों किताबें रहेंगी और वज़न बस ऐसा कि बस्ते में डाला और निकल लिए।
किण्डल
विकल्प के रूप में एक ही मामला बढ़िया लगा, ऐमैज़ॉन का किण्डल (Amazon Kindle)। और भी कई ई-बुक वाले हैं, अपना देसी इन्फ़िबीम (Infibeam), जो कि हर मामले में ऐमैज़ॉन की नकल दिखता है, और उसका ई-बुक रीडर पाई लेकिन इन्फ़िबीम के पास वह कलेक्शन नहीं है जो ऐमैज़ॉन के पास है, इन्फ़िबीम के पास तो क्या किसी के पास भी ऐमैज़ॉन से टक्कर ले सकने वाला कलेक्शन नहीं है। दूसरे ऐमैज़ॉन के किण्डल का लाभ यह कि आपको उनका रीडर खरीदने की आवश्यकता भी नहीं है, किण्डल सॉफ़्टवेयर विण्डोज़ (Windows), मैक (Mac), एण्ड्रॉयड (Android), विण्डोज़ फोन (Windows Phone), आईफोन (iPhone), आईपैड (iPad) आदि सभी के लिए उपलब्ध है। तो या तो आप कंप्यूटर पर इंस्टॉल करके पढ़ लो या फिर अपने स्मार्टफोन पर या टैबलेट पर। तो पहले विण्डोज़ पर किण्डल वाला सॉफ़्टवेयर डाल के फोकट वाली कुछ किताबें पढ़ी, पढ़ने में जंची तो तय हो गया कि किण्डल ही जंचे है। इधर किण्डल रीडर लेने का इरादा नहीं था क्योंकि उसमें मामला ज़रा सीमित हो जाता है, आपके पास कोई छह इंच की स्क्रीन तो है लेकिन श्वेत-श्याम ही है जिसको आप पढ़ने के लिए ही प्रयोग कर सकते हो, यदि फिल्म आदि देखनी है या इंटरनेट सर्फ़ करना है तो उसके लिए नहीं काम आएगी। साथ ही उसमें स्टोरेज भी सीमित है, किताबें पढ़ने के लिए है तो इतनी जगह है कि कोई तीन हज़ार किताबें आ जाएँगी लेकिन 4GB की जगह में आप और क्या कर लोगे?! तो तय यह हुआ कि एक छोटा सात इंच का टैबलेट देखा जाए, सस्ते वाला। जनवरी में एक चीनी टैबलेट आया, दुनिया का पहला एण्ड्रॉयड ४ – आईसक्रीम सैंडविच वाला टैबलेट, आईनोल नोवो७ पलाडिन, तो वह खरीद लिया गया। उस पर किण्डल डाला गया और मामला सैट। अब किताब पढ़ने के साथ-२ यदि कहीं बाहर हैं तो उस पर फिल्म भी देखी जा सकती है, किताब पढ़ते-२ उसी में हेडफोन लगा के संगीत का आनंद भी लिया जा सकता है। वैसे तो मैं इंटरनेट सर्फ़िंग के लिए प्रयोग नहीं करता लेकिन वह भी कर सकते हैं, ट्विट्टर, फ़ेसबुक, फीड रीडर, अखबार आदि सभी उसमें हैं, एण्ड्रॉयड है, खूब भालो।
इधर ई-बुक के रास्ते जाने के और भी लाभ समझ आए:
किताबों के रख-रखाव का झंझट नहीं, सब किताबें टैबलेट में, कहीं भी बेखटके ले जाओ
वज़न की समस्या से निजात, चाहे सौ हों या हज़ार, सब किताबें एक ही टैबलेट में
रख-रखाव का झंझट नहीं तो कटने-फटने या पुराने होने का भी झंझट नहीं
यदि आप कंप्यूटर पर किण्डल में कोई किताब पढ़ रहे हैं तो जिस पन्ने पर आपने उसमें छोड़ी उसी पन्ने से आप टैबलेट पर आगे पढ़ सकते हैं, आपने कोई किताब कहाँ तक पढ़ी यह किण्डल याद रखता है और आपकी सभी डिवाइसों पर सिंक्रोनाइज़ कर देता है
खो जाने का भी डर नहीं, यदि टैबलेट टूट जाता है या खो जाता है तो भी किताबें ऐमैज़ॉन के यहाँ सुरक्षित हैं, नए टैबलेट आदि में किण्डल डाल के अपने खाते में लॉगिन करो और जितनी भी किताबें खरीदी हुई हैं सब की सब डाऊनलोड हो जाएँगी
कहीं भी जाना हो, या छुट्टी आदि पर जा रहे हों और मन हो कि साथ में एकाथ किताब भी ले जाएँ तो छांटने का झंझट नहीं और न ही बाद में पछताने की आवश्यकता कि गलत किताब ले आए, सभी किताबें साथ ले जा सकते हैं
कुछ अन्य बातें जो मुझे अपने हिसाब से लाभकारी लगीं:
अंग्रेज़ी उपन्यास भारत में प्रायः देरी से उपलब्ध होते हैं, कुछ तो तुरंत ही हो जाते हैं कुछेक चार-पाँच महीने भी लगा देते हैं। किण्डल पर प्रायः तुरंत ही उपलब्ध हो जाते हैं जैसे ही अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में आते हैं।
छपे हुए अंग्रेज़ी उपन्यास यहाँ पर ढाई सौ से लेकर आठ सौ तक चले जाते हैं, नए आए उपन्यास की कीमत अधिक होती है। किण्डल पर पचास सेण्ट से लेकर बारह डॉलर तक मिलते हैं, प्रायः सस्ते ही मिल जाते हैं।
कम लोकप्रिय तथा नए लेखकों के उपन्यास यहाँ नहीं मिलते, किण्डल पर ऐसी कोई सीमा नहीं है, नए लेखक बिना किसी प्रकाशक के स्वयं ही अपने उपन्यास ई-बुक संस्करण के रूप में बेच सकते हैं, तो वे भी पढ़ने को मिल जाते हैं।
कुछ लाभ हैं तो कुछ नुकसान भी हैं:
यदि कोई किताब पसंद नहीं आई तो उसको सेकण्ड हैण्ड विक्रेता को बेच कीमत वापसी नहीं वसूल सकते, खरीद ली तो खरीद ली, सेकण्ड-थर्ड हैण्ड किताबों का फिलहाल कोई स्कोप नहीं है
किताब किसी अन्य को पढ़ने के लिए नहीं दे सकते, देना है तो पूरा डिवाइस ही देना होगा कि ले भई पढ़ के वापस कर देना!!
हिन्दी किताबों का तो खैर फिलहाल कोई स्कोप नहीं है इसलिए यदि हिन्दी पढ़नी है तो छपी किताब ही खरीदें
अब ये नुकसान हैं या नहीं यह भी व्यक्ति-२ पर निर्भर है, किसी पर लागू होते हैं किसी पर नहीं। जैसे इन तीन में मुझ पर सिर्फ़ पहले वाला लागू होता है कि यदि मुझे कोई किताब पसंद नहीं आती तो मैं उसको निकाल नहीं सकता, वह पुराने पीपल के भूत की भांति मुझसे चिपकी रहेंगी जब तक ऐमैज़ॉन कोई पढ़ी हुई किताबों को खरीदने-बेचने का विकल्प नहीं प्रदान करता। बाकी दोनों बातें मुझ पर लागू नहीं होती; मुझसे किताब आदि ले कर पढ़ने वाले कोई हैं नहीं, मैं प्रायः उपन्यास पढ़ता हूँ और मित्र-गण आदि में जो लोग पढ़ते हैं उनमें उपन्यास पढ़ने वाले कम हैं और जो उपन्यास पढ़ते हैं वे अन्य प्रकार के उपनयास पढ़ते हैं और अपनी प्रति खरीद कर पढ़ते हैं! हिन्दी किताबें/उपन्यास मैं ऐसे कोई खास पढ़ता नहीं, यदि किसी खास उपन्यास आदि को किसी ने रिकमेण्ड कर दिया तो उसको पढ़ लेता हूँ तो ऐसे ईद के चाँद से भी दुर्लभ मौकों पर उपन्यास खरीदने में कोई समस्या नहीं।
तो इस तरह रोते-पीटते, टाल-मटोल करते आखिरकार अपने को ई-बुक पर शिफ़्ट होना पड़ा, उसके बाद से किण्डल पर ई-बुक ही खरीदी जाती हैं, पिछले तीन महीने में कई उपन्यास निपटा दिए गए हैं। अब अगला टार्गेट है कि जो उपन्यास कलेक्शन में रखने हैं उनके ई-बुक संस्करण खरीदे जाएँगे और कागज़ी किताबों में से अधिकांश निकाल दी जाएँगी। इसमें समय लगेगा और फिर मेरा आलस्य भी आड़े आएगा, देखें कब तक यह मामला निपटेगा!!
ई-बुक और उसमें विकल्प
पिछले वर्ष मैंने ई-बुक्स के विषय में लिखा था कि कैसे आखिरकार कागज़ पर छपी किताबों का त्याग कर मैंने ई-बुक्स को अपनाया। उस समय कोई विकल्प उपलब्ध नहीं था, सिर्फ़ ऐमैज़ॉन (Amazon) का किण्डल (Kindle) ही ढंग का उपाय था। लेकिन किण्डल डिवाइस की जगह मैंने एण्ड्रॉय्ड टैबलेट को तरजीह दी, आखिर ऐमैज़ॉन किण्डल सॉफ़्टवेयर विण्डोज़ (Windows), मैक (Mac), एण्ड्रॉय्ड (Android), विण्डोज़ फोन (Windows Phone), आईफोन (iPhone), आईपैड (iPad) आदि सभी के लिए उपलब्ध है।
अब एक वर्ष बाद कुछ अन्य खिलाड़ी भी मैदान में हैं। कुछ समय पहले फ्लिपकार्ट (Flipkart) ने अपनी ई-बुक बाज़ार में निकाल दी। फ्लिपकार्ट की शुरुआत किताबें बेचने से ही हुई थी और धीरे-२ इसने अन्य उत्पाद बेचने शुरु किए, इसलिए ई-बुक्स के आने की महज़ प्रतीक्षा थी कि कब फ्लिपकार्ट इनको बेचना आरंभ करता है। परन्तु एक थर्ड पार्टी विक्रेता होते हुए भी इसकी ई-बुक्स फिलहाल सिर्फ़ एण्ड्रॉय्ड पर पढ़ी जा सकती हैं क्योंकि इसका ई-बुक रीडर एप्प सिर्फ़ उसी के लिए उपलब्ध है। :tdown: तो यदि आप किसी अन्य मोबाइल डिवाइस अथवा कंप्यूटर पर पढ़ने के इच्छुक हैं तो यह आपके किसी काम की नहीं। फिर एक समस्या यह भी है कि इसका कलेक्शन अभी काफ़ी कम है, अधिक किताबें नहीं हैं। कई नई और लोकप्रिय किताबें भी ई-बुक में उपलब्ध नहीं हैं हालांकि उन्हीं के छपे हुए संस्करण फ्लिपकार्ट बेच रहा है। यदि दाम की बात करें तो इसके दाम ऐमैज़ॉन से थोड़े अधिक हैं, ज़्यादा नहीं पर कुछ फर्क है।
एक अन्य खिलाड़ी जो मैदान में उतरा है वह है गूगल। गूगल प्ले स्टोर (Google Play Store) में ई-बुक्स आदि काफ़ी समय से बिक रही हैं परन्तु भारत का रूख इसने अभी एकाध सप्ताह पूर्व ही किया है। एण्ड्रॉय्ड निर्माता होने के बावजूद गूगल प्ले स्टोर से खरीदी हुई ई-बुक्स न सिर्फ़ एण्ड्रॉय्ड पर पढ़ी जा सकती है वरन् इनको कंप्यूटर और आईफोन/आईपैड पर भी पढ़ा जा सकता है। इसके अतिरिक्त गूगल कुछ ई-बुक रीडर डिवाइस का भी समर्थन देता है जैसे सोनी ई-रीडर (Sony eReader), कोबो (Kobo), नुक (Nook) इत्यादि। इसके अतिरिक्त कुछ ई-बुक्स को आप ईपब (ePub) अथवा पीडीएफ़ (PDF) रूप में डाऊनलोड भी कर सकते हैं।
परन्तु ऑल इज़ नॉट रोज़ी विद गूगल प्ले स्टोर। दो मुख्य समस्याएँ हैं जिनके चलते फिलहाल इसको अपनाना कठिन है। गूगल प्ले स्टोर पर किताबों के दाम ऐमैज़ॉन किण्डल स्टोर के मुकाबले काफ़ी अधिक हैं, कई मामलों में दोगुने या अधिक भी हैं।
उदाहरण के लिए अभी कुछ दिन पहले आया अमिष त्रिपाठी का नवीनतम उपन्यास – द ओथ ऑफ़ द वायुपुत्रास (The Oath of the Vayuputras) – ऐमैज़ॉन किण्डल स्टोर पर 176 रूपए का मिल रहा है और वही गूगल प्ले स्टोर पर 189 रूपए का मिल रहा है।
कोई खास फ़र्क नहीं है, मात्र तेरह रूपए की बात है, नज़रअंदाज़ किया जा सकता है। परन्तु मैंने कई किताबों में यह फ़र्क काफ़ी ज़्यादा भी देखा है। एक अन्य उदाहरण के लिए जे.आर.आर. टोलकिन (लॉर्ड ऑफ़ द रिंग्स वाले लेखक) का लगभग 76 वर्ष पुराना उपन्यास – द हॉब्बिट (The Hobbit) – ऐमैज़ॉन किण्डल स्टोर पर 152 रूपए का मिल रहा है और वही गूगल प्ले स्टोर पर 303 रूपए का मिल रहा है।
यह फ़र्क काफ़ी अधिक है और नज़रअंदाज़ करने योग्य नहीं है। इसके अतिरिक्त गूगल प्ले स्टोर में भी कोई बहुत बड़ा कलेक्शन नहीं है। उसमें कई किताबें हैं जो भारत के खरीददारों को उपलब्ध नहीं हैं हालांकि ऐमैज़ॉन किण्डल स्टोर में वही किताबें आराम से मिल रही हैं, बिंदास खरीदो और पढ़ो।
मेरे अनुसार गूगल प्ले स्टोर ऐमैज़ॉन किण्डल स्टोर को टक्कर दे सकता है लेकिन अभी समय लगेगा। एक तो गूगल को दाम सुधारने पड़ेंगे, उसके बिना बात नहीं बनेगी। इसके लिए प्रकाशकों के साथ गूगल को कदाचित् ऐमैज़ॉन वाला रवैया अपनाना होगा। :twisted: दूसरे, कलेक्शन का विस्तार करना होगा, अन्यथा अभी ऐमैज़ॉन से टक्कर ले सकने योग्य कहीं भी नहीं है।
ई-बुक्स का चलन धीरे-२ बढ़ रहा है, एण्ड्रॉय्ड तथा आईओएस आदि टैबलेट आ जाने से प्रयोग और सुगम हुआ है। अब एक अलग डिवाइस नहीं लेनी पड़ती, एक टैबलेट में ही सब कार्य हो जाते हैं चाहे वह ईमेल अथवा नेट सर्फ़िंग हो या चैट अथवा गेमिंग या फिर किताबें पढ़ना। एक डिजिटल कन्ज़्यूमर के लिए उत्तम कन्वर्जेन्स (convergence)।
पहले जहाँ बरिस्ता आदि में किताब पढ़ते कई लोग मिल जाते थे परन्तु ई-बुक पढ़ता कोई न दिखता था वहीं आजकल एकाध लोग दिख जाते हैं टैबलेट अथवा ई-बुक रीडर पर पढ़ते हुए। मेरा मानना है कि समय के साथ यह चलन और बढ़ेगा तथा और अधिक लोग ई-बुक्स को अपनाएँगे।
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