पॉल लाफार्ज, विलहेम लीबनेख्ट
दुनिया में बिरले ही ऐसे व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने मानव-समाज के इतिहास की धारा को इतना प्रभावित किया है जितना कार्ल मार्क्स ने।
कार्ल मार्क्स का जन्म 1818 में जर्मनी के राइन जिले के एक खाते-पीते यहूदी परिवार में हुआ था। बाद में मार्क्स के घर वाले ईसाई हो गये। जर्मनी के बॉन और बर्लिन विश्वविद्यालय में उनकी शिक्षा हुई। पहले उन्होंने वकालत पढ़ी। फिर वकालत छोड़कर इतिहास और दर्शन के अध्ययन में लग लये। युनीवर्सिटी (विश्व-विद्यालय) में उनका विषय 'सामाजिक न्याय के सिद्धान्त' थे। परन्तु उन्हीं के शब्दों में सामाजिक न्याय के सिद्धान्तों का विषय उन्होंने ''दर्शन और इतिहास का प्रारम्भिक ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से चुना था।'' इस प्रकार आरम्भ से ही उनकी रुचि गंभीर विषयों की ओर थी। 1941 में उन्हें जेन विश्वविद्यालय से डॉक्टर की उपाधि मिली। उनकी थीसिस (लेख) का विषय यूनानी दर्शन था। मार्क्स इस समय तक भौतिकवादी नहीं थे। वह हीगेल के शिष्य और उसके आदर्शवादी दर्शन के अनन्य उपासक थे। पर इसी समय से हीगेलवादी दर्शन के साथ उनका मतभेद आरम्भ हुआ।
मार्क्स के ऊपर हीगेल का बहुत प्रभाव था। हीगेल ने जर्मनी की दार्शनिक विचार धारा में क्रान्ति ला दी थी। वह पहला दर्शनिक है जिसने जर्मनी की पुरानी आत्मवादी दार्शनिक परम्परा से नाता तोड़कर विकास की पद्धति का अनुसरण किया और द्वंद्वात्मक गतिशीलता का सिद्धान्त स्थिर किया। मार्क्स ने हीगेल की द्वंद्वात्मक तर्क-पद्धति को अपनाते हुए उसी आधार पर बहुत क्रान्तिकारी परिणाम निकाले। और बाद में जब उन्होंने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की दार्शनिक प्रणाली की स्थापना की तब हीगेल के दर्शन को जो अब तक ''सिर'' के बल खड़ा हुआ था, उन्होंने सीधा करके ''पैरों पर'' खड़ा कर दिया। हीगेल कहता था कि भौतिक विकास का स्रोत विचार है। मार्क्स ने बताया कि वास्तविकता इसके विपरीत है। विचार भौतिक विकास के ऊपर आधारित है। वे भौतिक विकास के साथ बनते-बिगड़ते हैं। मूल वस्तु भौतिक विकास है। इस प्रकार हीगेल के आदर्शवाद के स्थान पर मार्क्सवादी भौतिकवाद की स्थापना हुई। मनुष्य के मानसिक विकास में यह बहुत बड़ी मंजिल थी। मंजिल क्यों-एक मोड़ थी, जहाँ पहुँचकर मानवी प्रगति का अतीत और भविष्य पथ एक साथ अलोकित हो उठा।
मार्क्स ने अपने विद्यार्थी जीवन से राजनीति में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। बॉन विश्वविद्यालय के विद्यार्थी संघ के वह प्रमुख कार्यकर्ता थे। शिक्षा समाप्त करने के बाद राजनीतिक जीवन ही उनका प्रमुख जीवन हो गया। 1841 में वह बॉन विश्वविद्यालय में दर्शन के प्रोफेसर होने जा रहे थे। उन्हें पता चला कि वहाँ जाने के माने अपने स्वतंत्र विचारों को तिलांजलि देना होगा। बॉन विश्वविद्यालय में उनके गुरु-भाई ब्रूनो बेयर को अपने उग्र विचारों के कारण भाषण देने से रोक दिया था। मार्क्स ने उसी समय प्रोफेसरी के जीवन को नमस्कार किया और जी जान से राजनीतिक आंदोलन में लग गये।
अपने विद्यार्थी जीवन में मार्क्स ''राइन गजट'' नाम के एक पत्र के सम्पादक बना दिये गये। यह पत्र राइन जिले के उग्रवादी पूंजीपतियों का था जो जर्मनी के प्रशियन बादशाह विल्हेल्म की (तृतीय और बाद में चतुर्थ की भी) सामन्तशाही के कट्टर विरोधी थे।
योरप में यह युग पूंजीवाद के उभार का था। इंग्लैण्ड की औद्योगिक क्रान्ति पिछली शताब्दी में पूरी हो चुकी थी और 1789 की फ्रांसीसी राज्य-क्रान्ति ने योरप में सामंतशाही श्रृंखलाओं को तोड़कर पूंजीवादी विकास का मार्ग खोल दिया था। उद्योग-धन्धों के विकास के साथ मजदूर वर्ग मैदान में आया और मजदूरों और पूंजीपतियों के तीव्र संघर्ष का सूत्रपात हुआ। जगह-जगह मजदूर संघ बनने लगे। 1831 और 1834 में फ्रांस में विद्रोह हुए। 1833 में इंगलैण्ड में मजदूर सभाओं का एक अखिल इंगलैण्ड मजदूर संघ बना। 1836 में वहीं एक प्रसिद्ध चार्टिस्ट पार्टी की नींव पड़ी जो इंगलैण्ड की पहली क्रान्तिकारी मजदूर-पार्टी थी। इसी वर्ष जर्मनी में मजदूरों का एक गुप्त संगठन बना जिसका नाम था ''ईमानदारों का संघ''। इसके प्रमुख नेताओं में एक मोची, एक कम्पोजीटर और एक दर्जी था।
ये संघ बन रहे थे। मजदूरों में वर्ग-चेतना आ रही थी। अब वह युग बीत चुका था जब शोषण का विरोध करने के लिए मजदूर मशीनों को तोड़ डालते थे। लेकिन इन संघों के सामने कोई पूरा प्रोग्राम नहीं था, उनका पथ प्रदर्शित करने के लिए कोई विचारधारा नहीं थी। पिछली (अर्थात अठारहवीं) शताब्दी में भी कई सोशलिस्ट नेता हुए थे। फूरिये (1772-1837), सेंट साइमन (1771-1858) और ओवेन (1771-1830) इनमें प्रमुख थे। किन्तु ये कल्पनावादी सुधारक थे। उन्होंने पूंजीवादी व्यवस्था और शोषण की कटुतम आलोचना की और पूंजीपतियों को आड़े हाथों लिया। पर शोषण का अन्त करने का मार्ग वे हृदय-परिवर्तन बतलाते थे। इसलिए बिचारे अपनी ही असफलताओं के गर्त में विलीन हो गये। मजदूर आन्दोलन अन्धकूप से बाहर न निकल सका। तभी मार्क्स आये। उन्होंने सामाजिक विश्लेषण के आधार पर सामाजिक विकास के नियमों की व्याख्या की और मजदूर वर्ग को एक विचारधारा और एक कार्यक्रम दिया।
मार्क्स का ध्यान इस ओर राइन गजट का सम्पादक करते समय गया था। योरप में इस समय मुख्य कार्य मजदूर-क्रान्ति नहीं, बल्कि सामंतशाही की बची-खुची रुकावटों को दूर करके पूंजीवादी जनवादी क्रान्ति करना था जिससे कि पूंजीवाद के (और उसके साथ-साथ मजदूर वर्ग के भी) पूर्ण विकास रास्ता खुल जाय। जर्मनी का राइन जिला औद्योगिक और क्रांतिकारी दोनों दृष्टियों से सबसे आगे था। वहाँ के पूंजीपति अपने वर्ग के अगुआ थे। इसीलिए मार्क्स ने उनके पत्र ''राइन गजट'' का सम्पादन-कार्य स्वीकार किया था। मार्क्स के लेखों ने प्रशियन सरकार के कोटरों में तहलका मचा दिया। मार्क्स के लेखों पर डबल सेन्सर लगाया गया। फिर भी मार्क्स के वीरों को न रोका जा सका तो 1843 में सरकार ने पत्र को ही जब्त कर लिया।
जून 1843 में मार्क्स अपनी प्रेयसी जेनी से मिले और प्रणय-सूत्र में बंध गये। जेनी फॉन वेस्टफालेन शाही खानदान की सुन्दर लड़की थी। मार्क्स से उसका परिचय कुछ वर्ष पहले हुआ था जब वे पड़ोस में रहते थे। विवाह के बाद जेनी सदा अपने पति के साथ रही। मार्ग की कठिनाइयाँ, गरीबी, देशनिकाला, प्रियजनों की मृत्यु, कोई भी चीज फिर उस पति-परायणा वीरांगना को विचलित न कर सकी।
विवाह के बाद मार्क्स जर्मनी से पैरिस चले गये। पैरिस से उन्होंने एक दूसरी पत्रिका, ''फ्रेंको-जर्मन एनुअल'' निकाली। वहीं पर उनकी मुलाकात एंगेल्स से हुई। श्रमजीवी वर्ग के ये महान नेता दो वर्ष पहले भी जर्मनी में मिल चुके थे। किन्तु इस बार मिलने पर वे सदा के लिए एक-दूसरे के हो गये। एक प्राण दो शरीरों की तरह अन्तिम समय तक वे साथ रहे। ऐसी मित्रता का विश्व-इतिहास में दूसरा उदाहरण नहीं मिलता।
पैरिस में आकर भी मार्क्स ने प्रशियन सरकारी टीका-टिप्पणी बंद नहीं की। और अब केवल प्रशियन सरकार का सवाल नहीं रह गया था। अब योरोप की दूसरी सरकारें भी मार्क्स के नाम से डरने लगीं। उनका व्यक्तित्व इतना बड़ा हो गया था कि कोई भी सरकार उन्हें अपने यहाँ रहने देने से डरती थी। 1845 में मार्क्स को पैरिस से देश-निकाला कर दिया गया। फ्रांस से निकाले जाने पर वह बेल्जियम (ब्रूसेल्स) गये। वहाँ भी उनका रहना कठिन हो गया। बेल्जियम सरकार ने भी उन्हें देश छोड़ने की आज्ञा दी। इसलिए बेल्जियम छोड़कर वह लंदन चले गये।
दुनिया में बिरले ही ऐसे व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने मानव-समाज के इतिहास की धारा को इतना प्रभावित किया है जितना कार्ल मार्क्स ने।
कार्ल मार्क्स का जन्म 1818 में जर्मनी के राइन जिले के एक खाते-पीते यहूदी परिवार में हुआ था। बाद में मार्क्स के घर वाले ईसाई हो गये। जर्मनी के बॉन और बर्लिन विश्वविद्यालय में उनकी शिक्षा हुई। पहले उन्होंने वकालत पढ़ी। फिर वकालत छोड़कर इतिहास और दर्शन के अध्ययन में लग लये। युनीवर्सिटी (विश्व-विद्यालय) में उनका विषय 'सामाजिक न्याय के सिद्धान्त' थे। परन्तु उन्हीं के शब्दों में सामाजिक न्याय के सिद्धान्तों का विषय उन्होंने ''दर्शन और इतिहास का प्रारम्भिक ज्ञान प्राप्त करने के उद्देश्य से चुना था।'' इस प्रकार आरम्भ से ही उनकी रुचि गंभीर विषयों की ओर थी। 1941 में उन्हें जेन विश्वविद्यालय से डॉक्टर की उपाधि मिली। उनकी थीसिस (लेख) का विषय यूनानी दर्शन था। मार्क्स इस समय तक भौतिकवादी नहीं थे। वह हीगेल के शिष्य और उसके आदर्शवादी दर्शन के अनन्य उपासक थे। पर इसी समय से हीगेलवादी दर्शन के साथ उनका मतभेद आरम्भ हुआ।
मार्क्स के ऊपर हीगेल का बहुत प्रभाव था। हीगेल ने जर्मनी की दार्शनिक विचार धारा में क्रान्ति ला दी थी। वह पहला दर्शनिक है जिसने जर्मनी की पुरानी आत्मवादी दार्शनिक परम्परा से नाता तोड़कर विकास की पद्धति का अनुसरण किया और द्वंद्वात्मक गतिशीलता का सिद्धान्त स्थिर किया। मार्क्स ने हीगेल की द्वंद्वात्मक तर्क-पद्धति को अपनाते हुए उसी आधार पर बहुत क्रान्तिकारी परिणाम निकाले। और बाद में जब उन्होंने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की दार्शनिक प्रणाली की स्थापना की तब हीगेल के दर्शन को जो अब तक ''सिर'' के बल खड़ा हुआ था, उन्होंने सीधा करके ''पैरों पर'' खड़ा कर दिया। हीगेल कहता था कि भौतिक विकास का स्रोत विचार है। मार्क्स ने बताया कि वास्तविकता इसके विपरीत है। विचार भौतिक विकास के ऊपर आधारित है। वे भौतिक विकास के साथ बनते-बिगड़ते हैं। मूल वस्तु भौतिक विकास है। इस प्रकार हीगेल के आदर्शवाद के स्थान पर मार्क्सवादी भौतिकवाद की स्थापना हुई। मनुष्य के मानसिक विकास में यह बहुत बड़ी मंजिल थी। मंजिल क्यों-एक मोड़ थी, जहाँ पहुँचकर मानवी प्रगति का अतीत और भविष्य पथ एक साथ अलोकित हो उठा।
मार्क्स ने अपने विद्यार्थी जीवन से राजनीति में हिस्सा लेना शुरू कर दिया था। बॉन विश्वविद्यालय के विद्यार्थी संघ के वह प्रमुख कार्यकर्ता थे। शिक्षा समाप्त करने के बाद राजनीतिक जीवन ही उनका प्रमुख जीवन हो गया। 1841 में वह बॉन विश्वविद्यालय में दर्शन के प्रोफेसर होने जा रहे थे। उन्हें पता चला कि वहाँ जाने के माने अपने स्वतंत्र विचारों को तिलांजलि देना होगा। बॉन विश्वविद्यालय में उनके गुरु-भाई ब्रूनो बेयर को अपने उग्र विचारों के कारण भाषण देने से रोक दिया था। मार्क्स ने उसी समय प्रोफेसरी के जीवन को नमस्कार किया और जी जान से राजनीतिक आंदोलन में लग गये।
अपने विद्यार्थी जीवन में मार्क्स ''राइन गजट'' नाम के एक पत्र के सम्पादक बना दिये गये। यह पत्र राइन जिले के उग्रवादी पूंजीपतियों का था जो जर्मनी के प्रशियन बादशाह विल्हेल्म की (तृतीय और बाद में चतुर्थ की भी) सामन्तशाही के कट्टर विरोधी थे।
योरप में यह युग पूंजीवाद के उभार का था। इंग्लैण्ड की औद्योगिक क्रान्ति पिछली शताब्दी में पूरी हो चुकी थी और 1789 की फ्रांसीसी राज्य-क्रान्ति ने योरप में सामंतशाही श्रृंखलाओं को तोड़कर पूंजीवादी विकास का मार्ग खोल दिया था। उद्योग-धन्धों के विकास के साथ मजदूर वर्ग मैदान में आया और मजदूरों और पूंजीपतियों के तीव्र संघर्ष का सूत्रपात हुआ। जगह-जगह मजदूर संघ बनने लगे। 1831 और 1834 में फ्रांस में विद्रोह हुए। 1833 में इंगलैण्ड में मजदूर सभाओं का एक अखिल इंगलैण्ड मजदूर संघ बना। 1836 में वहीं एक प्रसिद्ध चार्टिस्ट पार्टी की नींव पड़ी जो इंगलैण्ड की पहली क्रान्तिकारी मजदूर-पार्टी थी। इसी वर्ष जर्मनी में मजदूरों का एक गुप्त संगठन बना जिसका नाम था ''ईमानदारों का संघ''। इसके प्रमुख नेताओं में एक मोची, एक कम्पोजीटर और एक दर्जी था।
ये संघ बन रहे थे। मजदूरों में वर्ग-चेतना आ रही थी। अब वह युग बीत चुका था जब शोषण का विरोध करने के लिए मजदूर मशीनों को तोड़ डालते थे। लेकिन इन संघों के सामने कोई पूरा प्रोग्राम नहीं था, उनका पथ प्रदर्शित करने के लिए कोई विचारधारा नहीं थी। पिछली (अर्थात अठारहवीं) शताब्दी में भी कई सोशलिस्ट नेता हुए थे। फूरिये (1772-1837), सेंट साइमन (1771-1858) और ओवेन (1771-1830) इनमें प्रमुख थे। किन्तु ये कल्पनावादी सुधारक थे। उन्होंने पूंजीवादी व्यवस्था और शोषण की कटुतम आलोचना की और पूंजीपतियों को आड़े हाथों लिया। पर शोषण का अन्त करने का मार्ग वे हृदय-परिवर्तन बतलाते थे। इसलिए बिचारे अपनी ही असफलताओं के गर्त में विलीन हो गये। मजदूर आन्दोलन अन्धकूप से बाहर न निकल सका। तभी मार्क्स आये। उन्होंने सामाजिक विश्लेषण के आधार पर सामाजिक विकास के नियमों की व्याख्या की और मजदूर वर्ग को एक विचारधारा और एक कार्यक्रम दिया।
मार्क्स का ध्यान इस ओर राइन गजट का सम्पादक करते समय गया था। योरप में इस समय मुख्य कार्य मजदूर-क्रान्ति नहीं, बल्कि सामंतशाही की बची-खुची रुकावटों को दूर करके पूंजीवादी जनवादी क्रान्ति करना था जिससे कि पूंजीवाद के (और उसके साथ-साथ मजदूर वर्ग के भी) पूर्ण विकास रास्ता खुल जाय। जर्मनी का राइन जिला औद्योगिक और क्रांतिकारी दोनों दृष्टियों से सबसे आगे था। वहाँ के पूंजीपति अपने वर्ग के अगुआ थे। इसीलिए मार्क्स ने उनके पत्र ''राइन गजट'' का सम्पादन-कार्य स्वीकार किया था। मार्क्स के लेखों ने प्रशियन सरकार के कोटरों में तहलका मचा दिया। मार्क्स के लेखों पर डबल सेन्सर लगाया गया। फिर भी मार्क्स के वीरों को न रोका जा सका तो 1843 में सरकार ने पत्र को ही जब्त कर लिया।
जून 1843 में मार्क्स अपनी प्रेयसी जेनी से मिले और प्रणय-सूत्र में बंध गये। जेनी फॉन वेस्टफालेन शाही खानदान की सुन्दर लड़की थी। मार्क्स से उसका परिचय कुछ वर्ष पहले हुआ था जब वे पड़ोस में रहते थे। विवाह के बाद जेनी सदा अपने पति के साथ रही। मार्ग की कठिनाइयाँ, गरीबी, देशनिकाला, प्रियजनों की मृत्यु, कोई भी चीज फिर उस पति-परायणा वीरांगना को विचलित न कर सकी।
विवाह के बाद मार्क्स जर्मनी से पैरिस चले गये। पैरिस से उन्होंने एक दूसरी पत्रिका, ''फ्रेंको-जर्मन एनुअल'' निकाली। वहीं पर उनकी मुलाकात एंगेल्स से हुई। श्रमजीवी वर्ग के ये महान नेता दो वर्ष पहले भी जर्मनी में मिल चुके थे। किन्तु इस बार मिलने पर वे सदा के लिए एक-दूसरे के हो गये। एक प्राण दो शरीरों की तरह अन्तिम समय तक वे साथ रहे। ऐसी मित्रता का विश्व-इतिहास में दूसरा उदाहरण नहीं मिलता।
पैरिस में आकर भी मार्क्स ने प्रशियन सरकारी टीका-टिप्पणी बंद नहीं की। और अब केवल प्रशियन सरकार का सवाल नहीं रह गया था। अब योरोप की दूसरी सरकारें भी मार्क्स के नाम से डरने लगीं। उनका व्यक्तित्व इतना बड़ा हो गया था कि कोई भी सरकार उन्हें अपने यहाँ रहने देने से डरती थी। 1845 में मार्क्स को पैरिस से देश-निकाला कर दिया गया। फ्रांस से निकाले जाने पर वह बेल्जियम (ब्रूसेल्स) गये। वहाँ भी उनका रहना कठिन हो गया। बेल्जियम सरकार ने भी उन्हें देश छोड़ने की आज्ञा दी। इसलिए बेल्जियम छोड़कर वह लंदन चले गये।
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