लेखक - विलहेम लीबनेख्ट
मार्क्स की दोनों बड़ी लड़कियों के साथ जिनमें एक छ: और एक सात बरस की थी मेरी दोस्ती सन 1850 की गर्मियों में स्विजरलैण्ड से लंदन आने के बाद शुरू हुई। सच पूछिये तो मैं ''स्वतंत्र स्विजरलैण्ड'' के एक कारागार में से आया था क्योंकि मुझे निर्वासन का 'पार्सपोर्ट' देकर फ्रांस के रास्त्ो बाहर भेज दिया गया था। मैं मार्क्स के परिवार से कम्युनिस्ट मजूदरों के शिक्षात्मक संघ की एक गर्मियों की यात्रा में लंदन के पास कहीं मिला था, मुझे याद नहीं ग्रीनिच में या हैम्पटन कोर्ट में। 'बाबा मार्क्स' ने, जिन्हें मैंने पहली बार देखा था, तुरंत मेरा पूरा निरीक्षण किया, मुझे घूर कर देखा और ध्यान से मेरे सिर की जाँच की। इस बात की तो मुझे पहले से ही गस्टाव स्टूव के कारण आदत थी। वह मेरी नैतिक दृढ़ता के बारे में बहुत दिनों तक शक करते रहे इसलिये मेरे ऊपर विशेष रूप से वह दिमाग की बनावट के विज्ञान के सिद्धांतों का उपयोग किया करते थे। खैर, परीक्षा सफलता से समाप्त हुई। मैंने काली भुजंग गरदन के शेर जैसे सिर वाले मार्क्स की दृष्टि को सह लिया। अब परीक्षा का स्थान सजीव और हँसी की बातचीत ने ले लिया। थोड़ी देर में हम लोग मनोरंजन में लग गये। मार्क्स सबसे ज्यादा खुश थे। तभी श्रीमती मार्क्स, युवावस्था से परिवार की वफादार नौकरानी लेन्चन और बच्चों से मेरा परिचय हुआ।
उस दिन से मैं मार्क्स के घर में घुलमिल गया। मैं उस परिवार से मिलने का दिन कभी नहीं भूलता था। मार्क्स उस समय आक्सफोर्ड स्ट्रीट के पास की एक सड़क, डीन स्ट्रीट पर रहते थे और मैंने भी पास ही चर्च स्ट्रीट पर घर ले रखा था।
कम्युनिस्ट मजदूरों के शिक्षात्मक संघ की उपरोक्त यात्रा में भेंट के अगले दिन मार्क्स के साथ मेरी पहली लम्बी बातचीत हुई। उस दिन तो खुलासा बातचीत का मौका न मिलना स्वाभाविक था और मार्क्स ने मुझसे संघ की बैठक की जगह पर अगले दिन आने को कहा जब कि शायद एंगेल्स भी वहाँ होंगे। मैं निश्चित समय से कुछ पहले पहुँच गया। तब तक मार्क्स वहाँ नहीं थे। परन्तु मुझे कई पुराने जान पहिचान वाले मिल गये और मैं उनके साथ खूब मजे से बातचीत कर रहा था जब मार्क्स ने मेरे कन्धे पर हाथ रखा। उन्होंने बड़ी मित्रता के भाव से अभिवादन किया और कहा कि एंगेल्स अपने निजी कमरे में हैं और वहाँ ज्यादा एकान्त रहेगा। मुझे मालूम नहीं था कि निजी कमरा क्या होता है और मुझे खयाल आया कि अब मेरा इम्तिहान होने वाला है। फिर भी मैं उनपर भरोसा करके पीछे-पीछे चला। पहले दिन की तरह आज भी मुझ पर मार्क्स का अनुकूल प्रभाव पड़ा था। उनमें कुछ ऐसा गुण था जो लोगों को दिल खोलकर बात करने के लिये प्रेरित करता था। उन्होंने मेरी बाँह पकड़ी और मुझे निजी कमरे में ले गये यानी मकान मालिक या शायद मकान मालकिन का वह कमरा जहाँ एंगेल्स ने तुरन्त हंसी मजाक से मेरा स्वागत किया। उन्होंने अपने लिये गहरी बादामी रंग की शराब का गिलास मँगा रखा था। जरा सी देर में वहाँ की फुर्तीली नौकरानी एमी को हमने खाने-पीने का सामान लाने का आदेश दिया। हम भगोड़ों में पेट का सवाल बड़ा महत्वपूर्ण होता था। जल्दी ही बीअर (शराब) आ गयी और हम बैठ गये। मैं मेज के एक तरफ और मार्क्स तथा एंगेल्स मेरे सामने। काले पत्थर की विशाल मेज, धातु के चमकते हुए गिलास, झागदार शराब, असली अंग्रेजी खाने का आगमन, मिट्टी के लम्बे-लम्बे पाइप जिन्हें देखकर पीने को जी करता था-यह सब मिलाकर इतना आरामदेह था कि मुझे बौज की अंग्रेजी तसवीरों में से एक की प्रबल याद आयी। परंतु इस सबके होते हुए भी वह इम्तिहान था। पर मैंने सोचा कि आखिर उससे डरने की क्या बात है। बातचीत का जोर बढ़ने लगा। साल भर पहले जेनीबा में एंगेल्स से मिलने के पहले मेरा उन दोनों से कोई घनिष्ठ परिचय नहीं था। मैं मार्क्स के सिर्फ पैरिस के 'यार बुशर' अखबार के लेखों और ''अर्थशास्त्र की दरिद्रता'' को और एंगेल्स के केवल ''इंग्लैण्ड में मजदूर वर्ग की दशा'' को जानता था। कम्युनिस्ट घोषणापत्र के बारे में मैंने सुना था और जानता था कि उसमें क्या लिखा है। तब भी सन 1846 से कम्युनिस्ट होने पर भी, ''कम्युनिस्ट घोषणा पत्र'' की पहली प्रति मैंने विधान-विरोधी आंदोलन के बाद एंगेल्स के साथ भेंट होने से कुछ पहले ही देखी थी। नया ''राइनिश जाइटुंग'' तो मुझे बहुत कम देखने को मिलता था क्योंकि उसके ग्यारह महीने के जीवन के समय में मैं विदेश में या जेल में या स्वयंसेवकों के अनिश्चित जीवन के तूफान में फँसा हुआ था।
मेरे दोनों परीक्षकों को यह संदेह था कि मुझमें निम्न-पूंजीवादी जनवाद की भावना और दक्खिनी जर्मनी की भावुकता है। मनुष्यों और वस्तुओं के बारे में मेरे अनेक विचारों की कड़ी अलोचना की गयी। सब कुछ देखते हुए परीक्षा का फल बुरा नहीं रहा और बातचीत का क्षेत्र विस्तृत हो गया। थोड़ी ही देर में हम लोग प्राकृतिक विज्ञान के विषय पर आ गये और मार्क्स ने विजयी प्रतिक्रियावादियों की हँसी उड़ायी जो यह समझते थे कि हमने क्रांति का गला घोंट दिया और उन्हें यह संदेह भी नहीं था कि प्राकृतिक विज्ञान एक नयी क्रांति की तैयारी कर रहा है। पिछली सदी में दुनिया में क्रांति मचाने वाले राजा भाफ (भाप) का राज्य खतम होने वाला था और उससे कहीं ज्यादा महान क्रांतिकारी चीज उसकी जगह लेने वाली थी और वह थी बिजली की चिनगारी। फिर उत्साह और जोश से भरे हुए मार्क्स ने मुझे बतलाया कि पिछले कई दिन से रीजेन्ट स्ट्रीट में एक बिजली की मशीन दिखायी जा रही है जो रेलगाड़ी को खींचती है। ''अब समस्या हल हो गयी है। इसके परिणामों को बताना असंभव है। आर्थिक क्रांति के बाद राजनीतिक क्रांति होगी क्योंकि दूसरी क्रांति तो पहली की ही अभिव्यक्ति मात्र है।'' जिस ढंग से मार्क्स ने विज्ञान ओर यन्त्र विद्या की इस प्रगति के बारे में, अपने दुनिया के प्रति दृष्टिकोण के, और विशेष रूप से जिसे इतिहास का भौतिकवादी दृष्टिकोण कहते हैं, उसके बारे में बातचीत की वह इतना स्पष्ट था कि अभी तक जो मेरी शंकाएँ थीं वे बसन्त की बातचीत की धूप में बर्फ की तरह पिघल गयीं। उस शाम को मैं घर लौटा ही नहीं। अगले दिन सुबह तक हम लोग बातचीत, हँसी-मजाक और शराब पीने में लग रहे और जब मैं सोया तो सूरज खूब चढ़ चुका था। परंतु बड़ी देर तक मैं सो नहीं सका। मैंने जो सुना था उस सबसे मेरा दिमाग बहुत ज्यादा भरा था। अंत में इधर-उधर भटकते हुए अपने विचारों के कारण मैं फिर बाहर निकला और जल्दी से इस मशीन को देखने रीजेन्ट स्ट्रीट गया। यह मशीन आधुनिक युग के ''ट्रोजन घोड़े'' के समान थी जिसे पूंजीवादी समाज ने ट्रायवासियों की तरह घातक मोह से खुशी अपने महल में घुसा लिया था और जो उसी तरह निश्चय उनका सर्वनाश करेगी। वह दिन आवेगा जब पवित्र इलियन (यानी पूंजीवाद) नष्ट हो जावेगा।
बाहर की घनी भांड से मालूम हो रहा था कि मशीन किस खिड़की में रखी हुई है। मैं भीड़ में घुस कर आगे जा निकला और सचमुच मेरे सामने इंजिन और गाड़ी दोनों मजे से चल रहे थे।
उस समय जुलाई सन 1850 का प्रारम्भ था।
''मूर'' (मार्क्स) को हम युवकों से पांच छ: बरस बड़े होने का फायदा था। वह अपनी विकसित अवस्था के लाभों के सब लाभों को समझते थे और हर मौके पर हम लोगों की और खास कर मेरी परीक्षा लेते थे। अपने विस्तृत अध्ययन और अद्भुत स्मरणशक्ति के कारण वे जल्दी ही हमे मुश्किल में डाल देते थे। जब किसी तरुण विद्यार्थी को किसी मुश्किल में डालकर उदाहरण से वह यह साबित कर देते कि हमारे विश्वविद्यालय में किताबी पढ़ाई की कैसी शोचनीय दशा है, तो वह बड़े खुश होते थे।
परन्तु वह नियमानुसार शिक्षा भी देते थे। इन शब्दों के विस्तृत तथा संकीर्ण दोनों अर्थों में मैं कह सकता हूँ कि वह मेरे गुरु थे। हरएक विषय में उनका अनुसरण करना पड़ता था। अर्थशास्त्र के विषय में मैं कुछ न कहूंगा। पोप के महल में पोप के बारे में बात नहीं की जाती। कम्युनिस्ट लीग में अर्थशास्त्र पर उनके भाषणों के बारे में आगे मैं कुछ कहूँगा। मार्क्स प्राचीन और नवीन दोनों तरह की भाषाओं को अच्छी तरह जानते थे। मैं भाषाशास्त्री हूँ और मेरे सामने जब वह अरस्तू् या एसकाइलस का कोई ऐसा कठिन उद्धरण पेश कर पाते जिसको मैं तुरन्त नहीं समझ सकता था तो उन्हें बच्चों जैसी खुशी होती थी। उन्होंने मुझे एक दिन खूब डाँटा क्योंकि मैं स्पेानिश भाषा नहीं जानता था। फौरन उन्होंने किताबों के ढेर में से 'डॉन क्विक्सोट' निकाल ली और मुझे पढ़ाना शुरू कर दिया। डाइज के लैटिन भाषाओं के तुलनात्मक व्याकरण से मैं शब्द विन्यास और व्याकरण के मूल तत्वों को जानता था। इसलिये मेरे अटकने या रुकने पर मूर की योग्य सहायता और कुशल शिक्षा से मेरा खूब काम चल गया। वह वैसे तो बड़े उग्र और तूफानी स्वभाव के थे परंतु पढ़ाने में उनका धैर्य अटूट था। एक मिलनेवाले के तूफानी आगमन ने पाठ को समाप्त कर दिया। रोज मेरी परीक्षा ली जाती थी। और मुझे 'डॉन' क्विक्सोट' या स्पैनिश भाषा की किसी और किताब से अनुवाद करना पड़ता था। जब तक मैं योग्य साबित नहीं हो गया तब तक यही चलता रहा। मार्क्स बड़े अच्छे भाषाशास्त्री थे यद्यपि यह सच है कि पुरानी भाषाओं की अपेक्षा आधुनिक का ज्ञान उन्हें ज्यादा था। उन्हें ग्रिम के जर्मन व्याकरण का विस्तृत ज्ञान था और ऐसा मालूम होता था कि वह मुझ भाषाशास्त्री से ज्यादा अच्छी तरह ग्रिम भाइयों के जर्मन शब्दकोश को जानते थे। यद्यपि यह ठीक है कि बोलने में वह कुशल नहीं थे फिर भी वह अंग्रेज की तरह अंग्रेजी और फ्रांसवालों की तरह फ्रांसीसी भाषा लिखते थे। न्यूयार्क ट्रिब्यून के उनके लेख शुद्ध अंग्रेजी में हैं। प्रूधों की पुस्तक 'दरिद्रता का दर्शनशास्त्र' के जवाब में लिखी हुई 'दर्शनशास्त्र की दरिद्रता' उत्तम फ्रेंच में है। जिस फ्रांसीसी मित्र से उन्होंने छापेखाने के लिये अपनी पुस्तक पढ़वाई थी उसे बहुत ही कम गल्तियाँ मिली थीं। चूंकि मार्क्स भाषा का सार जानते थे और उसका उद्गम, विकास व रचना शैली जानने में मेहनत कर चुके थे, इसलिये उन्हें भाषाएँ सीखने में कठिनाई नहीं होती थी। लंदन में उन्होंने रूसी भाषा भी सीखी और क्राइमिया की लड़ाई के जमाने में अरबी व तुर्की तक सीखने का इरादा था परन्तु यह पूरा नहीं हो सका। वह पढ़ने पर ज्यादा जोर देते थे। जो व्यक्ति किसी भाषा को अच्छी तरह जानना चाहता है उसे यही करना चाहिये। मार्क्स की ऐसी असाधारण स्मरण शक्ति थी कि वे कभी कुछ नहीं भूलते थे और जिसकी अच्छी स्मरण शक्ति होती है वह खूब पढ़ने से भाषा का शब्दकोश और मुहावरे जल्दी हो जान जाता है। इसके बाद उनको उपयोग करना तो आसानी से सीखा जा सकता है।
सन 1850 और 1851 में मार्क्स ने अर्थशास्त्र पर कुछ भाषण दिये। उन्होंने अनिच्छा से यह करना तय किया। परंतु मित्र मंडली को थोड़ी शिक्षा देने के बाद उन्होंने हमारा कहना और समझाना मानकर ज्यादा बड़ी मंडली को शिक्षा देना स्वीकार कर लिया। यह भाषण माला सब सुननेवालों के लिये प्रसन्नता तथा सौभाग्य की बात थी क्योंकि मार्क्स ने इस समय ही अपनी शिक्षा के मौलिक सिद्धांतों का उसी भांति पूरा ब्यौरा दिया जैसा कि ''कैपीटल'' में मिलता है। कम्युनिस्ट संघ के भरे हुए हॉल में या कम्युनिस्ट मजदूरों के शिक्षात्मक संघ में, जो उस समय ग्रेट विन्डयल स्ट्रीट में था (उसी हॉल में जहाँ ढाई साल पहले 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' का लिखना तय किया गया था), मार्क्स ने किसी सिद्धांत को लोकप्रिय बनाने के अपने अद्भुत गुण को दिखाया। विकृत करने को अर्थात् विज्ञान को असत्य, छिछला और नीच बनाने से उन्हें बहुत ही भारी चिढ़ थी। परंतु स्पष्ट अभिव्यंजना की योग्यता भी किसी में उनसे अधिक नहीं थी। साफ विचारों का फल साफ भाषण है और साफ-साफ सोचने से अवश्य साफ अभिव्यंजना शैली बनती है।
मार्क्स एक नियम के अनुसार चलते थे। पहले वह छोटा हो सकता था उतना छोटा वाक्य कहते थे और फिर कुछ विस्तार से उसे समझाते थे। परंतु इसका खास ध्यान रखते थे कि ऐसा कोई मुहावरा न हो जिसे मजदूर न समझ सकें। इसके बाद वह सुननेवालों से सवाल पूछने को कहते थे। यदि कोई सवाल नहीं पूछा जाता था तो वह परीक्षा लेना शुरू करते थे और यह काम इतनी होशियारी से करते थे कि न तो कोई बात छूटती ही थी और न कोई गलतफहमी बाकी रहती थी। उनकी योग्यता की प्रशंसा करने पर मुझे मालूम हुआ कि वह ब्रूसेल्ज के मजदूर संघ में राजनीतिक अर्थशास्त्र पर भाषण दे चुके थे। जो कुछ भी हो, उनमें कुशल अध्यापक बनने के लक्षण थे। पढ़ाने में वह एक ब्लैक बोर्ड का भी प्रयोग करते थे जिस पर वह सिद्धांतों के सूत्र लिख दिया करते थे-वे सूत्र भी जिन्हें कैपीटल के शुरू के हिस्से से हम अच्छी तरह जानते थे।
यह अफसोस की बात हुई कि पाठ छ: महीने या इससे भी कम चला। संघ में ऐसे लोग आ गये जिनसे मार्क्स संतुष्ट नहीं थे। जब लोगों के बाहर जाने की बाढ़ रुक गयी तो संघ छोटा हो गया और उसका स्वरूप बड़ा संकुचित हो गया। वीटलिंग और केबेट के चेले फिर प्रमुख होने लगे और मार्क्स ने कम्युनिस्ट लीग से अलग रहना शुरू कर दिया क्योंकि उनके लिये इतना छोटा कार्यक्षेत्र था और उनका पुराने जालों को झाड़ने से ज्यादा अच्छा काम करने का इरादा था।
उन्हें भाषा की शुद्धता इतनी पसंद थी कि कभी-कभी यह दिखावा मालूम होता था। और अपनी ''ऊपरी हेस'' की बोली के कारण जो बराबर मेरे पीछे लगी रही-या मैं उसके पीछे लगा रहा-मुझे अनगिनती उपदेश सुनने पड़े।
मैं जो ऐसी छोटी छोटी बातें बतलाता हूँ वह यह दिखाने के लिये कि हम युवकों के साथ अध्यापक के रूप में मार्क्स अपने को कैसा समझते थे।
इसकी एक और तरह से भी अभिव्यक्ति होती थी। वह हम लोगों से बड़ी बड़ी आशाएँ करते थे। जैसे ही वह हमारे ज्ञान में कोई कमी देखते थे, वह जोर देकर उसे पूरा करने को कहते थे और उसके लिये आवश्यक उपाय भी बतलाते थे। अगर कोई उनके साथ अकेला होता था तब तो उसकी पूरी परीक्षा हो जाती थी। और उनकी परीक्षा कोई मजाक नहीं थी। मार्क्स को धोखा देना असंभव था। और अगर वह देखते थे कि उनकी पढ़ाई का कोई असर ही हो रहा है तो दोस्ती भी खत्म हो जाती थी। उनका हमारा अध्यापक होना हमारे लिये इज्जत की बात थी। उनके साथ रहकर हमेशा मैंने कोई न कोई बात सीखी...।
उस समय मजदूर-वर्ग के छोटे से भाग में समाजवाद का प्रचार हो पाया था। और समाजवादियों में भी जो मार्क्स के वैज्ञानिक अर्थ में, 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' के अर्थ में समाजवादी हों, उनकी संख्या कम थी, वहाँ वे अधिकांश जनवादी और जीवन की जरा सी चेतना जाग्रत हुई भी थी, वहाँ वे अधिकांश जनवादी और भावुक इच्छाओं और नारों के उस कुहरे में फँसे हुए थे जो सन 1848 के आंदोलन और उसकी भूमिका और उपसंहार के विशेष चिह्न थे। सब की प्रशंसा और लोकप्रियता को मार्क्स अपने गलत रास्ते पर होने का सबूत समझते थे। और दान्ते की यह अभिमानी पंक्ति उन्हें बहुत पसंद थी - ''लोगों को जो चाहे कहने दो, तुम अपने रास्ते पर चलो।''
यह पंक्ति कैपीटल की भूमिका के अंत में है, इसे उन्होंने न जाने कितनी बार हमें सुनाया होगा। कोई भी आदमी धक्केमुक्कों की और कीड़ी-काँटों के काटने की ओर से बिल्कुल उदासीन नहीं रह सकता। किन्तु मार्क्स अपने मार्ग पर निर्द्वन्द्व बढ़ते जाते थे। चारों ओर से उन पर आक्रमण होते, रोज के भोजन के लिये चिंता करनी पड़ती, लोग उनकी बात को गलत ढंग से समझ बैठते, यहाँ तक कि वे मजदूर ही अक्सर उनको बुरा-भला कहने से न चूकते जिनकी मुक्ति संघर्ष के लिये ही मार्क्स एक अद्भुत अमोघ अस्त्र रात के सन्नाटे में परिश्रम से तैयार किया करते थे। इसके विपरीत ये मजदूर बकवास करने वाले, विश्वासघातियों और शत्रुओं तक के पीछे दौड़ रहे थे। पर मार्क्स हताश न होते थे। अपने सादे से कमरे के एकांत में उस महान कवि दांते के शब्दों को याद करके शायद उन्हें प्रेरणा और नयी शक्ति मिला करती होगी।
उन्होंने अपने को पथ से डिगने नहीं दिया। वह अलिफ लैला के उस राजकुमार के समान नहीं थे जिसने विजय और उसके पुरस्कार को खो दिया था क्योंकि उसने पीछे के शोर और चारों तरफ की भयानक तसवीरों से घबराकर पीछे देख लिया था। मार्क्स आगे बढ़ते रहे, उनकी आँखें सदा आगे देखती रहीं, अपने उज्ज्वल लक्ष्य पर लगी रहीं, उन्होंने लोगों को जो चाहे कहने दिया ''और यदि पृथ्वी फूट-फूटकर गिर पड़ती'' तो भी वे अपने मार्ग से पीछे न हटते। अंत में विजय उनकी ही हुई, यद्यपि विजय का पुरस्कार उन्हें न मिल सका।
सर्वविजयी मृत्यु के डँसने से पहले वह यह देख सके कि उनका बोया हुआ बीच मनोहर रूप से उगकर कटने के लिये तैयार हो रहा है। हाँ, जीत उन्हीं की हुई और पुरस्कार हमें मिलेगा।
यदि उन्हें लोकप्रियता से घृणा थी तो लोकप्रियता पाने की कोशिश पर क्रोध होता था। चिकनी चुपड़ी बातें करने वाले को वह विष समझते थे और थोथे नारे लगाने वाले की तो खैरियत नहीं थी। उसके साथ तो वह निर्मम हो जाते थे। नारेबाज उनकी सबसे बड़ी गाली थी और जब एक बार वह किसी को नारेबाज समझ लेते थे तो फिर उससे कोई संबंध नहीं रखते थे। तर्कपूर्ण विचारशैली और विचारों की स्पष्ट अभिव्यक्ति-यही उन्होंने प्रत्येक अवसर पर हम युवकों को शिक्षा दी और सीखने पर मजबूर किया।
लगभग इसी समय ब्रिटिश म्यूजिअम में एक उत्तम वाचनालय बना जिसमें पुस्तकों का विशाल भांडार था। मार्क्स वहाँ रोज जाते थे और उन्होंने हमें भी वहाँ जाने की प्रेरणा दी। सीखो! सीखो! यही आज्ञा वे बराबर चिल्लाकर हमें दिया करते थे और यह तो उनके दृष्टांत से, बल्कि सच पूछिये तो उनकी तीक्ष्ण और अध्ययनशील बुद्धि से स्पष्ट थी।
जब कि अन्य निर्वासित दुनिया को उलट-पलट करने की योजना बना रहे थे और दिन पर दिन, और प्रत्येक शाम को इस विचार की अफीम के नशे में डूबे रहते थे कि ''यह क्रिया कल शुरू होगी'', उसी समय हम ''डाकू'', ''मानवता के कीड़े'' ''भड़काने वाले'', ब्रिटिश म्यूजिअम में बैठे अपने को शिक्षित करने और भावी संघर्षों के लिये अस्त्र तैयार करने की कोशिश कर रहे थे।
बहुधा किसी को खाने को कुछ भी नहीं मिलता था। परंतु उससे उसका ब्रिटिश म्यूजिअम जाना नहीं रुकता था। वहाँ उसे कम से कम बैठने को एक आराम-देह कुर्सी और सर्दी में सुखदायी गर्मी तो मिलती थी। ये बातें उसके घर में नहीं मिलती थीं, यदि उसकी घर जैसी कोई चीज होती भी थी।
मार्क्स कड़े अध्यापक थे। वह हमें सिर्फ पढ़ने के लिये मजबूर ही नहीं करते थे बल्कि अपने आपको भी संतुष्ट करते थे कि हमने सीखा या नहीं।
अध्यापक के रूप में कड़े होते हुए भी मार्क्स में हतोत्साह न करने का अद्भुत गुण था।
अध्यापक के रूप में मार्क्स में एक और उत्तम गुण था। वह हमें आत्म-आलोचना करने पर मजबूर करते थे और यह नहीं सह सकते थे कि कोई अपने किये से संतुष्ट होकर बैठ जाय। अपने व्यंग्य के कोड़े से वे कल्पना के विलास-प्रिय शरीर को निर्दयता से मारते थे।
यह कहा जाता है कि मार्क्स की कोई शैली नहीं थी या बड़ी बुरी शैली थी। यह वे लोग कहते हैं जिन्हें यह नहीं मालूम कि शैली है क्या-मीठे मीठे भाषण देने वाले और नारेबाज जो मार्क्स को समझ नहीं सके और समझने के अयोग्य थे; मानवी दुख और मानवी नीचता के गहनतम गर्त से विज्ञान और भावना के उच्चतम शिखर तक मार्क्स की बुद्धि की उड़ान को समझने में असमर्थ थे। बुफौं का कथन-शैली ही मनुष्य है-यदि किसी के बारे में सच है तो मार्क्स के बारे में। मार्क्स की शैली से स्वयं मार्क्स का सच्चा रूप प्रगट होता है। उन्हें सचाई से ऐसा प्रेम था कि वह सत्य के अलावा कोई धर्म न जानते थे। यह जानते ही कि उनका सिद्धांत गलत है वह तुरंत उसे बदल देते थे फिर वह उन्हें चाहे जितना प्रिय हो और चाहे जितने परिश्रम का फल हो। ऐसा आदमी अपनी लेखनी से अपने सत्य स्वरूप के अतिरिक्त कुछ नहीं दिखा सकता था। दिखावा, बनावट या ढोंग करने में असमर्थ, अपने जीवन के समान अपने लेखों में भी वह सदा सच्चे रहते थे। यह सच है कि इतना विविधतापूर्ण, विशाल और बहुमुखी स्वभाव होने के कारण उनकी शैली दूसरे कम, जटिल और संकीर्ण चित्त वाले आदमियों जैसी अपरिर्वतनशील, एक सी और नीरस नहीं हो सकती। 'कैपीटल' का मार्क्स, '18वीं ब्रूमेअर' का मार्क्स और 'हर वोग्ट' का मार्क्स तीन अलग-अलग आदमी हैं। परन्तु अपनी विभिन्नता में भी वही एक मार्क्स है, उस त्रिमूर्ति में एक ही व्यक्तित्व है-एक ऐसा महान व्यक्तित्व जो विभिन्न क्षेत्रों में अपने को विभिन्न प्रकार से अभिव्यक्त करता है परंतु फिर भी रहता हमेशा वही है। कैपीटल की शैली मुश्किल जरूर है परन्तु क्या उसका विषय आसानी से समझ में आनेवाला है? शैली मनुष्य के अनुसार ही नहीं, विषयानुसार भी होती है, उसे विषय के अनुकूल बनाना पड़ता है। विज्ञान का कोई आसान राजमार्ग नहीं है, सबसे कुशल गुरु को भी परिश्रम से जूझना और ऊपर चढ़ना पढ़ता है। कैपीटल की शैली के कठिन, जटिल या अपरिमार्जित होने की शिकायत करना तो सिर्फ विचार शिथिलता और सोचने की अयोग्यता को स्वीकार करना है।
क्या '18वीं ब्रूमेअर' जटिल है? क्या वह बाण गूढ़ होता है जो सीधा अपने निशाने पर जाता है और मांस में घुस जाता है? क्या मजबूत हाथ से फेंका हुआ वह भाला जटिल होता है जो दुश्मन के ठीक हृदय में लगता है? '18वीं ब्रूमेअर' के शब्द तीर हैं, भाले हैं। वह शैली आग की तरह प्रचण्ड और घातक है। यदि घृणा, या स्वतंत्रता का उज्ज्वल प्रेम कभी जलते हुए, तीक्ष्ण और महान शब्दों में व्यक्त हुआ है तो '18वीं ब्रूमेअर' में। उसमें टैसिटस का रोष और कठोरता जूवेनल के तीक्ष्ण व्यंग और दान्ते के पवित्र क्रोध से मिला हुआ है। इसमें शैली का वही रूप है जो रोमवासियों के लिये था, यानी लोहे के एक तेज यंत्र का जो लिखने और भौंकने के लिये काम में आता था। शैली हृदय पर आघात करने के लिये अस्त्र के समान है।
और हर वोग्ट में-वह हास्य, वह प्रसन्नता है जो फालस्टाफ को और उसमें व्यंग के अनन्त कोष को खोज निकालने पर शेक्सपियर को हुई होगी।
खैर, अब मैं मार्क्स की शैली के बोर में और कुछ नहीं कहूँगा। मार्क्स की शैली सचमुच मार्क्स है। उन पर छोटी से छोटी जगह में ज्यादा से ज्यादा सामग्री ठूँसने की कोशिश करने का दोष लगाया गया है, परन्तु यही तो मार्क्स का स्वरूप है।
मार्क्स शुद्ध और सत्य अभिव्यंजना के असाधारण मूल्य को समझते थे और गेटे, लेसिंग, शेक्सपियर, दांते और सरवेन्टीज के रूप में, जिन्हें वह रोज पढ़ते थे, उन्होंने सबसे बड़े कलाकारों को छाँटा था। भाषा की शुद्धता और सत्यता का वे हमेशा ध्यान रखते थे और उसके लिये बड़ी मेहनत करते थे।
मार्क्स कट्टर शुद्धतावादी थे और बहुधा सही मुहावरे के लिये वह देर तक और बड़े परिश्रम से खोज करते थे। वह जरूरत से ज्यादा विदेशी शब्दों के प्रयोग को नापसन्द करते थे। यदि फिर भी जहाँ विषय के लिये आवश्यक नहीं था वहाँ उन्होंने स्वयं बहुधा विदेशी शब्दों का प्रयोग किया है तो यह शायद इसीलिये कि वह बहुत समय तक विदेश में, खासकर इंग्लैण्ड में रहे थे। मार्क्स ने अपने जीवन के दो तिहाई से ज्यादा हिस्से को विदेश में बिताया पर उन्होंने हमारी जर्मन भाषा के हमारे जर्मन निर्माताओं के लिये बहुमूल्य काम किया। नये और शुद्ध जर्मन शब्दों और शब्दों के प्रयोग में वह अद्वितीय हैं।
मार्क्स के लिये राजनीति एक अध्ययन की वस्तु थी। कोरी राजनीतिक बातचीत और उसे करनेवालों से वह विष के समान घृणा करते थे। वास्तव में इससे ज्यादा मूर्खता की दूसरी चीज क्या हो सकती है? इतिहास मानव-जगत और प्रकृति की सब कार्यशील शक्तियों का फल है, मनुष्य के विचारों, भावों और आवश्यकताओं का फल है। परन्तु राजनीति सैद्धांतिक रूप में, 'समय के कर्घे' में काम करती हुई इन लाखों-करोड़ों शक्तियों का ज्ञान है, और व्यावहारिक रूप में वह इस ज्ञान द्वारा निश्चित कर्म है। इसलिए राजनीति सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों तरह का विज्ञान है।
जब मार्क्स उन कूड़मगजों की बात करते थे जो कुछ पुराने घिसे-पिटे वाक्यों के द्वारा मामला तै कर देते है, और जो अपने उल्टे-सीधे विचारों और इच्छाओं को सच मानकर होटल की मेज पर, अखबारों में, जन-सभाओं में और पार्लियामेंटों में, दुनिया के भाग्य का निबटारा कर देते हैं, तो वह बड़े नाराज हो जाते थे। वह सौभाग्य की बात है कि दुनिया ऐसे आदमियों की ओर ज्यादा ध्यान नहीं देती। उक्त कूड़दिमागों में कुछ बड़े मशहूर, बड़े सम्मानित ''महापुरुष'' भी थे।
इस विषय में मार्क्स ने केवल आलोचना ही नहीं की है, उन्होंने एक आदर्श भी उपस्थित किया है। खासकर हाल में फ्रांस की घटनाओं और नेपोलियन की राजसी क्रांति के बारे में अपने लेखों में और ''न्यूयार्क ट्रिब्यून'' को लिखे अपने पत्रों में उन्होंने इतिहास की राजनीतिक लेखन शैली के उत्कृष्ट नमूने दिये हैं।
यहाँ एक तुलना के बारे में मुझे लिखना ही पड़ेगा। बोनापार्ट की जिस राजसी क्रांति के बारे में मार्क्स ने अपनी '18 वीं ब्रूमेअर' लिखी, उसी के ऊपर फ्रांस के रोमांटिक और शब्दावली के कलाकारों में सर्वश्रेष्ठ लेखक, विक्टर ह्यूगो ने भी एक मशहूर किताब लिखी थी। इन दोनों आदमियों और उनकी रचनाओं में कितना महान अंतर है? एक तरफ तो भयानक शब्दावली और शब्दों का दानव, दूसरी ओर नियमानुसार सजी हुई सच्ची घटनाएँ और एक शांत और गंभीर राजनीतिज्ञ और वैज्ञानिक जो क्रुद्ध है परंतु जो अपने क्रोध से अपने फैसले को कभी बिगड़ने नहीं देता।
एक ओर समुद्र-फेन की तरह उड़ती छलछलाती भाषा, करुण शब्दावली, वीभत्स व्यंग-चित्र हैं, और दूसरी ओर है सघे हुए तीर के समान प्रत्येक शब्द, अपनी नम्रता से ही विश्वास उत्पन्न करने वाला नग्र सत्य-क्रोध नहीं बल्कि सत्य की स्थापना और उसकी आलोचना। विक्टर हयूगो लिखित 'छोटा नैपोलियन' के उस समय दस संस्करण छपे पर आज उसका नाम भी कोई नहीं लेता। दूसरी ओर आज से हजार वर्ष बाद भी मार्क्स की '18वीं ब्रूमेअर' प्रशंसा के साथ पढ़ी जायगी। विक्टर ह्यूगो की 'छोटा नैपोलिन' एक आतिशाबाजी थी, मार्क्स की '18वीं ब्रूमेअर' एक ऐतिहासिक ग्रंथ है जो सभ्यता के भावी इतिहासकार के लिये-और भविष्य में सभ्यता के इतिहास के अतिरिक्त कोई विश्व का इतिहास नहीं होगा- उतना ही आवश्यक होगा जितनी थूसिड़ाइडीज का पेलोपोनीशियन युद्ध का इतिहास।
जैसा मैं एक और जगह समझा चुका हूँ मार्क्स जैसे बने, वैसे वह केवल इंग्लैण्ड में ही बन सकते थे। इस सदी के मध्य तक जर्मनी आर्थिक रूप से जैसी अविकसित दशा में था, उसमें मार्क्स पूँजीवादी अर्थशास्त्र के आलोचक नहीं बन सकते थे और न पूँजीवादी उत्पादन की जानकारी प्राप्त कर सकते थे-उसी तरह जैसे इस आर्थिक रूप से अविकसित जर्मनी में आर्थिक रूप से विकसित इंग्लैण्ड की सी राजनीतिक संस्थाएँ नहीं हो सकती थीं। मार्क्स भी अपने वातावरण और रहने की परिस्थितियों पर उतने ही निर्भर थे जितना कोई और मनुष्य, और इस वातावरण और परिस्थिति के बिना वह वैसे न बन सकते जैसे हम उन्हें पाते हैं।
ऐसी बुद्धि पर परिस्थिति का असर पड़ते हुए और प्रकृति तथा समाज के अंदर उसे अधिकाधिक गहराई से पैठते हुए देखना, स्वयं अपने आप में एक गंभीर बौद्धिक सुख है। यह मेरे बड़े सौभाग्य की बात थी कि मुझ जैसे ज्ञान के भूखे अनुभवहीन युवक को मार्क्स के साथ रहने और उनसे सीखने का अवसर मिला। उनकी ऐसी बहुमुखी अथवा यों कहें कि सर्वतोमुखी प्रतिभा थी कि उसमें दुनिया भर के ज्ञान को आकलन करने की सामर्थ्य थी। वह प्रत्येक महत्वपूर्ण पहलू को देखते थे और किसी चीज को भी मामूली तथा बेकार नहीं समझते थे। ऐसी प्रतिभा के द्वारा मेरी शिक्षा का बहुमुखी होना अवश्यम्भावी था।
मार्क्स उन लोगों में थे जिन्होंने सबसे पहले डार्विन की छानबीन का महत्व समझा। सन 1859 के साल से पहले ही-वह साल जब ''जातियों की उत्पत्ति'' (Origin of Species) छपी और एक अद्भुत संयोग से उसी साल ''अर्थशास्त्र की आलोचना'' भी छपी-मार्क्स ने डार्विन के नवयुग की घोषणा करने वाले कार्य के महत्व को समझ लिया था। डार्विन शहर के शोरगुल से दूर अपने शांत ग्रामीण घर में वैसी ही क्रांति की तैयारी कर रहे थे जैसी दुनिया के तूफानी केंद्र में स्वयं मार्क्स कर रहे थे। फर्क सिर्फ यही था कि दोनों का क्षेत्र अलग-अलग था।
खासकर प्राकृतिक विज्ञान-जिसमें भौतिक विज्ञान और रसायनशास्त्र सम्मिलित हैं-और इतिहास के क्षेत्र में मार्क्स ने हर नयी चीज को, हर प्रगति को समझा। मोल शोट, लीबिंग हक्सले, आदि के जन-प्रिय भाषणों में हम नियमित रूप से जाते थे। इनके नाम हमारी गोष्टी में उतनी ही बार आते थे जितने रिकार्डो, एडम स्मिथ, मैककुलौख और स्कॉटिश तथा इटालियन अर्थशास्त्रियों के। जब डार्विन ने अपनी छानबीन से निष्कर्ष निकाले और उनकी घोषणा की तो महीनों तक डार्विन और उसके वैज्ञानिक कार्य की क्रांतिकारी शक्ति को छोड़कर हम लोग कुछ और बात ही नहीं करते थे। मैं यह बात खास तौर पर जोर देकर कह रहा हूँ क्योंकि कुछ ''उग्रपंथी'' दुश्मनों ने यह कहानी फैलायी है कि ईर्षा के कारण मार्क्स ने बड़ी अनिच्छा से और सिर्फ कुछ हद तक ही डार्विन के गुणों को माना था।
जहाँ दूसरे के गुणों की प्रशंसा का सवाल था वहाँ मार्क्स बड़े उदार और न्यायप्रिय थे। ईर्षा, द्वेष और घमंड से वह परे थे। झूठे बड़प्पन से, बनावटी यश से जिसकी आड़ में अयोग्यता व नीचता फैलाते हैं, उन्हें बड़ी घृणा थी। यही बात हर एक झूठ और झूठी चीज के लिये थी।
मेरी जान-पहचान के बड़े, छोटे और साधारण व्यक्तियों में मार्क्स उन थोड़े से आदमियों में से थे जो दंभी नहीं थे। उनके जैसे महान और बलवान और अभिमानी व्यक्ति के लिये दंभी होना असंभव था। वह कभी ढोंग नहीं करते थे और हमेशा अपने सच्चे स्वरूप में रहते थे। अपने को छिपाने या बनावटी चेहरा पहनने में वह एक बच्चे के समान असमर्थ थे। जब तक सामाजिक या राजनीतिक कारणों से जरूरी न हो वह अपने भावों और विचारों को बिना कुछ छिपाये पूरी तरह प्रकट कर देते थे और उनके विचार, उनके चेहरे पर झलक जाते थे। अगर कुछ छिपाने की जरूरत होती थी तो वह बच्चों की तरह घबरा जाते थे जिस पर उनके मित्रों को बड़ी हँसी आती थी।
मार्क्स से ज्यादा सच्चा कोई आदमी नहीं हुआ। वे सत्य की साक्षात मूर्ति थे। उनको देखने से ही व्यक्ति को अपनी असलियत मालूम हो जाती थी। हमारे निरंतर संघर्षपूर्ण ''सभ्य समाज'' में हमेशा सच नहीं बोला जा सकता। उससे तो दुश्मन के फंदे में पड़ने या समाज से बहिष्कार होने के अतिरिक्त और कुछ नहीं होगा। परन्तु यदि बहुधा हम सच नहीं बोल सकते तो इस कारण से झूठ बोलना जरूरी नहीं है। मैं अपने विचारों और भावों को शब्दों में प्रकट नहीं कर सकता, पर इसका यह मतलब नहीं है कि जो मेरे विचार तथा भाव नहीं हैं मुझे उन्हें प्रकट करना चाहिये या करना ही पड़ेगा। पहली बात बुद्धिमानी है, दूसरी ढोंग है। और मार्क्स कभी ढोंगी नहीं थे। वह यह कर ही न सकते थे बिल्कुल न बिगड़े हुए बालक की तरह। और सचमुच उनकी स्त्री बहुत बार उन्हें 'मेरा बड़ा बच्चा' कहा करती थी। उनसे ज्यादा न कोई मार्क्स को जानता था और न समझता था, एंगेल्स भी नहीं। यह सच्ची बात है कि जब वह 'सभ्य समाज' में निकलते, जहाँ बाहरी रूप पर बड़ा ध्यान दिया जाता है और सँभल कर बात करनी पड़ती है तब हमारा 'मूर' वास्तव में एक बड़ा बालक था। वह एक छोटे बच्चे की तरह झेंपते और लाल हो जाते थे।
बनावटी लोग उन्हें बड़े बुरे लगते थे। मुझे अभी तक याद है कि किस तरह उन्होंने हँसते हुए लुई ब्लाँक के साथ अपनी पहली मुठभेड़ का किस्सा सुनाया था। यह तब की बात है जब वह डीन स्ट्रीट में ही थे। उस छोटे से घर में सामने का कमरा मिलनेवालों के लिये और काम करने को लिये था। और पीछे का बाकी सब कामों के लिये। लुई ब्लाँक ने लेन्वेन को अपना नाम बताया। वह उन्हें सामने के कमरे में ले गयी और दूसरे कमरे में मार्क्स जल्दी से कपड़े पहनने लगे। पर दोनों कमरों के बीच का दरवाजा थोड़ा सा खुला था और उस दरार में से एक मजेदार दृश्य दिखाई पड़ा। वह महान इतिहासकार और राजनीतिज्ञ बहुत ठिगना सा आदमी था, मुश्किल से आठ बरस के लड़के से लंबा। लेकिन वैसे वह बड़ा घमंडी था। उस मजदूरों जैसे गोल कमरे में चारों तरफ देखने के बाद एक कोने में उसे एक बड़ा पुराना आईना मिला और वह फौरन उसके सामने जाकर डट गया। वह शान से खड़ा हो गया और अपने बौने कद को अकड़कर जितना लम्बा कर सकता था कर लिया। (इतनी ऊँची एड़ी के जूते पहने मैंने और किसी को नहीं देखा) और बड़े संतोष से अपने को देखते हुए वसंतकाल के प्रेम से पागल खरगोश की तरह चलने और भरसक शानदार दिखाई पड़ने की कोशिश करने लगा। श्रीमती मार्क्स, जो इस मजेदार दृश्य को देख रही थी, मुश्किल से अपनी हँसी का ठहाका रोक सकीं। जब उसका श्रृंगार खत्म हो गया तो मार्क्स ने जोर से खाँसकर अपने आने की सूचना दी जिससे वह ढोंगी आईने से एक कदम पीछे हटकर आगन्तुक का शान से झुककर स्वागत कर सका। परंतु मार्क्स के सामने बनावट या दिखावट से कुछ फायदा नहीं हो सकता था। और इसलिये छोटा लुई (जैसा कि बोनापार्ट से फर्क दिखाने के लिये पैरिस के मजदूर उसे कहते थे) शीघ्र ही यथासंभव स्वाभाविकता से बातें करने लगा।
किसी ने कहा है कि ''परिश्रम करने की असीम योग्यता का नाम प्रतिभा है''। अगर पूरी तरह नहीं तो कम से कम बहुत हद तक यह जरूर सच है। ऐसा कोई प्रतिभाशाली मनुष्य नहीं होता जिसमें मेहनत करने की असाधारण शक्ति न हो और जो असाधारण मात्रा का काम न कर दिखाये। जो इन दोनों से अनजान है वह प्रतिभाशाली मनुष्य या तो सिर्फ एक क्षणभंगुर साबुन का बुलबुला है या हवाई किलों के बल पर लिखायी हुई हुंडी है। परन्तु जहाँ परिश्रम करने और कार्य संपादन करने की असाधारण शक्ति है वहीं प्रतिभा है। मुझे अनके मनुष्य मिले हैं जो अपने आपको प्रतिभावान समझते थे या कभी-कभी जिन्हें दूसरे भी प्रतिभावान समझते थे परंतु उनमें मेहनत करने की शक्ति नहीं थी। वे सिर्फ बातें बनाने में कुशल और अपनी तारीफ करने में तेज नौसिखिये थे। जितने सच्चे बड़े आदमियों से मैं मिला हूँ वे सब बड़े मेहनती थे और कठिन परिश्रम करते थे। यह बात पूरी तरह से मार्क्स के लिये लागू है। वह महान परिश्रम करते थे। बहुधा वह दिन में काम नहीं कर पाते थे, खासकर अपने भगोड़ेपन के जीवन के पहले हिस्से में। इसलिये वह रात को काम करते थे। जब किसी मीटिंग या सभा से देर में घर लौटते थे तो वह नियमानुसार कुछ घंटे बैठकर काम करते थे। और ये कुछ घंटे बढ़ते गये यहाँ तक कि वे लगभग सारी रात काम करने लगे और सुबह को सोने लगे। उनकी स्त्री ने इसका बड़ा विरोध किया परन्तु उन्होंने हँसते हुए कहा कि यह तो मेरे स्वभाव के अनुकूल है। मुझे खुद स्कूल में भी रात को देर तक या सारी रात काम करने की आदत थी क्योंकि उसी वक्त मुझे सबसे ज्यादा दिमागी चुस्ती मालूम होती थी। इसलिये मैंने इस मामले को श्रीमती मार्क्स की तरह बुरा नहीं समझा। पर उनका कहना ठीक था और अपनी असाधारण मजबूत काठी के होते हुए भी सन 1860 के लगभग मार्क्स को अपने शरीर के संबंध में तरह तरह की शिकायतें होने लगी। डाक्टर को दिखाना पड़ा और उसका नतीजा यह हुआ कि रात को काम करने की बिलकुल मनाही हो गयी और कसरत, हवाखोरी तथा घुड़सवारी करने को कहा गया। उस जमाने में मैं लन्दन के आसपास, खासकर उत्तर की पहाड़ियों की तरफ मार्क्स के साथ बहुत घूमा करता था। वह बड़ी जल्दी अच्छे हो गये क्योंकि वास्तव में उनका स्वास्थ्य घोर परिश्रम और कार्य संपादन के योग्य था। परन्तु वह मुश्किल से अच्छे हुए थे कि उन्होंने धीरे-धीरे अपनी रात को काम करने की आदत फिर शुरू कर दी। फिर एक संकट आया जिसकी वजह से उन्हें ठीक तरह से रहने के लिये मजबूर होना पड़ा। परन्तु यह तभी तक चलता था जब तक मजबूरी होती। यह तकलीफ ज्यादा जोर पकड़ने लगी, उन्हें तिल्ली की शिकायत हो गयी और बड़ी दुखदायी गिल्टियाँ निकलने लगीं। धीरे-धीरे उनका लोहे का शरीर कमजोर हो गया। मुझे पूरा विश्वास है, और यही उन डाक्टरों की राय भी है जिन्होंने आखिरी वक्त उनकी दवा की, कि अगर वह स्वाभाविक जीवन बिताते, यानी ऐसा जीवन जो उनसे शरीर के अनुकूल या यों कहिये कि स्वास्थ्य शास्त्र के अधिक अनुकूल होता तो वह आज भी जीवित होते। सिर्फ अपने आखिरी सालों में जब बहुत देर हो चुकी थी तब उन्होंने रात को काम करना बंद किया। परंतु वह उतना ही ज्यादा दिन में काम करते थे। जब भी हो सकता था वह हर मौके पर काम करते थे। जब वह घूमने जाते थे तब भी अपनी नोटबुक लिये रहते थे और बराबर लिखते रहते थे। और उनका काम कभी दिखावटी नहीं होता था। काम तरह-तरह का होता है। वह हमेशा खूब अच्छी तरह समझ कर पूरा-पूरा काम करते थे। उनकी लड़की इलीनोर ने मुझे इतिहास-संबंधी एक तालिका दी है जिसे मार्क्स ने एक छोटी सी टिप्पणी के लिये बनायी थी। सचमुच मार्क्स के लिये कोई चीज साधारण नहीं थी। अपने उसी समय के काम के लिये बनायी हुई यह तालिका इतनी मेहनत से बनायी गयी है जैसे छपवाने के लिये हो।
मार्क्स इस सहनशीलता से काम करते थे कि मैं बहुधा चकित हो जाता था। वह यह जानते ही न थे कि थकान होती क्या है। वे गिर पड़ते थे और तब भी आराम नहीं करते थे।
अगर आदमी की कीमत उसके किये हुए काम से लगायी जाय, जैसे काम की कीमत उसमें लगी मेहनत के हिसाब से लगायी जाती है, तब इस मापदण्ड से भी मार्क्स की इतनी कीमत होगी कि बुद्धि के महापुरुषों में थोड़े से ही उनकी बराबरी कर सकेंगे।
और काम की इतनी विशाल मात्रा के लिये पूंजीवादी समाज ने उन्हें मजूरी क्या दी है? उन्होंने चालीस साल तक ''कैपीटल'' पर मेहनत की, और मेहनत भी कैसी! उन्होंने इस तरह मेहनत की जो मार्क्स ही कर सकते थे। और मैं बात बढ़ा नहीं रहा हूँ। सचमुच मार्क्स की उस सदी की दो सवोच्च कृतियों में से एक के लिये (दूसरी रचना डार्विन की थी) जो पारिश्रमिक मिला उससे जर्मनी के सबसे कम वेतन वाले मजदूर को भी चालीस बरस के वेतन के रूप में ज्यादा मिल गया होगा।
विज्ञान का बाजार में मूल्य नहीं है। और क्या हम यह आशा कर सकते हैं कि अपने ही मृत्युदण्ड के ब्यौरे के लिये पूंजीवादी समाज अच्छा दाम देगा?
बलवान और स्वस्थ स्वभाव के सब लोगों की तरह मार्क्स को बच्चों से असाधारण प्रेम था। वह केवल एक स्नेही बाप ही नहीं थे जो घंटों अपने बच्चों के साथ बालक बन सकते थे। बल्कि जो अपरिचित बच्चे, खासकर गरीब और अनाथ उनके सामने आ जाते थे, वह उनकी ओर चुम्बक के आगे लोहे की तरह खिंच जाते थे। हजारों बार गरीब मुहल्लों में घूमते हुए वह एकाएक चिथड़े पहने दरवाजे पर बैठे हुए किसी बच्चे के सिर पर हाथ फेरने और उसके हाथ में एक पैसा या टका देने के लिये अलग हो जाते थे। उन्हें भिखमंगों पर शक हो गया था क्योंकि लन्दन में भीख माँगने का पूरा व्यापार बन गया था-ऐसा व्यापार जिसमें कमाई तो ताम्बे की होती थी पर नींव सोने की बन गयी थी।
इसीलिए शुरू में तो जब तक उनके पास कुछ होता वह देने से इनकार नहीं करते थे। परन्तु बाद में वह भिखमंगों की बातों में देर तक नहीं आते थे-चाहे वह मर्द हो या औरत। उनमें से कुछ से तो वह बड़े नाराज होते थे जिन्होंने बनावटी बीमारी या दरिद्रता का कलापूर्ण प्रदर्शन करके उनसे कर वसूल किया था। वह मनुष्य की सहानुभूति से अनुचित लाभ उठाने को बहुत ही नीच काम और दरिद्रता की आड़ से चोरी करना समझते थे। पर अगर कोई भिखमंगा रोते हुए बच्चे को लेकर मार्क्स के सामने आ जाता था तो वह बिल्कुल हार जाते थे, चाहे भिखारी के चेहरे पर गुण्डापन कितना ही साफ क्यों न झलकता हो। वह किसी बच्चे की माँगती हुई आँखों के सामने पिघले बिना नहीं रह सकते थे।
शारीरिक दुर्बलता और असहायता देखकर उन्हें हमेशा बड़ी सहानुभूति होती थी। ऐसे मनुष्य को जिसने अपनी स्त्री को पीटा हो - और उन दिनों लन्दन में स्त्री-ताड़ना का बड़ा रिवाज था - उसे तो वे कोड़े लगवा कर मार डालते। ऐसे मौकों पर अपने जल्दबाज स्वभाव के कारण वह बहुधा अपने को और हमें मुसीबत में फँसा देते थे। एक दिन शाम को हम दोनों गाड़ी के दुमंजिले पर बैठे हैम्पस्टेड हीथ को जा रहे थे। एक शराबखाने के सामने गाड़ी के रुकने की जगह हमने एक भीड़ देखी जिसमें से एक औरत की ''खून-खून'' चिल्लाने की आवाज आ रही थी। बिजली की तरह फुर्ती से मार्क्स नीचे कूद गये और मैं उनके पीछे हो लिया। मैं उन्हें रोकना चाहता था, पर इससे अच्छा तो मैं खाली हाथ से बन्दूक की गोली रोकने की कोशिश करता। जरा सी देर में हम लोग भीड़ के बीच में पहुँच गये और हम चारों तरफ आदमियों की बाढ़ से घिर गये। ''क्या बात है?'' जो मामला था वह जल्दी ही दिखायी पड़ा। एक शराब के नशे में चूर औरत का अपने पति से झगड़ा हो गया था। पति उसे घर ले जाना चाहता था। वह जा नहीं रही थी और इस तरह चिल्ला रही थी जैसे कोई भूत सवार हो। यहाँ तक तो सब ठीक था। हमारे बीच-बचाव करने की कोई जरूरत नहीं थी, यह भी हमने देखा। पर इस बात को झगड़नेवाले दम्पति ने भी देखा, उन्होंने झट आपस में सुलह कर ली और हमारी तरफ घूम पड़े। भीड़ भी चारों तरफ से हमारे पास आने लगी और ''विदेशियों'' के लिये हालत खतरनाक हो गयी। उस औरत ने खासकर मार्क्स पर विकट हमला किया और उनकी सुन्दर चमकती हुई काली दाढ़ी को निशाना बनाया। मैंने तूफान को रोकने की कोशिश की, पर सब बेकार। अगर दो तगड़े पुलिसवाले बड़े मौके से युद्ध क्षेत्र पर न आ गये होते हो तो हमें बीच बचाव करने के अपने परमार्थी प्रयत्न का मँहगा दाम देना पड़ता। वहाँ से सही-सलामत लौटकर घर जाती हुई गाड़ी पर बैठकर हमें बड़ी खुशी हुई। इसके बाद बीच-बचाव की ऐसी कोशिश मार्क्स कुछ संभल कर करते थे।
विज्ञान के इस महारथी के भावों की गहराई और बचपन देखने के लिये मार्क्स को अपने बच्चों के साथ देखना जरूरी था। अपने फुरसत के वक्त या हवाखोरी में वह उनको लाद कर ले जाते थे और उनके साथ बड़े बे-मतलब हंसी-खुशी के खेल खेलते थे। संक्षेप में, बच्चों के साथ बच्चा बन जाते थे। हैम्पस्टेड हीथ पर हम ''घुड़सवारी'' खेला करते थे। एक छोटी लड़की को मैं अपने कंधे पर बैठा लेता था, दूसरी को मार्क्स और फिर कूदते, भागते हुए हम आपस में होड़ करते थे। कभी-कभी घुड़सवारों में थोड़ी सी लड़ाई भी होती थी। लड़कियाँ लड़कों की तरह बेरोकटकोट थीं और बिना रोये दो एक गद्दे भी सह लेती थीं।
मार्क्स के लिये बच्चों का साथ जरूरी था, इस तरह से वह अपने को दुबारा ताजा कर लेते थे। और जब उनके खुद के बच्चे मर गये तो उनकी जगह नाती नातनियों ने ले ली। जेनी ने 1870 के लगभग कम्यून के बाद निर्वासित होने वाले लौंगुए से ब्याह किया था। उसके कई बच्चे थे जो बड़े शैतान थे। उनमें सबसे बड़ा जौन या जौनी जो अब जबरदस्ती ''स्वयंसेवक'' होकर फ्रांस में एक साल बिताने वाला है, खास तौर पर अपने नाना का लाड़ला था। वह उनके साथ जो चाहे कर सकता था और इस बात को जानता था। एक दिन मैं लंदन गया हुआ था तो जौनी को, जिसे उसके माँ बाप ने पैरिस से भेज दिया था (और ऐसा हर साल कई बार होता था) मार्क्स को गाड़ी बनाने का महान विचार आया और उसके कोचबक्स यानी मार्क्स के कंधे पर वह डट गया। उसने मुझे और एंगेल्स को गाड़ी के घोड़े बनाया। जब हम ठीक तरह जुत गये तो मेटलैण्ड पार्क रोड वाले मार्क्स के मकान के पीछे के बगीचे में खूब जोर की दौड़ हुई। मुझे यह कहना चाहिये कि गाड़ी खूब हाँकी गयी। शायद यह रीजेन्ट पार्क के एंगेल्स के घर में हुआ हो। लंदन के मामूली घर इतने मिलते जुलते होते हैं कि वे आसानी से एक दूसरे से मिल जाते हैं खासकर घर का बगीचा। घास और बजरी पड़ी हुई थोड़ी सी चौकोर जगह-लंदन की कालिख या काले बर्फ से यानी चारों तरफ उड़ते हुए धुएँ से ऐसी ढकी हुई कि यह नहीं बताया जा सकता था कि घास कहाँ तक है और बजरी कहाँ तक। लंदन का बगीचा ऐसा ही होता है।
अब वह चली! तिक् तिक्-जर्मन, अंग्रेजी और फ्रेंच में दुनिया भर के हुंकारों से - हुर्रा, जी अप आदि के साथ। मूर को इतना दुलकी चाल दौड़ना पड़ा कि उनके मुँह पर से पसीना चूने लगा और यदि मैं या एंगेल्स जरा भी रफ्तार कम करते थे तो निर्दयी कोचवान का चाबुक फौरन हमारी कमर पर पड़ता - अरे बदमाश घोड़े! आगे बढ़ो! जब तक कि मार्क्स बिल्कुल न थक गये दौड़ चलती रही। फिर जौनी के साथ सुलह की बातचीत शुरू हुई और सन्धि हो गयी।
जब से मार्क्स ने घर बसाया, तब से लेन्चेन उनकी एक लड़की के शब्दों में घर की आत्मा हो गयी। घर का सारा कामकाज वही करती थी। क्या कोई ऐसा काम था जो उसे नहीं करना पड़ता था? क्या कोई ऐसा काम था जिसे वह खुशी से नहीं करती थी? मैं तो सिर्फ सोने की तीन गेंद वाले उन दयालु रिश्तेदार ''चचा'' के यहाँ बारबार जाना याद करता हूँ जो बड़े रहस्यपूर्ण और निन्दित थे लेकिन थे बड़े सभ्य। और लेन्चेन हमेशा खुश, हँसती रहती और मदद करने को तैयार रहती थी। परन्तु नहीं! वह नाराज भी हो सकती थी और मूर के दुश्मनों को उससे बड़ी जबर्दस्त नफरत थी।
यदि श्रीमती मार्क्स की तबियत अच्छी नहीं होती थी तो वह माँ भी बनती थी। अन्य अवसरों पर वह बच्चों की दूसरी माँ की तरह थी। उसकी अपनी मर्जी भी थी जो बहुत दृढ़ और कट्टर होती थी। जो वह आवश्यक समझती थी उसका होना अनिवार्य था।
जैसा मैं कह चुका हूँ, लेन्चन का एक तरह का एकाधिपत्य था। सब के संबंध को साफ-साफ बताने के लिये यह कहा जा सकता है कि वह घर में डिक्टेटर थी और श्रीमती मार्क्स राजा। इस शासन के सामने मार्क्स भेड़ बनकर रहते थे। यह कहा गया है कि अपने नौकर की नजरों में कोई भी बड़ा आदमी नहीं होता। निश्चय ही लेन्चेन की आंखों में मार्क्स तो बड़े आदमी नहीं थे। वह उनके लिये अपने को बलिदान कर देती, उनके लिये और श्रीमती मार्क्स और हर एक बच्चे के लिये, यदि यह आवश्यक या संभव होता तो अपनी जान सौ बार भी दे देती और उसने सचमुच अपनी जान दी। पर मार्क्स उस पर रोब नहीं जमा सके। वह उनके मिजाज और कमजोरियों को जानती थी और उनसे मनमानी करा सकती थी। उनका चाहे कितना ही चिड़चिड़ा मिजाज हो रहा हो, चाहे वह कितने ही नाराज हो रहे हों और सब लोग उनसे दूर रहने में खैरियत समझते हों लेन्चेन शेर की माँद में घुस जाती थी और वह यदि गुर्राते थे तो ऐसा सबक पढ़ाती थी कि शेर भेड़ की तरह पालतू हो जाता था।
हैम्पस्टेड हीथ की हमारी यात्राएँ! अगर मैं एक हजार बरस तक जिन्दा रहूँ तो भी मैं उन्हें कभी नहीं भूल सकता। हैम्पस्टेड हीथ (मैदान) प्रिमरोज हिल नामक पहाड़ी से आगे है और उसी की तरह लंदन के बाहर की दुनिया उसे डिकेन्स के उपन्यास ''पिकविक पेपर्स'' से जानती है। आज तक वह जगह बहुत कुछ मैदान ही है - पहाड़ी जमीन जिस पर कोई इमारत नहीं है और काँटेदार झाडि़यों और पेड़ों के झुण्ड हो रहे हैं। उसमें छोटे छोटे पहाड़ और घाटियाँ हैं जहाँ स्वेच्छापूर्वक खेला और घूमा जा सकता है। वहाँ यह डर नहीं रहता कि बिना आज्ञा के किसी की निजी सम्पत्ति पर चढ़ आये हों और वहीं उस पवित्र सम्पत्ति के चौकीदार से टोके जाँय और जुरमाना देना पड़े। लन्दनवासियों के घूमने के लिये अब भी हैम्पस्टेड हीथ एक प्रिय जगह है और खुले मौसम में इतवार को वह आदमियों के कपड़ों से काला और औरतों के कपड़े से रंगबिरंगा बना रहता है। सदा के धैर्यवान गधे और लट्ट घोड़े की परीक्षा लेने का औरतों को खास शौक होता है। चालीस साल पहले हैम्पस्टेड का मैदान आज से कहीं बड़ा और जंगली था। हैम्पस्टेड हीथ पर इतवार बिताना हमारे लिये बड़ी खुशी की बात होती थी। बच्चे उसके बारे में पूरे एक हफ्ते पहले बात करने लगते थे और हम बड़े लोगों, बूढे़ ओर जवान सबके लिये यह बड़ी प्रसन्नता की बात होती थी। यहाँ तक कि खाली यात्रा भी एक त्यौहार के समान थी। डीन स्ट्रीट में मार्क्स का कुनबा रहता था, और चर्च स्ट्रीट में मेरा लंगर पड़ा हुआ था। वहाँ से हीथ का रास्ता अच्छा खासा सवा घण्टे का था और ज्यादातर हम लोग सुबह के 12 बजे चल पड़ते थे। यह ठीक है कि अक्सर हम लोग देर में चलते थे क्योंकि लंदन में सबेरे उठने का रिवाज नहीं है और सब कुछ तैयार करने में बच्चों की देखभाल करने और टोकरी लगाने में, कुछ वक्त हमेशा लग जाता था।
ओकरी! वह तो हमेशा मेरी मन की आँखों के सामने ऐसी साफ ललचाती और देखने से भूख जगाती हुई लटकती रहती है जैसे कि मैने कल ही उसे लेन्चेन के हाथ में देखा हो।
वह टोकरी ही हमारे खाने का गोदाम थी और जब किसी का पेट मजबूत और स्वस्थ होता है और अक्सर जेब में काफी रेजगारी नहीं होती (ज्यादा दाम होने का तो उस समय सवाल उठ ही नहीं सकता था) तो खाने का सवाल बड़ा महत्वपूर्ण होता है। और अच्छी लेन्चेन जिसका हम दरिद्र और इसलिए सदाभूखे मेहमानों के लिए बड़ा सहानुभूतिपूर्ण हृदय था, इस बात को अच्छी तरह जानती थी। हैम्पस्टेड हीथ पर इतवार को बछड़े के मांस का एक बड़ा-सा भुना हुआ टुकड़ा हमेशा से खास चीज होता था। द्रेव्य के जमाने से लेन्चेन की बचाई हुई एक बहुत बड़ी टोकरी इस परम पवित्र वस्तु के लिए बरतन का काम देती थी। भुने हुए मांस के साथ चाय, चीनी मिलती थी और कभी-कभी फल भी। डबल रोटी और पनीर तो हम लोग हीथ पर ही खरीद सकते थे जहाँ बर्लिन के कॉफी के बागों की तरह दूध के साथ गर्म पानी और चीनी के बर्तन मिल सकते थे और हर एक अपनी इच्छा या सामर्थ्य के अनुसार वहाँ के सलाद, पानी के झीगुर आदि के साथ रोटी, मक्खन, पनीर, शराब आदि खरीद सकता था और अब भी खरीद सकता है।
वहाँ की यात्रा इस भाँति होती थी। मैं दोनों लड़कियों के साथ आगे चोबदार की तरह चलता था - कभी कहानियाँ सुनाता हुआ, कभी मनमानी कसरत करता हुआ या जंगली फूलों को ढूँढ़ता हुआ जो इन दिनों इतने कम नहीं थे जितनें अब हैं। हमारे पीछे कुछ दोस्त चलते थे। फिर सेना का मुख्य भाग आता था, अर्थात मार्क्स और उनकी स्त्री और शायद कोई इतवार के मिलनेवाले जो हमारे ध्यान को थोड़ा सा आकर्षित करते थे। और इनके पीछे आती थी लेन्चेन - सब से भूखे मेहमानों के साथ जो टोकरी उठाने में उसकी मदद करते थे। अगर कुछ मेहमान होते थे तो वे सेना की कतारों के बीच में बँट जाते थे। मुझे कह कहने की शायद जरूरत नहीं है कि अपनी इच्छा या आवश्यकता के अनुसार यह यात्रा-क्रम या सेना-विभाजन बदला जा सकता था।
मैदान में पहुँचकर इस बात का ध्यान रखते हुए कि वहाँ चाय या शराब मिल सकेगी, पहले तो हम ऐसी जगह ढूँढ़ते थे जहाँ हम अपना डेरा जमा सकें।
खाने पीने से ताजे होने के बाद, सब लोग बैठने के लिए सबसे अच्छी जगह ढूँढ़ते थे और यदि सोना ज्यादा पसन्द न किया गया तो, रास्ते में खरीदे हुए इतवार के अखबार जेब से निकाले जाते थे और हम पढ़ना और राजनीति पर बात करना शुरू कर देते थे। बच्चे जिन्हें जल्द से साथी बन जाते थे झाड़ियों में आंख मिचौनी खेलते थे।
परन्तु अपने आराम के जीवन में हमें कुछ विभिन्नता लानी होती थी इसलिये दौड़ होती थी, कभी-कभी कुस्ती होती थी, पत्थरों से निशाना लगाना या और खेल होते थे। एक इतवार को हमने पड़ोस में एक पके फलवाला अखरोट का पेड़ ढूंढ़ निकाला। किसी ने कहा कि देखें कौन सबसे ज्यादा गिराता है और 'हुय' चिल्लाते हुए हम लोग जुट गये। मूर तो पागल जैसे हो गये और सचमुच अखरोट गिराने में वह बहुत कुशल नहीं थे। परंतु वह थकते न थे - जैसे हम सब थे। जब खुशी के शोर के साथ आखिरी अखरोट गिरा लिया गया तब गोलाबारी बंद हुई। उसके आठ दिन बाद तक मार्क्स अपना सीधा हाथ नहीं चला सके और मेरी भी इससे अच्छी हालत नहीं थी।
सबसे बड़ा उत्सव घोड़ों-गधों की सवारी था। कितने जोर की हंसी और आनंद का फव्वारा छूटता था! और क्या मजेदार दृश्य होते थे! मार्क्स ने कितना अपने को हँसाया - और हमें! उन्होंने हमें दो तरह से हँसाया - अपने सवारी करने के दकियानूसी कौशल और उस कला में अपनी योग्यता की कट्टरता से घोषणा करके। उनकी योग्यता यह थी कि एक बार उन्होंने घुड़सवारी सीखी थी - एंगेल्स कहते थे कि वह तीन बार से ज्यादा नहीं गये थे। छुट्टी के जमाने में जब वह मेन्चेस्टर गये थे तो एंगेल्स के साथ एक रोजीनेन्ट पर उन्होंने सवारी की थी जो कि शायद उस भेड़ जैसी सीधी घोड़ी की पोती थी जिसे बूढ़े फ्रिट्ज ने गेलर्ट को भेंट किया था।
हैम्पस्टेड हीथ से हमारा लौटना भी बड़ा मजेदार होता था यद्यपि खुशी के बारे में बाद में सोचने में इतना मजा नहीं आता जितना उसके पहले। हम लोग अपने व्यंगात्मक हास्य से उदास होने से बच जाते थे यद्यपि उसके लिये हमारे पास कारण तो खूब थे। हमारे लिये निर्वासित जीवन के कष्ट तो थे नहीं - अगर कोई शिकायत करने लगता था तो उसे प्रबल रूप से अपने सामाजिक कर्तव्य की याद दिलायी जाती थी।
लौटने का तारीका जाने से भिन्न था। दौड़-भाग से बचे थके होते थे और लेन्वेन के साथ वे हमारे पीछे चौकीदार बनते थे। टोकरी खाली हो जाने से लेन्चेन के पास बोझ कम होता था और वह तेज चल सकती थी। अक्सर हम लोग गाना शुरू करते थे, कभी-कभी राजनीतिक गाने पर ज्यादातर ग्राम गीत, खासकर भावुक गाने या मातृभूमि के बारे में देश भक्ति के गाने आदि। या बच्चे हमें हब्शियों के गाने सुनाते थे और यदि उनके पैरो की थकान दूर हो गयी होती तो नाचते भी थे। चलते समय भगोड़े के दुखों की बातें करना उतना ही मना था जितना राजनीति की बातें करना। बल्कि हम लोग साहित्य और कला के बारे में बहुत बातें करते थे और तब मार्क्स को अपनी अद्भुत स्मरण शक्ति दिखाने का मौका मिलता था। वह 'डिवाइन कामेडी' के लम्बे-लम्बे उद्धरण पढ़ते थे। वह उन्हें लगभग पूरी जबानी याद थी। वह शेक्सपियर के नाटकों में से भी सुनाते थे। इसमें उनकी स्त्री, जिन्हें शेक्सपियर का खूब ज्ञान था, बहुधा उनकी मदद करती थीं।
लगभग सन 1860 से हम लोग लंदन के उत्तर में केन्टिश टाउन और हेवरस्टौक हिल में रहने लगे और तब हमारे घूमने की प्रिय जगह हैम्पस्टेड और हाइगेट के पीछे के मैदान तथा पहा़डि़याँ थीं। यहाँ हम लोग फूल ढूँढ़ सकते थे और फूलों की पहचान कर सकते थे - इससे शहर के बच्चों को खास खुशी होती है। जिनको बड़े शहर के निर्जीव पत्थरों के सागर में रहते-रहते प्रकृति की हरियाली के दृश्यों के लिये प्रबल चाह हो जाती है। जब घूमते भटकते हुए हमें पेड़ों से ढंका हुआ कोई तालाब मिल जाता था और मैं बच्चों को सबसे पहला सचमुच का 'मुझे मत भूलना' नाम का जंगली फूल दिखा पाता था हमें कितनी खुशी होती थी। जब हम किसी सुन्दर मखमल जैसे हरे मैदान में, जिसमें हम बिना आज्ञा न घुसने की चेतावनी के विरुद्ध देखभाल करने के बाद घुसते थे किसी सुरक्षित स्थान पर और वसंती फूलों के साथ कोई जंगली फूल पाते थे तो हमें और भी ज्यादा खुशी होती थी।
(यह मार्क्स की सबसे छोटी लड़की एलिएना का पत्र है जो उसने लीबनेख्ट को लिखा था। यह पत्र लीबनेख्ट ने अपने संस्करणों में पूरा का पूरा उद्धृत कर दिया है। -सं.)
मुस्तफा (एलजीअर्स) में मूर के ठहरने के बारे में मैं इससे कुछ ज्यादा नहीं कह सकती कि मौसम बहुत बुरा था। मूर को वहाँ एक बड़ा होशियार और दोस्ताना बर्ताव का डाक्टर मिला और होटल में हर एक आदमी उनका ख्याल करता था और उनसे दोस्त की तरह मिलता था।
सन 1881-82 की शरद ऋतु तथा जाड़ों में मूर पहले तो जेनी के पास पैरिस के निकट आरजेनतियूल में रहे। वहाँ हम लोग मिले और कुछ हफ्तों तक साथ रहे। फिर वह दक्खिनी फ्रांस और एलजीरिया गये परंतु बहुत बीमार होकर लौटे। वाइट के टापू पर वेन्टनारे में उन्होंने सन 1882-83 की शरद ऋतु और जाड़े बिताये और वहाँ से वह 8 जनवरी को जेनी की मृत्यु के बाद सन 1883 में लौटे।
अच्छा अब कार्ल्सबाद के बारे में। हम सबसे पहले वहाँ सन 1874 में गये थे। नींद न आने और तिल्ली की शिकायत के कारण मूर को वहाँ भेजा गया था। पहली बार जाने से उन्हें बहुत फायदा हुआ इसलिये अगले साल साल सन 1875 में वह वहाँ अकेले गये। उसे अगले साल उन्होंने मुझे बहुत याद किया था। कार्ल्सबाद में बड़ी ईमानदारी से उन्होंने अपना इलाज किया और जो कुछ डाक्टरों ने बताया बिल्कुल वही किया। वहाँ हमारे बहुत से दोस्त बन गये। यात्रा के लिये मूर बड़े अच्छे साथी थे। वह हमेशा खुश रहते थे और हर चीज को पसन्द करते थे, चाहे वह सुंदर दृश्य हो या शराब का गिलास। इतिहास के अपने विस्तृत ज्ञान से वह हर जगह को भूत काल में वर्तमान से भी ज्यादा सजीव बनाकर दिखा सकते थे।
मैं समझती हूँ कि मार्क्स के कार्ल्सबाद में रहने के बारे में बहुत सी बातें कही गयी हैं। और बातों के साथ-साथ मैंने एक लम्बे लेख के बारे में सुना था। मुझे अब याद नहीं कि वह किस पत्रिका में छपा था। शायद डी. में रहने वाला एम. ओ. इसके बारे में कुछ और बता सकेगा। उसने मुझ से एक बड़े अच्छे लेख के बारे में कहा था।
सन 1874-75 में हम दोनों लीपजिग में मिले। फिर घर लौटते हुए हम लोग बिन्गेन गये जो जो मार्क्स मुझे दिखाना चाहते थे क्योंकि मेरी माँ के साथ वे वहाँ 'हनीमून' के लिये गये थे। इसके अलावा इन दो यात्राओं में हम ड्रेस्डेन, बर्लिन, हैमबर्ग और न्यूरमबर्ग भी गये।
सन 1877 में मूर को फिर कार्ल्सबाद जाना चाहिये था। परंतु हमें खबर मिली कि जर्मनी तथा ऑस्ट्रिया की सरकार का उन्हें निकाल देने का इरादा है। यात्रा इतनी लम्बी और खर्चीली थी कि देश निकाले के खतरे की अवहेलना नहीं की जा सकती थी। इसलिये मूर फिर कार्ल्सबाद नहीं गये। इससे उन्हें हानि हुई क्योंकि वहाँ अपना इलाज करने के बाद उन्हें ऐसा लगता था कि उनका कायाकल्प हो गया हो।
मेरे पिता के वफादार दोस्त और मेरे प्रिय मामा एडगर फौन वेस्ट्फेलन से मिलने के लिये ही हम बर्लिन गये थे। वहाँ हम थोड़े दिन ही कम रहे। मूर को यह सुनकर बड़ी खुशी हुई कि तीसरे दिन, हमारे चले जाने की ठीक एक घंटे बाद, पुलिस उनके लिये होटल में आयी थी।
सन 1880 के शरद काल में जब कि हमारी प्यारी माँ इतनी बीमार थीं कि वह मुश्किल से पलंग पर से उठ सकती थीं, मूर को प्लूरसी का दौरा हुआ। वे हमेशा अपनी बीमारी के बारे में लापरवाही करते थे इसलिये वह इतनी खतरनाक हो गयी। हमारा श्रेष्ठ मित्र डौंकिन जो डाक्टर था बीमारी को निराशाजनक समझता था। बड़ी विपदा का समय था। सामने के बड़े कमरे में माँ लेटी रहती थीं, पीछे वाले में मूर। और वे दोनों तो परस्पर इतने निकट थे और एक दूसरे के साथ रहने के इतने आदी हो गये थे, वे एक ही कमरे में नहीं रह सकते थे।
मुझे और हमारी बुढ़िया लेन्चेन को (तुम जानते हो वह हमारे लिये क्या थी) उन दोनों की देखभाल करनी पड़ी। डाक्टर ने यह कहा कि हमारी देखभाल ने ही मूर की जान बचा ली। खैर, जो कुछ भी हो, मैं तो सिर्फ यह जानती हूँ कि तीन हफ्ते तक मैं और लेन्चेन बिल्कुल नहीं सोये। हम दोनों दिन और रात इधर से उधर फिरते थे और हममें से कोई बिल्कुल थक जाता था तो हम बारी-बारी से एक घंटा आराम कर लेते थे। एक बार मूर ने अपनी बीमारी को परास्त कर दिया। मैं वह दिन कभी नहीं भूलूँगी जब उन्होंने माँ के कमरे में जाने लायक शक्ति का अनुभव किया। साथ-साथ वे दोनों जवान बन गये, वह एक प्रेमिका युवती और वह एक प्रेमी युवक जो साथ साथ जीवन में पदार्पण कर रहे थे। बीमार से क्षीण बूढ़े और मरती हुई बुढ़िया की सी जो जीवन भर के लिये बिदा हो रहे हैं, उनकी अवस्था न रही।
मूर कुछ सुधर गये और यद्यपि उनमें अभी तक ताकत नहीं थी तो भी वह ताकतवर मालूम होने लगे।
फिर माँ की मृत्यु हो गयी, दूसरी दिसम्बर सन 1881 को। उनके अंतिम शब्द मार्क्स के प्रति थे और यह अचरज की बात है कि वे अंग्रेजी में थे। जब हमारे प्रिय जनरल (एंगेल्स) आये तो इस मृत्यु का समाचार सुनकर उन्होंने कहा कि मूर भी मर गया। इस बात को सुनकर उस समय तो मुझे बहुत क्रोध आया था।
किन्तु सचमुच था ऐसा ही।
माँ के प्राणों के साथ मूर के प्राण भी चले गये। उन्होंने काम चलाते रहने की बड़ी कोशिश की क्योंकि वह अंत समय तक योद्धा बने रहे। पर उनका दिल टूट चुका था। उनकी सेहत बिगड़ती ही चली गयी। अगर वह ज्यादा स्वार्थी होते तो होनी को होने देते। परन्तु उनके लिये एक चीज सबसे पहले थी और वह थी साम्यवादी क्रांति के लिये उनकी भक्ति। उन्होंने अपनी महान रचना को पूरा करने की कोशिश की और इसलिये वह अपने स्वास्थ्य के लिये एक और यात्रा करने को राजी हो गये।
सन 1882 के वसन्त काल में वह पैरिस और आरजेनतियूल गये जहाँ मैं उनसे मिली और हमने बच्चों के साथ सचमुच बड़ी खुशी से कुछ दिन बिताये। फिर मूर पश्चिमी फ्रांस गये और उसके बाद एलजिअर्स।
एलजिअर्स, नीस तथा कैन्स में सब जगह में सब जगह जब तक वे रहे तब तक उन्हें मौसम खराब मिला। उन्होंने एलजिअर्स से मुझे लम्बे-लम्बे पत्र लिखे। उनमें से बहुत से मेरे पास से खो गये हैं। क्योंकि मूर के कहने से मैं उन्हें जेनी को भेज देती थी और उसने उनमें से बहुत कम वापिस किये।
जब आखिरकार मूर घर लौटे तो वह बहुत बीमार थे और हमें अब अनिष्ट की आशंका होने लगी। डाक्टर की सलाह से उन्होंने शरद ऋतु और जाड़े के दिन वाइट के टापू पर वेन्टनोर में बिताये। मुझे यह कह देना चाहिये कि उस समय मूर की इच्छा के अनुसार मैंने जेनी के सबसे छोटे लड़के जौनी के साथ इटली में तीन महीने बिताये। सन 1883 के वसन्त काल में मैं मूर के पास वापिस चली गयी और अपने साथ जौनी को ले गयी जो नाति-नातनियों में उनका विशेष लाड़ला था। मुझे वापस जाना पड़ा क्योंकि मुझे पढ़ाना था।
और अब अंतिम धक्का लगा, जेनी की मृत्यु की खबर आयी। जेनी मूर की सबसे बड़ी और लाड़ली बेटी थी। वह अचानक 8 जनवरी को चल बसी। हमारे पास मूर के पत्र आये थे - और वे इस समय भी मेरे सामने रखे हैं - जिनमें उन्होंने लिखा है कि जेनी की सेहत बेहतर है और हमें (हेलेन को और मुझे) फिक्र करने की कोई जरूरत नहीं है। जिस पत्र में मूर ने यह लिखा था उसके मिलने के एक घंटे बाद ही हमें जेनी की मृत्यु का तार मिला। मैं तुरन्त वेन्टनोर गयी।
मेरे जीवन में बहुत सी दुख की घड़ियाँ बीती हैं परंतु इतनी करुण कोई भी नहीं। मुझे ऐसा मालूम पड़ा जैसे मैं अपने बाप को उनकी मौत की सजा की खबर देने जा रही हूँ। लम्बी और फिक्र भरी यात्रा में यह सोचकर अपने दिमाग को यातना देती रही कि मैं उन्हें यह खबर कैसे दूँ। मुझे कहने की जरूरत नहीं हुई। उन्हें तो मेरे चेहरे से सब मालूम हो गया। मूर ने कहा ''हमारी जेनी मर गयी'' और फिर मुझसे पैरिस जाने और बच्चों की देखभाल में मदद करने को कहा। मैं तो उनके साथ रहना चाहती थी पर उन्होंने एक न सुनी। मुझे वेन्टनोर पहुँचे मुश्किल से आधा घंटा हुआ होगा कि मैं फोरन पैरिस को रवाना होने के लिये उदासी से लन्दन जा रही थी। मूर ने जो कहा वह मैंने बच्चों के खयाल से किया।
मैं अपनी यात्रा की बात नहीं करूंगी, उसे याद करके मैं काँप जाती हूँ। वह यातना, वह मानसिक कष्ट - पर उसे जाने दो। यह कहना काफी है कि मैं लौट आयी और मूर वापस घर चले गये - मरने के लिये।
अब अपनी माँ के बारे में एक बात। वह महीने भर मृत्युशैया पर पड़ी रहीं और उन्होंने उन सब दारुण कष्टों को सहा जो कैन्सर के साथ आते हैं। परंतु फिर भी उनका अच्छा स्वभाव, उनका उन्मुक्त हास्य, जिसे तुम खूब जानते हो, एक पलभर के लिये भी नहीं गया। उन दिनों (सन 1881 में) जर्मनी में जो चुनाव हो रहे थे उनके नतीजे के बारे में वह उत्सुकता से पूछती थीं और हमारी जीत पर उन्हें बड़ी खुशी हुई। मरते समय तक वह हँसमुख रहीं और मजाक करके हमारी फिक्र को मिटाने की कोशिश करती रहीं। हाँ, इतने घोर दुख में भी वह मजाक करती थीं, हँसती थीं। वह डाक्टर के और हम सबके ऊपर हँसती थीं, क्योंकि हम इतने गंभीर थे। लगभग अंतिम क्षण तक उन्हें पूरा होश रहा और जब वह और नहीं बोल सकीं - उनके अंतिम शब्द 'कार्ल' के प्रति थे - तो उन्होंने हमारा हाथ दबाया और मुस्कराने की कोशिश की।
जहाँ तक मूर का सवाल है, तुम जानते हो कि मेटलैण्ड पार्क में वह अपने सोने के कमरे से पढ़ने के कमरे में गये, आराम कुर्सी पर बैठे और शांति से सो गये।
''जनरल'' ने इस आराम कुर्सी को अपनी मृत्यु तक रखा और अब वह मेरे पास है।
अगर तुम मूर के बारे में लिखो तो लेन्चेन को मत भूल जाना। मैं जानती हूँ, तुम माँ को नहीं भूलोगे। कुछ हद तक लेन्चेन वह धुरी थी जिसके चारों ओर सारा घर चलता था। वह सच्ची और सबसे अच्छी दोस्त थी। इसीलिये अगर तुम मूर के बारे में लिखो तो लेन्चेन को मत भूल जाना।
जब तुम्हारी इच्छा है तो अब मार्क्स के दक्खिन में रहने के बारे में थोड़ा और कहती हूँ। हमने यानी मैंने और मूर ने सन 1882 के शुरू में आर्जेनतियूल में जेनी के साथ कुछ हफ्ते बिताये। मार्च और अप्रैल में मूर एलजिअर्स में रहे और मई में मौन्टिकार्लो, नीस व कैन्स में। जून के अंतिम दिनों में और जुलाई भर वह फिर जेनी के साथ रहे और उस समय लेन्चेन भी आर्जेनतियूल में थी। आर्जेनतियूल से मूर लारा के साथ, स्विट्जरलैण्ड, बेवी वगैरह गये। सितम्बर के अंत या अक्टूबर के शुरू में इंग्लैण्ड लौटे और फौरेन वेन्टनोर गये जहाँ मैं और जौनी उनसे मिले थे।
एडगर मुश का जन्म सन 1847 में हुआ था - मुझे ठीक नहीं मालूम - सन 1855 में वह मर गया। छोटा फौक्स (फौक्सचेन) हाइनरिख पांचवीं नवम्बर सन 1849 को पैदा हुआ था और दो बरस का ही मर गया था। मेरी छोटी बहिन, फ्रैंसिस्का जो सन 1857 में हुई थी लगभग ग्यारह महीने की उम्र में ही मर गयी थी।
और अब मैं अपनी प्रिय हेलेन के बारे में तुम्हारे सवाल को लेती हूँ। हम लोग उसे 'निमी' कहते थे। क्योंकि न मालूम क्यों बचपन से ही जौनी लौंगुए उसे यही कहकर पुकारता था। आठ या नौ बरस के बच्चे की तरह लेन्चेन वेस्टफेलिया से मेरी नानी के पास आई थी और वह मूर, माँ और एडगर फौन वेस्टफेलन के साथ बड़ी हुई। हेलेन को पुराने वेस्टफेलन से हमेशा बड़ा प्रेम रहा और मूर को भी। बूढ़े बैरन फौन वेस्टफेलन के बारे में, उनके शेक्सपियर और होमर के ज्ञान के बारे में बतलाते हुए मूर कभी नहीं थकते थे। वे शुरू से आखीर तक होमर की पूरी कविताएँ सुना सकते थे। शेक्सपियर के अधिकांश नाटक अंग्रेजी और जर्मन दोनों में उन्हें जबानी याद थे। इसके विपरीत मूर के पिता और मूर अपने पिता का बड़ा सम्मान करते थे - 18वीं सदी के असली फ्रांसवासी थे। जिस तरह वेस्टफेलन को शेक्सपियर और होमर याद था, उसी तरह उन्हें वोल्तेअर और रूसो पूरे जबानी याद थे। और निस्संदेह बहुत हद तक मार्क्स की बहुमुखी प्रतिभा उनके माँ-बाप के प्रभाव का परिणाम थी।
किन्तु अब हेलेन के विषय पर वापिस आना चाहिये। मैं नहीं कह सकती कि हेलेन मेरे माँ-बाप के पास कब आयी - उनके पैरिस जाने के पहले या बाद (जहाँ वे शादी के बाद जल्दी ही गये थे)। मैं सिर्फ यह जानती हूँ कि नानी ने माँ के पास उस लड़की को यह कहकर भेजा था कि प्रिय और वफादार लेन्चेन के रूप में वह सबसे अच्छी वस्तु भेज रही है। और वफादार लेन्चेन बराबर मेरे माँ-बाप के साथ रही और बाद में उसकी छोटी बहिन मैरियान भी आ गयी। मैरियान की तुम्हें शायद ही याद होगी, क्योंकि वह तुम्हारे समय के बाद आयी थी।
मार्क्स के बारे में अनगिनत झूठी बातें फैलायी गयी हैं। यह कहा गया है कि जब और सब निर्वासित भूखे और कष्ट से दिन बिताते थे, तब मार्क्स ऐश और आराम से रहते थे। यहाँ सविस्तार बातें कहना अनुचित होगा। परंतु मैं यह कह सकता हूँ कि उनके रोजनामचों को देखकर जो सजीव चित्र मेरी आँखों के सामने आ जाता है वह किसी एक अकेली घटना का नहीं है जो किसी के साथ भी हो सकती है खासकर विदेश में जहाँ विदेश में जहाँ कोई मदद करनेवाले नहीं होते। मार्क्स और उनके परिवार ने बरसों तक निर्वासित के जीवन के दुखों का अनुभव किया। ऐसे निर्वासित परिवार कम होंगे जिन्होंने मार्क्स और उनके परिवार से ज्यादा दुख उठाया हो। बाद के जमाने में भी जब आमदनी ज्यादा और नियमित थी मार्क्स के परिवार को खाने की फिक्र मिट नहीं गयी थी। जब सबसे बुरा समय बीत चुका था तब भी बरसों तक ''न्यूयार्क ट्रिब्यून'' से लेख के लिये जो एक पौंड हर हफ्ते मिलता था वही आमदनी का एक निश्चित रूप था।
वास्तव में तो उसे मार्क्स की पारिवारिक कब्र कहना चाहिये। यह उत्तरी लन्दन में हाइगेट नाम कब्रिस्तान में है जो एक पहाड़ी के ऊपर है। वहाँ से सारी विशाल नगरी दिखायी देती है।
मार्क्स अपने लिये स्मारक नहीं चाहते थे। 'कम्युनिस्ट घोषणापत्र' और 'कैपीटल' के रचयिता के लिये अपने बनाये हुए स्मारक के अलावा कोई दूसरा स्मारक बनाने की इच्छा करना तो मृत आत्मा का निरादर होता। करोड़ों मनुष्य मार्क्स के आह्वान से संगठित हो गये हैं। उनके हृदय और मस्तिष्क में मार्क्स का ऐसा अमर स्मारक बना हुआ है जिसके आगे धातु की मूर्ति तुच्छ है। यही नहीं उन लाखों करोड़ों हृदयों और मस्तिष्कों में वह जीवित भूमि है जिसमें उनकी शिक्षा और अभिलाषा का बीज अंकुरित होकर फले फुलेगा जो कुछ अंश में हो भी चुका है।
हम सामाजिक-जनवादियों के न कोई महात्मा हैं और न महात्माओं के कब्रिस्तान। परन्तु करोड़ों मनुष्य आदर और कृतज्ञता से उस आदमी की याद करते हैं जो उत्तरी लंदन के कब्रिस्तान में सो रहा है। मजदूर वर्ग को अपनी स्वतंत्रता के प्रयत्न में जिस पशुता और संकीर्णता का आज मुकाबला करना पड़ता है आज से हजार साल बाद वह पुराने जमाने की एक कहानी भर रह जायगी। किन्तु तब भी स्वतंत्र और सज्जन मनुष्य नंगे सिर उनकी कब्र के पास खडे़ होंगे और अपने बच्चे से धीरे से कहेंगे :
''यहाँ कार्ल मार्क्स सो रहे हैं''
यहाँ कार्ल मार्क्स और उनका परिवार दफनाया हुआ है। संगमरमर के पत्थरों से घिरी हुई कब्र के सिर की तरफ तकिये की तरह, एक सादी बेल से घिरा हुआ संगमरमर का पत्थर है और उस पर यह लिखा है-
जेनी फौन वेस्टफेलन
कार्ल मार्क्स की
प्रिय पत्नी
जन्म : 12 फरवरी, सन 1814
मृत्यु : 2 दिसम्बर, सन 1881
और कार्ल मार्क्स
जन्म - 5 मई, सन 1818 : मृत्यु - 14 मार्च, 1883
और हैरी लौंगुए
उनका धेवता
जन्म - 4 जुलाई, सन 1878 : मृत्यु - 20 मार्च, सन 1883
और हेलेन डेमुथ
जन्म - 1 जनवरी, सन 1823 : मृत्यु - 4 नवंबर, सन 1890
पारिवारिक कब्र में परिवार के मृत व्यक्तियों में से सभी नहीं दफनाये गये हैं। वे तीन बच्चे जो लंदन में मरे लंदन के और कब्रिस्तानों में दफनाये गये। उनमें से एक, एडगर (मुश) तो निश्चित ही और शायद, अन्य दोनों भी टोटेनहेम कोर्ट रोड के व्हिटफील्ड कब्रिस्तान में हैं। और उनकी लाड़ली बेटी जेनी पैरिस के पास आर्जेनतियूल में विश्राम कर रही है।
परंतु यदि सब मृत बच्चों और नाती-नातनियों को कब्र में जगह नहीं मिली तब भी उस कब्र में एक प्राणी ऐसा है जो रिश्तेदार न होने पर भी परिवार का ही था : ''वफादार लेन्चेन'', हेलेन डेमुथ।
यह तो पहले ही श्रीमती मार्क्स और उनके बाद मार्क्स ने तय कर दिया था कि उसको पारिवारिक कब्र में दफनाया जाय। जीवित बच्चों और वफादार लेन्चेन के समान वफादार एंगेल्स ने इस काम को पूरा किया। अपने आप भी वह यही करते।
मार्क्स की सबसे छोटी लड़की के अन्यत्र छपे हुए पत्र से देखा जा सकता है कि मार्क्स के बच्चे लेन्चेन को कितना मानते थे, उससे कितना स्नेह करते थे और उसकी स्मृति का कितना आदर करते थे।
जब आखिरी बार लंदन जाने के बाद मैं पैरिस होता हुआ घर लौट रहा था तो ड्रवील में जहाँ लौंगुए और उसकी पत्नी लारा मार्क्स ने अपने लिए बड़ा आकर्षक घर बना रहा था, तो मैं लंदन की पुरानी स्मृतियों की बात कर रहा था। जब मैंने इस स्मारक पुस्तिका को लिखने के इरादे की बात की तो उसने भी मुझसे वही कहा जो कुछ पहले छपे हुए पत्र में और बाद में जबानी रूप से एलिएना ने कहा था-''लेन्चेन को मत भूल जाना''
मैं लेन्चेन को नहीं भूला हूँ और न भूलूँगा। क्या वह चालीस बरस तक वास्तव में मेरी मित्र नहीं थी? लन्दन में निर्वासित होने के जमाने में क्या वह बहुधा मेरे लिए भाग्य के समान नहीं थी? जब मेरी जेब खाली होती थी और मार्क्स के घर में ज्यादा तंगी नहीं होती थी-क्योंकि अगर मार्क्स के घर में तंगी होती तो लेन्चेन से कुछ भी नहीं मिल सकता था-तो न जाने कितनी बार उसने पैसे देकर मेरी मदद की। और जब मेरे पास इतने पैसे न होते कि अपने कपड़ों की मरम्मत कर सकूं तो बहुत बार वह मेरे कपड़ों की बड़ी सुन्दरता से मरम्मत कर देती थी ताकि (जिससे) वह कपड़ा कुछ हफ्ते तक पहनने लायक हो जाता था। आर्थिक कारणों से उस कपड़े के बदलने की तो संभावना ही बहुत कम रहती थी।
जब मैंने पहली बार लेन्चेन को देखा तो वह सत्ताईस बरस की थी और यद्यपि वह कोई बहुत सुंदर नहीं थी तब भी उसका रूपरंग आकर्षक था और वह देखने में अच्छी लगती थी। उसे प्रेमियों की कमी नहीं थी और उसे बार बार अच्छी शादी करने के अवसर मिले। उसने शादी न करने की कसम नहीं खाई थी परंतु उस वफादार आत्मा के लिए मूर और श्रीमती मार्क्स और बच्चों को छोड़कर जाना संभव न था।
वह उनके पास रही और उसके यौवन के बरस बीत गये। वह दुख और दरिद्रता, दुर्भाग्य में साथ रही। उसे पहली बार आराम तब मिला जब मृत्यु ने उस आदमी और औरत को निगल लिया जिनके साथ उसने अपने भाग्य को बांध दिया था। उसे एंगेल्स के घर में आराम मिला और वहीं उसकी मृत्यु हुई। अंतिम समय तक अपने स्वार्थ के विषय में उसने कभी न सोचा। और अब वह पारिवारिक कब्र में विश्राम कर रही है।
हमारे मित्र मौटलर ने जो हाईगेट के समीप ही हैपम्पस्टेड में रहते हैं और (कम्युनिस्ट होने के कारण) 'लाल डाकू बाबू' कहलाते हैं कब्र का निम्नलिखित वर्णन दिया है :
''मार्क्स की कब्र के चारों तरफ सफेद संगमरमर लगा है। जिस छोटे से पत्थर पर काले अक्षरों में नाम और समय लिखा है, वह भी संगमरमर का है। स्पेन की घास, लकड़ी की बेल, जो मैं स्विजरलैण्ड से लाया था और कुछ छोटी सी गुलाब की झाड़ियाँ, यही कब्र की सादी सजावट है जैसी कि आम तौर पर यहाँ कब्रों की होती है। पर ये गुलाब की झाड़ियाँ भी अब जंगली घास से ढँक गयी हैं। मैं हफ्ते में दो बार हाइगेट कब्रिस्तान में से मार्क्स की कब्र के पास होकर निकलता हूँ। यदि घास बहुत बढ़ी होती है तो मैं उसे हटा देता हूँ। बहुत सी घास गर्मियों में सूख जाती है जैसे पिछले दोनों साल। (इस साल जब योरप में इतनी वर्षा हुई तो इंग्लैण्ड में ऐसा अकाल पड़ा जैसा किसी ने पहले नहीं देखा, और बागों में भी घास बिलकुल सूख गई है) लेसनर की मदद से भी कब्र को जलते हुए सूरज के असर से नहीं बचाया जा सका। इसलिए आखिरकार एवलिंग परिवार से समझौते के बाद जो कि इतनी दूरी के कारण सिर्फ कभी-कभी आ सकते हैं, हमें इस काम को कब्रिस्तान के माली को सौंपना पड़ा।''
No comments:
Post a Comment