Friday, 17 January 2014

विजयकिशोर मानव


पाला मारे खेत सुने थे
शोर अकालों के
लेकिन यहाँ काठ मारे से
शहर हो गए हैं

भरे जेठ की दरकी धरती
जैसे हैं चेहरे
अंधी फरियादों के
सुनते हैं बैठे बहरे
चर्चे अबतक बहुत सुने थे
इन्हीं उजालों के
आग लगी जिनसे, सब घर
खंडहर हो गए है

दीवारों के घेरे जीते
बूढ़े शेर हुए
भीतर लोग दहकते
बाहर से पालतू सुए
शायद हमने ढोर चुने थे
भरे पुआलों से
तभी शहर के शहर यहाँ
लाशघर हो गए हैं।

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