Friday, 17 January 2014

रसूल हमजातोव

आलोचक के बारे में लिखना सबसे ज्‍यादा मुश्किल काम है। अगर उसे भला-बुरा कहा जाए, तो यह समझा जाएगा कि हजरत उसकी आलोचनात्‍मक टिप्‍पणियों से तिलमिला उठे हैं और बदला ले रहे हैं। अगर तारीफ करें, तो यह सोचा जाएगा कि भविष्‍य को ध्‍यान में रखते हुए चापलूसी हो रही है। आलोचक के बारे में अपने विचार प्रकट नहीं करूँगा, मगर उसे कुछ सलाहें देना चाहता हूँ। बुरे को हमेशा बुरा और अच्‍छे को अच्‍छा कहो। जिस चीज की तारीफ करते हो, बाद में उसी को बुरा नहीं कहो। अगर बुरा कहते हो, तो बाद में तारीफ नहीं करो। राई को पहाड़ नहीं बनाओ और पहाड़ को राई बनाने की तो और भी कम कोशिश करो। किताब में जो कुछ है, उसकी चर्चा करो, न कि उसकी, जो नहीं है। स्‍पष्‍ट विचारों को स्‍पष्‍ट और समझ में आनेवाली भाषा में व्‍यक्‍त करो। अस्‍पष्‍ट विचारों को व्‍यक्‍त ही नहीं करो। हवा के रुख के साथ बदलनेवाले बादनुमा नहीं बनो। जो कुछ अभी खुद नहीं समझते, उसके बारे में दूसरों को उपदेश देने की कोशिश नहीं करो। अगर तुम्‍हारी जेब में सौ रूबल नहीं हैं, तो ऐसा ढोंग नहीं करो कि मानो वे तुम्‍हारे पास हैं। अगर तुम बहुत अर्से से अपने गाँव नहीं गए और तुम्‍हें यह मालूम नहीं कि वहाँ क्‍या हाल-चाल है, तो यह दावा नहीं करो कि तुम अभी-अभी अपने गाँव से लौटे हो।

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