पॉल लाफार्ज, विलहेम लीबनेख्ट
इन क्रांतियों के बाद का समय बहुत ही कठिन था। पस्तहिम्मती ने लोगों के दिल तोड़ दिये थे। विजयोल्लास के समय साहस और दृढ़ता बनाये रखना कठिन नहीं होता। पर असली क्रांतिकारी की परीक्षा होती है पराजय के समय, पराजय के बाद आने वाली मूर्छना और निराशा के समय। इस समय मार्क्स के सामने सबसे बड़ा प्रश्न था क्रांतिकारियों के मनोबल को बनाये रखना, पार्टी (कम्युनिस्ट संघ) को फिर से संगठित करना, और मजदूर वर्ग और पार्टी को इन क्रान्तियों की असफलता से निकलने वाले निष्कर्षों से शिक्षित करना।
मार्क्स विचलित नहीं हुए। क्रांतियों की शिक्षाओं का विश्लेषण करते हुए उन्होंने कई पुस्तिकाएँ लिखीं जो आज भी हमें रास्ता दिखाती हैं। ''फ्रांस में श्रेणी संघर्ष'' (1848-1850), ''लुइ बोनापार्ट का अठारहवां ब्रूमेयर'' (1852), ''जर्मनी में क्रांति और क्रांति-विरोध'' (1851-1853), ''कोलोन का कम्युनिस्ट'' (1853), आदि उनकी इसी काल की रचनाएँ हैं। 1851 से 1862 तक वह अमरीकन पत्र ''न्यूयार्क ट्रिब्यून'' में अन्तरराष्ट्रीय विषयों पर लेख लिखकर दुनिया में क्रांतिकारी विचारों का प्रचार करते रहे। भारत के ऊपर उनकी प्रसिद्ध लेख-माला इसी पत्र में प्रकाशित हुई थी।
इसी समय उन्होंने अपने ग्रंथ ''पूंजी'' के प्रथम भाग को पूरा किया जो 1867 में प्रकाशित हुआ।
1860 के लगभग फिर मजदूर आंदोलन उठा। मार्क्स इसके लिए तैयार थे। 1864 में उन्होंने तमाम संगठनों को एक करके अंतरराष्ट्रीय मजदूर संघ की स्थापना की। इस संघ को अब प्रथम इंटरनेशनल (अन्तरराष्ट्रीय) कहा जाता है। मार्क्स के नेतृत्व में इस संघ ने मुख्य पूंजीवादी देशों के मजदूरों को फिर एक मोर्चे में संगठित कर दिया। 1848 की विफलता से मार्क्स ने बहुत कड़वी शिक्षा पायी थी। इसलिए पहली इंटरनेशनल का प्रथम सिद्धान्त था : मजदूर वर्ग का उद्धार स्वयं मजदूर ही कर सकते हैं।
1871 में फ्रांस में पैरिस कम्यून हुआ। मजदूरों ने गद्दार पूंजीपतियों को खदेड़कर, जो मजदूरों के डर से अपना देश जर्मनी की गुलामी में दे देना चाहते थे, अपना कम्यून (मजदूर शासन) कायम किया। मार्क्स ने उसकी सहायता के लिए तमाम दुनिया के मजदूरों में जबरदस्त आंदोलन किया। जब पैरिस कम्यून भी दबा दिया गया तब मार्क्स ने एक दूसरी पुस्तक लिखी ''फ्रांस में गृहयुद्ध'' जिसमें उन्होंने कम्यून के संपूर्ण अनुभवों की व्याख्या की और कहा, पेरिस के मजदूरों के कम्यून की याद हमेशा नये समाज के गौरवशाली अग्रदूत के रूप में की जयगी।... उसके दुश्मनों को कोई नहीं बचा सकेगा... इतिहास ने अपना फैसला कर दिया है...
इस प्रकार कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी योरप के तरंगित सागर में अपने हाथ में दीप-शिखा लिये मार्क्स एक चट्टान की तरह अविजित खड़े रहे। दुनिया के संपूर्ण दर्शन, इतिहास और अनुभवों को मथ कर उन्होंने भविष्य के निर्माता मजदूर-वर्ग और श्रमजीवी जनता को मार्क्सवाद के रूप में एक अमोघ अस्त्र दिया। पद-पद पर उन्होंने क्रांतियों और क्रांतिकारियों का नेतृत्व किया। जब क्रांतियों का ज्वार उठा तो उन्होंने अपनी कलम को छोड़कर तलवार ली और रणक्षेत्र में पहुँच गये। ब्रिटेन के प्रसिद्ध नाटककार शॉ के शब्दों में, उन्होंने अपना सर हमेशा खुदा की तरह ऊँचा रखा।
लगभग आधी शताब्दी बाद मार्क्स की भविष्यवाणी रूस में चरितार्थ हुई। सोवियत रूस का जन्म हुआ। आज सोवियत संघ मार्क्स के बतलाये रास्ते पर चल रहा है। और सोवियत संघ ही क्यों-आज तो तमाम दुनिया उसी रास्ते पर चल रही है। हमारे देश के सामने भी दूसरा कोई रास्ता नहीं। अगर हम आज दुनिया को समझना चाहते हैं, अगर आज हम शोषण और गुलामी को खदेड़कर अपनी मातृभूमि को आजाद करना चाहते हैं, अगर हम जीना और उन्नति करना चाहते हैं, तो हमें भी उसी अमर ज्योति का सहारा लेना पड़ेगा जो मार्क्स ने जलायी थी और जो आज देश में वहाँ की कम्युनिस्ट पार्टियों के रूप में प्रज्वलित हैं।
इसीलिए इस पुस्तिका का प्रकाशन आवश्यक समझा गया। इसमें मार्क्स की जीवनी नहीं बल्कि उनसे बहुत निकट रूप से संबंधित दो व्यक्तियों के संस्मरण हैं। इनसे हमें मार्क्स के व्यक्तित्व का परिचय मिलता है। उनकी पूरी जीवनी आगे कभी प्रकाशित की जाएगी।
मार्क्स की मृत्यु 1883 में हुई थी। पर वह मरे कहाँ-उनकी तो बूंद-बूंद से आज मार्क्सवादियों की सेनाएँ तैयार हो गयी हैं जो उनके बतलाये हुए मार्ग पर मानवी स्वतत्रंता और सुख की खोज में आगे बढ़ रही हैं।
17 मार्च सन 1883 को जब कार्ल मार्क्स लंदन के हाईगेट कब्रिस्तान में दफनाये गये तो उनको श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिये केवल थोड़े से मित्रगण जमा थे। मार्क्स का नाम लंदन के मजदूर-वर्ग को अज्ञात था। उनका स्थापित किया हुआ 'विश्व-मजदूर-संघ' ग्यारह साल पहले खत्म हो चुका था और जिन ब्रिटिश ट्रेड यूनियनों ने एक समय उसका साथ दिया था वे भी उसे भूल चुकी थीं। केवल एक अंग्रेजी दल ऐसा था जिस पर किसी हद तक उनकी शिक्षा का असर था और वह भी अभी तक अपने को समाजवादी नहीं कहता था। एक साल और बीतने के बाद ही उसने अपना नाम 'समाजिक-जनवादी संघ' रखा। मार्क्स की सर्वोत्कृष्ट रचना ''कैपिटल'' का पहला भाग खत्म हुआ था और उनकी मृत्यु से सोलह बरस पहले छप चुका था परंतु उसका अंग्रेजी में अभी अनुवाद नहीं हुआ था।
परंतु कब्र के पास फ्रेडरिक एंगेल्स को ये शब्द कहने में लेश मात्र भी संकोच नहीं था कि ''14 मार्च को दोपहर के पौने तीन बजे दुनिया के सबसे बड़े विचारक ने सोचना बंद कर दिया।'' ''उनका नाम सदियों बाद भी जीवित रहेगा, और उसका कार्य भी''।
एंगेल्स ने चालीस बरस की गाढ़ी मित्रता और बौद्धिक घनिष्ठता द्वारा उत्पन्न होने वाले विश्वास के साथ ये शब्द कहे थे, क्योंकि उस समय अन्य आदमियों से कहीं ज्यादा अच्छी तरह से उन्होंने मार्क्स की शिक्षा का पूरा महत्व समझ लिया था। उन्होंने एक साथी वैज्ञानिक और एक साथ लड़ने वाले क्रांतिकारी योद्धा के नाते ही मार्क्स की शिक्षा के महत्व को आँका था। और इतिहास ने यह दिखा दिया है कि उनका कहना सच था।
आज मार्क्स का आदर करने वाले केवल मुट्ठीभर आदमी नहीं हैं। मजदूर वर्ग के गद्दारों और मध्य वर्ग के बुद्धिजीवियों के बिगाड़ने और बुराई करने की हर एक कोशिश के बावजूद प्रत्येक देश में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ती जा रही है जो मार्क्सवाद को वर्तमान और भविष्य का विज्ञान मानते हैं। यह स्वीकृति आसानी से प्राप्त नहीं हुई। प्रत्येक पग पर इसके लिए मजदूर-आन्दोलन के सबसे योग्य और साहसी पुरुष और स्त्रियाँ लड़े हैं किन्तु प्रत्येक देश के इतिहास में ऐसा समय आ चुका है जब मार्क्स की शिक्षा के क्रांतिकारी रूप का दीपक बुझनेवाला ही था।
आज वह दीप उज्ज्वल और अजेय रूप से जल रहा है। सोवियत संघ का विशाल ज्योति पुंज सारी दुनिया का ध्यान आकर्षित करता है और प्रत्येक दिन, हाथ या दिमाग से काम करने वाले इस बात को समझते जा रहे हैं कि सोवियत जनता की वीरता केवल जाति के अथवा ऐतिहासिक संयोग का फल नहीं है, बल्कि मार्क्स की क्रांतिकारी शिक्षा की सच्चाई और शक्ति का परिणाम है। क्योंकि वह रूसी जनता ही नहीं थी जिसने लेनिन और उनकी बनाई हुई बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में मार्क्स के क्रांतिकारी सिद्धान्त को सफलतापूर्वक कार्य रूप में परिणत किया। लगभग 25 बरस से, यानी 7 नवम्बर सन 1917 से 22 जून 1941 तक वे इतिहास के सबसे बड़े रचनात्मक कार्य में लगे रहे हैं। लेनिन के सबसे बड़े शिष्य स्तालिन ने साम्यवाद तक पहुँचने में रूसी मजदूर और किसानों का नेतृत्व किया। यह कम्युनिज्म की पहली मंजिल है और कम्युनिज्म भविष्य का वह विश्वव्यापी समाज है जिसके बारे में मार्क्स ने एक वैज्ञानिक के विश्वास से भविष्यवाणी की थी और जिसके लिए वह एक महान क्रांतिकारी की भाँति अथक उत्साह से कोशिश करते रहे। आज जब कि पूरी दुनिया की साधारण जनता के साथ-साथ सोवियत जनता के सामने भी फासिज्म का खतरा है, तो स्तालिन और समाजवादी राज्य की फौज ही मानवता के भविष्य की इस लड़ाई में स्वतंत्रता की सेना का नेतृत्व कर रही है।
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