पॉल लाफार्ज
मार्क्स ने अपना जीवन उग्र पूंजीवादी दल के नेता के रूप में शुरू किया था परन्तु जब उनके विचार बहुत साफ हो गये तो उन्होंने देखा कि उनके पुराने साथियों ने उनको छोड़ दिया और उनके समाजवादी होते ही उनके साथ दुश्मन जैसा बर्ताव करने लगे। उनके विरुद्ध बड़ा शोर मचाया गया, उनकी बुराई की गयी और उनपर अनेक आक्षेप किये गये, और फिर उन्हें जर्मनी से निकाल दिया गया। इसके बाद उनके और उनकी रचनाओं के विरुद्ध मौन रहने का षडयंत्र रचा गया। उनकी पुस्तक ''लुई नैपोलियन की 18वीं ब्रमेअर'' का पूरा बहिष्कार कर दिया गया। उस पुस्तक ने यह सिद्ध कर दिया कि सन 1848 के सब इतिहासकारों और लेखकों में एक मार्क्स ही थे जिन्होंने दूसरी दिसम्बर सन 1851 की राजनीतिक क्रांति के कारणों और परिणामों की असलियत को समझा और उसका वर्णन किया था। उसकी सच्चाई के बावजूद एक भी पूंजीवादी पत्रिका ने इस रचना का उल्लेख तक नहीं किया। ''दर्शनशास्त्र की दरिद्रता'' (जो प्रूधों की पुस्तक ''दरिद्रता का दर्शनशास्त्र'' का उत्तर थी) और ''अर्थशास्त्र की आलोचना'' का भी बहिष्कार किया गया। विश्व मजदूर संघ की (पहले इंटरनेशनल की) स्थापना और ''कैपीटल'' के पहले भाग के छपने से पंद्रह बरस से चलने वाले इस षड्यंत्र को तोड़ दिया था। मार्क्स की अब अवहेलना नहीं की जा सकती थी। विश्व संघ बढ़ा और अपने कामों की बड़ाई से उसने दुनिया को भर दिया। यद्यपि अपने को पीछे रखकर मार्क्स ने दूसरों को प्रमुख कार्यकर्त्ता होने दिया पर संचालक का पता जल्दी ही लग गया। जर्मनी में सामाजिक जनवादी दल की स्थापना हुई और वह जल्दी ही इतना बलवान हो गया कि उस पर हमला करने के पहले बिस्मार्क ने उसकी खुशामद की। लास्साल के एक चेले श्वीट्जर ने एक लेखमाला लिखी, (जिसे मार्क्स ने भी उल्लेखनीय समझा) जिसने मजदूर वर्ग के नेताओं को 'कैपीटल' का ज्ञान कराया। इंटरनेशनल कांग्रेस ने जोहान फिलिप बेकर का प्रस्ताव पास किया कि इस किताब को अंतरराष्ट्रीय सोशलिस्टों को मजदूर वर्ग का धर्म- ग्रंथ समझना चाहिये।
18 मार्च सन 1871 के विद्रोह के बाद जिसने विश्व संघ के आदेशानुसार चलने की कोशिश की थी और कम्यून की पराजय के बाद, (जिसको विश्व संघ की सार्वजनिक सभा ने सब देशों के पूँजीवादी अखबारों के आक्षेपों से बचाया) मार्क्स का नाम दुनिया भर में विख्यात हो गया। अब सारे संसार में उनको वैज्ञानिक समाजवाद का अज्ञेय सिद्धांतेवत्ता और प्रथम अंतरराष्ट्रीय मजूदर आंदोलन का नेता मान लिया गया। हर देश में ''कैपीटल'' समाजवादियों की मुख्य पुस्तक हो गयी। सब समाजवादी और मजदूर पत्रिकाओं ने उनके सिद्धांतों को फैलाया और न्यूयार्क की एक बड़ी हड़ताल में मजूदरों को दृढ़ रहने की प्रेरणा देने के लिये और उनको अपनी माँगों की न्यायपूर्णता दिखाने के लिये मार्क्स के लेखों के उद्धरण इश्तिहारों के रूप में छापे गये। ''कैपीटल'' का जर्मन से और प्रमुख यूरोपीय भाषाओं (रूसी, फ्रेंच व अंग्रेजी में) अनुवाद किया गया। किताब के उद्धरण जर्मन, इटालियन, फ्रेंच, स्पैनिश और डच भाषा में छपे। जब कभी भी यूरोप या अमरीका में विरोधियों ने मार्क्स के सिद्धांतों का खंडन करने की कोशिश की है, तो समाजवादी अर्थशास्त्री उसका उपयुक्त उत्तर दे सके हैं। आज तो वास्तव में जैसा विश्व संघ के उपरोक्त अधिवेशन ने कहा था, ''कैपीटल'' सर्वहारा वर्ग का धर्म-ग्रंथ हो गया है।
परन्तु अंतरराष्ट्रीय समाजवादी आंदोलन में सक्रिय भाग लेने से मार्क्स को अपने वैज्ञानिक अध्ययन के लिये बहुत कम समय बचता था। और उनकी स्त्री तथा बड़ी लड़की, श्रीमती लौंगुएँ, की मृत्यु ने इस काम में और भी घातक विघ्न डाला।
मार्क्स तथा उनकी स्त्री का संबंध अत्यंत घनिष्ठ और परस्पर निर्भरता का था। उसकी सुंदरता पर मार्क्स को खुशी और अभिमान था और उसकी भक्ति ने उनके लिये उस गरीबी को सहना आसान कर दिया था जो उनके क्रांतिकारी समाजवादी के तरह-तरह के जीवन का आवश्यक अंग थी। जिस बीमारी ने श्रीमती मार्क्स को कब्र तक पहुंचाया उसने उनके पति के जीवन को भी कम कर दिया। उनकी लंबी और दुखदायी बीमारी में मार्क्स थक गये-दुख से मानसिक रूप में, और न सोने से और हवा और कसरत की कमी से शारीरिक रूप में। इन्हीं कारणों से उनके फेफड़ों में आसानी से वह सूजन हो गयी जो कि उनकी भी मृत्यु का कारण हुई।
श्रीमती मार्क्स का दूसरी दिसम्बर सन 1881 को देहांत हुआ। मरते दम तक वह कम्युनिस्ट और भौतिकतावादी रहीं। उन्हें मृत्यु से कोई डर नहीं लगता था। जब उन्हें अंत समय निकट जान पड़ा तो उन्होंने कहा, ''कार्ल, मेरी ताकत खत्म हो गयी''। यही उनके अंतिम शब्द थे जो सुने जा सके। पाँचवी दिसम्बर को हाईगेट के कब्रिस्तान की अधार्मिक भूमि में उनको दफनाया गया। जीवन भर के उनके विचारों और उनके पति की सम्मति के अनुसार जनाजे को सार्वजनिक नहीं बनाया गया और शव के अंतिम निवास-स्थान तक केवल थोड़े से घनिष्ठ मित्र साथ गये। कब्र के पास फ्रेडरिक एंगेल्स ने कहा :
''मित्रो! जिस ऊँचे विचार वाली स्त्री को हम यहाँ दफना रहे हैं वह सन 1814 में साब्जवीडल में पैदा हुई थी। कुछ ही दिन बाद इनके पिता बैरन फौन वेस्टफेलन राज्य के मंत्री नियुक्त हुए और उनकी ट्रेव्स को बदली हो गयी और वहाँ वे मार्क्स के परिवार के गाढ़े दोस्त हो गये। बच्चे साथ-साथ बड़े हुए। दोनों प्रतिभाशाली स्वभावों ने एक दूसरे को पाया। जब मार्क्स विश्वविद्यालय में गये तब इन दोनों ने अपने जीवन को एक सूत्र में बांधने का निश्चय कर लिया था।
''पहले राइनिश जाइटुंग के दमन के बाद, जिसके कुछ समय तक मार्क्स सम्पादक थे, सन 1843 में उनका विवाह हो गया। तब से जेनी मार्क्स ने अपने पति के भाग्य, परिश्रम और संघर्ष में हिस्सा ही नहीं लिया बल्कि अच्छी तरह समझकर और बड़े जोश से उनमें हाथ बँटाया।
"तरुण दम्पति पैरिस गये क्योंकि उनको देश निकाला, जो पहले उनकी अपनी इच्छा के कारण था, अब वास्तव में मिल गया। प्रशा की सरकार ने मार्क्स का वहाँ भी पीछा न छोड़ा। मुझे दु:ख के साथ कहना पड़ता है कि अलैक्जेंडर फौन हमबोल्ड्ट जैसे आदमी ने भी मार्क्स के निर्वासन की आज्ञा जारी करने में सक्रिय भाग लिया। मार्क्स के कुटुम्ब को ब्रूसेल्स भागना पड़ा। इसके बाद फरवरी की क्रान्ति हुई। उसके बाद जो गड़बड़ फैली उससे ब्रूसेल्स भी अछूता न बचा और बेल्जियम की सरकार सिर्फ मार्क्स को कैद करने से संतुष्ट नहीं हुई बल्कि उसने उनकी पत्नी को भी बिना कारण जेल में डालना उचित समझा।
''जो क्रान्तिकारी प्रगति सन 1848 के आरम्भ में शुरू हुई थी वह अगले साल ही खत्म हो गयी। निर्वासन फिर शुरू हुआ-पहले तो पैरिस में और फिर फ्रांस की सरकारी दुबारा कोशिश से लन्दन में। इस बार तो जेनी मार्क्स के लिए यह सचमुच का निर्वासन था और उन्हें निर्वासन के सब दु:ख झेलने पड़े। फिर भी उन्होंने भौतिक कठिनाइयों को शांति से सहा यद्यपि इसके कारण उनको अपने दो लड़कों व एक लड़की की मौत के मुँह में जाते हुए देखना पड़ा। उनको इससे घोर दु:ख इस बात का हुआ कि सरकार और पूँजीवादी विरोधी दल, झूठे उदारपंथियों से लेकर जनवादियों तक, सब उनके पति के विरुद्ध एक बड़े भारी षड्यंत्र में मिल गये थे। उन लोगों ने मार्क्स पर अत्यन्त घृणित और नीच दोष लगाये थे। सब अखबारों ने उनका बहिष्कार कर दिया जिससे कुछ समय तक वह ऐसे दुश्मन के सामने निहत्थे खड़े रहे जिसे वह और उनकी स्त्री केवल घृणित ही मान सकते थे। और यह दशा बहुत समय तक रही।
''परन्तु इस परिस्थिति का भी अंत हुआ। यूरोप के सर्वहारा वर्ग को थोड़ी बहुत स्वतंत्रता मिली और इंटरनेशनल (विश्व संघ) की स्थापना की गयी। मजदूरों का वर्ग-संघर्ष एक देश से दूसरे देश में फैला और कार्ल मार्क्स, अगुओं के भी अगुआ होकर लड़े। मार्क्स पर किये गये आरोपों को श्रीमती मार्क्स ने हवा के सामने भूसे की तरह उड़ते देखा। सामन्तवादियों से लेकर जनवादियों तक, सब विभिन्न प्रतिगामियों ने जिस सिद्धांत का दमन करने के लिये इतनी मेहनत की थी, उनको उन्होंने सारे सभ्य संसार की भाषाओं में खुले आम प्रतिपादित होते देखा। मजूदर-आंदोलन उनके प्राणों का प्राण था, उसे उन्होंने रूस से अमरीका तक पुरानी दुनिया की नींव को हिलाते हुए देखा और प्रबल विरोध के होते हुए भी विजय के अधिकाधिक विश्वास के साथ आगे बढ़ते देखा। राइशटाग के (जर्मन पार्लियामेण्ट के) पिछले चुनाव में जर्मन मजदूरों ने अपनी अपार शक्ति का जो प्रबल प्रमाण दिया उसे देखकर उन्होंने अपार संतोष का अनुभव किया।
''जिस स्त्री की बुद्धि इतनी तीक्ष्ण और आलोचनात्मक थी, जिसे इतनी राजनीतिक समझ थी, जिसमें इतना उत्साह और शक्ति थी, मजदूर आंदोलन के अपने साथी योद्धाओं के लिये जिसके मन में इतना स्नेह था, ऐसी स्त्री ने पिछले चालीस बरसों में क्या-क्या किया, यह जनता को मालूम नहीं है। यह सम-सामयिक अखबारों के पन्नों में अंकित नहीं है। यह सिर्फ उन्हें मालूम है जिन्होंने इस सबका अनुभव किया है। परन्तु इसका मुझे भरोसा है कि कम्यून के दमन के बाद भागे हुए आदमियों की स्त्रियाँ बहुत बार उन्हें याद करेंगी और हम में से बहुत से उनकी चतुर और साहसपूर्ण सलाह की कमी को दुख से याद करेंगे, जो साहसपूर्ण होती थी परन्तु गर्वपूर्ण नहीं, चतुर होती थी परन्तु असम्मानजनक नहीं।
''मुझे उनके निजी गुणों के बारे में कुछ कहने की जरूरत नहीं है। उनके मित्र उन्हें जानते हैं और उन्हें सदा याद रखेंगे। यदि कभी कोई ऐसी स्त्री थी जिसे दूसरों को सुखी बनाने में ही चरम सुख मिलता था तो वह श्रीमती मार्क्स थी।''
अपनी स्त्री की मौत के बाद मार्क्स का जीवन शारीरिक और नैतिक दुख से भारी हो उठा किन्तु वह उसे धैर्य से सहते रहे। पर जब साल भर बाद उनकी बड़ी लड़की श्रीमती लौंगुए भी चल बसीं तो यह दुख बहुत बढ़ गया। उनका दिल टूट गया और वे इस शोक को न भूल सके। चौदह मार्च सन 1883 को 67वें वर्ष में वह अपने काम करने की मेज के सामने बैठे हुए सदा के लिये सो गये।
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