सहजानंद
गीता को अनेक महत्त्वपूर्ण शिक्षाओं और बातों पर अभी प्रकाश डालना बाकी ही है। मगर यह काम करने के पहले उसके एक बहुत ही अपूर्व पहलू पर कुछ विस्तृत विचार कर लेना जरूरी है। गीता की कई अपनी निजी बातों में एक यह भी है। हालाँकि जहाँ तक हमें ज्ञात है, इस पर अब तक लोगों की वैसी दृष्टि नहीं पड़ी है जैसी चाहिए। यही कारण है कि यह चीज लोगों के सामने खूब सफाई के साथ आई न सकी है। उसी के सिलसिले में गीता की दो-एक और भी बातें आ जाती हैं। उनका विचार भी इसी प्रसंग में हो जाएगा। सबसे बड़ी बात यह है कि जिस बात का हम यहाँ विचार करने चले हैं उसका बहुत कुछ ताल्लुक, या यों कहिए कि बहुत कुछ मेलजोल, एक आधुनिक वैज्ञानिक मतवाद से भी हो जाता है - उस मतवाद से जिसकी छाप आज समस्त संसार पर पड़ी है और जिसे हम मार्क्सवाद कहते हैं। यह कहने से हमारा यह अभिप्राय हर्गिज नहीं है कि गीता में मार्क्सवाद का प्रतिपादन या उसका आभास है। यह बात नहीं है। हमारे कहने का तो मतलब सिर्फ इतना ही है कि मार्क्सवाद की दो-एक महत्त्वपूर्ण बातें गीताधर्म से मिल जाती हैं और गीता का मार्क्सवाद के साथ विरोध नहीं हो सकता, जहाँ तक गीताधर्म की व्यावहारिकता से ताल्लुक है। यों तो गीता में ईश्वर, कर्मवाद आदि की छाप लगी हुई है। मगर उसमें भी खूबी यही है कि उसका नास्तिकवाद से विरोध नहीं है और यही है गीता की सबसे बड़ी खूबी, सबसे बड़ी महत्ता। यही कारण है कि हमें गीताधर्म को सार्वभौम धर्म - सारे संसार का धर्म - मानने और कहने में जरा भी हिचक नहीं होती।
हाँ, तो जरा उसी बात को देखें कि वह कौन-सी है। हमने शुरू में ही उसकी तरफ श्रद्धा, मानसिक भावना आदि के नाम से इशारा भी किया है और कहा है कि वही चीज कर्म के बाहरी रूप को सोलहों आना पलट देती है - उसे एक निराले और अपने मन के ही साँचे में ढाल देती है। बात यह है कि सोलहवें अध्याय के आखिरी दो - 23 और 24 - श्लोकों में 'य: शास्त्रविधि मुत्सृज्य' आदि शब्दों के द्वारा ऐसा कहा गया है कि कोई भी काम - क्रिया या अमल - उसके संबंध में बने अनुशासन और पद्धतिविधान - शास्त्र - के ही अनुसार किया जाना चाहिए। इसीलिए जो ऐसा नहीं करता है उसका न तो वह काम पूरा होता है, न उसे चैन मिलता है और न मरने के बाद या पीछे उसका कल्याण ही होता है। बात भी ठीक ही है। हरेक काम की निराली तरकीबें और प्रक्रियाएँ होती हैं, उसे करने के नियम-कायदे होते हैं और बनने-बिगड़ने की हालत में पुरस्कार और दंड - अनुशासन - भी होते हैं। फिर चाहे वह काम लौकिक हो या पारलौकिक, बहुत बड़ा तथा अहम हो या मामूली। इसलिए उसके विधि-विधान को जानना और तदनुसार ही अमल करना जरूरी हो जाता है। जो लोग ऐसा नहीं करते उन्हें परेशानी तो होती ही है, उनका काम भी ठीक-ठीक हो नहीं पाता और पीछे जाने क्या-क्या नतीजे भुगतने पड़ते हैं। इसलिए गीता का यह आदेश - उसकी यह चेतावनी - बहुत ही मौजूँ है।
मगर दरअसल यह बात उतनी आसान और सीधी नहीं है जितनी एकाएक मालूम पड़ती है। गीता के ही अनुसार, 'कर्मों की जानकारी, उनकी माया, गहन है, बहुत ही कठिन है' - "गहना कर्मणो गति:" (4। 17)। फलत: जब हम कर्मों के घोर और दुष्प्रवेश जंगल में घुसते हैं तो यही नहीं कि रास्ता नहीं मिल पाता और भटक जाते हैं, बल्कि काँटों में बिंधा जाते, खूँखार जानवरों के शिकार बन जाते और चोर-बदमाशों के शिकंजे में भी फँस जाते हैं! एक तो कर्म यों ही ठहरे अनंत। फिर उनकी जानकारी ठहरी उनसे भी अनंत। तिस पर भी हरेक के ब्योरे होते ही हैं। उन्हें जानने का अवसर सबको मिलता भी नहीं। ऐसी दशा में हो क्या? क्या लोग कर्मों से विमुख रहें? क्योंकि अधिकांश लोग तो ऐसे ही होंगे। मगर तब तो संसार का काम ही रुक जाएगा। आखिर यह कैसे और क्यों कहा जाए कि किस काम के विधि-विधान को - शास्त्रविधान को - बखूबी जानने की जरूरत है और किसकी नहीं? सभी तो काम ही - कर्म ही - ठहरे और 'गहना कर्मणो गति:' तो सभी पर समान रूप से लागू है। यदि भीतर घुस के देखें तो बात भी ऐसी ही है। अत: 'को बड़ छोट कहत अपराध!' इसीलिए यही मानना होगा कि 'ऊपर चढ़के देखा, घर-घर एकै लेखा!' और अगर इस दिक्कत से बचने और दुनिया का काम चलाने के लिए लोग यों ही कर्मों में लग जाएँ, तो उनकी हालत क्या होगी? उनकी गति तो अभी-अभी कह चुके हैं। यही खयाल करके अर्जुन जैसे सूक्ष्मदर्शी ने सत्रहवें अध्याय के पहले ही श्लोक में चटपट यही बात पूछ ही तो दी। कृष्ण ने आगे के दो और तीन श्लोकों में उसका उत्तर दे के उसी का विवरण समूचे अध्याय में किया है।
इस बात पर जरा हम और गौर करें। किसी भी काम के करने के लिए रास्ते बताने वाले, दोई तरह के हो सकते हैं। एक तो जीवित मनुष्य और दूसरे उसके बारे में लिखी-लिखाई पुस्तकें जिन्हें शास्त्र कहते हैं। अब अगर जिंदा आदमियों को लेते हैं तो इतनी लंबी दुनिया में वे खामख्वाह होंगे बहुत ज्यादा। एक-दो या दस-बीस से तो काम चलने का नहीं। और जब दो आदमियों के भी सभी खयाल और विचार नहीं मिलते, तो फिर हजारों का क्या कहना? ऐसा भी होता है कि एक ही आदमी के विचार समय पाके एक ही बात के संबंध में बदलते रहते हैं और कभी-कभी तो तीन-तीन, चार-चार पलटे खा जाते हें। तब अनेक की बात ही क्या? इसी को कहते हैं 'मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना' या 'अपनी-अपनी डफली, अपनी-अपनी गीत।' महाभारत के वनपर्व के युधिष्ठिर-यज्ञ संवाद में यही बात स्वीकार की गई है कि एक मुनि ऋषि हों तो उनकी बात मान के काम चले। यहाँ तो अनंत हैं - अनेक हैं - 'नैकोऋषिर्यस्यवच: प्रमाणम्' (312+115)। आदमी की यह भी हालत होती है कि उसका दिमाग हमेशा स्वस्थ और एक हालत में रहता ही नहीं। तो कब उससे बात जानी जाए, कब नहीं? फिर दूरवर्ती को क्या मालूम कि कब उसका दिल-दिमाग ठीक है और उसने जब कहा था तब ठीक था या नहीं? और अगर कहीं देर तक उसके दिमाग में गड़बड़ी रही तो क्या हो? दुनिया के काम तो उसकी गड़बड़ी के लिए रुके रहेंगे नहीं।
और अगर इस दिक्कत से बचने के लिए लिखित वचनों तथा आदेशों की शरण लें, तो दूसरी पहेली खड़ी हो जाती है। जिंदा आदमी तो साफ कह-सुन देता है और अगर कोई बात समझ में न आए तो उससे पूछ के सफाई भी कर ले सकते हैं। मगर मरे का क्या हो? आखिर पुस्तकों और शास्त्रों के वचन तो मरों के ही हैं न? वे खुद तो बोल नहीं सकते। अगर किसी वचन का मतलब समझ में न आए या उलटा ही समझ में आए तो क्या करें? किससे पूछें? यदि उसकी टीका-टिप्पणी देखें तो और भी गजब हो। टीकाकार तो आखिर दूसरे ही होंगे न? फिर क्या मालूम कि उनने लेखक का अभिप्राय ठीक समझा या गलत? यदि खुद लेखक ने ही टीका की हो तो बात दूसरी है। मगर ऐसा होता तो शायद ही है। और अगर टीका में भी कहीं शक हो या वही कहीं समझ में न आए तो? आखिर वचन ही तो वह भी ठहरी और जब पहले या मूल के वचनों में ही संदेह की गुंजाइश है तो बाद वाले (तूल या टीका के) वचनों में भी क्यों न होगी? यदि लेखक की ही बातें सुन के ही किसी ने टीका लिखी और मौके-मौके से उनसे पूछ भी लिया था, तो भी इसका क्या सबूत है कि प्रश्नों का उत्तर ठीक ही मिला या उसने उसे ठीक ही समझा? पूछने और उत्तर देने वालों का दिमाग बराबर ही ठीक रहा और उसमें गड़बड़ी न रही, यह भी कौन कहे ?
कहते हैं कि पाणिनीय व्याकरण के सूत्रों पर जो पतंजलि का महाभाष्य है उसकी टीका सबसे पहले कैयट ने लिखी। उनके बारे में कहा जाता है कि बरसों यह हालत रही कि कोई बात वह एक दिन लिखते थे उसी को अगले दिन गलत बता के काट देते और फिर नए सिरे से लिखते थे। तीसरे दिन उसे भी काट के कुछ और ही लिखते! यही हालत बराबर रही! नतीजा यह हुआ कि हाथी के नहाने की-सी इस हालत से उन्हें सख्त अफसोस हुआ। वे खिन्न हो गए। नौबत यहाँ तक पहुँची कि मरणासन्न दीखने लगे। उस पर उनकी माँ ने सारी बातें जानके किसी अपने मित्र को बुलाया और उपाय पूछा। उसने रास्ता सुझाया कि कैयट को रात में दही और उड़द खिलाया जाए, तो इनकी बुद्धि मंद हो जाएगी। फिर तो जो भी एक बार लिखेंगे उसकी भूल शायद ही सूझे और इस प्रकार जिस काम के पूरे न होने की चिंता से वे मर रहे हैं वह पूर्ण हो जाएगा। यही किया गया और धीरे-धीरे वे स्वस्थ होने लगे। उधर टीका लिखने में प्रगति भी काफी हुई। जब कुछ दिनों बाद किसी मित्र ने उनसे खुद उनकी हालत पूछी तो उनने उत्तर दिया कि 'अब क्या पूछना है? अब तो बुद्धि को ही चुरा लेने वाले उड़द खा रहा हूँ' - ''अधुना शेमुषीमोषान्माषानश्नामि नित्यश:''! यही बात औरों की भी क्यों न होगी? फिर तो यदि रोज ही शास्त्र बदले तो ?
शास्त्रों और पुस्तकों की क्या बात कही जाए? एक-दो या दस-बीस हों तब न? यहाँ तो जितने मुनि उतने मत हैं - जितने लेखक उनसे कई गुना किताबें हैं। हिंदुओं के ही घर में एक व्यास के नाम से जानें सैकड़ों पोथियाँ हैं। खूबी तो यह कि वह भी एक दूसरे से नहीं मिलती हैं! उनमें भी परस्पर विरोधी बातें सैकड़ों हैं, हजारों हैं। तब किसे मानें किसे न मानें? और जब एक की ही लिखी बातों की यह हालत है, तो विभिन्न लेखकों का खुदा ही हाफिज! उनके वचनों में परस्पर विरोध होना तो अनिवार्य है! भिन्न-भिन्न दिमागों से निकले विचार एक हों तो कैसे? सभी दिमाग एक हों तो काम चले। मगर यह तो अनहोनी बात ठहरी। फलत: शास्त्रों के द्वारा किसी काम के भले-बुरेपन का निर्णय भी वैसा ही समझिए।
यदि चुनाव के जरिए राय लेके जो बहुमत से तय पाए वही ठीक माना जाए तब तो और भी गड़बड़ी होगी। समूचे संसार का मत तो मिली नहीं सकता। एक देश या प्रांत की भी यही हालत है। उलटा-सीधा समझाने वाले तो होते ही हैं। उसी से गड़बड़ होती है। जोई लोग एक बार एक तरह की राय देते हैं वही औरों के समझाने पर दूसरी बार बदल दे सकते हैं। उन बेचारों का इसमें कसूर भी क्या? उन्हें समझ हो तब न? और अगर यही समझ हो जाए तो फिर शास्त्र की जरूरत ही क्यों हो? समझदारों के लिए तो वह चाहिए नहीं। सबों को समझदार बना देना तो असंभव भी है। समझ की कोई नाप-जोख भी तो नहीं है कि वह कितनी चाहिए, कैसी चाहिए। इसका पता भी कैसे लगेगा? और अगर यही बात हो जाए तो गलत प्रचार की महिमा ही चली जाए। एक ही मुकदमे में ऐसा देखा जाता है कि वह जितने न्यायधीशों के सामने जाता है उसका उतने ही ढंग का मतलब लगता है। इसीलिए महाभारत वाले उक्त वनपर्व के वचन में साफ लिख दिया है कि 'तर्क-दलील का तो ठिकाना ही नहीं, वह तो दिमाग के ही मुताबिक बदलता है। वेदशास्त्र के वचन तो अनेक तरह के हैं - एक ही बात के लिए परस्पर विरोधी वचन मिलते हैं। ऋषिमुनि तो एक ठहरे नहीं कि उनकी बात से काम चल जाए। नतीजा यह है कि धर्म की हकीकत अँधेरी गुफा के भीतर बंद चीज जैसी हो गई है! तो फिर उपाय क्या? बड़े-बूढ़े जिस रास्ते गए हों या पंचों ने जो तय किया हो वैसी ही बात करके काम निकालना चाहिए' - ''तर्कोऽप्रतिष्ठ: श्रुतयो विभिन्ना नैको ऋषिर्यस्य वच: प्रमाणम्। धर्मस्य तत्तवं निहितं गुहायां महाजनो येन गत: स पन्था:।''
मगर गीता का यह उत्तर नहीं है। काम चलाने की या गोल-मोल बातें गीता की शान के खिलाफ हैं। उसे तो साफ और बेलाग बोलना है। इसीलिए वह कहती है कि 'त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा। सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु॥ सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत। श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छृद्ध: स एव स:' (17। 2-3)। इसका आशय है, 'आदमियों की श्रद्धा स्वभावत: तीन ही तरह की होती है, सात्विक, राजस और तामस। इस श्रद्धा की हालत सुनिए। सत्त्वगुण के तारतम्य के हिसाब से ही सबों की श्रद्धा होती है और आदमी को तो श्रद्धामय ही समझना होगा। इसीलिए जिसकी श्रद्धा जैसी हो वह वैसा ही समझा जाए।' इसका निचोड़ यह है कि जिसका हृदय सत्त्व प्रधान है - जिसमें सत्त्वगुण की प्रधानता है - वह सात्त्विक आदमी है। जिसमें सत्त्व दबा हुआ है और रजोगुण की प्रधानता है। वह राजस है। जिसमें सत्त्व के बहुत ही अल्प होने के साथ ही रजोगुण भी दबा है और तमोगुण ही प्रधान है वही तामसी मनुष्य होता है। और जैसा मनुष्य वैसी श्रद्धा या जैसी श्रद्धा वैसा ही मनुष्य, यही सिद्धांत माननीय होने के कारण जैसी ही श्रद्धा के साथ काम किया जाएगा वैसा ही भला या बुरा होगा। सात्त्विक श्रद्धावाला बहुत अच्छा, राजसवाला बुरा और तामसवाला बहुत ही खराब समझा जाना चाहिए।
इसका मतलब समझना होगा। हरेक कर्म के करने वाले का वश परिस्थिति पर तो होता नहीं कि वह विद्वान हो, विद्वानों के बीच में ही रहे, पढ़ने-लिखने की पूरी सामग्री उसे मिले, उसकी बुद्धि खूब ही कुशाग्र हो, वह भूल कभी करी न सके। ऐसा होने पर वह मनुष्य ही क्यों हो? और उसके कर्तव्याकर्तव्य का झमेला ही क्यों उठे? वह तो सब कुछ जानता ही है। एक बात और। वह शास्त्रों के वचनों के अनुसार ही काम करें, यह तो ठीक है। मगर सवाल तो यह है न, कि उन वचनों का अर्थ वह समझे कैसे? किसकी बुद्धि से समझे? कल्पना कीजिये कि मनु ने एक वचन कर्तव्य के बारे में लिखा है जिसका अर्थ समझना जरूरी है। क्योंकि बिना अर्थ जाने अमल होगा कैसे? तो वह अर्थ मनु की ही बुद्धि से समझा जाए या करने वाले की अपनी बुद्धि से? यदि पहली बात हो, तो वह ठीक-ठीक समझा तो जा सकता है सही, इसमें शक नहीं। मगर करने वाले के पास मनु की बुद्धि है कहाँ? वह तो मनु के ही पास थी और उनके साथ ही चली गई।
अब यदि यह कहें कि करनेवाला अपनी ही बुद्धि से मनु के वचन का भाव समझे, क्योंकि मनु की बुद्धि उसमें होने से तो वह भी खुद मनु बन जाएगा और समझने की जरूरत उसे रहेगी ही नहीं; तो दिक्कत यह होती है कि अपनी बुद्धि से मनु का आशय कैसे समझें? जो चीज मनु की बुद्धि में समाई वही वैसे ही उसकी बुद्धि में तभी समा सकती है जब उसे भी मनु जैसी ही बुद्धि हो मगर यह तो असंभव है ऐसा कही चुके हैं। सभी लोग मनु कैसे बन जाएँगे? फलत: जैसा समझेगा गलत या सही वैसा ही ठीक होगा। दूसरा उपाय है नहीं। फिर तो वैसा ही गलत या सही करेगा भी। किया भी आखिर क्या जाए? मगर तब शास्त्र की बात की कीमत क्या रही? एक ही शास्त्र-वचन के हजार अर्थ हो सकते हैं अपनी-अपनी समझ के अनुसार, और यह एक खासा तमाशा हो जाएगा।
एक बात और भी है। यदि मुनि की ही समझ के अनुसार चलना हो तो बुरे-भले का दोष-गुण मनु पर न जाके करने वाले पर क्यों जाए? वह अपनी समझ से तो कुछ करता नहीं। उसकी अपनी समझ को तो कर्म-अकर्म के संबंध में कोई स्थान हई नहीं। उसे मनु का आशय ठीक-ठीक समझना जो है। और अगर यह बात नहीं है तो शास्त्र के आदेश और विधि-विधान का प्रयोजन ही क्या है? यदि मनु के माथे दोष-गुण न लदें इस खयाल से करने वाले को अपनी ही बुद्धि से समझना और करना है तब शास्त्र बेकार है। यह ठीक है कि जिसे अधिकार दिया गया है उसी पर जवाबदेही आती है। मगर यह जवाबदेही तो बिना शास्त्र के भी आई जाएगी। चाहे शास्त्र की बातें अपनी अक्ल से समझ के करे या बिना शास्त्र-वास्त्र के ही अपनी ही समझ से जैसा जँचे वैसा ही करे। दोनों का मतलब एक ही हो जाता है। फलत: शास्त्र खटाई में ही पड़ा रह जाता है। यही समझ के अर्जुन ने शंका की थी कि 'जो लोग शास्त्रीय विधि-विधान का झमेला, किसी भी तरह, छोड़ के श्रद्धापूर्वक यज्ञादि कर्म करते हैं उनकी हालत क्या होगी? वे क्या माने जाएँ - सात्त्विक, राजस या तामस?' - 'ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजंते श्रद्धयान्विता:। तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तम:' (17। 1)।
गीता में इसका जो कुछ उत्तर दिया गया है वह यही है कि शास्त्र की बात तो यों ही है। इसीलिए इसे बच्चों को फुसलाने वाली चीज पुराने लोगों ने मानी है - 'बालानामुपलालना'। असली चीज जो कर्म के स्वरूप को निश्चित करती है वह है करने वाले की श्रद्धा ही। जैसा हमारी समझ में - हमारे दिल-दिमाग में - आया वैसा ही हमने ईमानदारी से किया, यही श्रद्धापूर्वक करने का मतलब है। यह नहीं कि समझते हैं कुछ और धारणा है कुछ। मगर डर, शर्म या लोभ वगैरह के चलते करते हैं कुछ और ही। फिर भी श्रद्धा के नाम से पार हो जाएँ। श्रद्धापूर्वक करने का ऐसा मतलब हर्गिज नहीं है। तब तो अंधेरखाता ही होगा और उसी पर मुहर लग जाएगी। दिल-दिमाग, जबान और हाथ-पाँव आदि के मेल या सामंजस्य की जो बात पहले कही गई है उसी से यहाँ मतलब है। उसमें जरा भी फेरफार नहीं होना चाहिए। जितना ही फेरफार होगा उतनी ही गड़बड़ और कमी समझिए। सत्रहवें अध्याय के अलावा 7वें के 20-23 तथा नवें के 23-33 श्लोकों में भी यही भाव दर्शाया गया है। यदि गौर से विचारा जाए तो उनका दूसरा मतलब होई नहीं सकता। उनके बारे में प्रसंगवश आगे भी प्रकाश डाला जाएगा। चौथे अध्याय के 11, 12 श्लोक भी कुछ ऐसे ही हैं।
इससे यह भी हो जाएगा कि करने वाले पर ही उत्तरदायित्व होगा। क्योंकि समझ के ही साथ उत्तरदायित्व चलता है। इसीलिए रेल से आदमी कट जाने पर जिनके ऊपर उसकी जवाबदेही नहीं होती; हालाँकि काटने का काम वही करता है। किंतु ड्राइवर पर ही होती है। उसे समझ जो है। यही कारण है कि पागल आदमी के कामों की जवाबदेही उस पर नहीं होती। वह समझ के करता जो नहीं है। यदि हमने गलत को ही सही समझ के ईमानदारी से उसे ही किया तो हम अपराधी नहीं हो सकते, यही गीता की मान्यता है। यद्यपि संसार में ऐसा नहीं होता है। मगर होना तो यही चाहिए। जो कुछ विवेचन अब तक किया गया है उससे तो दूसरी बात उचित होई नहीं सकती। यह ठीक है कि एक ही काम इस तरह कई ढंग से - यहाँ तक कि परस्पर विरोधी ढंग से भी - किया जा सकता है और सभी करने वाले निर्दोष और सही हो सकते हैं यदि उनने श्रद्धा से किया है जैसा कि बताया गया है। युक्ति-युक्त रास्ता तो इसके लिए यही हई। और यदि यह नई बात है तो गीता तो नई बातें बताती ही है।
यहाँ तक के विवेचन ने यह बात साफ कर दी कि धर्म या कर्तव्याकर्तव्य सोलहों आना व्यक्तिगत चीज है। न कि वह सार्वजनिक वस्तु है, जैसा कि आमतौर से माना जाता है। जब अपनी-अपनी समझ के ही अनुसार श्रद्धापूर्वक धर्म या कर्म करने का सिद्धांत तय पा गया और उसका मतलब भी साफ हो गया कि दिल, दिमाग, जबान और हाथ-पाँव आदि कर्मेंद्रियों में सामंजस्य होने का ही नाम श्रद्धापूर्वक करना है, तो फिर सार्वजनिकता की गुंजाइश रही कहाँ? जब श्रद्धा, ईमानदारी और सच्चाई से (honestly and sincerely) कर्म करने का अर्थ साफ हो गया और जब पूर्वोक्त चारों के सामंजस्य को सच्चाई तथा ईमानदारी से अलग कोई चीज नहीं मान सकते; या यों कहिए कि सच्चाई और ईमानदारी इस सामंजस्य या मेल से भिन्न कोई चीज नहीं, तो यह कैसे होगा कि दो-चार की भी समझ, श्रद्धा या ईमानदारी एक ही हो। ये सब चीजें?, ये सब गुण तो पूर्णरूप से व्यक्तिगत हैं। जो समझ हममें है वही दूसरे में कैसे होगी? यदि एकाध बात में दोनों का मेल भी दैवात हो जाए तो भी क्या? एकता का तो अर्थ है हर बात में मिल जाना और यही चीज गैरमुमकिन है। जब श्रद्धा और समझ पर बात आ जाए तो क्या यह संभव है कि सभी हिंदू संध्या पूजा करें या चुटिया रखें, या सभी मुस्लिम दाढ़ी रखें और रोजा-नमाज मानें? लोगों को आजाद कर दीजिए और दबाव छोड़ दीजिए, पाप नरक आजाब, दोजख आदि का भय उनके दिमाग से हटा दीजिए और देखिए कि क्या होता है। एक संध्या करेगा तो दूसरा उसके पास भी न जाएगा। तीसरा कुछ और करेगा और चौथे की निराली ही दशा होगी। यही बात रोजा-नमाज़ में भी होगी।
सत्रहवें अध्याय के जिस दूसरे श्लोक को पहले उद्धृत किया है उसमें श्रद्धा को स्वभावसिद्ध 'स्वभावजा' कहा है। वह कृत्रिम चीज नहीं है। डर, भय आदि को तो दबाव डाल के या प्रलोभन से पैदा भी कर सकते हैं। मगर इन उपायों से श्रद्धा कभी उत्पन्न की जा सकती नहीं और वही है धर्म के स्वरूप को ठीक करने वाली असल चीज। वहाँ और उसके पहले समूचे चौदहवें अध्याय में तथा और जगह भी ऐसा प्रतिपादन किया गया है कि सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों के ही अनुसार श्रद्धा आदि दिव्यगुण मनुष्यों में पाए जाते हैं। हममें किसी को शक्ति भी नहीं कि उन गुणों को डरा धमका के या दबाव डाल के बदल सकें। शरीर, इंद्रियादि के निर्माण में जो गुण जहाँ जिस मात्रा में आ गया वह तो रहेगा ही। हम तो अधिक से अधिक यही कर सकते हैं कि समय-समय पर दबे रहने या न मालूम होने पर उसे प्रकट कर दें, जैसे पंखे के जरिए हवा पैदा नहीं की जाती, किंतु केवल प्रकट कर दी जाती है। हवा रहती तो है सर्वत्र। मगर मालूम नहीं पड़ती और पंखा उसे मालूम करा देता है, बिखरी हवा को जमा कर देता है। और स्वभाव तो लोगों के भिन्न होते ही हैं। इसीलिए हरेक के धर्म भी भिन्न ही होंगे। दो के भी धर्मों का कभी मेल हो नहीं सकता।
इतना ही नहीं। अठारहवें अध्याय के 41-44 श्लोकों में दृष्टांत-स्वरूप चारों वर्णों के कर्मों और धर्मों का विस्तृत वर्णन है। लेकिन यह कितनी विचित्र बात है कि चारों के धर्मों को अलग-अलग गिनाने के साथ-साथ 'स्वभावजं' - स्वाभाविक या स्वभावसिद्ध - यह विशेषण चार बार आया है। इसमें एक ही मतलब हो सकता है और वह यह कि गीता को इस बात पर ज्यादा से ज्यादा जोर देना है कि वर्णों और आश्रमों के जितने भी धर्म हैं सबके सब स्वाभाविक हैं, न कि कृत्रिम, बनावटी या डर, भय से पैदा किए गए। मगर इतने से ही संतोष न करके ठेठ 41वें श्लोक में भी, जहाँ चारों का एक स्थान पर ही नाम लिया है, साफ ही कहा है कि 'इन चारों के काम बँटे हुए हैं और यह बात गुणों के अनुसार बने हुए स्वभाव के ही मुताबिक हुई है' - ''कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणै:''। गुणों में सत्त्व, रज और तम की कमी-बेशी तथा सम्मिश्रण के अनुपात के ही हिसाब से लाखों, करोड़ों या अनंत प्रकार के मनुष्यों के स्वभाव बने हैं और इन जुदे-जुदे स्वभावों के ही अनुसार उनके कर्म भी निर्धारित किए गए हैं।
इस वर्णन में एक और भी खूबी है। लोग तो आमतौर से यही समझते हैं कि ब्राह्मणमात्र के लिए एक ही प्रकार के धर्म हैं। यही बात क्षत्रियादि के भी संबंध में समझी जाती है। गीता में भी इन धर्मों को इसी प्रकार गिनाया है। इसलिए शंका हो सकती है कि फिर भी तो यह धर्म सामूहिक ही हो गया। व्यक्तिगत तो रहा नहीं। क्योंकि ब्राह्मण-समूह का एक धर्म हुआ ही और इसी तरह क्षत्रियादि के भी समूह का। यही बात शेख, सैयद, मुगल और पठान की भी हो सकती है और पादरी तथा गृहस्थ क्रिस्तान की भी। उसके बाद ब्राह्मणादि चारों को मिला के हिंदू समूह का भी एक धर्म होई जाता है, शेख, सैयद आदि का मिला के मुसलमान समुदाय का भी और पादरी तथा गृहस्थ का मिला के ईसाई का भी। इस प्रकार घूम-फिर के हम वहीं पहुँच जाते हैं जहाँ से चले थे और 'हैं वहीं पहले जहाँ थे, क्योंकि दुनिया गोल है' की बात आ जाती है।
इसी का उत्तर 'स्वभावप्रभवैर्गुणै:' में दिया गया है। गीता तो कहती है कि धर्म की बात भेंड़ों जैसी अंध परंपरा की नहीं है कि फलाँ ब्राह्मण है, तो फलाँ क्षत्रिय। यह कोई निश्चित और बँधी बँधाई बात नहीं है, कि फलाँ ब्राह्मण हई, या होगा ही और फलाँ क्षत्रिय, जैसा कि आज माना जाता है। आज तो हालत यह है कि कर्म भी नहीं देखे जाते। किंतु एक तरह की दुकानदारी ब्राह्मणादि वर्ण धर्मों के नाम पर चल पड़ी है। मगर इस वर्तमान परंपरा की जड़ में भी यही बात थी कि कर्मों से ही ब्राह्मणादि को जानते या पकड़ते थे - पकड़ने लगे थे। इसका आशय यह है कि कर्मों की एक परंपरा और प्रणाली जारी कर दी गई थी और बचपन से ही वही कर्म (काम) कराए जाते थे। किसी के स्वभाव की परीक्षा न की जाती थी। माता-पिता को जान लिया और पता पा लिया कि उन्हीं से बच्चा पैदा हुआ है। फिर क्या था? माता-पिता के ही वर्ण के अनुसार बच्चे के कर्म-धर्म ठीक कर दिए गए और इस प्रकार समय पाके वही ब्राह्मण, क्षत्रियादि बना जैसा कर्म करता रहा। माँ-बाप भी वर्ण इसी प्रकार उनके माँ-बाप के ही आधार पर कर्म कराके ठीक किया जाता था। यही शैली थी, यही प्रणाली थी। इसमें कर्म पर ही जोर था, दारमदार था। यही कारण है कि विश्वामित्र को ब्राह्मण मानने में दिक्कतें पेश आयीं। क्योंकि माता-पिता की बात उनके बारे में कुछ दूसरी ही थी। मगर इसमें इतनी तो बात थी कि कर्मों पर जोर था। फलत: जिसमें कर्म न हो वह वर्णच्युत और पतित हो जाता था - वह 'धोबी का कुत्ता घर का न घाट का' माना जाता था। मगर आज तो इतना भी नहीं है। आज तो केवल माँ-बाप से जन्म ही काफी है ब्राह्मणादि बनने के लिए!
मगर गीता के अनुसार तो उलटी बात थी, उलटी बात होती है, उलटी बात चाहिए। गीता तो कर्म के पहले माँ-बाप से उत्पत्ति को न देख स्वभाव देखती है। वह तो इस बात की जाँच-पड़ताल करती है कि जिससे किसी भी कर्म की आशा की जाती है उसका स्वभाव कैसा है। आखिर सियार, हाथी और सिंह का स्वभाव तो एक-सा है नहीं। इसीलिए उनके काम भी एक से नहीं हैं। यदि स्वभाव का खयाल न करके 'सब धान बाईस पसेरी' तौला जाए और गीदड़ से सिंह के काम की आशा की जाए तो सिवाय नादानी और निराशा के और होगा ही क्या? इसीलिए गीता सबसे पहले स्वभाव देखती है जो शुरू में ही शरीर रचना में शामिल हुए थे। क्योंकि स्वभाव के नाम पर गड़बड़ हो सकती है और कोशिश से सिखा-पढ़ा के थोड़े समय के लिए कोई भी किसी काम के लिए तैयार किया जा सकता है - कोई भी 'ठोंक-पीट के तत्काल वैद्यराज' बनाया जा सकता है और स्वभाव नाम इस बात को भी दिया जा सकता है। आखिर पहचान हई क्या? इसीलिए गीता मूलभूत गुणों को ही पकड़ती है जो कृत्रिम नहीं हैं। फलत: कल्पित या चंदरोजा चीज कब तक टिक सकेगी? सारांश यह कि बहुत गौर से दीर्घकाल तक पर्यवेक्षण के बाद ही स्वभाव का निश्चय होता है, ऐसी बात गीता को मान्य है। उसके बाद ही उसी के अनुसार कर्म कराया जाना - किया जाना - चाहिए, ऐसी मान्यता गीता की है और अंततोगत्वा वर्णों का अंतिम निश्चय उसी से होता है। महाभारत में लिखा है कि पहले कोई वर्ण न थे - सब एक ही समान थे; पीछे स्वाभाविक कर्मों के अनुसार ही वर्ण बने। ज्यादे से ज्यादा यही कि सभी ब्राह्मण ही थे - पीछे वर्ण विभाग हुआ - 'न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्राह्ममिदं जगत। ब्रह्मणा पूर्व सृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम्' (मोक्षधर्म 188। 10)। फिर वर्णों का विवरण भी दिया है। इससे भी यही बात सिद्ध होती है।
इस तरह हमने देखा कि गीता कर्मों से वर्णों को पकड़ने के बजाए गुणों के अनुसार बने स्वभाव से ही कर्मों को पकड़ना उचित समझती है। हमारा तो ऐसा खयाल है कि गीता के अलावा औरों की भी मान्यता पहले ऐसी ही थी। उसी का पतन होते-होते वर्तमान दशा को यह धर्म पहुँच गया है। लेकिन गीता के बारे में तो शक की जगह हई नहीं कि उसने यही माना है। ऐसी दशा में धर्म को सामूहिक रूप मिली कैसे सकता है? यह तो जरूरी नहीं कि ब्राह्मण का बच्चा ब्राह्मण ही हो, यदि ठीक-ठीक गुण और स्वभाव की पाबंदी की जाए और उसी कसौटी पर कसा जाए। यह भी नहीं कि अगर ब्राह्मण का लड़का ब्राह्मण हो भी गया तो भी बाप और बेटा - दोनों ही - एक ही तराजू पर सोलह आना पाव रत्ती ठीक उतर जाएँ - बराबर हो जाएँ। यह तो तभी संभव है जब दोनों की समझ एवं श्रद्धा और दोनों के स्वभाव एक हो जाएँ। मगर ऐसा होना गैरमुमकिन है यह पहले ही कहा जा चुका है। यह दूसरी बात है कि जैसे एक ही कक्षा में पढ़ने वाले छात्रों में समता न होने पर भी उनका एक वर्गीकरण व्यवहार के लिए होता है वैसा ही यहाँ भी होता रहा हो और आगे भी हो। मगर उसका मतलब यह तो नहीं है कि समानता और एकता हो गई। योग्यता तो सबों की भिन्न-भिन्न रहती ही है, रहेगी ही। एक वर्ण कहने का तो मतलब केवल यही है कि उस तरह के कर्मों के लिए कौन-से लोग यत्न करें और कौन उनके योग्य है यह मालूम हो जाए।
जिस प्रकार किसी की निजी चीज होती है, अपनी समझ तथा योग्यता होती है, अपना शरीर और स्वास्थ्य होता है; न तो उस पर किसी का अधिकार होता है और न उसकी अपनी चीज से एकता और समानता किसी और की वैसी ही चीज से होती है। ठीक उसी प्रकार धर्म की भी बात है। वह भी हरेक आदमी का अपना निजी और व्यक्तिगत पदार्थ है। उसमें किसी का साझा या हिस्सा नहीं है। धर्म सामूहिक - समूह की - चीज न होकर व्यक्तिगत है, हर व्यक्ति का जुदा-जुदा है। अगर दो आदमी एक ही ढंग से खाना खाते हों और एक ही चीज खाते हों, तो भी दोनों के खाने की क्रिया दो होगी, न कि एक। धर्म की भी यही बात है। यह बात गीता ने निर्विवाद सिद्ध कर दी है। कम से कम अपना मंतव्य उसने यही बता दिया है। यदि यही मंतव्य संसार में व्यापक हो जाए, सार्वभौम हो जाए - यदि यह गीताधर्म (गीता का बताया धर्म) संसार मान ले - तो धर्म के झगड़े रहने ही न पाएँ। इनके करते आज जो हमारा देश नरक बन रहा है और गजब की बला में आ फँसा है, वह तो न रहे। आज जो भाई का गला भाई और पड़ोसी का पड़ोसी धर्म की वेदी पर चढ़ाने को आमादा है, वह तो न हो। धर्म की यह नापाकीजगी तो मिट जाए।
इसी के चलते - धर्म को जो लोगों ने सामूहिक चीज समझ उसी के नाम पर भेड़ों की तरह लोगों को मूँड़ना शुरू कर दिया है। उसी के करते - तो राजनीति भी पनाह माँगती है। पंडित, मौलवी और पादरी हजारों लोगों को यों ही मूँड़ के जानें क्या-क्या अंटसंट सिखाते फिरते हैं। वे लोग कमाने वाली जनता को - किसानों और मजदूरों को - अपने पाँवों खड़े होने देना नहीं चाहते इसी धर्म के नाम पर और इसी की ओट में। जब किसानों और मजदूरों में वर्गचेतना पनपती है, शुरू होती है और प्रगति करती है तो इन धर्माचार्यों के घर में जाने क्यों आतंक छा जाता है और ये मातम मनाने लगते हैं! इनके पास कोठियाँ, कल-कारखाने और जमींदारियाँ न भी हों - और ज्यादातर के पास तो ये चीजें होती भी नहीं; उनका काम तो चेलों और मुरीदों की 'पूजा' और चढ़ावे से ही चलता है - तो भी ये जानें क्यों घबरा जाते हैं और नंगे पाँव दौड़ पड़ते हैं किसान-मजदूरों को उलटा-सुलटा समझाने और गुमराह करने के लिए। कर्म, तकदीर, भाग्य और भगवान ही तो धर्म के स्तंभ और पाए माने जाते हैं और उन्हीं के नाम पर किसानों तथा मजदूरों को ये भलेमानस वर्ग-संघर्ष और हक की लड़ाई से खामख्वाह रोकते हैं! सीधे और भोले लोग तो इन्हें पवित्र, धर्ममूर्त्ति, भगवान के दूत और पारसा समझते हैं - कम से कम उनका यही विश्वास होता है। यही कारण है कि ये गरीब ठगे जाते हैं और मालदार-जमींदारों के घर घी के चिराग जलते हैं! धर्म के नाम पर यदि और नहीं हो सका तो किसानों और मजदूरों के संघ ही अलग-अलग बनवा दिए जाते हैं! जब कभी वर्ग-संघर्ष चालू हो तो ये धर्माचार्य कहे जाने वाले पादरी, पुरोहित और मुल्ला अपने को धर्म के ठेकेदार कहके नियमत: धनियों और मालदारों का ही साथ देते हैं और शोषितों एवं पीड़ितों को छोड़ देते हैं; हालाँकि वही इनके चेले होते और उन्हीं से इनकी गुजर होती है।
'Religion cannot be stopped. Conscience cannot be stilled. Religion is a matter of conscience and conscience is free. Worship and religion are free' (Stalin to Dean of Canterbury.)
'धर्म को रोका नहीं जा सकता। अंतरात्मा या हृदय को दबाया नहीं जा सकता। धर्म तो हृदय की चीज है और हृदय है स्वतंत्र। इसीलिए पूजा और धर्म स्वतंत्र हैं।' (स्तालिन का उत्तर)।
यही कारण है - यह एक प्रमुख कारण है - जिसके करते मार्क्सवाद में धर्म का विरोध पाया जाता है। धर्म को मानवसमाज के लिए अफीम (Religion is the opium of the people) बताने की यही असली वजह है। क्योंकि शोषितों तथा पीड़ितों पर धर्माचार्यों का जादू चल जाता है और उनके उत्थान के लिए होने वाला सारा यत्न बेकार-सा हो जाता है। ऐसी परेशानी होती है कि कुछ कहिए मत। हम मानते हैं कि धर्म के संबंध में मार्क्सवाद की निश्चित बातें हैं और पक्के मार्क्सवादी इस मामले में बुनियादी तौर पर अलग जाते और कोई रियायत करने को तैयार नहीं हैं। लेनिन ने धर्म-संबंधी अपने एक लेख में कहा है कि 'मार्क्सवाद तो भौतिकवाद है। इसीलिए वह बेमुरव्वती के साथ धर्म का विरोध करता है' - "Marxism is materialism. As such it is ruthlessly hostile to religion." मगर घबराने का सवाल नहीं है। यदि ठंडे दिल से विचारें तो पता चलेगा कि इसकी तह में और चीज है। सभी सिद्धांत की स्थापना और प्रतिपादन के मूल में कुछ खास बातें और परिस्थितियाँ रहती हैं और अगर हम उन पर खयाल न करें तो गलती कर सकते हैं।
मार्क्सवाद का मूल सिद्धांत द्वन्द्ववाद (dialectics) है और उसका यदि अबाध प्रयोग किया जाए - और दूसरी बात हो भी नहीं सकती - तो श्रेणीविहीन समाज के बन जाने के बाद भी यह द्वन्द्ववाद तो चालू रहेगा ही। उसका परिणाम क्या होगा, कौन कहे? यदि द्वन्द्ववाद से प्रगति होती है तो यह तो मानना ही होगा कि वर्गविहीन समाज सभी प्रगति के साधनों से पूर्णरूपेण संपन्न होने के कारण और भी उन्नति करेगा, सभी तरह की उन्नति - शारीरिक, मानसिक, वैज्ञानिक आदि - जिसके फलस्वरूप कौन-कौन से अज्ञात तत्त्व विदित होंगे यह कौन बताए? मार्क्सवाद तो श्रेणीविहीन समाज तक ही फिलहाल रुक जाता है। दरअसल बात यह है कि ज्ञान की ठेकेदारी ले लेना अच्छा नहीं, बुद्धिमानी नहीं। यदि उस समय ईश्वर या आत्मा का पता लग जाए तो क्या इनकार किया जाएगा, सिर्फ इसीलिए कि मार्क्सवाद उसे नहीं मानता? बुद्धिमानी इसी में है कि भविष्य के झमेले में न पड़ें और उसका रास्ता किसी के भी लिए बंद न करें - चाहे वह ईश्वरवादी बननेवाला हो या अनीश्वरवादी ही रहनेवाला हो। हाँ, आज इसके करते दिक्कत है, आज ईश्वरवाद प्रगति का बाधक है। क्योंकि जिस ज्ञान पर ही उसका टिक सकना या न टिक सकना संभव है और उचित भी है उसी का बाधक वही बन गया है! जिसे ज्ञानस्वरूप कहा जाए वही ज्ञानप्रसार का विरोधी! मगर स्थिति कुछ ऐसी ही बेढब है। इसलिए प्रगति चाहने वालों को सारी शक्ति लगा के उसका बेमुरव्वती से विरोध करना चाहिए - ऐसा करना चाहिए कि किसी भी तरह वह हमारे रास्ते में अड़ंगे डाल न सके। बस! मेरे जानते यही मार्क्स का आशय है, होना चाहिए और लेनिन के उक्त वाक्यों का यही अर्थ मैं समझता हूँ। इसीलिए इसमें साथ भी देता हूँ। आगे यह बात और भी साफ होगी।
लेनिन उसी लेख में आगे लिखता है, 'The fight against religion must not be confined to abstract preaching. The fight must be linked up with the concrete practical class movement directed towards eradicating the social roots of religion.'
'No education books will obliterate religion from the minds of those condemned to hard labour of capitalism, untill they themselves learn to fight in a united, organised, systematic and conscious manner the roots of religion, the domination of capital in all its forms.'
'धर्म के विरुद्ध लड़ी जाने वाली लड़ाई सिर्फ दिमागी बहस-मुबाहसे तक ही परिसीमित न होनी चाहिए। किंतु धर्म की जड़ के रूप में जो सामाजिक बातें हैं उन्हें खत्म करने के लिए जो वर्ग-आंदोलन और संघर्ष चलें - चलाए जाएँ - उनके साथ इसे जोड़ देना चाहिए।'
'धर्म की जो जड़ पूँजीवाद की अनेक सूरतों के रूप में कायम है उसे मिटाने के लिए संयुक्त, संगठित, नियमित और समझदारी के साथ लड़ाई चलाना जब तक वे सीख न जाएँ तब तक पूँजीवाद के नीचे सख्त मिहनत ही जिनके पल्ले पड़ी है उन लोगों के दिमाग से कोई भी पढ़ने-लिखने की किताब इस धर्म को जड़मूल से निकाल नहीं सकती है।'
लेनिन के ये उद्धरण इसलिए महत्त्व रखते हैं कि वह इस बात पर जोर देते हैं कि धर्म के खंडन-मंडन के झमेले में पड़ने के बजाए शोषितों का वर्गसंघर्ष ही खूब संगठित रूप से बराबर चलाना और उनमें वर्गचेतना पैदा करना यही बुनियादी चीज है। वह बात नहीं चाहता, काम चाहता था। उसकी आँखें तो बड़ी तेज थी। वह बहुत ही दूर तक देखता था। उसने समझ लिया कि धर्म और ईश्वर के खंडन-मंडन की वितण्डा में पड़के जनसेवक लोग कहीं के न रहेंगे - भटक जाएँगे। काम तो इससे कुछ होगा नहीं। केवल अक्ल की बदहजमी मिटेगी। हाँ, सीधे-सादे जन-साधारण विरोधी जरूर हो जाएँगे। धर्मध्वजी - धर्म के ठेकेदार - उन्हें जनसेवकों और क्रांतिकारियों के खिलाफ आसानी से भड़का देंगे। क्योंकि तर्क दलीलों की पेचीदगी तो वे समझ पाएँगे नहीं। इधर मुल्ले लोग अपनी चिकनी-चुपड़ी बातें आसानी से समझा के उन्हें विरोधी बना देंगे। यदि नास्तिक और धर्मविरोधी लोग अपनी दलील के साथ-साथ गरीबों की कोई ठोस भलाई कर पाते और धर्मध्वजी लोग नहीं कर सकते, तो बात दूसरी होती। क्योंकि तब तो जनसाधारण आसानी से समझ जाते कि हो न हो यही हमारा मित्र है। धर्म के विरुद्ध बोलता है तो क्या? काम तो हमारा ही करता है न? यदि दो-चार लात मार के भी गाय काफी दूध दे, तो बुरा कौन माने? यही वजह है कि लेनिन उस संघर्ष पर ही जोर देता है जिससे जनता को लाभ होता है और वह खिंच आती है। लड़ाई ही ऐसी चीज है जो उसे अपनी ओर खींच लेती है।
एक बात और है। जब जनता दिमागी बारीकियों को समझ पाती ही नहीं और हमें उसी को समझा के उठाना है, तो ऐसा क्यों न करें कि दोनों पक्षवाले - आस्तिक-नास्तिक - साफ ही कह दें कि इस झगड़े से क्या काम? धर्म-वर्म भी तो लोगों के हितार्थ ही है और यहाँ जीते जी नारकीय यंत्रणा भोग के स्वर्ग जाने के बजाए जो यहीं आराम मिले वही ठीक। आखिर स्वर्ग के लिए कोई मरना तो चाहता है नहीं। इसलिए आइए पहले यहीं लोगों को आराम पहुँचाने के लिए ही कुछ कर लें, लोगों की तरफ से उनके हकों के लिए लड़ लें। हम जानते हैं कि धर्म के ठेकेदार ऐसा नहीं करेंगे। मगर जनसेवक उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर क्यों न करें? इससे लोगों के सामने उनका परदाफाश हो जाएगा, ज्यों ही उनने इसमें आनाकानी या बहानेबाजी शुरू की। हम तो उनसे और दूसरों लोगों से भी कह देंगे कि हमारा विश्वास है कि धर्मवादी लोग शोषकों का ही साथ खामख्वाह देते हैं - उनके दलाल होते हैं और कमानेवालों को धोखा देते हैं। फिर ऐसे लोगों का और उनके इस धर्म के सिद्धांत का विरोध करें न तो और क्या करें? न वे दूसरी बात कर सकते, सिवाय शोषकों के साथ देने के और न हम धर्म और ईश्वर के विरोध के जरिए उनका विरोध करने और उनकी जड़ उखाड़ने से रुक सकते। हाँ, यदि उनकी बात सच्ची है और जनहित की है तो आएँ पहले यहीं जनसेवा कर लें। तब माना जाएगा कि मरने पर भी उनका धर्म लोगों को लाभ पहुँचायेगा।
यह ऐसी बात है कि लोगों के दिल में जम जाएगी। इससे धर्माचार्यों की कलई भी खुल जाएगी और लोग उन्हें छोड़ के हमारे साथ आ जाएँगे। यही होगा। दूसरी बात हो नहीं सकती। इस तरह हम विजयी होंगे। यदि कहा जाए कि धर्मवाले लोग भी वर्ग-संघर्ष करेंगे, तो यह असंभव बात है। वह इक्के-दुक्के कहीं कुछ भले ही कर लें। मगर सर्वत्र डटके ऐसा कभी कर नहीं सकते। नहीं तो फिर उनका धर्म ही डूब जाएगा - उनके धर्म का सारा आधार ही खत्म हो जाएगा। यह काम वही कर सकते हैं जिनमें आत्मविश्वास हो, जो अपने ही यत्नों से सब कुछ कर डालने की हिम्मत और विश्वास रखते हों। मगर धर्मवाले तो दैव, तकदीर, कर्म, पूर्व जन्म की कमाई और भगवान पर ही भरोसा रखते हैं। उनका अंतिम दारमदार उन्हीं पर होता है। भाग्य में जो बदा होगा सोई होगा, भगवान की मर्जी होगी, जब यही मानना है तो जम के प्राणपन से कौन लड़े? और ये मुफ्त की हलवा-पूड़ी उड़ाके तोंद फुलाने वाले लड़ेंगे? लेकिन यदि असंभव भी संभव हो जाए और वही लोग सर्वत्र वर्गसंघर्ष सफलतापूर्वक चलाने लगें तो चिंता क्या? हमारा काम तो हो गया। मार्क्सवाद जो चाहता है वह हो गया! हमारा काम है वर्गविहीन समाज बनाना न कि ईश्वर को मिटाना या उसके पीछे लाठी लिए फिरना! यदि धार्मिकों ने ही ऐसा समाज बनाया तो भी हमारी जीत हो गई! हमें तो ऐसी दशा में यह कहने का भी हक है, हम तो तब ऐसा भी कह सकते हैं कि धर्म में भी जो गलत चीज है वह भी इसी संघर्ष में ऐसे ही मिट जाएगी जैसे श्रेणियाँ मिटेंगी। फिर शुद्ध समाज की तरह कोई शुद्ध धर्म भी अंत में बन जाए तो हर्ज क्या?
लेनिन या मार्क्स और एंगेल्स के मत में एक और भी खूबी है कि उसमें वर्गसंघर्ष की कसौटी पर धर्म को कसते हैं। हमने तो कही दिया है कि भविष्य का रास्ता मत बंद कीजिए। हाँ, इस समय ईश्वर और धर्म का रास्ता रोक दीजिए। भविष्य से हमारा मतलब है श्रेणीविहीन समाज बन जाने के बाद से। हमारे कलेजे के पास ही फोड़ा हो गया है और उसमें नश्तर लगना जरूरी है। नश्तर लगे भी जरूर; ताकि हम बचें। मगर ऐसा नश्तर हर्गिज न लगे कि कलेजा ही कट जाए और हमीं मर जाएँ। सदा के लिए धर्म या ईश्वर को इजाजत ही न देना और उन्हें आँख मूँद के मार देना कलेजे का चीरना हो जाएगा। हम उससे बचें तो क्या बुरा। हम बिच्छू का डंक बेमुरव्वती से निकाल लें जरूर। मगर उसे जान से मारने तक क्यों परेशान हों? हमें तो लोगों को उसके डंक से ही भविष्य में बचाना है न? या कि उसका खून भी पीना है? हाँ, तो फोड़े पर नश्तर जरूर लगाएँ। आज श्रेणीयुक्त समाज में धर्म के लिए स्थान नहीं है, ऐसा जरूर कहें और खुशी से कहें। मगर कहें या न कहें, हर हालत में वर्गसंघर्ष जरूर करें, ताकि ईश्वरवादियों की पोल खुल जाए। जितनी जरूरत है उतना ही कहें और करें। बहकें न। जरूरत से ज्यादा न बढ़ें जिससे कहीं बहक जाएँ। इससे सजग रहें। हमारे जानते यही मार्क्सवाद का इस संबंध का निचोड़ है।
मगर आइए, जरा और भी विस्तार के साथ लेनिन के इस संबंध के वचनों पर विचार कर लें जो उसी लेख में पाए जाते हैं। वह लिखता है -
'The workers in a certian district and in a certain branch of industry are divided, we will assume, into a progressive section of class conscious Social Democrats, who are, of course, atheists, and a rather backward section, which still maintains contact with the rural district and the peasantry, which believes in God, goes to church and is perhaps under the direct influence of a priest, who we will assume, has organised a christian Labour Union. Let us assume further that the economic struggle in this district has led to a strike. The duty of the Marxist is to place the success of this strike in the forefront and to prevent the workers from being split up into atheists and Christians. Atheist propaganda in such circumstances may be superfluous and even harmful, not from vulgar point of view of frightening away the backward workers, or losing a seat at the elections etc. but from the point of view of the real progress of class struggle, which in the condition of present day capitalist society will lead the Christian workers to Social Democracy and atheism a hundred times more effectively than bare atheist propaganda. In the condition described above an atheist preacher would simply play into the hands of the priests who desire nothing more than that the division among the workers as between strikers and blacklegs should be substituted by a division between atheists and Christians the anarchist preaching irreconcilable war against God would, in such conditions, actually be helping the priests and the bourgeoisie, as indeed the anarchists always help the bourgeoisie.
A Marxist must be a materialist, that is, an enemy of religion, but from the materialist and dialectical standpoint, i.e., he must conceive the fight against religion not as an abstracition, not on the basis of pure theoretical atheism, equally applicable to all times and conditions, but concretely, on the basis of the class struggle which is actually going on and which will train and educate the masses better than anything else. A Marxist should take into consideration all the concrete circumstances, should always be able to see the dividing line between anarchism and opportunism (the dividing line is relative flexible, changeable, but it exits), should take care not to fall into the abstract, verbal, empty 'revolutionism' of the anarchist, or into the vulgar opportunism of the petty bourgeois or liberal intellectual, who shirks from the fight against religion, who evades this task, who reconciles himself with the belife in God, who is guided not by the interests of class struggle, but by the petty pitiful fear of offending, repelling or scaring off others by the wise precept, 'Live and let live' etc.
All other questions that rise in connection with the attitude of Social Democrats towards religion should be decided from the point of view outlined above. For example, it is frequently asked whether a clergyman may join the Social Democratic Party and usully this question is answered in the affirmative, without any reservation, and reference is made to the practice of Social Democratic parties in Europe. This practice is a result not only of the application of Marxist doctrines to the labour movement, but also of the special historical conditions in the west which do not exist in Russia. Consequently, an affirmative reply would not be correct. We cannot say once and for all that a clergyman cannot, in any circumstances, become a member of the Social Democratic Party, But on the other hand, we cannot make so positive a reply to the contrary. If a clergyman wishes to join us in political work, conscientiously carries out party work, and does not infringe the party programme, then he may be accepted into the ranks of Social Democracy, for the contradiction between the spirit and principles of our programme and the religious convictions of the clergyman may, in the circumstances, remain a matter that concerns him alone. A political organisation cannot undertake to examine all its members to see whether there is any contradiction between their views and the programme of the party. But of course such a case is very rare even in Europe, and in Russia is scarcely probable. If on the other hand, the clergyman joined the Social Demorcatic party and concerned himself mainly with preaching his religious ideas, then, of course, he would have to be expelled. We must not only admit, we must do everything possible to attract workers who retain their belief in God in to the Social Democratic Party. We are resolutey opposed to offending. But we attract them to our party in order to allow them to fight against it. We permit freedom of opinion inside the party, but within certain limits defined by the freedom of forming groups. We are not obliged to go hand in hand with those who advocate views rejected by the mojority of the Party.'
इसका आशय यह है, 'कल्पना करें कि एक इलाके के किसी कारखाने के मजदूरों के दो दल हो गए हैं। एक दल है प्रगतिशील एवं वर्गचेतनायुक्त सोशल डेमोक्रेटिक पार्टीवालों का, जो बेशक नास्तिक हैं। दूसरा दल है पिछड़े हुओं का, जिनका संबंध देहाती इलाकों और किसानों के साथ अभी कायम है, जो ईश्वर में विश्वास रखते हैं और गिरिजाघरों में जाते हैं और जिन पर वहाँ के पादरी का खूब असर है। हम यह भी मान लें कि उस पादरी ने वहाँ एक 'क्रिस्तान-मजदूर-संघ' भी संगठित कर रखा है। हम यह भी कबूल कर लें कि उस इलाके के मजदूरों की आर्थिक लड़ाई के परिणामस्वरूप वहाँ हड़ताल हो गई है। उस दशा में वहाँ मार्क्सवादी का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह उस हड़ताल की सफलता को ही मुख्य बात माने और इस बात की कोशिश करे कि उस संघर्ष से संबंध रखने वाले मजदूरों में क्रिस्तान और नास्तिक - इस तरह के - दो दल बनने न पाएँ - हड़ताल के समय इस तरह की दलबंदी होने न पाए। ऐसी परिस्थिति में तो नास्तिकता का प्रचार केवल व्यर्थ ही न होगा; किंतु हानिकारक भी होगा - हानिकारक इस मोटी दृष्टि से नहीं कि पिछड़े विचार के मजदूर वहाँ भड़क जाएँगे, या चुनाव के समय नास्तिक प्रचारकों को उनका वोट न मिलने से मजदूर-संघ के चुनाव में वे हार जाएँगे। किंतु वास्तविक वर्गसंघर्ष की प्रगति की दृष्टि से भी वह हानिकारक होगा और वर्गसंघर्ष की वह प्रगति ही, वर्तमान पूँजीवादी समाज की हालत में, नास्तिकता के केवल प्रचार की अपेक्षा सौ गुना प्रभावशाली रीति से क्रिस्तान मजदूरों को सोशलडेमोक्रेटिक पार्टी तथा नास्तिकवाद में प्रवेश कराएगी। बल्कि वैसी दशा में तो नास्तिकता का प्रचारक उन पादरियों का ही मददगार बन जाएगा जो सबसे अधिक यही बात चाहते हैं कि हड़ताल के समय भी मजदूरों में हड़तालकारी और उसके तोड़नेवाले ऐसे दो दल न होकर नास्तिक और आस्तिक (क्रिस्तान) यही दो दल कायम रहें। उस हड़ताल में ईश्वर के विरुद्ध बेमुरव्वती से युद्ध चलानेवाले अराजक लोग तो पादरियों और पूँजीवादियों की ही मदद करेंगे, जैसा कि वे लोग सचमुच सदा ही ऐसी सहायता करते ही हैं।
'लेकिन मार्क्सवादी को तो भौतिकवादी होना होगा - अर्थात वह ईश्वर का शत्रु तो होगा। मगर होगा भौतिकवाद तथा द्वन्द्ववाद की ही दृष्टि से। इसका आशय यह है कि उसे धर्मविरोधी लड़ाई को केवल एक दिमागी चीज नहीं बनाना होगा और न उसे केवल नास्तिकता की सैद्धांतिक दृष्टि से चलाना ही होगा - ऐसी सैद्धांतिक दृष्टि से जो हमेशा हरेक परिस्थिति में समान-रूप से लागू होती है। किंतु स्थूल सांसारिक (बाहरी हिताहित की) दृष्टि से ही चलाना होगा, जिसका आधार होगा वह वर्गसंघर्ष जो सचमुच चालू है और जो जनसमूह को और उपायों की अपेक्षा कहीं अच्छी तरह शिक्षित तथा कुशल बनाएगा। मार्क्सवादी को चाहिए कि वह वास्तविक परिस्थिति का खयाल करे, वह इस योग्य हो कि बखूबी समझ सके कि कहाँ तक जाने पर अराजकवाद और अवसरवाद से मेल हो जाएगा (एक ऐसी सीमा जरूर होती है जो अराजकता तथा अवसरवाद को पृथक करती है। यह ठीक है कि वह सीमा आपेक्षिक है, उसका संकोच विस्तार होता रहता है, और वह बदलती रहती है), मार्क्सवादी को हमेशा सतर्क रहना चाहिए, ताकि वह अराजकतावादियों के ख्याली, जबानी और खोखले क्रांतिवाद में कहीं फँस न जाए, या कहीं ऐसा न हो जाए कि वह टटुपुँजिये बाबुओं या उदारतावादी दिमागदारों के भद्दे अवसरवाद का शिकार ही हो जाए। ये टटुपुँजिये बाबू या उदार दिमागदार ऐसे होते हैं कि धर्म-विरोधी संघर्षों से भागते और पिंड छुड़ाते फिरते हैं और आस्तिकता के साथ उनका समझौता हो जाता है। उन्हें इस बात में पथदर्शक वर्गसंघर्ष का स्वार्थ तो होता नहीं। किंतु वे तो हमेशा इसी तुच्छ एवं दयाजनक डर से काँपते रहते हैं कि कहीं और लोग रंज न हो जाएँ, हट न जाएँ या भड़क न उठें। वे तो इसी में बुद्धिमानी समझते हैं कि खुद भी कायम रहें और दूसरे भी बने रहें।
'इस संबंध में जो भी दूसरे प्रश्न उठते हैं कि सोशलडेमोक्रेटिक पार्टी के लोग धर्म के बारे में कौन-सा रुख अख्तियार करें उन सबों का निर्णय इसी ऊपर बताए सिद्धांत के ही आधार पर दिया जाना चाहिए। दृष्टांतस्वरूप प्राय: ऐसा पूछा जाता है कि पादरी लोग सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के सदस्य बन सकते हैं या नहीं? इसका उत्तर भी बिना आगा-पीछे किए ही आमतौर से 'हाँ' दिया जाता है और कहा जाता है कि यूरोप की ये पार्टियाँ ऐसा ही तो करती हैं। असल में यूरोप में जो यह रीति चल पड़ी वह सिर्फ इसीलिए नहीं कि मजदूर आंदोलन में मार्क्स के मंतव्यों का प्रयोग किया गया था। बल्कि इसका कारण पश्चिम की कुछ खास ऐतिहासिक परिस्थितियाँ थीं, जो रूस में नहीं हैं। फलत: 'हाँ' वाला उत्तर यहाँ ठीक नहीं है। हम एक ही साँस में सबों के लिए यह नहीं कह सकते कि किसी भी हालत में कोई भी पादरी इस पार्टी का मेम्बर हो नहीं सकता। लेकिन दूसरी ओर हम विरोध में भी एक निश्चित उत्तर नहीं दे सकते। यदि कोई पादरी राजनीतिक कामों में हमारा साथ देना चाहता है, हमारी पार्टी का काम समझ-बूझ के करता है और पार्टी के कार्यक्रम का उल्लंघन नहीं करता, तो उसे हम अपनी पार्टी में ले सकते हैं। क्योंकि उस दशा में हमारे कार्यक्रम के सिद्धांतों और भावों के साथ अगर उस पादरी के धार्मिक विचारों का कोई विरोध हो तो वह केवल उस पादरी के ही विचरने की बात है। किसी राजनीतिक संस्था का यह काम हर्गिज नहीं है कि वह अपने प्रत्येक मेम्बरों में यह बात ढूँढ़ती फिरे कि आया उसके कार्यक्रम के साथ उनके दूसरे विचारों का विरोध तो नहीं है। लेकिन बेशक ऐसे पादरी तो यूरोप में भी बहुत ही कम मिलते हैं और रूस में तो वे शायद ही मुश्किल से मिल सकें।
'विपरीत इसके यदि कोई पादरी सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी में दाखिल होके अपना प्रधान काम अपने धार्मिक विचारों के प्रचार को ही बना ले, तो बेशक उसे पार्टी से निकाल देना ही होगा। हमें सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी में मजदूरों को सिर्फ दाखिल करना ही नहीं होगा। किंतु जो मजदूर ईश्वर में विश्वास करते हैं उन्हें भी अपनी ओर खिंच आने के लिए सभी संभव उपाय करने होंगे। हम किसी को भी भड़काने या रंज करने के पक्के विरोधी हैं। लेकिन हम तो उन्हें अपनी पार्टी में इसीलिए खींचते हैं कि उन्हें मौका दें कि वे हमसे (पार्टी से) लड़ लें। हम तो पार्टी के भीतर विचार-स्वातंत्र्य का मौका देते ही हैं। मगर इस स्वतंत्रता की कुछ सीमाएँ हैं जिनका निर्धारण पार्टी के भीतर छोटे-मोटे दल बनने से नियमों से ही हो जाता है। पार्टी के बहुमत ने जिन विचारों को नहीं माना हो उन्हीं का जो प्रचार करें उनसे हमारा साथ नहीं हो सकता।'
हमने जानबूझकर यह लंबा अवतरण दिया है जिससे धर्म के इस पेचीदे मामले पर काफी प्रकाश पड़ जाए। इसमें कई ऐसी बातें हैं जो बहुत बड़ा महत्त्व रखती हैं। इसलिए उन पर विशेष खयाल होना जरूरी है। लेनिन ने यह साफ कह दिया है कि हम खयाली और सैद्धांतिक रूप से ही नास्तिकता या अनीश्वरवाद के समर्थक नहीं हैं। बल्कि हम तो इस निरी दिमागी दुनिया के विरोधी हैं। इसमें तो उसे अवसरवाद और अराजकवाद साफ ही मालूम होता है। इसलिए भी उसने इसका विरोध किया है।
इसी के साथ वह यह भी साफ कहता है कि हमारा (मार्क्सवाद का) अनीश्वरवाद तो ऐसा नहीं है जो हर समय, हर परिस्थिति में लागू किया जा सके। यह कोई कोरी सिद्धांत की चीज नहीं है। यह तो सिर्फ व्यावहारिक बात है। इसीलिए इसका प्रयोग व्यावहारिक परिस्थिति को देखने के बाद ही खूब जानबूझ के करना होगा। कहीं ऐसा न हो कि हमने परिस्थिति तो इसके अनुकूल देखी और इसे लागू भी किया। मगर ऐसा हो गया कि हमने आगे का मौका समझा नहीं कि अब इसे बंद कर देना होगा; क्योंकि इसकी सीमा पूरी हो रही है। नतीजा यह हुआ कि अवसरवाद में हम जा फँसे! इसीलिए हमेशा सतर्क रहने पर उसने जोर दिया है।
वह यह भी कहता है कि हमें तो वर्ग संघर्ष देखना है - हमारे लिए तो नास्तिकवाद असल चीज है नहीं। वह यदि कुछ भी हो सकता है तो ज्यादा से ज्यादा यही कि वर्गसंघर्ष को निर्विघ्न चालू करने में मददगार हो जाए। मगर हमारा साध्य या असली लक्ष्य तो है वह वर्गसंघर्ष ही। इसलिए हमें बराबर यह खयाल रखना होगा कि कहीं हमारे नास्तिकवाद से उलटे उसी में हानि न पहुँच जाए। कहीं ऐसा न हो कि साधन ही साध्य की छाती पर कोदों दलने लग जाए - कहीं देवी से बकरा ही बड़ा न हो जाए और ऐसा न हो कि देवी की छाती पर वही चढ़ बैठे। यह सबसे मार्के की बात उसने कही है।
वह तो वर्गसंघर्ष का दृष्टांत देके कहता है कि हड़ताल वगैरह के समय नास्तिकता का प्रचार उसके लिए घातक होता है। हड़ताल के समय तो मजदूरों में एकता चाहिए - दलबंदी नहीं चाहिए। यदि कोई भी दलबंदी उस समय हो सकती है, तो ऐसी ही जिस पर मजदूरों और उनके नेताओं का कोई वश न हो और वह हो सकती है हड़तालियों और हड़ताल विरोधियों की ही, जिन्हें, 'काली-टाँगें' कहते हैं और जिनका काम होता है हड़तालियों की जगह पर जाके काम करें और इस तरह हड़ताल को तोड़ें! शेष मजदूर तो एक ही दल में होंगे। अगर पहले धर्म-वर्म के नाम पर दल बने भी हों तो वह फौरन खत्म कर दिए जाएँ। लेनिन तो यह भी कहता है कि पादरी-पुरोहित तो दरअसल मजदूरों के नेता होते नहीं। इसलिए यह बात तो वही चाहते हैं कि हड़ताल या वर्गयुद्ध के समय भी आस्तिक और नास्तिक दलों का बखेड़ा जरूर ही रहे। वे तो पूँजीपतियों के दलाल होते हैं। इसी से यह बात चाहते हैं। इसीलिए लेनिन का कहना है कि नास्तिकता का प्रचार संघर्ष के समय जो कोई करता है वह पूँजीवादियों का सहायक और दलाल होता है, चाहे वह यह बात भले ही न समझे।
और जब असली मौके पर - संघर्ष और लड़ाई के ही समय - ही हम आस्तिक-नास्तिक का झमेला खड़ा कर नहीं सकते, जब उस वक्त ऐसा करने की हमें इजाजत हई नहीं, तो फिर मार्क्सवाद पर नास्तिकता के इलजाम का अर्थ ही क्या है? जब हम मौज में बैठे हैं तब तो बहुत-सी बातें करते रहते ही हैं। उन्हीं में यह नास्तिकतावाली बात भी हो सकती है। कितने ही प्रकार के वाद-विवाद और मतभेद होते हैं। बातें जानने, समझने और स्थिति के स्पष्टीकरण के लिए यह चीजें जरूरी होती हैं। मगर उन्हें उद्देश्य या मान्य समझ लेना भूल है। नास्तिकवाद आदि की बातें तो वर्गसंघर्ष की तैयारी के रूप में ही की जाती हैं। क्योंकि पादरी-पुरोहित लोग धर्म, भाग्य और भगवान के नाम पर जमींदारों और कारखानेदारों के साथ किसानों और मजदूरों को लड़ने से रोकते हैं। फलत: उन्हें मनाना, किसान मजदूरों को समझाना और पादरी-पुरोहितों का मुँह बंद कर देना जरूरी हो जाता है। यह भी ठीक है कि जब तक जड़मूल से भाग्य और भगवान को ही उड़ाया न जाए तब तक वे मानते ही नहीं। वे होते हैं बड़े ही बेहया और उनका असर शोषित जनता पर खूब होता है। इसीलिए नास्तिकवाद अनिवार्य होता है। यह भी बात होती है कि धर्म और ईश्वर के मामले में जरा भी नर्मी और मुरव्वत से काम लिया जाए तो एक तो पादरी-पुरोहित चट कह बैठते हैं कि देखा न, आखिर वे लोग भी, दबी जबान से ही सही, भाग्य और भगवान को मानते ही हैं? फलत: सारा किया-कराया चौपट हो जाता है। दूसरी बात यह हो जाती है कि किसान और मजदूर दिलोजान से लड़ने को तैयार नहीं हो पाते। क्योंकि उसी नर्मी के करते उनमें भी कमजोरी आती है और अंततोगत्वा इतना तो सोचते ही हैं कि जैसा होगा देखा जाएगा।
और जब वह यह भी कहता है कि अनीश्वरवाद हर देश और हर काल के लिए नहीं है और उसका प्रचार विशेष सामाजिक परिस्थिति में ही होता है, तो फिर इसे सदा के लिए मान्य करके मार्क्सवाद पर निरीश्वरवाद का कलंक लगाना कहाँ तक जायज है? वह यह भी तो कहता ही है कि वर्गसंघर्ष के आधार पर ही निरीश्वरवाद का प्रचार करना होगा। उसके मत से वर्तमान समय में संघर्ष चालू हो वह जनता को कहीं अच्छी तरह शिक्षित और वर्गचेतनायुक्त कर देगा। फिर तो रास्ता साफ हो जाता है। मार्क्सवाद का असली काम निरीश्वरता प्रचार नहीं है। उसका तो काम है शोषितों एवं पीड़ितों को - कमाने वालों को - शिक्षित तथा वर्गचेतनायुक्त करना, जो दूसरे अन्य सभी उपायों की अपेक्षा वर्गसंघर्ष से ही बहुत अच्छी तरह पूरा होता है। फिर निरीश्वरता के कोरे प्रचार को छोड़ हम इसी संघर्ष में ही क्यों न लगें? इससे तो स्पष्ट हो जाता है कि वह नास्तिकवाद को साधन के रूप में ही स्वीकार करता है।
इस लंबे उद्धरण के पहले जो हमने लेनिन के दो छोटे-छोटे उद्धरण दिए हैं उनमें जो सबसे मार्के की बात है वह यह है कि दोनों में यही कहा गया है कि धर्म की बुनियाद तो पूँजीवाद और उसकी अनेक शकलें हैं। वह तो पूँजीवाद के आधार पर बनी सामाजिक व्यवस्था को ही वर्तमान धर्म और ईश्वरवाद की जड़ मानता है। फलत: मुख्य काम वह यही बताता है कि उस जड़ को ही खोदना होगा। पत्ता और शाखा तोड़ने से पेड़ तो रही जाएगा। इसीलिए इस सामाजिक व्यवस्था को ही मिटाने पर हमें जोर देना चाहिए। इससे साफ और क्या कहा जा सकता है?
और जब पादरी-पुरोहितों तक को भी अपनी पार्टी में लेने की राय वह देता है, बशर्ते कि उनका प्रधान काम धर्म प्रचार न होके पार्टी के कार्यक्रम को पूरा करना ही हो, तो फिर निरीश्वरता के इलजाम के कुछ मानी रही नहीं जाते। जो पादरी पार्टी में आके पार्टी के काम की अपेक्षा धर्म प्रचार को ही प्रधान काम समझे और प्रधानतया (स्मरण रहे 'प्रधानतया' लिखा है) वही करे उसी को पार्टी से निकालने की बात कही गई है। इससे तो और भी सफाई हो जाती है। वह तो कहता है कि हमें ऐसे सभी उपाय करने होंगे जिससे धर्म में विश्वास करने वाले किसान-मजदूर जरूर हमारी पार्टी में आएँ और हमारी इस चीज का - नास्तिकता का - विरोध करें - इसके खिलाफ लड़ें। हमें उन्हें इसका मौका देने के लिए ही पार्टी में खींचना होगा। और यह तो जरूरी नहीं कि आस्तिक मजदूर थोड़े और नास्तिक ही ज्यादा हों। बात तो उलटी ही होती है। फिर भी वह कहता है कि पार्टी के सदस्यों को भी अपने स्वतंत्र विचार रखने की आजादी किसी हद तक रहनी ही चाहिए। फलत: यदि पार्टी में बहुमत आस्तिकों का ही हो जाए तो? लेनिन को इसकी परवाह नहीं है। वह तो खूब जानता है कि असल चीज यह न होके वर्ग संघर्ष ही असल चीज हमारी पार्टी के लिए है, जिसमें आस्तिक-नास्तिक सभी साथ देंगे ही। नतीजा यह होगा कि संघर्ष चालू होने पर ज्यों-ज्यों उसमें सफलता मिलेगी त्यों-त्यों धर्म के ठेकेदारों का परदाफाश होता जाएगा। फलस्वरूप अंत में सभी या अधिकांश मजदूरों की आस्था धर्म से खुद-ब-खुद उठ जाएगी। वे उसे खुद पूँजीवाद की उपज और करामात समझ उससे घृणा कर बैठेंगे और बहुमत से निर्णय कर देंगे कि धर्म-वर्म की बात ठीक नहीं। फिर तो सभी को यही मानना ही होगा।
हम लेनिन के दो उद्धरण और देके यह विवाद खत्म करेंगे। वह अपने लेख के प्राय: शुरू में ही कहता है कि 'Religion is the opium of the people, said Marx, and this thought is the corner-stone of the whole Marxian philo-sophy on the question of religion. Marxism regards all modern religions and churches, all religious organisations as organs of bourgeois reaction, serving to drug the minds of the working class and to perpetuate their exploitation.'
इसका आशय है कि 'मार्क्स ने कहा था कि धर्म तो लोगों के लिए अफीम है और उसका यही कहना, यही विचार धार्मिक प्रश्नों के बारे में मार्क्स के समूचे सिद्धांत की असली बुनियाद है। मार्क्स के सिद्धांत के अनुसार आजकल के (modern - यह याद रखने की चीज है) धर्म, गिरजे वगैरह और सभी धार्मिक संस्थाएँ पूँजीवादी प्रतिगामियों के हथकंडे हैं, जिनका इस्तेमाल वे लोग श्रमजीवियों के दिमागों में जहर भरने और इस तरह उनका शोषण बराबर जारी रखने के लिए करते हैं।'
यहाँ तो इस बात को खोल के कह दिया है कि वर्तमान धर्म, मठमंदिर और धर्म की संस्थाएँ जाल हैं, धोखे की चीजें हैं। इन्हें मालदारों ने कमाने वालों को ठगने के ही लिए बनाया है। इन्हीं के द्वारा भोलीभाली जनता के दिमाग में जहर भरा जाता है। जैसे बच्चों को अफीम खिलाके सुला देते हैं वही बात पूँजीवादी धर्म के जरिए आम लोगों के बारे में करते हैं। उनके दिमाग खराब कर देते हैं। मार्क्स के धार्मिक सिद्धांतों की यही बुनियाद है। मार्क्स ने जो धर्म का विरोध किया है उसका असली कारण यही है। हमने तो शुरू में ही यही बात कही थी। यहाँ जो 'वर्तमान' धर्म कहा है, उससे भी यह झलकता है कि एक तो मार्क्स को इन बातों का विरोधी बनाने में यही चीजें कारण हुईं, इन्हीं की हरकतों ने मार्क्स को इनका - धर्म का - बागी बना दिया। दूसरे पीछे या पहले (भूत या भविष्य में) ऐसे धर्मों या धर्म की संभावना भी इससे सिद्ध हो जाती है, जिनका विरोध मार्क्स को इष्ट नहीं है। हमने गीताधर्म के निरूपण में धर्म का जो रूप गीता को मान्य बताया है वह तो वर्तमान धर्म से जुदा ही है। इसलिए उसके साथ भी मार्क्स का विरोध नहीं है, ऐसा सिद्ध हो जाता है।
जरा और भी सुनिए कि लेनिन क्या कहता है। वह अभी-अभी लिखे गए वाक्यों के बाद ही लिखता है कि, At the same time, however, Engels frequently condemned those who, desiring to be more 'left' or more 'revolutionary' than Social Democracy, attempted to introduce into the programme of the workers, party a direct profession of atheism in the sense of declaring war on religion. In 1874, speaking of the celebrated manifesto issued by the Blanquist refugees from the Commune, who were living in exile in London, Engels described their clamorous declaration of war upon religion as stupid, and stated that it would be the best means of reviving religion and retarding its death, Engels accused the Blanquists of failing to understand that only the class struggle of the workers, by drawing the masses in to class-conscious revolutionary practical work, can really liblrate the oppressed masses from the yoke of religion...and with equal ruthlessness condemned his pseudo-revolutionary idea of suppressing religion in socialist society.'
इसका अभिप्राय है कि 'इसी के साथ एंगेल्स ने उन लोगों की भर्त्सना की, जिसने सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी की अपेक्षा ज्यादा वामपक्षी या क्रांतिकारी बनने के गुमान में श्रमजीवियों की पार्टी के कार्यक्रम में नास्तिकता को साफ-साफ स्वीकार करने की बात रखने की कोशिश की। इसमें उनका साफ मतलब था धर्म के खिलाफ जेहाद बोलना - युद्धघोषणा करना। पेरिसवाले कम्यून (साम्यवादी सरकार) से भाग के जो ब्लांकी (अराजकतावादी नेता) के अनुयायी लंदन में रहते थे उनने जो महत्त्वपूर्ण घोषणापत्र प्रकाशित किया था उसके संबंध में 1874 में बोलते हुए एंगेल्स ने उनकी धर्मविरोधी युद्धघोषणा की लंबी बातों को मूर्खतापूर्ण बताया और कहा कि धर्म की मौत को रोक के उसे फिर से फैलाने का सबसे सुंदर साधन यह युद्ध घोषणा ही हो जाएगी। एंगेल्स ने ब्लांकी के अनुयायियों पर यह भी आरोप लगाया कि वह यह समझते ही नहीं कि सिर्फ श्रमजीवियों का वर्गसंघर्ष ही, जनसमूह को वर्गचेतनायुक्त क्रांतिकारी अमली काम में खींच के, पीड़ित जनता को सचमुच धर्म के जुए से मुक्त कर सकता है।...और उसी प्रकार पूरी बेरहमी के साथ उसने, समाजवादी समाज में धर्म को मिटा देने के संबंध में ड्यूहरिंग के नकली क्रांतिकारी विचारों की भी लानत-मलामत की।'
इस पर अब टीका-टिप्पणी बेकार है। एंगेल्स भी धर्म की बुनियाद पूँजीवाद को ही उसके मान के पंजे से छूटने को ही धर्म के जुए से मुक्ति मानता है। वह तो साफ ही कहता है कि श्रेणीविहीन समाज में जो लोग धर्म का नामोनिशान मिटाने के स्वप्न देखा करते हैं वह नकली क्रांतिकारी और रंगे सियार हैं! हमने तो यह पहले ही कहा है कि भविष्य का दरवाजा ही ईश्वर या धर्म के लिए बंद करने की कोशिश अति हो जाएगी। एंगेल्स ने तो अपनी 'ड्यूहरिंग के विरुद्ध' नामक पुस्तक में ही, जिसका जिक्र लेनिन ने ऊपर किया है, यह भी लिखा है कि धर्म के विरोध में वाद-विवाद और लड़ाई छेड़ देना लोगों के ध्यान को मार्क्स के असली राजनीतिक लक्ष्य से हटाके गलत रास्ते में ले जाना हो जाएगा और यह गलत बात होगी। उसके मत से मार्क्सवाद तो दरअसल राजनीतिक है, न कि धार्मिक। मार्क्स वर्गविहीन समाज की स्थापना का भूखा है, न कि खामख्वाह धर्मविहीन समाज का।
बस, उद्धरणों की बात हो चुकी। इन पर विवाद भी हमने काफी कर दिया। अब एक ही बात और कहके हम आगे बढ़ेंगे। लेनिन ने कहा है कि मार्क्सवाद तो भौतिकवाद है और मार्क्सवादी द्वन्द्ववाद का सिद्धांत मानते हैं। इसलिए उन्हें धर्म या ईश्वर का विचार या खंडन-मंडन भी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार ही करना होगा। यही बात जरा समझने को रह जाती है। इसीलिए हमें इस संबंध में दो-चार शब्द कहने पड़ जाते हैं। क्योंकि यदि हम इस बात को, इस कुंजी को, बखूबी समझ जाएँ तो धर्म और ईश्वर के बारे में मार्क्सवाद का क्या रुख है और उस दृष्टि से हमें खुद क्या करना चाहिए, यह बात अच्छी तरह साफ हो जाएगी। बड़े-बड़े क्रांतिकारी कहे जाने वाले भी इस संबंध में भयंकर भूलें करते आए हैं, यह तो एंगेल्स ने ही खुद कह दिया है। इसलिए थोड़े से स्पष्टीकरण की जरूरत अभी है। अभी तक, हमारे जानते, इसका पूरा स्पष्टीकरण नहीं हो पाया है।
यदि भगवान ऐसा हो कि मरने के बाद की किसी दुनिया का प्रबंध करता हो जिसे स्वर्ग, नरक, बैकुंठ या बिहिश्त कहते हैं; अगर हमारी इस भौतिक दुनिया के कारबार से उसका कोई ताल्लुक न हो, तो मार्क्स को और मार्क्सवादियों को भी उससे नाहक कलह क्यों हो? जिस दुनिया का जीते-जी हमसे कोई वास्ता नहीं, जो निराली दुनिया है, मगर भौतिक नहीं है, आध्यात्मिक है, उसकी फिक्र हम क्यों करें, अगर वह बिलकुल ही अलग और जुदी है? अगर वह दुनिया और उसका प्रबंधक हमारे इस भौतिक संसार के कारबार में 'दालभात में मूसरचंद' नहीं बनता और दखल नहीं देता, तो हम भी उसमें क्यों दखल देने जाएँगे? अगर काजी जी शहर की फिक्र से नाहक दुबले हो रहे थे, तो हम भी काजी क्यों बनें? हम यहाँ कुछ यत्न करते और इस प्रकार इस भौतिक संसार एवं समाज को पूर्णत: बदलना चाहते हैं। हमारे इस काम में धर्म और भगवान यदि कोई मदद न करें तो भी हमें उनसे कोई शिकायत नहीं, गिला नहीं। मार्क्सवादी किसी अदृश्य तथा अलौकिक (Supernatural) शक्ति की मदद चाहते ही नहीं। उन्हें इस काम में ऐसी शक्ति की परवाह और जरूरत नहीं है। बल्कि वे तो ऐसा मानते हैं कि ज्यों ही मदद के भी नाम पर किसी शक्ति ने हमारे काम में दखल दिया कि सारा गुड़ गोबर हुआ। वे तो ऐसी शक्ति का किसी भी तरह इस काम में पड़ना ही खतरनाक मानते हैं। क्योंकि तब तो हमारा अपना यत्न ही ढीला हो जाएगा, शिथिल हो जाएगा और इसी में सारा खतरा है।
(हम इस समाज को अमूल परिवर्तित करने एवं बदलने के लिए किए जाने वाले अपने यत्न में किसी भी वजह से, किसी भी मुरव्वत से जरा भी शिथिलता बरदाश्त नहीं कर सकते। भाग्य और भगवान हमारे विरुद्ध लाठी थोड़े ही चलाते हैं। दरअसल होता है यही कि उनके नाम पर हमारे हाथ-पाँव रुक जाते हैं, हमारे यत्न ढीले पड़ जाते हैं और सफल हो नहीं सकते, हममें आत्मविश्वास नहीं रह जाता, हम उसी को खो देते हैं और अंततोगत्वा चौपट हो जाते हैं। हम लोगों का कुछ ऐसा संस्कार बन गया है कि यदि किसी भी तरह भाग्य और भगवान का नाम हमारे सामने आया कि हम जाल में फँसे और चौपट हुए। हम इस तरह अपने उद्धार की कोशिश में शिथिल होके तबाह होते रहते हैं।) मार्क्स ने हमारे इस असाध्य रोग को खूब ही समझा था। इसीलिए उसने बेदर्दी से इसकी दवा की और भाग्य तथा भगवान का खयाल भी इस भौतिक संसार के कामों में आने न दिया। उसने कह दिया कि भगवन, आप कृपा करें, अलग ही रहें, हम यों ही अच्छे हैं, हमें आपकी कोई जरूरत नहीं, 'बिलार दाई बख्श दें, मुर्ग बेचारा बिना पूँछ का ही रहेगा।' कोई आदमी, जो कमाने वाली जनता के कष्टों से द्रवीभूत हृदय रखता है और जिसे हमारे स्वभावों, संस्कारों तथा धर्म के नाम पर बनी रेशम की चमकीली फाँसी का कड़वा अनुभव है, मार्क्स की इस बेमुरव्वती और रूखेपन का पूरा समर्थन करेगा। धर्म, भगवान और उनके गण बैकुंठ और स्वर्ग का प्रबंध करें न, और मुक्ति का हिसाब रखें न? उन्हें कौन रोकता है? मगर इधर पाँव हर्गिज न बढ़ायें! खबरदार!
मार्क्स तो भौतिकवादी इसी मानी में है कि इस संसार के छोटे-बड़े सभी कामों में वह किसी भी भगवान या दैवी-शक्ति का हाथ नहीं देखता। उसने तो इसके सभी कामों के बाकायदा चलाने की ताकत इसी दुनिया में, यहीं के पदार्थों में देख ली है। हम चाहे सो भी जाएँ। मगर वह ताकत, जिसे वह निरी भौतिक ताकत समझता है, बराबर जगी रहती और अपना काम करती जाती है। उसे तो जरा भी विराम नहीं है, जरा साँस लेने की फुरसत नहीं है। इसी ताकत का नाम उसने द्वन्द्ववाद रखा है। इसे ताकत कहिए, या भौतिक प्रक्रिया (Material Process) कहिए। यही सब कुछ करती है। मार्क्स इस दुनिया के निर्माण-संबंधी दार्शनिक विचारों में इससे आगे नहीं जाता, नहीं जा सकता है। उसके मत में इससे आगे जाने की जरूरत हई नहीं। हमारा काम तो इतने से ही बखूबी चल जाता है, चल जाएगा। बल्कि वह तो यहाँ तक कहता है कि आगे जाने में खतरा है और सारा गुड़ गोबर हो जाएगा - हमारे काम ही चौपट हो जाएँगे। यही है संक्षेप में मार्क्स का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद या भौतिक द्वन्द्ववाद (Dialectical Materialism)।
इस सिद्धांत के अनुसार संसार के पदार्थों में बराबर संघर्ष (द्वन्द्व) चलता रहता है, जिसे हलचल, संग्राम, युद्ध या जीवन संग्राम (Struggle for Existence) भी कहते हैं। इससे कमजोर पक्ष हारता और जबर्दस्त जीतता है; दुर्बल खत्म हो जाते, मिट जाते और प्रबल जम जाते हैं। इसे ही डार्विन का विकासवाद भी कहते हैं। इस दुनिया में जो लोग साधन संपन्न, कुशल और चौकन्ने हैं वही रह पाते और आगे बढ़ते हैं। विपरीत इसके जो ढीले, आगा-पीछा करने वाले, असहाय, भोंदू हैं वे मिट जाते हैं। इस निरंतर चलने वाले (सतत) संग्राम के फलस्वरूप ही संसार की प्रगति होती है। यह तो बात मानी हुई है। चाहे ढीले-ढाले और आगा-पीछा वाले खत्म भले ही हो जाएँ और उनके विरोधी भले ही आगे बढ़ जाएँ। मगर इसी के साथ समूचा संसार आगे बढ़ जाता है और इसी में पीछे पड़ जाने वालों या शोषितों के उद्धार की आशा है, गुंजाइश है। यदि केवल विरोधी ही आगे बढ़ते और उन्हीं के साथ बाकी दुनिया नहीं बढ़ती, तो यह बात नहीं होती। परंतु उन्हीं के साथ शोषित जनता भी बढ़ती जाती है। किसानों और मजदूरों को तरह-तरह की चालाकी, जाल तथा उपायों से दबा के पूँजीवादी आगे बढ़े हैं सही। मगर उनकी ही प्रगति के साथ कलकारखाने, उत्पादन के साधन और ज्ञान-विज्ञान भी खूब ही प्रगति कर गए हैं। इन सबों की प्रगति के करते ही पूँजीवादियों की दिक्कतें भी बढ़ गई हैं, उनकी चिंता और परेशानी भी बढ़ गई है। फलत: वे डरने लगे हैं कि कहीं शोषित जनता हमें एकाएक दबा न ले। रूस में तो ऐसा हो भी चुका है। दूसरी जगह भी यह होके ही रहेगा। इसीलिए पूँजीवादियों की घबराहट बढ़ती ही जा रही है। यदि उनके वश की बात होती तो वे उत्पादन वगैरह के साधनों की ऐसी भयंकर प्रगति होने नहीं देते। मगर क्या करें? बेबस हैं। रेशम का कीड़ा अपने ही बनाए कोये में बंद होके मरने पर है!
मार्क्सवाद शोषितों और पीड़ितों को बताता है कि आँखें खोलो और इस द्वन्द्ववाद में विश्वास करो। इस अटल सत्य को मानो कि तुम्हारा उद्धार इस भौतिक और सांसारिक संघर्षों के चलते ही अवश्यंभावी है। इसमें कोई भी बाहरी हाथ नहीं है। यदि बाहरी हाथ होता तो तुमसे लाख गुना काइयाँ और चलते-पुर्जे, जमींदार-मालदार उस बाहरी हाथ को अपने काबू में करके संसार की ऐसी प्रगति होने ही नहीं देते, जिससे आज उन पर आफत आ बनी है। फिर तुम किस खेत की मूली हो कि उस बाहरी हाथ को अपने पक्ष में करोगे? यदि कोई भगवान ऐसा करने वाला होता तो मालदार सोने और संगमरमर के मंदिर में उसे पधराके और मेवा-मिश्री खिला के - भोग लगा के - जरूर अपने कब्जे में कर लेता। तुम्हारे सत्तू की क्या बिसात? इसलिए ये खाम खयाल छोड़ के भौतिक द्वन्द्ववाद पर ही विश्वास करो।
मार्क्स यहीं पर यह भी कहता है कि देखो, पूँजीवादी और जमींदार - तुम्हारे शोषक - बड़े काइयाँ हैं। उनने तुम्हारे लिए अनेक जाल फैलाए हैं। भगवान और धर्म का कोई भी ताल्लुक इस भौतिक कारबार से नहीं होने पर भी उनने इन्हें खड़ा करी तो दिया। यह देखो, इन्हीं के नाम पर तुम्हें ठगते आ रहे हैं, ठगने चले हैं! और ये पंडित, मौलवी, पादरी, पुरोहित, साधु-फकीर? क्या ये भी ठगते हैं? हाँ, हाँ, जरूर ठगते हैं। ये सबके सब मालदार-जमींदारों के दलाल हैं। इसीलिए तो खाते तुम्हारा और गुण गाते हैं उनका। बड़ी चालाकी से जाल बिछा है। सजग रहो। दूर की कौड़ी लाई गई है। ये गुरु, पीर, पंडित वगैरह तुम्हें धोखा दे रहे हैं और अंत तक धोखा देंगे। इनकी बातों में हर्गिज न पड़ो। तुम जो अपने उद्धार के लिए कटिबद्ध हो रहे हो और द्वन्द्ववाद के चलते जो तुम्हारे उद्धार का सामान प्रस्तुत हो गया है उसी से घबरा के मालदारों ने ये जाल खड़े किए हैं; ताकि भाग्य और भगवान के फेर में पड़ के तुम अपने यत्न में शिथिल हो जाओ, उससे मुँह मोड़ लो और मालदार-जमींदारों के घर घी के चिराग जलें। फिर तो इन गुरु-पुरोहितों और पादरी-मौलवियों को वे लोग भरपूर विदाई देंगे!
मार्क्स और भी कहता है कि द्वन्द्ववाद और कुछ नहीं, केवल वर्गसंघर्ष है। एक वर्ग दूसरे को कल, बल, छल से दबा के, मिटा के खुद आगे बढ़ना चाहता है। मठ, मंदिर, तीर्थ, हज्ज, पोथी, पुराण इसी वर्गसंघर्ष की सफलता के साधन हैं। मालदार-जमींदार तुम्हारे वेतन में एक पैसा नहीं बढ़ाते, तुम्हारी दवा का प्रबंध नहीं करते और न लगान में ही कमी करते हैं। मगर मंदिरों और तीर्थों में लाखों रुपये फूँकते हैं! क्यों? वही पैसे तुम्हें क्यों नहीं देते? कल-कारखाने तुम्हीं चलाते हो न? खेतीबारी करके उनके लिए गेहूँ-मलाई तुम्हीं उपजाते हो न? या कि ये मठ, मंदिर और तीर्थ वगैरह? फिर तुम्हें पैसे न देके उन्हें वे लोग क्यों देते हैं? सोचो। तुम्हें देने से तुम्हारी हिम्मत बढ़ेगी और आगे फिर भी माँगें पेश करोगे और ये माँगें जब वे पूरा न करेंगे तो उन्हें मिटाने चलोगे। मगर मंदिरों और तीर्थों के पैसे तो उन्हें सूद-दर-सूद सहित वापस मिलेंगे। क्योंकि पंडे, पुजारी, साधु-फकीर वगैरह तुम्हें भाग्य और भगवान के नाम पर भड़कायेंगे, गुमराह करेंगे और संघर्ष से विमुख करेंगे! समझा न? यही चाल है। इसमें हर्गिज न पड़ो और लड़ो। यदि तुम्हारा विश्वास हो कि ये साधु-फकीर वगैरह तुम्हारे ही साथी हैं, तो चलो खुल के वर्गसंघर्ष करो और उन्हें भी मदद के लिए बुलाओ। उनसे कह दो कि आइए, मदद कीजिए। अभी तो हमारे पास कुछ है नहीं, तो भी आप लोगों को भरसक अच्छा ही खिलाते-पिलाते हैं। मगर इस संघर्ष में जीत होने पर तो खूब माल चखाएँगे और सुनहले वस्त्र पहनायेंगे, संगमरमर के महल बनवा देंगे। मठ-मंदिर भी वैसे ही सजा देंगे। मगर देखोगे कि वे हर्गिज तुम्हारा साथ न देंगे; हालाँकि उन्हें इसी में लाभ है। साथ दें भी कैसे? वे तो मालदारों के दलाल ठहरे न? वे मजबूर हैं, बँधे हैं। अपना फायदा सोचें या मालिकों का?
इस प्रकार भौतिक बातों में अध्यात्मवाद और ईश्वर का अड़ंगा खड़ा करके साधु-फकीर और मंदिर-तीर्थवाले संत-महंत मालदारों का पक्ष करते और उनके विरुद्ध शोषितों के द्वारा चलाई जानवाली हक की लड़ाई या वर्गसंघर्ष में बाधक होते हैं, यही बात मार्क्सवाद के जरिए शोषितों के दिल-दिमाग में बैठा दी जाती है। वे इसे बखूबी समझ के वर्गसंघर्ष से धर्म या ईश्वर के नाम पर नहीं मुड़ते। किंतु उसे अविराम चलाते जाते हैं। इसी वजह से पहले कहा गया है कि हड़ताल के समय नास्तिक-आस्तिक वाली दलबंदी मजदूरों में हर्गिज रहने न दी जाए, होने न दी जाए। पुरोहित या पादरी तो जरूर चाहेगा कि यह दलबंदी जारी रहे। मगर मार्क्सवादी हर्गिज इसे बरदाश्त नहीं करेगा। उसका तो असली लक्ष्य यह लड़ाई ही है। इसी के लिए यह आस्तिक-नास्तिक का झगड़ा भी पहले करता था; ताकि रास्ता साफ हो। मगर जब यह युद्ध चल पड़ा, तो उस झगड़े का क्या काम? उससे तो अब इसमें उलटे बाधा हो सकती है। इसीलिए उसे तिलांजलि दे देता है।
हमने इस लंबे विवेचन से साफ देख लिया कि भौतिक संघर्ष और वर्गयुद्ध में बाधक होने के कारण ही मार्क्सवाद में धर्म और ईश्वर का विरोध किया गया है। जब और कोई उपाय नहीं चला तो जमींदार-मालदारों ने इसी आखिरी ब्रह्मास्त्र से ही काम लेना शुरू जो कर दिया था। वह आज भी यही करते हैं। यही है धर्म और ईश्वर के विरोध का भौतिक दृष्टि से और द्वन्द्ववाद की दृष्टि से प्रयोग, या यों कहिए कि भौतिक द्वन्द्ववाद की दृष्टि से प्रयोग। इससे स्पष्ट है कि यदि इनके करते वर्गसंघर्ष में कोई भी बाधा न हो तो मार्क्सवाद इन्हें छुए भी नहीं। इनके साथ कम से कम क्षणिक संधि तो करी ले। बहुत पहले तो यह बात न थी - वर्गसंघर्ष में ये धर्मादि बाधक न थे, या यों कहिए कि वर्गसंघर्ष का यह रूप पहले था ही नहीं। तो फिर वे बाधक होते भी कैसे? इधर कुछ सदियों से ही यह बात हुई है। इसीलिए मार्क्सवाद में 'वर्तमान' धर्म (Modern Religion) और धर्मसंस्थाओं की ही बात कही गई है और इन्हीं को मालदारों का हथकंडा बता के विरोध किया गया है। मार्क्स के मत से जब सभी चीजें बदलती हैं तो धर्म भी आज बदला हुआ ही यदि मान लिया जाए तो हर्ज ही क्या? जो भी धर्म वर्गसंघर्ष का जरा भी बाधक हो यदि वह इसी बदले हुए के भीतर ही माना जाए तो इसमें उज्र क्या होगा?
यदि मार्क्सवाद की दृष्टि धर्म और ईश्वर के संबंध में भौतिक द्वन्द्ववाद की न हो के कोरी सैद्धांतिक होती, तो यह बात नहीं होती। सिद्धांत की दृष्टि का तो यही मतलब है कि बिना किसी प्रयोजन और खयाल के ही हम असलियत एवं वस्तुस्थिति का पता लगाना चाहते हैं। जैसा कि नए-नए ग्रहों का पता लगाते हैं। इसमें कोई खास प्रयोजन तो है नहीं। यह काम तो सृष्टि की असलियत की जानकारी के ही लिए किया जाता है। यह भी नहीं जानते कि इन अनंत ग्रहों और उपग्रहों की कौन-सी जरूरत इस सृष्टि के काम में है। फिर भी इनका और इनकी गति आदि का पता भी लगाते ही हैं। इसके बारे में वाद-विवाद चलता है और पोथी-पोथे भी लिखे जाते हैं। यही है सैद्धांतिक दृष्टि। यदि इस दृष्टि से धर्म और ईश्वर का विरोध मार्क्स को इष्ट होता है तो फिर भौतिक द्वन्द्ववाद की बात इस सिलसिले में छेड़ने का प्रश्न ही कहाँ होता ? यह दृष्टि तो ईश्वर के विरोध का प्रयोजन बताती है। अर्थात मार्क्स किसी खास प्रयोजन से ही उसका विरोध करता है न कि ईश्वर सचमुच हई नहीं, केवल इस सैद्धांतिक दृष्टि से। बल्कि इस सैद्धांतिक दृष्टि का तो वह पक्का विरोधी है। इसमें तो वह अराजकतावाद और अवसरवाद की गंध पाता है। इसीलिए इसका सख्त विरोध भी करता है। क्योंकि ये दोनों वाद मार्क्सवाद के विरोधी तथा वर्गसंघर्ष के घातक हैं। इससे तो यह भी सिद्ध हो जाता है कि वस्तुत: धर्म या ईश्वर हई नहीं, यह बात मार्क्स या मार्क्सवाद की नहीं है, इस पचड़े में वह नहीं पड़ता। भौतिक द्वन्द्ववाद की दृष्टि के इस लंबे विचार ने, हमें विश्वास है, मार्क्सवाद के इस पहलू को काफी साफ कर दिया है।
अब हमें फिर गीता के धर्म को देखना है। जब, जैसा कि पहले ही बता चुके हैं, धर्म गीता के अनुसार नितांत वैयक्तिक या व्यक्तिगत (शख्सी - Personal) चीज है, तो न सिर्फ इसमें या इसके नाम पर कलह की रोक हो जाती है। बल्कि मार्क्सवाद से भी मेल हो जाता है, विरोध नहीं रहता। व्यक्तिगत कहने का यही मतलब है कि किसी समुदाय, गिरोह, कमिटी, पार्टी, दल, सभा या अंजुमन की चीज यह हर्गिज नहीं है। हरेक आदमी चाहे जैसे इसके बारे में अमल करे, सोचे या कुछ भी करे। किसी दूसरे आदमी, दल, पार्टी, गिरोह या देश को इसमें टाँग अड़ाने और दखल देने का कोई हक नहीं। असल में गिरोह, समुदाय, पार्टी आदि को इससे कोई ताल्लुक हई नहीं। इसीलिए सरकार को भी इसमें पड़ने का हक है नहीं। अगर वह पड़ती है, जैसा कि बराबर ही देखा जा रहा है, खासकर पूँजीवादी युग में, तो और भी, नाजायज काम करती है। जर्मनी या और देशों की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टियों ने जहाँ सरकार को इसमें पड़ने से रोका तहाँ उनने खुद इसमें पड़ जाने की गलती की, या कम से कम ऐसा खयाल जाहिर किया। इसीलिए एंगेल्स ने उन्हें डाँटा था। उसने कहा था कि सरकार इसमें हाथ न डाले यह तो ठीक है। मगर पार्टी की भी यह निजी चीज क्यों हो? पार्टी को इससे क्या काम? उसका कोई मेंबर धर्म को माने या न माने। पार्टी उसमें दखल क्यों देने लगी? हाँ, इसके चलते जो भारी खतरे हैं, उनका खयाल करके पार्टी का रुख तो इसके बारे में सदा भौतिक द्वन्द्ववाद वाला ही होगा। यही बात लेनिन ने अपने लेख में यों लिखी है -
'This he did in a declaration in which he emphatically pointed out that Social Democracy regards religion as a private matter in so far as the State is concerned, but not in so far as it concerns Marxism or the worker's party.'
'Should our deputy have gone further and developed atheistic ideas in greater detail ? We think not. This might have exaggerated the significance of the fight which the party of the proletariat is carrying on against religion; it might have obliterated the dividing line between the bourgeois and socialist fight against religion.'
इसका अर्थ यह है, 'एंगेल्स ने यह काम एक घोषणा के द्वारा किया, जिसमें उसने जोर देकर बताया कि सोशल डेमोक्रेटिक (मजदूरों की क्रांतिकारी) पार्टी धर्म को व्यक्तिगत चीज वहीं तक मानती है जहाँ तक सरकार का इससे ताल्लुक है। लेकिन उसके मत से मार्क्सवाद या मजदूरों की पार्टी के लिए यह व्यक्तिगत चीज नहीं है।'
'क्या डयूमा के हमारे प्रतिनिधि (सरकोफ) को चाहिए था कि आगे बढ़ जाता और नास्तिकवाद पर विस्तार से बोलता एवं खंडन-मंडन करता? हम तो ऐसा नहीं समझते। यदि वह ऐसा करता तो मजदूरों की पार्टी का जो धर्म-विरोधी आंदोलन और संघर्ष है उसके महत्त्व की अत्युक्ति हो जाती। समाजवादियों और पूँजीवादियों के द्वारा धर्म का विरोध करने में जो भेद है वह ऐसा करने से मिट जाता है।'
यहाँ यह बात जानने की है कि पूँजीवाद लोग भी अपना काम निकालने के लिए समय-समय पर धर्म का विरोध करते हैं। उस समय जर्मनी में विस्मार्क ने ऐसा ही किया था। जार भी यहूदियों का विरोध करता था और हिटलर भी। मगर उनका मतलब तो दूसरा ही होता है। या तो उन्हें दिमागी दुनिया की कुश्ती लड़ने का शौक होता है, या वे ख्याति के लिए ही ऐसा करते हैं, या ऐसा करने से उनका कोई दुनियावी मतलब सिद्ध होता है। वर्गसंघर्ष की दृष्टि से वे ऐसा काम हर्गिज नहीं करते। भले ही सैद्धांतिक दृष्टि से करते हों। विपरीत इसके साम्यवादी लोग वर्गसंघर्ष की ही दृष्टि से उसका विरोध करते हैं। मगर कोरे वाद-विवाद और खंडन-मंडन में पड़ जाने पर खतरा यह है कि मार्क्सवादी भी उसी सैद्धांतिक दृष्टि में पड़ जा सकते हैं। इसीलिए उसे रोक के दोनों दृष्टियों को अलग-अलग रखा गया है। मार्क्सवाद कोरे खंडन-मंडन को पूँजीवादी और इसीलिए अपनी विरोधी दृष्टि मानता है, यह बात मार्के की है।
यह कहा जा सकता है कि गीता ने जब कर्मवाद को माना है तो भाग्य या प्रारब्ध का सवाल हमारे भौतिक कामों में भी आई जाता है। अठारहवें अध्याय के 'अधिष्ठानं तथा कर्त्ता' से लेकर 'पंचै ते तस्यहेतव:' (14, 15) तक दो श्लोकों में साफ ही कहा है कि जो कोई भी भला या बुरा काम किया जाता है उसके पाँच कारण होते हैं, जिनमें एक दैव, प्रारब्ध या भाग्य भी है, जिसे तकदीर भी कहते हैं। गीता ने स्वीकार कर लिया है कि प्रारब्ध का हाथ दुनिया के सभी कामों में होता ही है। इसमें शक की जगह हई नहीं। फिर तीसरे अध्याय के 'यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:' (14) में भी साफ ही कर्म और यज्ञ को वृष्टि के द्वारा अन्नादि के उत्पादन में और इस तरह भौतिक कार्य चलाने में कारण ठहराया है। चौथे अध्याय के 'नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य' (31) श्लोक में भी स्पष्ट ही कह दिया है कि यज्ञ के बिना इस दुनिया का काम चली नहीं सकता। छठे अध्याय के 37 से 48 तक के श्लोकों में इसी कर्म का संबंध मनुष्यों के जन्म और स्वभाव के साथ जोड़ के 45वें में कह दिया है कि 'अनेक जन्मों में यत्न करने के बाद ही उसका दिल-दिमाग ठीक हो जाने पर मनुष्य मोक्ष का भागी होता है' - ''अनेक जन्मसंसिद्धस्ततो याति परांगतिम्।'' इस तरह कर्मों का संबंध पुनर्जन्म के साथ लगा हुआ है और पुनर्जन्म का तो अर्थ ही है यह भौतिक शरीर। सोलहवें अध्याय के 19, 20 श्लोकों में आसुरी संपत्ति वालों के दुष्कर्मों के फलस्वरूप उनकी दुर्गति और नीच योनियों में उनका जन्म बताया गया है। दूसरे अध्याय के 'बुद्धियुक्तो जहातीह' (50) श्लोक में पुण्य-पाप का जिक्र है। इधर-उधर के श्लोकों में भी यही बात है। इस तरह गीता में जानें कितनी ही जगह यही बात पाई जाती है। इसलिए यह तो मानना ही होगा कि भाग्य और भगवान का दखल इस दुनिया के भौतिक कार्यों में गीता को भी मान्य है।
बात तो कुछ ऐसी ही मालूम पड़ती है और अगर इस पर कुछ ज्यादा खोद-विनोद न किया जाए तो इसी नतीजे पर पहुँचना अनिवार्य हो जाएगा। यह ठीक है कि ऐसा होने पर भी हमारा पहले का मंतव्य ज्यों का त्यों रह जाता है। क्योंकि यह जो कर्मवाद की बात अभी-अभी कही गई है वह तो गीताधर्म है नहीं - वह गीता की अपनी चीज नहीं है। इसके बारे में तो अधिक से अधिक इतना ही कह सकते हैं कि सामान्यत: उस समय के समाज और शास्त्र में जो कुछ कर्म-संबंधी बातें और धारणाएँ प्रचलित थीं, जो सिद्धांत आमतौर से इस संबंध में माने जाते थे, उन्हीं को अक्षरश: अनुवाद करके गीता ने लिख दिया है। ऐसा करने में उसका प्रयोजन कुछ न कुछ है। बावजूद इन सभी बातों के योग और ज्ञान के आश्रय लेने पर मनुष्य बंधनरहित हो जाता है, यही बात दिखलाने और योग, ज्ञान या भक्ति के मार्ग के महत्त्व को बताने के ही लिए उन कर्मफलों और विविध गतियों का उल्लेख गीता करती है, जो आस्तिक समाज में प्रचलित थीं और हैं। गीता का उनके अनुमोदन या उनकी यथार्थता से कोई ताल्लुक नहीं है। यह उसका ध्येय हई नहीं। यदि उन प्रसंगों और पूर्वापर विचारों को देखा जाए तो यह बात साफ हो जाएगी। गीता के श्लोकार्थ के समय हम भी यह बात साफ दिखाएँगे।
इसके विपरीत गीताधर्म के नाम से जो कुछ हमने कहा है और जिसका उल्लेख सत्रहवें अध्याय में आया है वह गीता की निजी चीज है, अपनी देन है। द्वितीय अध्याय वाले योग को जिस प्रकार हम गीताधर्म मानते हैं और स्वीकार करते हैं कि वह उसकी खास देन है, ठीक यही बात यहाँ भी है। श्रद्धापूर्वक कर्म करना ही असल चीज है। श्रद्धा से ही कर्मों का रूप निर्णीत हो जाता है। इसीलिए कर्म सोलहों आना व्यक्तिगत चीज है, यह बात भी गीताधर्म है। उस योग की ही तरह यह चीज भी और कहीं पाई नहीं जाती है। इसलिए गीताधर्म और मार्क्सवाद में कोई भी विरोध नहीं है यह जो हमने पहले कहा है वह ज्यों का त्यों बना रह जाता है और इस प्रकार हमारा अपना काम सिद्ध हो जाता है - पूरा हो जाता है। जो चीज या जो विषय - जो सिद्धांत - अन्यान्य ग्रंथों और मतवादों में पाया जाए उसे भला गीताधर्म कैसे कहेंगे? और यही बात कर्मवाद के संबंध में भी है। यही कारण है कि हमारे हरेक कामों में पाँच कारणों को गिना के उनमें जो दैव या भाग्य को भी गिनाया है, ठीक उसी के पूर्व के श्लोक 'पंचैतानि महाबाहो', 'सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि' (13) में साफ ही कहा है कि सांख्यमत या सांख्यसिद्धांत में ऐसा माना गया है।
फिर भी इस संबंध में कुछ बातें जानने की हैं। इससे गीताधर्म के यथार्थ महत्त्व को समझने में आसानी होगी। प्राय: हजारों साल पहले एक अपूर्व प्रतिभाशाली नैयायिक विद्वान उदयनाचार्य हो गए हैं, जिनने ईश्वरवाद और धर्म-कर्म की सिद्धि पर कई अपूर्व ग्रंथ लिखे हैं। इन्हीं में एक का नाम न्यायकुसुमांजलि है। उसमें एक स्थान पर इसी दैव, प्रारब्ध, अदृष्ट या अपूर्व - दैव को ही अपूर्व तथा अदृष्ट भी कहते हैं - के संबंध में लिखते हुए लिखा है कि सांसारिक पदार्थों की उत्पत्ति के लिए दो प्रकार के कारण माने जाते हैं, दृष्ट और अदृष्ट। कपड़ा तैयार करने में जिस प्रकार सूत, जुलाहा, करघा वगैरह प्रत्यक्ष या दृष्ट कारण हैं, उसी प्रकार सभी पदार्थों के ऐसे ही कारणों को दृष्ट कारण कहते हैं। मगर इनके अलावा जो दूसरा कारण है और प्रयत्क्ष दीखने वाला नहीं है उसे अदृष्ट कहते हैं। उदयनाचार्य ने कहा है कि यह अदृष्ट कारण कोई स्वतंत्र या करामाती चीज नहीं है। उसका काम है दृष्ट कारणों को जुटाने में ही सहायक होना - 'अदृस्यदृष्ट सम्पादनेनैव चारितार्थ्यात्'। यह अदृष्ट, दैव या प्रारब्ध दूसरा कुछ नहीं करता! यह नहीं होगा कि सूत, जुलाहा, करघा आदि सभी प्रत्यक्ष कारण जुटे हों तो भी अदृष्ट के करते कपड़े के तैयार होने में देर लगेगी।
अब अगर हम इस दार्शनिक विचार पर गौर करते हैं तो कर्मवाद की सारी दिक्कतें दूर हो जाती हैं। ईश्वरवाद के ही सिलसिले में यह बात कही जाने के कारण महत्त्व और भी बढ़ जाता है। यदि ऐसा न मानें तो बड़ी गड़बड़ होगी और रसोई बनानेवाला चावल, पानी, लकड़ी, आग, चूल्हा, बरतन वगैरह रसोई के सभी सामानों को जुटाके भी भाग्य का मुँह देखता बैठा रहेगा। फलत: सभी जगह गड़बड़झाला हो जाएगा। पाचक महाशय अदृष्ट महाराज की बाट जोहते रहेंगे। मगर उनका दर्शन होगा ही नहीं! और तटस्थ दुनिया कहेगी कि यह कैसी मूर्खता की बात है अदृष्ट का सिद्धांत! इसमें तो कोई अक्ल मालूम होती ही नहीं। इसीलिए दार्शनिक नैयायिक की हैसियत से उदयनाचार्य ने बहुत ही सुंदर समाधान करके सारा झमेला ही मिटा दिया। यह भी नहीं कि अदृष्ट का अर्थ केवल पूर्व कर्म, दैव या प्रारब्ध ही हो। अदृष्ट का अर्थ है जो न दीखे - जो प्रत्यक्ष न हो। इसलिए ईश्वर, उसकी इच्छा वगैरह जो भी ऐसे कारण माने जाते हैं सभी इसमें आ गए और सभी का समाधान उदयनाचार्य ने किया है। क्योंकि दलील तो सभी के लिए एक ही है और गड़बड़ भी वही एक ही है।
हाँ, तो इस सिद्धांत के अनुसार यदि हम देखते हैं तो हमें कोई गड़बड़ नहीं मालूम होती। मजदूरों की लड़ाई के सिलसिले में हड़ताल का मौका आने पर सारी तैयारी हो गई और मजदूर लड़ने जा रहे हैं, या लड़ रहे हैं, इस विश्वास के साथ कि विजय होके ही रहेगी। इसी बीच भाग्यवादी और भगवान का ठेकेदार कोई पादरी, पंडित या मौलवी आके उन्हें बहकाता है कि कुछ न हो सकेगा, तुम्हारी तकदीर ही खराब है, तुम पर भगवान ही रंज है। तुम लोग हारोगे जरूर। मिलवाले पर भगवान खुश जो हैं, उसका भाग्य सुंदर जो है, उसका करम चंदन से लिखा जो गया है! बस, सारा मामला बिगड़ता है - उसके बिगड़ने का खतरा हो जाता है। मगर अगर उदयनाचार्यवाली दार्शनिक बात और युक्ति मान लें, तो फिर ऐसी बेहूदा बातों की गुंजाइश ही नहीं रह जाती। उस दशा में इन गुरु-पुरोहितों या मौलवी-पादरियों की बेहूदगी को जगह है कहाँ? हड़ताल की सफलता का सारा बाहरी या दृष्ट सामान जब होई गया तो अब अदृष्ट - भाग्य या भगवान - अलग कहाँ रह गया? यह तो सारी शैतानियत है। अमीरों के दलालों ने यह कुचक्र खुद रचा है जो निराधार और बेबुनियाद है। उन्हें तो उलटे यह कहना चाहिए कि हड़ताल की तैयारी में कोई कसर रहने न दो। बस, भगवान और भाग्य तुम्हारे साथ हैं और जरूर जीतोगे। यही उचित और कर्मवाद के सिद्धांत के अनुसार है।
और गीता का क्या कहना? वह तो हमारे यत्नों और कोशिशों को ही सब कुछ मानती है। वह अदृष्ट की परवाह न करके काम में मुस्तैदी से जुट जाने पर ही जोर देती है। वह कहती है कि जब सभी सामान मौजूद हैं तो जीत तो होगी ही, कार्यसिद्धि तो होगी ही। फिर आगा-पीछा क्यों? वह तो यहाँ तक कहती है कि जीतने-हारने का क्या सवाल? हमें तो काम करने का ही हक है। हमारे बस की चीज तो यही है। हम फल-वल की फिक्र करके काम से, संघर्ष से क्यों मुड़ें? यह तो नादानी होगी। वह तो पीछे मुड़ने वालों को कहती है कि छि:-छि: क्या मुँह दिखाओगे जब दुश्मन हँसेंगे और लोग गालियाँ देंगे? इस तरह बेइज्जती से जीने की अपेक्षा तो काम करते-करते और लड़ते-लड़ते मर जाना लाख दर्जे अच्छा है। इसमें शान है, प्रतिष्ठा है, इज्जत है। इससे न सिर्फ लड़ने और काम करने वालों का, बल्कि उनके साथियों का भी सिर ऊँचा होता है। फिर और चाहिए ही क्या? इससे बढ़के और हई क्या?
जब अर्जुन इसी आगा-पीछा में अपने कर्तव्य से विमुख हो रहा था, तो कृष्ण ने दूसरे अध्याय से ही शुरू करके अठारहवें तक जानें बीसियों बार उसे ललकारा और कहा कि क्या नाहक मरने-मारने की फिक्र नादानों की तरह कर रहे हो? तैयार हो जाओ, डट जाओ, कमर बाँध लो, दृढ़ संकल्प के साथ लड़ो। यह नामर्दों की-सी बातें क्या कर रहे हो? ये बातें तुम्हारे जैसों के लिए मुनासिब नहीं हैं, जेबा नहीं देती है। जरा सुख-दु:ख बरदाश्त करने की हिम्मत तो करो। इस विश्वास के साथ भिड़ तो जाओ कि जरूर फतह होगी। फिर तो बेड़ापार ही समझो। ये बातें अक्लमंदी की नहीं हैं जो तुम कर रहे हो। तुम धोखे में पड़ के आगा-पीछा कर रहे हो, खबरदार! जरा सुनिए, - 'धीरस्तत्र न मुह्यति' (2। 13), 'तांस्तितिक्षस्व' (2। 14), 'तस्माद्युध्यस्व' (2। 18), 'उभौ तौ न विजानीत:' (2। 19), 'कं घातयति हंति कम्' (2। 21), 'नानुशोचितुमर्हसि', 'न शोचितुमर्हसि' (2। 25-27, 30), 'का परिदेवना' (2। 28), 'न विकम्पितुमर्हसि' (2। 31), 'पापमवाप्स्यसि' (2। 33), 'उत्तिष्ठ युद्धायकृतनिश्चय:' (2। 37), 'युद्धाय युज्यस्व' (2। 38), 'कुरु कर्माणि' (2। 48), 'योगाय युज्यस्व' (2। 50), 'नियतं कुरु कर्म त्वं' (3। 8), 'मुक्तसंग: समाचर' (3। 9), 'कार्य कर्म समाचर' (3। 19),'कर्त्तुमर्हसि' (3। 20), 'युध्यस्व विगतज्वर:' (3। 30), 'कुरु कर्मैव' (4। 15), 'कृत्वापि न निबध्यते' (4। 22), 'उत्तिष्ठ भारत' (4। 22), 'योगिन: कर्म कुर्वन्ति' (5। 11), 'कार्यं कर्म करोति' (6। 1), 'तस्माद्योगी भव' (6। 46), 'युध्य च' (8। 7), 'योगयुक्तो भव' (8। 27), 'तत्कुरुष्वमदर्पणम्' (9। 27), 'यसो लभस्व' (11। 33), 'निमित्तमात्रं भव' (11। 33), 'युध्यस्व' (11। 34), 'मत्कर्मपरमो भव' (12। 10), 'न हिनस्त्यात्मनात्मानम्' (13। 28), 'मा शुच:' (16। 5), 'कर्म कर्तुमिहार्हसि' (16। 24), 'कर्म न त्याज्यं' (18। 3), 'न त्याज्यं कार्यमेव' (18। 5), 'कर्माणि कर्त्तव्यानि' (1। 6), 'कर्मण: संन्यासो नोपपद्यते' (18। 7), 'न हंति न निबध्यते' (18। 17), 'संसद्धिं लभते' (18। 45), 'स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य' (18। 46), 'स्वधर्म: श्रेयान्' (18। 47), 'कर्मकुर्वन्नाप्नोति किल्विषम्' (18। 47) 'सहजं कर्म न त्यजेत्' (18। 48), 'न श्रोष्यसि विनंक्ष्यसि' (18। 58), 'यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्ये' (18। 59), 'प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति' (18। 59), 'करिष्यस्यवशोऽपि तत्' (18। 60), 'करिष्ये वचनं तव' (18। 73), इत्यादि। इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि पचास बार से ज्यादा अर्जुन पर ललकार पड़ी है। शायद ही कोई अध्याय है जिसमें यह बात नहीं आई है। गीता में कर्म की ललकार ओतप्रोत है - यह कर्म की ललकार गीता की रग-रग में भिनी हुई है और कर्मयोग उसका कारण है।
गीता को अनेक महत्त्वपूर्ण शिक्षाओं और बातों पर अभी प्रकाश डालना बाकी ही है। मगर यह काम करने के पहले उसके एक बहुत ही अपूर्व पहलू पर कुछ विस्तृत विचार कर लेना जरूरी है। गीता की कई अपनी निजी बातों में एक यह भी है। हालाँकि जहाँ तक हमें ज्ञात है, इस पर अब तक लोगों की वैसी दृष्टि नहीं पड़ी है जैसी चाहिए। यही कारण है कि यह चीज लोगों के सामने खूब सफाई के साथ आई न सकी है। उसी के सिलसिले में गीता की दो-एक और भी बातें आ जाती हैं। उनका विचार भी इसी प्रसंग में हो जाएगा। सबसे बड़ी बात यह है कि जिस बात का हम यहाँ विचार करने चले हैं उसका बहुत कुछ ताल्लुक, या यों कहिए कि बहुत कुछ मेलजोल, एक आधुनिक वैज्ञानिक मतवाद से भी हो जाता है - उस मतवाद से जिसकी छाप आज समस्त संसार पर पड़ी है और जिसे हम मार्क्सवाद कहते हैं। यह कहने से हमारा यह अभिप्राय हर्गिज नहीं है कि गीता में मार्क्सवाद का प्रतिपादन या उसका आभास है। यह बात नहीं है। हमारे कहने का तो मतलब सिर्फ इतना ही है कि मार्क्सवाद की दो-एक महत्त्वपूर्ण बातें गीताधर्म से मिल जाती हैं और गीता का मार्क्सवाद के साथ विरोध नहीं हो सकता, जहाँ तक गीताधर्म की व्यावहारिकता से ताल्लुक है। यों तो गीता में ईश्वर, कर्मवाद आदि की छाप लगी हुई है। मगर उसमें भी खूबी यही है कि उसका नास्तिकवाद से विरोध नहीं है और यही है गीता की सबसे बड़ी खूबी, सबसे बड़ी महत्ता। यही कारण है कि हमें गीताधर्म को सार्वभौम धर्म - सारे संसार का धर्म - मानने और कहने में जरा भी हिचक नहीं होती।
हाँ, तो जरा उसी बात को देखें कि वह कौन-सी है। हमने शुरू में ही उसकी तरफ श्रद्धा, मानसिक भावना आदि के नाम से इशारा भी किया है और कहा है कि वही चीज कर्म के बाहरी रूप को सोलहों आना पलट देती है - उसे एक निराले और अपने मन के ही साँचे में ढाल देती है। बात यह है कि सोलहवें अध्याय के आखिरी दो - 23 और 24 - श्लोकों में 'य: शास्त्रविधि मुत्सृज्य' आदि शब्दों के द्वारा ऐसा कहा गया है कि कोई भी काम - क्रिया या अमल - उसके संबंध में बने अनुशासन और पद्धतिविधान - शास्त्र - के ही अनुसार किया जाना चाहिए। इसीलिए जो ऐसा नहीं करता है उसका न तो वह काम पूरा होता है, न उसे चैन मिलता है और न मरने के बाद या पीछे उसका कल्याण ही होता है। बात भी ठीक ही है। हरेक काम की निराली तरकीबें और प्रक्रियाएँ होती हैं, उसे करने के नियम-कायदे होते हैं और बनने-बिगड़ने की हालत में पुरस्कार और दंड - अनुशासन - भी होते हैं। फिर चाहे वह काम लौकिक हो या पारलौकिक, बहुत बड़ा तथा अहम हो या मामूली। इसलिए उसके विधि-विधान को जानना और तदनुसार ही अमल करना जरूरी हो जाता है। जो लोग ऐसा नहीं करते उन्हें परेशानी तो होती ही है, उनका काम भी ठीक-ठीक हो नहीं पाता और पीछे जाने क्या-क्या नतीजे भुगतने पड़ते हैं। इसलिए गीता का यह आदेश - उसकी यह चेतावनी - बहुत ही मौजूँ है।
मगर दरअसल यह बात उतनी आसान और सीधी नहीं है जितनी एकाएक मालूम पड़ती है। गीता के ही अनुसार, 'कर्मों की जानकारी, उनकी माया, गहन है, बहुत ही कठिन है' - "गहना कर्मणो गति:" (4। 17)। फलत: जब हम कर्मों के घोर और दुष्प्रवेश जंगल में घुसते हैं तो यही नहीं कि रास्ता नहीं मिल पाता और भटक जाते हैं, बल्कि काँटों में बिंधा जाते, खूँखार जानवरों के शिकार बन जाते और चोर-बदमाशों के शिकंजे में भी फँस जाते हैं! एक तो कर्म यों ही ठहरे अनंत। फिर उनकी जानकारी ठहरी उनसे भी अनंत। तिस पर भी हरेक के ब्योरे होते ही हैं। उन्हें जानने का अवसर सबको मिलता भी नहीं। ऐसी दशा में हो क्या? क्या लोग कर्मों से विमुख रहें? क्योंकि अधिकांश लोग तो ऐसे ही होंगे। मगर तब तो संसार का काम ही रुक जाएगा। आखिर यह कैसे और क्यों कहा जाए कि किस काम के विधि-विधान को - शास्त्रविधान को - बखूबी जानने की जरूरत है और किसकी नहीं? सभी तो काम ही - कर्म ही - ठहरे और 'गहना कर्मणो गति:' तो सभी पर समान रूप से लागू है। यदि भीतर घुस के देखें तो बात भी ऐसी ही है। अत: 'को बड़ छोट कहत अपराध!' इसीलिए यही मानना होगा कि 'ऊपर चढ़के देखा, घर-घर एकै लेखा!' और अगर इस दिक्कत से बचने और दुनिया का काम चलाने के लिए लोग यों ही कर्मों में लग जाएँ, तो उनकी हालत क्या होगी? उनकी गति तो अभी-अभी कह चुके हैं। यही खयाल करके अर्जुन जैसे सूक्ष्मदर्शी ने सत्रहवें अध्याय के पहले ही श्लोक में चटपट यही बात पूछ ही तो दी। कृष्ण ने आगे के दो और तीन श्लोकों में उसका उत्तर दे के उसी का विवरण समूचे अध्याय में किया है।
इस बात पर जरा हम और गौर करें। किसी भी काम के करने के लिए रास्ते बताने वाले, दोई तरह के हो सकते हैं। एक तो जीवित मनुष्य और दूसरे उसके बारे में लिखी-लिखाई पुस्तकें जिन्हें शास्त्र कहते हैं। अब अगर जिंदा आदमियों को लेते हैं तो इतनी लंबी दुनिया में वे खामख्वाह होंगे बहुत ज्यादा। एक-दो या दस-बीस से तो काम चलने का नहीं। और जब दो आदमियों के भी सभी खयाल और विचार नहीं मिलते, तो फिर हजारों का क्या कहना? ऐसा भी होता है कि एक ही आदमी के विचार समय पाके एक ही बात के संबंध में बदलते रहते हैं और कभी-कभी तो तीन-तीन, चार-चार पलटे खा जाते हें। तब अनेक की बात ही क्या? इसी को कहते हैं 'मुंडे मुंडे मतिर्भिन्ना' या 'अपनी-अपनी डफली, अपनी-अपनी गीत।' महाभारत के वनपर्व के युधिष्ठिर-यज्ञ संवाद में यही बात स्वीकार की गई है कि एक मुनि ऋषि हों तो उनकी बात मान के काम चले। यहाँ तो अनंत हैं - अनेक हैं - 'नैकोऋषिर्यस्यवच: प्रमाणम्' (312+115)। आदमी की यह भी हालत होती है कि उसका दिमाग हमेशा स्वस्थ और एक हालत में रहता ही नहीं। तो कब उससे बात जानी जाए, कब नहीं? फिर दूरवर्ती को क्या मालूम कि कब उसका दिल-दिमाग ठीक है और उसने जब कहा था तब ठीक था या नहीं? और अगर कहीं देर तक उसके दिमाग में गड़बड़ी रही तो क्या हो? दुनिया के काम तो उसकी गड़बड़ी के लिए रुके रहेंगे नहीं।
और अगर इस दिक्कत से बचने के लिए लिखित वचनों तथा आदेशों की शरण लें, तो दूसरी पहेली खड़ी हो जाती है। जिंदा आदमी तो साफ कह-सुन देता है और अगर कोई बात समझ में न आए तो उससे पूछ के सफाई भी कर ले सकते हैं। मगर मरे का क्या हो? आखिर पुस्तकों और शास्त्रों के वचन तो मरों के ही हैं न? वे खुद तो बोल नहीं सकते। अगर किसी वचन का मतलब समझ में न आए या उलटा ही समझ में आए तो क्या करें? किससे पूछें? यदि उसकी टीका-टिप्पणी देखें तो और भी गजब हो। टीकाकार तो आखिर दूसरे ही होंगे न? फिर क्या मालूम कि उनने लेखक का अभिप्राय ठीक समझा या गलत? यदि खुद लेखक ने ही टीका की हो तो बात दूसरी है। मगर ऐसा होता तो शायद ही है। और अगर टीका में भी कहीं शक हो या वही कहीं समझ में न आए तो? आखिर वचन ही तो वह भी ठहरी और जब पहले या मूल के वचनों में ही संदेह की गुंजाइश है तो बाद वाले (तूल या टीका के) वचनों में भी क्यों न होगी? यदि लेखक की ही बातें सुन के ही किसी ने टीका लिखी और मौके-मौके से उनसे पूछ भी लिया था, तो भी इसका क्या सबूत है कि प्रश्नों का उत्तर ठीक ही मिला या उसने उसे ठीक ही समझा? पूछने और उत्तर देने वालों का दिमाग बराबर ही ठीक रहा और उसमें गड़बड़ी न रही, यह भी कौन कहे ?
कहते हैं कि पाणिनीय व्याकरण के सूत्रों पर जो पतंजलि का महाभाष्य है उसकी टीका सबसे पहले कैयट ने लिखी। उनके बारे में कहा जाता है कि बरसों यह हालत रही कि कोई बात वह एक दिन लिखते थे उसी को अगले दिन गलत बता के काट देते और फिर नए सिरे से लिखते थे। तीसरे दिन उसे भी काट के कुछ और ही लिखते! यही हालत बराबर रही! नतीजा यह हुआ कि हाथी के नहाने की-सी इस हालत से उन्हें सख्त अफसोस हुआ। वे खिन्न हो गए। नौबत यहाँ तक पहुँची कि मरणासन्न दीखने लगे। उस पर उनकी माँ ने सारी बातें जानके किसी अपने मित्र को बुलाया और उपाय पूछा। उसने रास्ता सुझाया कि कैयट को रात में दही और उड़द खिलाया जाए, तो इनकी बुद्धि मंद हो जाएगी। फिर तो जो भी एक बार लिखेंगे उसकी भूल शायद ही सूझे और इस प्रकार जिस काम के पूरे न होने की चिंता से वे मर रहे हैं वह पूर्ण हो जाएगा। यही किया गया और धीरे-धीरे वे स्वस्थ होने लगे। उधर टीका लिखने में प्रगति भी काफी हुई। जब कुछ दिनों बाद किसी मित्र ने उनसे खुद उनकी हालत पूछी तो उनने उत्तर दिया कि 'अब क्या पूछना है? अब तो बुद्धि को ही चुरा लेने वाले उड़द खा रहा हूँ' - ''अधुना शेमुषीमोषान्माषानश्नामि नित्यश:''! यही बात औरों की भी क्यों न होगी? फिर तो यदि रोज ही शास्त्र बदले तो ?
शास्त्रों और पुस्तकों की क्या बात कही जाए? एक-दो या दस-बीस हों तब न? यहाँ तो जितने मुनि उतने मत हैं - जितने लेखक उनसे कई गुना किताबें हैं। हिंदुओं के ही घर में एक व्यास के नाम से जानें सैकड़ों पोथियाँ हैं। खूबी तो यह कि वह भी एक दूसरे से नहीं मिलती हैं! उनमें भी परस्पर विरोधी बातें सैकड़ों हैं, हजारों हैं। तब किसे मानें किसे न मानें? और जब एक की ही लिखी बातों की यह हालत है, तो विभिन्न लेखकों का खुदा ही हाफिज! उनके वचनों में परस्पर विरोध होना तो अनिवार्य है! भिन्न-भिन्न दिमागों से निकले विचार एक हों तो कैसे? सभी दिमाग एक हों तो काम चले। मगर यह तो अनहोनी बात ठहरी। फलत: शास्त्रों के द्वारा किसी काम के भले-बुरेपन का निर्णय भी वैसा ही समझिए।
यदि चुनाव के जरिए राय लेके जो बहुमत से तय पाए वही ठीक माना जाए तब तो और भी गड़बड़ी होगी। समूचे संसार का मत तो मिली नहीं सकता। एक देश या प्रांत की भी यही हालत है। उलटा-सीधा समझाने वाले तो होते ही हैं। उसी से गड़बड़ होती है। जोई लोग एक बार एक तरह की राय देते हैं वही औरों के समझाने पर दूसरी बार बदल दे सकते हैं। उन बेचारों का इसमें कसूर भी क्या? उन्हें समझ हो तब न? और अगर यही समझ हो जाए तो फिर शास्त्र की जरूरत ही क्यों हो? समझदारों के लिए तो वह चाहिए नहीं। सबों को समझदार बना देना तो असंभव भी है। समझ की कोई नाप-जोख भी तो नहीं है कि वह कितनी चाहिए, कैसी चाहिए। इसका पता भी कैसे लगेगा? और अगर यही बात हो जाए तो गलत प्रचार की महिमा ही चली जाए। एक ही मुकदमे में ऐसा देखा जाता है कि वह जितने न्यायधीशों के सामने जाता है उसका उतने ही ढंग का मतलब लगता है। इसीलिए महाभारत वाले उक्त वनपर्व के वचन में साफ लिख दिया है कि 'तर्क-दलील का तो ठिकाना ही नहीं, वह तो दिमाग के ही मुताबिक बदलता है। वेदशास्त्र के वचन तो अनेक तरह के हैं - एक ही बात के लिए परस्पर विरोधी वचन मिलते हैं। ऋषिमुनि तो एक ठहरे नहीं कि उनकी बात से काम चल जाए। नतीजा यह है कि धर्म की हकीकत अँधेरी गुफा के भीतर बंद चीज जैसी हो गई है! तो फिर उपाय क्या? बड़े-बूढ़े जिस रास्ते गए हों या पंचों ने जो तय किया हो वैसी ही बात करके काम निकालना चाहिए' - ''तर्कोऽप्रतिष्ठ: श्रुतयो विभिन्ना नैको ऋषिर्यस्य वच: प्रमाणम्। धर्मस्य तत्तवं निहितं गुहायां महाजनो येन गत: स पन्था:।''
मगर गीता का यह उत्तर नहीं है। काम चलाने की या गोल-मोल बातें गीता की शान के खिलाफ हैं। उसे तो साफ और बेलाग बोलना है। इसीलिए वह कहती है कि 'त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा। सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां शृणु॥ सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत। श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छृद्ध: स एव स:' (17। 2-3)। इसका आशय है, 'आदमियों की श्रद्धा स्वभावत: तीन ही तरह की होती है, सात्विक, राजस और तामस। इस श्रद्धा की हालत सुनिए। सत्त्वगुण के तारतम्य के हिसाब से ही सबों की श्रद्धा होती है और आदमी को तो श्रद्धामय ही समझना होगा। इसीलिए जिसकी श्रद्धा जैसी हो वह वैसा ही समझा जाए।' इसका निचोड़ यह है कि जिसका हृदय सत्त्व प्रधान है - जिसमें सत्त्वगुण की प्रधानता है - वह सात्त्विक आदमी है। जिसमें सत्त्व दबा हुआ है और रजोगुण की प्रधानता है। वह राजस है। जिसमें सत्त्व के बहुत ही अल्प होने के साथ ही रजोगुण भी दबा है और तमोगुण ही प्रधान है वही तामसी मनुष्य होता है। और जैसा मनुष्य वैसी श्रद्धा या जैसी श्रद्धा वैसा ही मनुष्य, यही सिद्धांत माननीय होने के कारण जैसी ही श्रद्धा के साथ काम किया जाएगा वैसा ही भला या बुरा होगा। सात्त्विक श्रद्धावाला बहुत अच्छा, राजसवाला बुरा और तामसवाला बहुत ही खराब समझा जाना चाहिए।
इसका मतलब समझना होगा। हरेक कर्म के करने वाले का वश परिस्थिति पर तो होता नहीं कि वह विद्वान हो, विद्वानों के बीच में ही रहे, पढ़ने-लिखने की पूरी सामग्री उसे मिले, उसकी बुद्धि खूब ही कुशाग्र हो, वह भूल कभी करी न सके। ऐसा होने पर वह मनुष्य ही क्यों हो? और उसके कर्तव्याकर्तव्य का झमेला ही क्यों उठे? वह तो सब कुछ जानता ही है। एक बात और। वह शास्त्रों के वचनों के अनुसार ही काम करें, यह तो ठीक है। मगर सवाल तो यह है न, कि उन वचनों का अर्थ वह समझे कैसे? किसकी बुद्धि से समझे? कल्पना कीजिये कि मनु ने एक वचन कर्तव्य के बारे में लिखा है जिसका अर्थ समझना जरूरी है। क्योंकि बिना अर्थ जाने अमल होगा कैसे? तो वह अर्थ मनु की ही बुद्धि से समझा जाए या करने वाले की अपनी बुद्धि से? यदि पहली बात हो, तो वह ठीक-ठीक समझा तो जा सकता है सही, इसमें शक नहीं। मगर करने वाले के पास मनु की बुद्धि है कहाँ? वह तो मनु के ही पास थी और उनके साथ ही चली गई।
अब यदि यह कहें कि करनेवाला अपनी ही बुद्धि से मनु के वचन का भाव समझे, क्योंकि मनु की बुद्धि उसमें होने से तो वह भी खुद मनु बन जाएगा और समझने की जरूरत उसे रहेगी ही नहीं; तो दिक्कत यह होती है कि अपनी बुद्धि से मनु का आशय कैसे समझें? जो चीज मनु की बुद्धि में समाई वही वैसे ही उसकी बुद्धि में तभी समा सकती है जब उसे भी मनु जैसी ही बुद्धि हो मगर यह तो असंभव है ऐसा कही चुके हैं। सभी लोग मनु कैसे बन जाएँगे? फलत: जैसा समझेगा गलत या सही वैसा ही ठीक होगा। दूसरा उपाय है नहीं। फिर तो वैसा ही गलत या सही करेगा भी। किया भी आखिर क्या जाए? मगर तब शास्त्र की बात की कीमत क्या रही? एक ही शास्त्र-वचन के हजार अर्थ हो सकते हैं अपनी-अपनी समझ के अनुसार, और यह एक खासा तमाशा हो जाएगा।
एक बात और भी है। यदि मुनि की ही समझ के अनुसार चलना हो तो बुरे-भले का दोष-गुण मनु पर न जाके करने वाले पर क्यों जाए? वह अपनी समझ से तो कुछ करता नहीं। उसकी अपनी समझ को तो कर्म-अकर्म के संबंध में कोई स्थान हई नहीं। उसे मनु का आशय ठीक-ठीक समझना जो है। और अगर यह बात नहीं है तो शास्त्र के आदेश और विधि-विधान का प्रयोजन ही क्या है? यदि मनु के माथे दोष-गुण न लदें इस खयाल से करने वाले को अपनी ही बुद्धि से समझना और करना है तब शास्त्र बेकार है। यह ठीक है कि जिसे अधिकार दिया गया है उसी पर जवाबदेही आती है। मगर यह जवाबदेही तो बिना शास्त्र के भी आई जाएगी। चाहे शास्त्र की बातें अपनी अक्ल से समझ के करे या बिना शास्त्र-वास्त्र के ही अपनी ही समझ से जैसा जँचे वैसा ही करे। दोनों का मतलब एक ही हो जाता है। फलत: शास्त्र खटाई में ही पड़ा रह जाता है। यही समझ के अर्जुन ने शंका की थी कि 'जो लोग शास्त्रीय विधि-विधान का झमेला, किसी भी तरह, छोड़ के श्रद्धापूर्वक यज्ञादि कर्म करते हैं उनकी हालत क्या होगी? वे क्या माने जाएँ - सात्त्विक, राजस या तामस?' - 'ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजंते श्रद्धयान्विता:। तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तम:' (17। 1)।
गीता में इसका जो कुछ उत्तर दिया गया है वह यही है कि शास्त्र की बात तो यों ही है। इसीलिए इसे बच्चों को फुसलाने वाली चीज पुराने लोगों ने मानी है - 'बालानामुपलालना'। असली चीज जो कर्म के स्वरूप को निश्चित करती है वह है करने वाले की श्रद्धा ही। जैसा हमारी समझ में - हमारे दिल-दिमाग में - आया वैसा ही हमने ईमानदारी से किया, यही श्रद्धापूर्वक करने का मतलब है। यह नहीं कि समझते हैं कुछ और धारणा है कुछ। मगर डर, शर्म या लोभ वगैरह के चलते करते हैं कुछ और ही। फिर भी श्रद्धा के नाम से पार हो जाएँ। श्रद्धापूर्वक करने का ऐसा मतलब हर्गिज नहीं है। तब तो अंधेरखाता ही होगा और उसी पर मुहर लग जाएगी। दिल-दिमाग, जबान और हाथ-पाँव आदि के मेल या सामंजस्य की जो बात पहले कही गई है उसी से यहाँ मतलब है। उसमें जरा भी फेरफार नहीं होना चाहिए। जितना ही फेरफार होगा उतनी ही गड़बड़ और कमी समझिए। सत्रहवें अध्याय के अलावा 7वें के 20-23 तथा नवें के 23-33 श्लोकों में भी यही भाव दर्शाया गया है। यदि गौर से विचारा जाए तो उनका दूसरा मतलब होई नहीं सकता। उनके बारे में प्रसंगवश आगे भी प्रकाश डाला जाएगा। चौथे अध्याय के 11, 12 श्लोक भी कुछ ऐसे ही हैं।
इससे यह भी हो जाएगा कि करने वाले पर ही उत्तरदायित्व होगा। क्योंकि समझ के ही साथ उत्तरदायित्व चलता है। इसीलिए रेल से आदमी कट जाने पर जिनके ऊपर उसकी जवाबदेही नहीं होती; हालाँकि काटने का काम वही करता है। किंतु ड्राइवर पर ही होती है। उसे समझ जो है। यही कारण है कि पागल आदमी के कामों की जवाबदेही उस पर नहीं होती। वह समझ के करता जो नहीं है। यदि हमने गलत को ही सही समझ के ईमानदारी से उसे ही किया तो हम अपराधी नहीं हो सकते, यही गीता की मान्यता है। यद्यपि संसार में ऐसा नहीं होता है। मगर होना तो यही चाहिए। जो कुछ विवेचन अब तक किया गया है उससे तो दूसरी बात उचित होई नहीं सकती। यह ठीक है कि एक ही काम इस तरह कई ढंग से - यहाँ तक कि परस्पर विरोधी ढंग से भी - किया जा सकता है और सभी करने वाले निर्दोष और सही हो सकते हैं यदि उनने श्रद्धा से किया है जैसा कि बताया गया है। युक्ति-युक्त रास्ता तो इसके लिए यही हई। और यदि यह नई बात है तो गीता तो नई बातें बताती ही है।
यहाँ तक के विवेचन ने यह बात साफ कर दी कि धर्म या कर्तव्याकर्तव्य सोलहों आना व्यक्तिगत चीज है। न कि वह सार्वजनिक वस्तु है, जैसा कि आमतौर से माना जाता है। जब अपनी-अपनी समझ के ही अनुसार श्रद्धापूर्वक धर्म या कर्म करने का सिद्धांत तय पा गया और उसका मतलब भी साफ हो गया कि दिल, दिमाग, जबान और हाथ-पाँव आदि कर्मेंद्रियों में सामंजस्य होने का ही नाम श्रद्धापूर्वक करना है, तो फिर सार्वजनिकता की गुंजाइश रही कहाँ? जब श्रद्धा, ईमानदारी और सच्चाई से (honestly and sincerely) कर्म करने का अर्थ साफ हो गया और जब पूर्वोक्त चारों के सामंजस्य को सच्चाई तथा ईमानदारी से अलग कोई चीज नहीं मान सकते; या यों कहिए कि सच्चाई और ईमानदारी इस सामंजस्य या मेल से भिन्न कोई चीज नहीं, तो यह कैसे होगा कि दो-चार की भी समझ, श्रद्धा या ईमानदारी एक ही हो। ये सब चीजें?, ये सब गुण तो पूर्णरूप से व्यक्तिगत हैं। जो समझ हममें है वही दूसरे में कैसे होगी? यदि एकाध बात में दोनों का मेल भी दैवात हो जाए तो भी क्या? एकता का तो अर्थ है हर बात में मिल जाना और यही चीज गैरमुमकिन है। जब श्रद्धा और समझ पर बात आ जाए तो क्या यह संभव है कि सभी हिंदू संध्या पूजा करें या चुटिया रखें, या सभी मुस्लिम दाढ़ी रखें और रोजा-नमाज मानें? लोगों को आजाद कर दीजिए और दबाव छोड़ दीजिए, पाप नरक आजाब, दोजख आदि का भय उनके दिमाग से हटा दीजिए और देखिए कि क्या होता है। एक संध्या करेगा तो दूसरा उसके पास भी न जाएगा। तीसरा कुछ और करेगा और चौथे की निराली ही दशा होगी। यही बात रोजा-नमाज़ में भी होगी।
सत्रहवें अध्याय के जिस दूसरे श्लोक को पहले उद्धृत किया है उसमें श्रद्धा को स्वभावसिद्ध 'स्वभावजा' कहा है। वह कृत्रिम चीज नहीं है। डर, भय आदि को तो दबाव डाल के या प्रलोभन से पैदा भी कर सकते हैं। मगर इन उपायों से श्रद्धा कभी उत्पन्न की जा सकती नहीं और वही है धर्म के स्वरूप को ठीक करने वाली असल चीज। वहाँ और उसके पहले समूचे चौदहवें अध्याय में तथा और जगह भी ऐसा प्रतिपादन किया गया है कि सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों के ही अनुसार श्रद्धा आदि दिव्यगुण मनुष्यों में पाए जाते हैं। हममें किसी को शक्ति भी नहीं कि उन गुणों को डरा धमका के या दबाव डाल के बदल सकें। शरीर, इंद्रियादि के निर्माण में जो गुण जहाँ जिस मात्रा में आ गया वह तो रहेगा ही। हम तो अधिक से अधिक यही कर सकते हैं कि समय-समय पर दबे रहने या न मालूम होने पर उसे प्रकट कर दें, जैसे पंखे के जरिए हवा पैदा नहीं की जाती, किंतु केवल प्रकट कर दी जाती है। हवा रहती तो है सर्वत्र। मगर मालूम नहीं पड़ती और पंखा उसे मालूम करा देता है, बिखरी हवा को जमा कर देता है। और स्वभाव तो लोगों के भिन्न होते ही हैं। इसीलिए हरेक के धर्म भी भिन्न ही होंगे। दो के भी धर्मों का कभी मेल हो नहीं सकता।
इतना ही नहीं। अठारहवें अध्याय के 41-44 श्लोकों में दृष्टांत-स्वरूप चारों वर्णों के कर्मों और धर्मों का विस्तृत वर्णन है। लेकिन यह कितनी विचित्र बात है कि चारों के धर्मों को अलग-अलग गिनाने के साथ-साथ 'स्वभावजं' - स्वाभाविक या स्वभावसिद्ध - यह विशेषण चार बार आया है। इसमें एक ही मतलब हो सकता है और वह यह कि गीता को इस बात पर ज्यादा से ज्यादा जोर देना है कि वर्णों और आश्रमों के जितने भी धर्म हैं सबके सब स्वाभाविक हैं, न कि कृत्रिम, बनावटी या डर, भय से पैदा किए गए। मगर इतने से ही संतोष न करके ठेठ 41वें श्लोक में भी, जहाँ चारों का एक स्थान पर ही नाम लिया है, साफ ही कहा है कि 'इन चारों के काम बँटे हुए हैं और यह बात गुणों के अनुसार बने हुए स्वभाव के ही मुताबिक हुई है' - ''कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणै:''। गुणों में सत्त्व, रज और तम की कमी-बेशी तथा सम्मिश्रण के अनुपात के ही हिसाब से लाखों, करोड़ों या अनंत प्रकार के मनुष्यों के स्वभाव बने हैं और इन जुदे-जुदे स्वभावों के ही अनुसार उनके कर्म भी निर्धारित किए गए हैं।
इस वर्णन में एक और भी खूबी है। लोग तो आमतौर से यही समझते हैं कि ब्राह्मणमात्र के लिए एक ही प्रकार के धर्म हैं। यही बात क्षत्रियादि के भी संबंध में समझी जाती है। गीता में भी इन धर्मों को इसी प्रकार गिनाया है। इसलिए शंका हो सकती है कि फिर भी तो यह धर्म सामूहिक ही हो गया। व्यक्तिगत तो रहा नहीं। क्योंकि ब्राह्मण-समूह का एक धर्म हुआ ही और इसी तरह क्षत्रियादि के भी समूह का। यही बात शेख, सैयद, मुगल और पठान की भी हो सकती है और पादरी तथा गृहस्थ क्रिस्तान की भी। उसके बाद ब्राह्मणादि चारों को मिला के हिंदू समूह का भी एक धर्म होई जाता है, शेख, सैयद आदि का मिला के मुसलमान समुदाय का भी और पादरी तथा गृहस्थ का मिला के ईसाई का भी। इस प्रकार घूम-फिर के हम वहीं पहुँच जाते हैं जहाँ से चले थे और 'हैं वहीं पहले जहाँ थे, क्योंकि दुनिया गोल है' की बात आ जाती है।
इसी का उत्तर 'स्वभावप्रभवैर्गुणै:' में दिया गया है। गीता तो कहती है कि धर्म की बात भेंड़ों जैसी अंध परंपरा की नहीं है कि फलाँ ब्राह्मण है, तो फलाँ क्षत्रिय। यह कोई निश्चित और बँधी बँधाई बात नहीं है, कि फलाँ ब्राह्मण हई, या होगा ही और फलाँ क्षत्रिय, जैसा कि आज माना जाता है। आज तो हालत यह है कि कर्म भी नहीं देखे जाते। किंतु एक तरह की दुकानदारी ब्राह्मणादि वर्ण धर्मों के नाम पर चल पड़ी है। मगर इस वर्तमान परंपरा की जड़ में भी यही बात थी कि कर्मों से ही ब्राह्मणादि को जानते या पकड़ते थे - पकड़ने लगे थे। इसका आशय यह है कि कर्मों की एक परंपरा और प्रणाली जारी कर दी गई थी और बचपन से ही वही कर्म (काम) कराए जाते थे। किसी के स्वभाव की परीक्षा न की जाती थी। माता-पिता को जान लिया और पता पा लिया कि उन्हीं से बच्चा पैदा हुआ है। फिर क्या था? माता-पिता के ही वर्ण के अनुसार बच्चे के कर्म-धर्म ठीक कर दिए गए और इस प्रकार समय पाके वही ब्राह्मण, क्षत्रियादि बना जैसा कर्म करता रहा। माँ-बाप भी वर्ण इसी प्रकार उनके माँ-बाप के ही आधार पर कर्म कराके ठीक किया जाता था। यही शैली थी, यही प्रणाली थी। इसमें कर्म पर ही जोर था, दारमदार था। यही कारण है कि विश्वामित्र को ब्राह्मण मानने में दिक्कतें पेश आयीं। क्योंकि माता-पिता की बात उनके बारे में कुछ दूसरी ही थी। मगर इसमें इतनी तो बात थी कि कर्मों पर जोर था। फलत: जिसमें कर्म न हो वह वर्णच्युत और पतित हो जाता था - वह 'धोबी का कुत्ता घर का न घाट का' माना जाता था। मगर आज तो इतना भी नहीं है। आज तो केवल माँ-बाप से जन्म ही काफी है ब्राह्मणादि बनने के लिए!
मगर गीता के अनुसार तो उलटी बात थी, उलटी बात होती है, उलटी बात चाहिए। गीता तो कर्म के पहले माँ-बाप से उत्पत्ति को न देख स्वभाव देखती है। वह तो इस बात की जाँच-पड़ताल करती है कि जिससे किसी भी कर्म की आशा की जाती है उसका स्वभाव कैसा है। आखिर सियार, हाथी और सिंह का स्वभाव तो एक-सा है नहीं। इसीलिए उनके काम भी एक से नहीं हैं। यदि स्वभाव का खयाल न करके 'सब धान बाईस पसेरी' तौला जाए और गीदड़ से सिंह के काम की आशा की जाए तो सिवाय नादानी और निराशा के और होगा ही क्या? इसीलिए गीता सबसे पहले स्वभाव देखती है जो शुरू में ही शरीर रचना में शामिल हुए थे। क्योंकि स्वभाव के नाम पर गड़बड़ हो सकती है और कोशिश से सिखा-पढ़ा के थोड़े समय के लिए कोई भी किसी काम के लिए तैयार किया जा सकता है - कोई भी 'ठोंक-पीट के तत्काल वैद्यराज' बनाया जा सकता है और स्वभाव नाम इस बात को भी दिया जा सकता है। आखिर पहचान हई क्या? इसीलिए गीता मूलभूत गुणों को ही पकड़ती है जो कृत्रिम नहीं हैं। फलत: कल्पित या चंदरोजा चीज कब तक टिक सकेगी? सारांश यह कि बहुत गौर से दीर्घकाल तक पर्यवेक्षण के बाद ही स्वभाव का निश्चय होता है, ऐसी बात गीता को मान्य है। उसके बाद ही उसी के अनुसार कर्म कराया जाना - किया जाना - चाहिए, ऐसी मान्यता गीता की है और अंततोगत्वा वर्णों का अंतिम निश्चय उसी से होता है। महाभारत में लिखा है कि पहले कोई वर्ण न थे - सब एक ही समान थे; पीछे स्वाभाविक कर्मों के अनुसार ही वर्ण बने। ज्यादे से ज्यादा यही कि सभी ब्राह्मण ही थे - पीछे वर्ण विभाग हुआ - 'न विशेषोऽस्ति वर्णानां सर्वं ब्राह्ममिदं जगत। ब्रह्मणा पूर्व सृष्टं हि कर्मभिर्वर्णतां गतम्' (मोक्षधर्म 188। 10)। फिर वर्णों का विवरण भी दिया है। इससे भी यही बात सिद्ध होती है।
इस तरह हमने देखा कि गीता कर्मों से वर्णों को पकड़ने के बजाए गुणों के अनुसार बने स्वभाव से ही कर्मों को पकड़ना उचित समझती है। हमारा तो ऐसा खयाल है कि गीता के अलावा औरों की भी मान्यता पहले ऐसी ही थी। उसी का पतन होते-होते वर्तमान दशा को यह धर्म पहुँच गया है। लेकिन गीता के बारे में तो शक की जगह हई नहीं कि उसने यही माना है। ऐसी दशा में धर्म को सामूहिक रूप मिली कैसे सकता है? यह तो जरूरी नहीं कि ब्राह्मण का बच्चा ब्राह्मण ही हो, यदि ठीक-ठीक गुण और स्वभाव की पाबंदी की जाए और उसी कसौटी पर कसा जाए। यह भी नहीं कि अगर ब्राह्मण का लड़का ब्राह्मण हो भी गया तो भी बाप और बेटा - दोनों ही - एक ही तराजू पर सोलह आना पाव रत्ती ठीक उतर जाएँ - बराबर हो जाएँ। यह तो तभी संभव है जब दोनों की समझ एवं श्रद्धा और दोनों के स्वभाव एक हो जाएँ। मगर ऐसा होना गैरमुमकिन है यह पहले ही कहा जा चुका है। यह दूसरी बात है कि जैसे एक ही कक्षा में पढ़ने वाले छात्रों में समता न होने पर भी उनका एक वर्गीकरण व्यवहार के लिए होता है वैसा ही यहाँ भी होता रहा हो और आगे भी हो। मगर उसका मतलब यह तो नहीं है कि समानता और एकता हो गई। योग्यता तो सबों की भिन्न-भिन्न रहती ही है, रहेगी ही। एक वर्ण कहने का तो मतलब केवल यही है कि उस तरह के कर्मों के लिए कौन-से लोग यत्न करें और कौन उनके योग्य है यह मालूम हो जाए।
जिस प्रकार किसी की निजी चीज होती है, अपनी समझ तथा योग्यता होती है, अपना शरीर और स्वास्थ्य होता है; न तो उस पर किसी का अधिकार होता है और न उसकी अपनी चीज से एकता और समानता किसी और की वैसी ही चीज से होती है। ठीक उसी प्रकार धर्म की भी बात है। वह भी हरेक आदमी का अपना निजी और व्यक्तिगत पदार्थ है। उसमें किसी का साझा या हिस्सा नहीं है। धर्म सामूहिक - समूह की - चीज न होकर व्यक्तिगत है, हर व्यक्ति का जुदा-जुदा है। अगर दो आदमी एक ही ढंग से खाना खाते हों और एक ही चीज खाते हों, तो भी दोनों के खाने की क्रिया दो होगी, न कि एक। धर्म की भी यही बात है। यह बात गीता ने निर्विवाद सिद्ध कर दी है। कम से कम अपना मंतव्य उसने यही बता दिया है। यदि यही मंतव्य संसार में व्यापक हो जाए, सार्वभौम हो जाए - यदि यह गीताधर्म (गीता का बताया धर्म) संसार मान ले - तो धर्म के झगड़े रहने ही न पाएँ। इनके करते आज जो हमारा देश नरक बन रहा है और गजब की बला में आ फँसा है, वह तो न रहे। आज जो भाई का गला भाई और पड़ोसी का पड़ोसी धर्म की वेदी पर चढ़ाने को आमादा है, वह तो न हो। धर्म की यह नापाकीजगी तो मिट जाए।
इसी के चलते - धर्म को जो लोगों ने सामूहिक चीज समझ उसी के नाम पर भेड़ों की तरह लोगों को मूँड़ना शुरू कर दिया है। उसी के करते - तो राजनीति भी पनाह माँगती है। पंडित, मौलवी और पादरी हजारों लोगों को यों ही मूँड़ के जानें क्या-क्या अंटसंट सिखाते फिरते हैं। वे लोग कमाने वाली जनता को - किसानों और मजदूरों को - अपने पाँवों खड़े होने देना नहीं चाहते इसी धर्म के नाम पर और इसी की ओट में। जब किसानों और मजदूरों में वर्गचेतना पनपती है, शुरू होती है और प्रगति करती है तो इन धर्माचार्यों के घर में जाने क्यों आतंक छा जाता है और ये मातम मनाने लगते हैं! इनके पास कोठियाँ, कल-कारखाने और जमींदारियाँ न भी हों - और ज्यादातर के पास तो ये चीजें होती भी नहीं; उनका काम तो चेलों और मुरीदों की 'पूजा' और चढ़ावे से ही चलता है - तो भी ये जानें क्यों घबरा जाते हैं और नंगे पाँव दौड़ पड़ते हैं किसान-मजदूरों को उलटा-सुलटा समझाने और गुमराह करने के लिए। कर्म, तकदीर, भाग्य और भगवान ही तो धर्म के स्तंभ और पाए माने जाते हैं और उन्हीं के नाम पर किसानों तथा मजदूरों को ये भलेमानस वर्ग-संघर्ष और हक की लड़ाई से खामख्वाह रोकते हैं! सीधे और भोले लोग तो इन्हें पवित्र, धर्ममूर्त्ति, भगवान के दूत और पारसा समझते हैं - कम से कम उनका यही विश्वास होता है। यही कारण है कि ये गरीब ठगे जाते हैं और मालदार-जमींदारों के घर घी के चिराग जलते हैं! धर्म के नाम पर यदि और नहीं हो सका तो किसानों और मजदूरों के संघ ही अलग-अलग बनवा दिए जाते हैं! जब कभी वर्ग-संघर्ष चालू हो तो ये धर्माचार्य कहे जाने वाले पादरी, पुरोहित और मुल्ला अपने को धर्म के ठेकेदार कहके नियमत: धनियों और मालदारों का ही साथ देते हैं और शोषितों एवं पीड़ितों को छोड़ देते हैं; हालाँकि वही इनके चेले होते और उन्हीं से इनकी गुजर होती है।
'Religion cannot be stopped. Conscience cannot be stilled. Religion is a matter of conscience and conscience is free. Worship and religion are free' (Stalin to Dean of Canterbury.)
'धर्म को रोका नहीं जा सकता। अंतरात्मा या हृदय को दबाया नहीं जा सकता। धर्म तो हृदय की चीज है और हृदय है स्वतंत्र। इसीलिए पूजा और धर्म स्वतंत्र हैं।' (स्तालिन का उत्तर)।
यही कारण है - यह एक प्रमुख कारण है - जिसके करते मार्क्सवाद में धर्म का विरोध पाया जाता है। धर्म को मानवसमाज के लिए अफीम (Religion is the opium of the people) बताने की यही असली वजह है। क्योंकि शोषितों तथा पीड़ितों पर धर्माचार्यों का जादू चल जाता है और उनके उत्थान के लिए होने वाला सारा यत्न बेकार-सा हो जाता है। ऐसी परेशानी होती है कि कुछ कहिए मत। हम मानते हैं कि धर्म के संबंध में मार्क्सवाद की निश्चित बातें हैं और पक्के मार्क्सवादी इस मामले में बुनियादी तौर पर अलग जाते और कोई रियायत करने को तैयार नहीं हैं। लेनिन ने धर्म-संबंधी अपने एक लेख में कहा है कि 'मार्क्सवाद तो भौतिकवाद है। इसीलिए वह बेमुरव्वती के साथ धर्म का विरोध करता है' - "Marxism is materialism. As such it is ruthlessly hostile to religion." मगर घबराने का सवाल नहीं है। यदि ठंडे दिल से विचारें तो पता चलेगा कि इसकी तह में और चीज है। सभी सिद्धांत की स्थापना और प्रतिपादन के मूल में कुछ खास बातें और परिस्थितियाँ रहती हैं और अगर हम उन पर खयाल न करें तो गलती कर सकते हैं।
मार्क्सवाद का मूल सिद्धांत द्वन्द्ववाद (dialectics) है और उसका यदि अबाध प्रयोग किया जाए - और दूसरी बात हो भी नहीं सकती - तो श्रेणीविहीन समाज के बन जाने के बाद भी यह द्वन्द्ववाद तो चालू रहेगा ही। उसका परिणाम क्या होगा, कौन कहे? यदि द्वन्द्ववाद से प्रगति होती है तो यह तो मानना ही होगा कि वर्गविहीन समाज सभी प्रगति के साधनों से पूर्णरूपेण संपन्न होने के कारण और भी उन्नति करेगा, सभी तरह की उन्नति - शारीरिक, मानसिक, वैज्ञानिक आदि - जिसके फलस्वरूप कौन-कौन से अज्ञात तत्त्व विदित होंगे यह कौन बताए? मार्क्सवाद तो श्रेणीविहीन समाज तक ही फिलहाल रुक जाता है। दरअसल बात यह है कि ज्ञान की ठेकेदारी ले लेना अच्छा नहीं, बुद्धिमानी नहीं। यदि उस समय ईश्वर या आत्मा का पता लग जाए तो क्या इनकार किया जाएगा, सिर्फ इसीलिए कि मार्क्सवाद उसे नहीं मानता? बुद्धिमानी इसी में है कि भविष्य के झमेले में न पड़ें और उसका रास्ता किसी के भी लिए बंद न करें - चाहे वह ईश्वरवादी बननेवाला हो या अनीश्वरवादी ही रहनेवाला हो। हाँ, आज इसके करते दिक्कत है, आज ईश्वरवाद प्रगति का बाधक है। क्योंकि जिस ज्ञान पर ही उसका टिक सकना या न टिक सकना संभव है और उचित भी है उसी का बाधक वही बन गया है! जिसे ज्ञानस्वरूप कहा जाए वही ज्ञानप्रसार का विरोधी! मगर स्थिति कुछ ऐसी ही बेढब है। इसलिए प्रगति चाहने वालों को सारी शक्ति लगा के उसका बेमुरव्वती से विरोध करना चाहिए - ऐसा करना चाहिए कि किसी भी तरह वह हमारे रास्ते में अड़ंगे डाल न सके। बस! मेरे जानते यही मार्क्स का आशय है, होना चाहिए और लेनिन के उक्त वाक्यों का यही अर्थ मैं समझता हूँ। इसीलिए इसमें साथ भी देता हूँ। आगे यह बात और भी साफ होगी।
लेनिन उसी लेख में आगे लिखता है, 'The fight against religion must not be confined to abstract preaching. The fight must be linked up with the concrete practical class movement directed towards eradicating the social roots of religion.'
'No education books will obliterate religion from the minds of those condemned to hard labour of capitalism, untill they themselves learn to fight in a united, organised, systematic and conscious manner the roots of religion, the domination of capital in all its forms.'
'धर्म के विरुद्ध लड़ी जाने वाली लड़ाई सिर्फ दिमागी बहस-मुबाहसे तक ही परिसीमित न होनी चाहिए। किंतु धर्म की जड़ के रूप में जो सामाजिक बातें हैं उन्हें खत्म करने के लिए जो वर्ग-आंदोलन और संघर्ष चलें - चलाए जाएँ - उनके साथ इसे जोड़ देना चाहिए।'
'धर्म की जो जड़ पूँजीवाद की अनेक सूरतों के रूप में कायम है उसे मिटाने के लिए संयुक्त, संगठित, नियमित और समझदारी के साथ लड़ाई चलाना जब तक वे सीख न जाएँ तब तक पूँजीवाद के नीचे सख्त मिहनत ही जिनके पल्ले पड़ी है उन लोगों के दिमाग से कोई भी पढ़ने-लिखने की किताब इस धर्म को जड़मूल से निकाल नहीं सकती है।'
लेनिन के ये उद्धरण इसलिए महत्त्व रखते हैं कि वह इस बात पर जोर देते हैं कि धर्म के खंडन-मंडन के झमेले में पड़ने के बजाए शोषितों का वर्गसंघर्ष ही खूब संगठित रूप से बराबर चलाना और उनमें वर्गचेतना पैदा करना यही बुनियादी चीज है। वह बात नहीं चाहता, काम चाहता था। उसकी आँखें तो बड़ी तेज थी। वह बहुत ही दूर तक देखता था। उसने समझ लिया कि धर्म और ईश्वर के खंडन-मंडन की वितण्डा में पड़के जनसेवक लोग कहीं के न रहेंगे - भटक जाएँगे। काम तो इससे कुछ होगा नहीं। केवल अक्ल की बदहजमी मिटेगी। हाँ, सीधे-सादे जन-साधारण विरोधी जरूर हो जाएँगे। धर्मध्वजी - धर्म के ठेकेदार - उन्हें जनसेवकों और क्रांतिकारियों के खिलाफ आसानी से भड़का देंगे। क्योंकि तर्क दलीलों की पेचीदगी तो वे समझ पाएँगे नहीं। इधर मुल्ले लोग अपनी चिकनी-चुपड़ी बातें आसानी से समझा के उन्हें विरोधी बना देंगे। यदि नास्तिक और धर्मविरोधी लोग अपनी दलील के साथ-साथ गरीबों की कोई ठोस भलाई कर पाते और धर्मध्वजी लोग नहीं कर सकते, तो बात दूसरी होती। क्योंकि तब तो जनसाधारण आसानी से समझ जाते कि हो न हो यही हमारा मित्र है। धर्म के विरुद्ध बोलता है तो क्या? काम तो हमारा ही करता है न? यदि दो-चार लात मार के भी गाय काफी दूध दे, तो बुरा कौन माने? यही वजह है कि लेनिन उस संघर्ष पर ही जोर देता है जिससे जनता को लाभ होता है और वह खिंच आती है। लड़ाई ही ऐसी चीज है जो उसे अपनी ओर खींच लेती है।
एक बात और है। जब जनता दिमागी बारीकियों को समझ पाती ही नहीं और हमें उसी को समझा के उठाना है, तो ऐसा क्यों न करें कि दोनों पक्षवाले - आस्तिक-नास्तिक - साफ ही कह दें कि इस झगड़े से क्या काम? धर्म-वर्म भी तो लोगों के हितार्थ ही है और यहाँ जीते जी नारकीय यंत्रणा भोग के स्वर्ग जाने के बजाए जो यहीं आराम मिले वही ठीक। आखिर स्वर्ग के लिए कोई मरना तो चाहता है नहीं। इसलिए आइए पहले यहीं लोगों को आराम पहुँचाने के लिए ही कुछ कर लें, लोगों की तरफ से उनके हकों के लिए लड़ लें। हम जानते हैं कि धर्म के ठेकेदार ऐसा नहीं करेंगे। मगर जनसेवक उन्हें ऐसा करने के लिए मजबूर क्यों न करें? इससे लोगों के सामने उनका परदाफाश हो जाएगा, ज्यों ही उनने इसमें आनाकानी या बहानेबाजी शुरू की। हम तो उनसे और दूसरों लोगों से भी कह देंगे कि हमारा विश्वास है कि धर्मवादी लोग शोषकों का ही साथ खामख्वाह देते हैं - उनके दलाल होते हैं और कमानेवालों को धोखा देते हैं। फिर ऐसे लोगों का और उनके इस धर्म के सिद्धांत का विरोध करें न तो और क्या करें? न वे दूसरी बात कर सकते, सिवाय शोषकों के साथ देने के और न हम धर्म और ईश्वर के विरोध के जरिए उनका विरोध करने और उनकी जड़ उखाड़ने से रुक सकते। हाँ, यदि उनकी बात सच्ची है और जनहित की है तो आएँ पहले यहीं जनसेवा कर लें। तब माना जाएगा कि मरने पर भी उनका धर्म लोगों को लाभ पहुँचायेगा।
यह ऐसी बात है कि लोगों के दिल में जम जाएगी। इससे धर्माचार्यों की कलई भी खुल जाएगी और लोग उन्हें छोड़ के हमारे साथ आ जाएँगे। यही होगा। दूसरी बात हो नहीं सकती। इस तरह हम विजयी होंगे। यदि कहा जाए कि धर्मवाले लोग भी वर्ग-संघर्ष करेंगे, तो यह असंभव बात है। वह इक्के-दुक्के कहीं कुछ भले ही कर लें। मगर सर्वत्र डटके ऐसा कभी कर नहीं सकते। नहीं तो फिर उनका धर्म ही डूब जाएगा - उनके धर्म का सारा आधार ही खत्म हो जाएगा। यह काम वही कर सकते हैं जिनमें आत्मविश्वास हो, जो अपने ही यत्नों से सब कुछ कर डालने की हिम्मत और विश्वास रखते हों। मगर धर्मवाले तो दैव, तकदीर, कर्म, पूर्व जन्म की कमाई और भगवान पर ही भरोसा रखते हैं। उनका अंतिम दारमदार उन्हीं पर होता है। भाग्य में जो बदा होगा सोई होगा, भगवान की मर्जी होगी, जब यही मानना है तो जम के प्राणपन से कौन लड़े? और ये मुफ्त की हलवा-पूड़ी उड़ाके तोंद फुलाने वाले लड़ेंगे? लेकिन यदि असंभव भी संभव हो जाए और वही लोग सर्वत्र वर्गसंघर्ष सफलतापूर्वक चलाने लगें तो चिंता क्या? हमारा काम तो हो गया। मार्क्सवाद जो चाहता है वह हो गया! हमारा काम है वर्गविहीन समाज बनाना न कि ईश्वर को मिटाना या उसके पीछे लाठी लिए फिरना! यदि धार्मिकों ने ही ऐसा समाज बनाया तो भी हमारी जीत हो गई! हमें तो ऐसी दशा में यह कहने का भी हक है, हम तो तब ऐसा भी कह सकते हैं कि धर्म में भी जो गलत चीज है वह भी इसी संघर्ष में ऐसे ही मिट जाएगी जैसे श्रेणियाँ मिटेंगी। फिर शुद्ध समाज की तरह कोई शुद्ध धर्म भी अंत में बन जाए तो हर्ज क्या?
लेनिन या मार्क्स और एंगेल्स के मत में एक और भी खूबी है कि उसमें वर्गसंघर्ष की कसौटी पर धर्म को कसते हैं। हमने तो कही दिया है कि भविष्य का रास्ता मत बंद कीजिए। हाँ, इस समय ईश्वर और धर्म का रास्ता रोक दीजिए। भविष्य से हमारा मतलब है श्रेणीविहीन समाज बन जाने के बाद से। हमारे कलेजे के पास ही फोड़ा हो गया है और उसमें नश्तर लगना जरूरी है। नश्तर लगे भी जरूर; ताकि हम बचें। मगर ऐसा नश्तर हर्गिज न लगे कि कलेजा ही कट जाए और हमीं मर जाएँ। सदा के लिए धर्म या ईश्वर को इजाजत ही न देना और उन्हें आँख मूँद के मार देना कलेजे का चीरना हो जाएगा। हम उससे बचें तो क्या बुरा। हम बिच्छू का डंक बेमुरव्वती से निकाल लें जरूर। मगर उसे जान से मारने तक क्यों परेशान हों? हमें तो लोगों को उसके डंक से ही भविष्य में बचाना है न? या कि उसका खून भी पीना है? हाँ, तो फोड़े पर नश्तर जरूर लगाएँ। आज श्रेणीयुक्त समाज में धर्म के लिए स्थान नहीं है, ऐसा जरूर कहें और खुशी से कहें। मगर कहें या न कहें, हर हालत में वर्गसंघर्ष जरूर करें, ताकि ईश्वरवादियों की पोल खुल जाए। जितनी जरूरत है उतना ही कहें और करें। बहकें न। जरूरत से ज्यादा न बढ़ें जिससे कहीं बहक जाएँ। इससे सजग रहें। हमारे जानते यही मार्क्सवाद का इस संबंध का निचोड़ है।
मगर आइए, जरा और भी विस्तार के साथ लेनिन के इस संबंध के वचनों पर विचार कर लें जो उसी लेख में पाए जाते हैं। वह लिखता है -
'The workers in a certian district and in a certain branch of industry are divided, we will assume, into a progressive section of class conscious Social Democrats, who are, of course, atheists, and a rather backward section, which still maintains contact with the rural district and the peasantry, which believes in God, goes to church and is perhaps under the direct influence of a priest, who we will assume, has organised a christian Labour Union. Let us assume further that the economic struggle in this district has led to a strike. The duty of the Marxist is to place the success of this strike in the forefront and to prevent the workers from being split up into atheists and Christians. Atheist propaganda in such circumstances may be superfluous and even harmful, not from vulgar point of view of frightening away the backward workers, or losing a seat at the elections etc. but from the point of view of the real progress of class struggle, which in the condition of present day capitalist society will lead the Christian workers to Social Democracy and atheism a hundred times more effectively than bare atheist propaganda. In the condition described above an atheist preacher would simply play into the hands of the priests who desire nothing more than that the division among the workers as between strikers and blacklegs should be substituted by a division between atheists and Christians the anarchist preaching irreconcilable war against God would, in such conditions, actually be helping the priests and the bourgeoisie, as indeed the anarchists always help the bourgeoisie.
A Marxist must be a materialist, that is, an enemy of religion, but from the materialist and dialectical standpoint, i.e., he must conceive the fight against religion not as an abstracition, not on the basis of pure theoretical atheism, equally applicable to all times and conditions, but concretely, on the basis of the class struggle which is actually going on and which will train and educate the masses better than anything else. A Marxist should take into consideration all the concrete circumstances, should always be able to see the dividing line between anarchism and opportunism (the dividing line is relative flexible, changeable, but it exits), should take care not to fall into the abstract, verbal, empty 'revolutionism' of the anarchist, or into the vulgar opportunism of the petty bourgeois or liberal intellectual, who shirks from the fight against religion, who evades this task, who reconciles himself with the belife in God, who is guided not by the interests of class struggle, but by the petty pitiful fear of offending, repelling or scaring off others by the wise precept, 'Live and let live' etc.
All other questions that rise in connection with the attitude of Social Democrats towards religion should be decided from the point of view outlined above. For example, it is frequently asked whether a clergyman may join the Social Democratic Party and usully this question is answered in the affirmative, without any reservation, and reference is made to the practice of Social Democratic parties in Europe. This practice is a result not only of the application of Marxist doctrines to the labour movement, but also of the special historical conditions in the west which do not exist in Russia. Consequently, an affirmative reply would not be correct. We cannot say once and for all that a clergyman cannot, in any circumstances, become a member of the Social Democratic Party, But on the other hand, we cannot make so positive a reply to the contrary. If a clergyman wishes to join us in political work, conscientiously carries out party work, and does not infringe the party programme, then he may be accepted into the ranks of Social Democracy, for the contradiction between the spirit and principles of our programme and the religious convictions of the clergyman may, in the circumstances, remain a matter that concerns him alone. A political organisation cannot undertake to examine all its members to see whether there is any contradiction between their views and the programme of the party. But of course such a case is very rare even in Europe, and in Russia is scarcely probable. If on the other hand, the clergyman joined the Social Demorcatic party and concerned himself mainly with preaching his religious ideas, then, of course, he would have to be expelled. We must not only admit, we must do everything possible to attract workers who retain their belief in God in to the Social Democratic Party. We are resolutey opposed to offending. But we attract them to our party in order to allow them to fight against it. We permit freedom of opinion inside the party, but within certain limits defined by the freedom of forming groups. We are not obliged to go hand in hand with those who advocate views rejected by the mojority of the Party.'
इसका आशय यह है, 'कल्पना करें कि एक इलाके के किसी कारखाने के मजदूरों के दो दल हो गए हैं। एक दल है प्रगतिशील एवं वर्गचेतनायुक्त सोशल डेमोक्रेटिक पार्टीवालों का, जो बेशक नास्तिक हैं। दूसरा दल है पिछड़े हुओं का, जिनका संबंध देहाती इलाकों और किसानों के साथ अभी कायम है, जो ईश्वर में विश्वास रखते हैं और गिरिजाघरों में जाते हैं और जिन पर वहाँ के पादरी का खूब असर है। हम यह भी मान लें कि उस पादरी ने वहाँ एक 'क्रिस्तान-मजदूर-संघ' भी संगठित कर रखा है। हम यह भी कबूल कर लें कि उस इलाके के मजदूरों की आर्थिक लड़ाई के परिणामस्वरूप वहाँ हड़ताल हो गई है। उस दशा में वहाँ मार्क्सवादी का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह उस हड़ताल की सफलता को ही मुख्य बात माने और इस बात की कोशिश करे कि उस संघर्ष से संबंध रखने वाले मजदूरों में क्रिस्तान और नास्तिक - इस तरह के - दो दल बनने न पाएँ - हड़ताल के समय इस तरह की दलबंदी होने न पाए। ऐसी परिस्थिति में तो नास्तिकता का प्रचार केवल व्यर्थ ही न होगा; किंतु हानिकारक भी होगा - हानिकारक इस मोटी दृष्टि से नहीं कि पिछड़े विचार के मजदूर वहाँ भड़क जाएँगे, या चुनाव के समय नास्तिक प्रचारकों को उनका वोट न मिलने से मजदूर-संघ के चुनाव में वे हार जाएँगे। किंतु वास्तविक वर्गसंघर्ष की प्रगति की दृष्टि से भी वह हानिकारक होगा और वर्गसंघर्ष की वह प्रगति ही, वर्तमान पूँजीवादी समाज की हालत में, नास्तिकता के केवल प्रचार की अपेक्षा सौ गुना प्रभावशाली रीति से क्रिस्तान मजदूरों को सोशलडेमोक्रेटिक पार्टी तथा नास्तिकवाद में प्रवेश कराएगी। बल्कि वैसी दशा में तो नास्तिकता का प्रचारक उन पादरियों का ही मददगार बन जाएगा जो सबसे अधिक यही बात चाहते हैं कि हड़ताल के समय भी मजदूरों में हड़तालकारी और उसके तोड़नेवाले ऐसे दो दल न होकर नास्तिक और आस्तिक (क्रिस्तान) यही दो दल कायम रहें। उस हड़ताल में ईश्वर के विरुद्ध बेमुरव्वती से युद्ध चलानेवाले अराजक लोग तो पादरियों और पूँजीवादियों की ही मदद करेंगे, जैसा कि वे लोग सचमुच सदा ही ऐसी सहायता करते ही हैं।
'लेकिन मार्क्सवादी को तो भौतिकवादी होना होगा - अर्थात वह ईश्वर का शत्रु तो होगा। मगर होगा भौतिकवाद तथा द्वन्द्ववाद की ही दृष्टि से। इसका आशय यह है कि उसे धर्मविरोधी लड़ाई को केवल एक दिमागी चीज नहीं बनाना होगा और न उसे केवल नास्तिकता की सैद्धांतिक दृष्टि से चलाना ही होगा - ऐसी सैद्धांतिक दृष्टि से जो हमेशा हरेक परिस्थिति में समान-रूप से लागू होती है। किंतु स्थूल सांसारिक (बाहरी हिताहित की) दृष्टि से ही चलाना होगा, जिसका आधार होगा वह वर्गसंघर्ष जो सचमुच चालू है और जो जनसमूह को और उपायों की अपेक्षा कहीं अच्छी तरह शिक्षित तथा कुशल बनाएगा। मार्क्सवादी को चाहिए कि वह वास्तविक परिस्थिति का खयाल करे, वह इस योग्य हो कि बखूबी समझ सके कि कहाँ तक जाने पर अराजकवाद और अवसरवाद से मेल हो जाएगा (एक ऐसी सीमा जरूर होती है जो अराजकता तथा अवसरवाद को पृथक करती है। यह ठीक है कि वह सीमा आपेक्षिक है, उसका संकोच विस्तार होता रहता है, और वह बदलती रहती है), मार्क्सवादी को हमेशा सतर्क रहना चाहिए, ताकि वह अराजकतावादियों के ख्याली, जबानी और खोखले क्रांतिवाद में कहीं फँस न जाए, या कहीं ऐसा न हो जाए कि वह टटुपुँजिये बाबुओं या उदारतावादी दिमागदारों के भद्दे अवसरवाद का शिकार ही हो जाए। ये टटुपुँजिये बाबू या उदार दिमागदार ऐसे होते हैं कि धर्म-विरोधी संघर्षों से भागते और पिंड छुड़ाते फिरते हैं और आस्तिकता के साथ उनका समझौता हो जाता है। उन्हें इस बात में पथदर्शक वर्गसंघर्ष का स्वार्थ तो होता नहीं। किंतु वे तो हमेशा इसी तुच्छ एवं दयाजनक डर से काँपते रहते हैं कि कहीं और लोग रंज न हो जाएँ, हट न जाएँ या भड़क न उठें। वे तो इसी में बुद्धिमानी समझते हैं कि खुद भी कायम रहें और दूसरे भी बने रहें।
'इस संबंध में जो भी दूसरे प्रश्न उठते हैं कि सोशलडेमोक्रेटिक पार्टी के लोग धर्म के बारे में कौन-सा रुख अख्तियार करें उन सबों का निर्णय इसी ऊपर बताए सिद्धांत के ही आधार पर दिया जाना चाहिए। दृष्टांतस्वरूप प्राय: ऐसा पूछा जाता है कि पादरी लोग सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी के सदस्य बन सकते हैं या नहीं? इसका उत्तर भी बिना आगा-पीछे किए ही आमतौर से 'हाँ' दिया जाता है और कहा जाता है कि यूरोप की ये पार्टियाँ ऐसा ही तो करती हैं। असल में यूरोप में जो यह रीति चल पड़ी वह सिर्फ इसीलिए नहीं कि मजदूर आंदोलन में मार्क्स के मंतव्यों का प्रयोग किया गया था। बल्कि इसका कारण पश्चिम की कुछ खास ऐतिहासिक परिस्थितियाँ थीं, जो रूस में नहीं हैं। फलत: 'हाँ' वाला उत्तर यहाँ ठीक नहीं है। हम एक ही साँस में सबों के लिए यह नहीं कह सकते कि किसी भी हालत में कोई भी पादरी इस पार्टी का मेम्बर हो नहीं सकता। लेकिन दूसरी ओर हम विरोध में भी एक निश्चित उत्तर नहीं दे सकते। यदि कोई पादरी राजनीतिक कामों में हमारा साथ देना चाहता है, हमारी पार्टी का काम समझ-बूझ के करता है और पार्टी के कार्यक्रम का उल्लंघन नहीं करता, तो उसे हम अपनी पार्टी में ले सकते हैं। क्योंकि उस दशा में हमारे कार्यक्रम के सिद्धांतों और भावों के साथ अगर उस पादरी के धार्मिक विचारों का कोई विरोध हो तो वह केवल उस पादरी के ही विचरने की बात है। किसी राजनीतिक संस्था का यह काम हर्गिज नहीं है कि वह अपने प्रत्येक मेम्बरों में यह बात ढूँढ़ती फिरे कि आया उसके कार्यक्रम के साथ उनके दूसरे विचारों का विरोध तो नहीं है। लेकिन बेशक ऐसे पादरी तो यूरोप में भी बहुत ही कम मिलते हैं और रूस में तो वे शायद ही मुश्किल से मिल सकें।
'विपरीत इसके यदि कोई पादरी सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी में दाखिल होके अपना प्रधान काम अपने धार्मिक विचारों के प्रचार को ही बना ले, तो बेशक उसे पार्टी से निकाल देना ही होगा। हमें सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी में मजदूरों को सिर्फ दाखिल करना ही नहीं होगा। किंतु जो मजदूर ईश्वर में विश्वास करते हैं उन्हें भी अपनी ओर खिंच आने के लिए सभी संभव उपाय करने होंगे। हम किसी को भी भड़काने या रंज करने के पक्के विरोधी हैं। लेकिन हम तो उन्हें अपनी पार्टी में इसीलिए खींचते हैं कि उन्हें मौका दें कि वे हमसे (पार्टी से) लड़ लें। हम तो पार्टी के भीतर विचार-स्वातंत्र्य का मौका देते ही हैं। मगर इस स्वतंत्रता की कुछ सीमाएँ हैं जिनका निर्धारण पार्टी के भीतर छोटे-मोटे दल बनने से नियमों से ही हो जाता है। पार्टी के बहुमत ने जिन विचारों को नहीं माना हो उन्हीं का जो प्रचार करें उनसे हमारा साथ नहीं हो सकता।'
हमने जानबूझकर यह लंबा अवतरण दिया है जिससे धर्म के इस पेचीदे मामले पर काफी प्रकाश पड़ जाए। इसमें कई ऐसी बातें हैं जो बहुत बड़ा महत्त्व रखती हैं। इसलिए उन पर विशेष खयाल होना जरूरी है। लेनिन ने यह साफ कह दिया है कि हम खयाली और सैद्धांतिक रूप से ही नास्तिकता या अनीश्वरवाद के समर्थक नहीं हैं। बल्कि हम तो इस निरी दिमागी दुनिया के विरोधी हैं। इसमें तो उसे अवसरवाद और अराजकवाद साफ ही मालूम होता है। इसलिए भी उसने इसका विरोध किया है।
इसी के साथ वह यह भी साफ कहता है कि हमारा (मार्क्सवाद का) अनीश्वरवाद तो ऐसा नहीं है जो हर समय, हर परिस्थिति में लागू किया जा सके। यह कोई कोरी सिद्धांत की चीज नहीं है। यह तो सिर्फ व्यावहारिक बात है। इसीलिए इसका प्रयोग व्यावहारिक परिस्थिति को देखने के बाद ही खूब जानबूझ के करना होगा। कहीं ऐसा न हो कि हमने परिस्थिति तो इसके अनुकूल देखी और इसे लागू भी किया। मगर ऐसा हो गया कि हमने आगे का मौका समझा नहीं कि अब इसे बंद कर देना होगा; क्योंकि इसकी सीमा पूरी हो रही है। नतीजा यह हुआ कि अवसरवाद में हम जा फँसे! इसीलिए हमेशा सतर्क रहने पर उसने जोर दिया है।
वह यह भी कहता है कि हमें तो वर्ग संघर्ष देखना है - हमारे लिए तो नास्तिकवाद असल चीज है नहीं। वह यदि कुछ भी हो सकता है तो ज्यादा से ज्यादा यही कि वर्गसंघर्ष को निर्विघ्न चालू करने में मददगार हो जाए। मगर हमारा साध्य या असली लक्ष्य तो है वह वर्गसंघर्ष ही। इसलिए हमें बराबर यह खयाल रखना होगा कि कहीं हमारे नास्तिकवाद से उलटे उसी में हानि न पहुँच जाए। कहीं ऐसा न हो कि साधन ही साध्य की छाती पर कोदों दलने लग जाए - कहीं देवी से बकरा ही बड़ा न हो जाए और ऐसा न हो कि देवी की छाती पर वही चढ़ बैठे। यह सबसे मार्के की बात उसने कही है।
वह तो वर्गसंघर्ष का दृष्टांत देके कहता है कि हड़ताल वगैरह के समय नास्तिकता का प्रचार उसके लिए घातक होता है। हड़ताल के समय तो मजदूरों में एकता चाहिए - दलबंदी नहीं चाहिए। यदि कोई भी दलबंदी उस समय हो सकती है, तो ऐसी ही जिस पर मजदूरों और उनके नेताओं का कोई वश न हो और वह हो सकती है हड़तालियों और हड़ताल विरोधियों की ही, जिन्हें, 'काली-टाँगें' कहते हैं और जिनका काम होता है हड़तालियों की जगह पर जाके काम करें और इस तरह हड़ताल को तोड़ें! शेष मजदूर तो एक ही दल में होंगे। अगर पहले धर्म-वर्म के नाम पर दल बने भी हों तो वह फौरन खत्म कर दिए जाएँ। लेनिन तो यह भी कहता है कि पादरी-पुरोहित तो दरअसल मजदूरों के नेता होते नहीं। इसलिए यह बात तो वही चाहते हैं कि हड़ताल या वर्गयुद्ध के समय भी आस्तिक और नास्तिक दलों का बखेड़ा जरूर ही रहे। वे तो पूँजीपतियों के दलाल होते हैं। इसी से यह बात चाहते हैं। इसीलिए लेनिन का कहना है कि नास्तिकता का प्रचार संघर्ष के समय जो कोई करता है वह पूँजीवादियों का सहायक और दलाल होता है, चाहे वह यह बात भले ही न समझे।
और जब असली मौके पर - संघर्ष और लड़ाई के ही समय - ही हम आस्तिक-नास्तिक का झमेला खड़ा कर नहीं सकते, जब उस वक्त ऐसा करने की हमें इजाजत हई नहीं, तो फिर मार्क्सवाद पर नास्तिकता के इलजाम का अर्थ ही क्या है? जब हम मौज में बैठे हैं तब तो बहुत-सी बातें करते रहते ही हैं। उन्हीं में यह नास्तिकतावाली बात भी हो सकती है। कितने ही प्रकार के वाद-विवाद और मतभेद होते हैं। बातें जानने, समझने और स्थिति के स्पष्टीकरण के लिए यह चीजें जरूरी होती हैं। मगर उन्हें उद्देश्य या मान्य समझ लेना भूल है। नास्तिकवाद आदि की बातें तो वर्गसंघर्ष की तैयारी के रूप में ही की जाती हैं। क्योंकि पादरी-पुरोहित लोग धर्म, भाग्य और भगवान के नाम पर जमींदारों और कारखानेदारों के साथ किसानों और मजदूरों को लड़ने से रोकते हैं। फलत: उन्हें मनाना, किसान मजदूरों को समझाना और पादरी-पुरोहितों का मुँह बंद कर देना जरूरी हो जाता है। यह भी ठीक है कि जब तक जड़मूल से भाग्य और भगवान को ही उड़ाया न जाए तब तक वे मानते ही नहीं। वे होते हैं बड़े ही बेहया और उनका असर शोषित जनता पर खूब होता है। इसीलिए नास्तिकवाद अनिवार्य होता है। यह भी बात होती है कि धर्म और ईश्वर के मामले में जरा भी नर्मी और मुरव्वत से काम लिया जाए तो एक तो पादरी-पुरोहित चट कह बैठते हैं कि देखा न, आखिर वे लोग भी, दबी जबान से ही सही, भाग्य और भगवान को मानते ही हैं? फलत: सारा किया-कराया चौपट हो जाता है। दूसरी बात यह हो जाती है कि किसान और मजदूर दिलोजान से लड़ने को तैयार नहीं हो पाते। क्योंकि उसी नर्मी के करते उनमें भी कमजोरी आती है और अंततोगत्वा इतना तो सोचते ही हैं कि जैसा होगा देखा जाएगा।
और जब वह यह भी कहता है कि अनीश्वरवाद हर देश और हर काल के लिए नहीं है और उसका प्रचार विशेष सामाजिक परिस्थिति में ही होता है, तो फिर इसे सदा के लिए मान्य करके मार्क्सवाद पर निरीश्वरवाद का कलंक लगाना कहाँ तक जायज है? वह यह भी तो कहता ही है कि वर्गसंघर्ष के आधार पर ही निरीश्वरवाद का प्रचार करना होगा। उसके मत से वर्तमान समय में संघर्ष चालू हो वह जनता को कहीं अच्छी तरह शिक्षित और वर्गचेतनायुक्त कर देगा। फिर तो रास्ता साफ हो जाता है। मार्क्सवाद का असली काम निरीश्वरता प्रचार नहीं है। उसका तो काम है शोषितों एवं पीड़ितों को - कमाने वालों को - शिक्षित तथा वर्गचेतनायुक्त करना, जो दूसरे अन्य सभी उपायों की अपेक्षा वर्गसंघर्ष से ही बहुत अच्छी तरह पूरा होता है। फिर निरीश्वरता के कोरे प्रचार को छोड़ हम इसी संघर्ष में ही क्यों न लगें? इससे तो स्पष्ट हो जाता है कि वह नास्तिकवाद को साधन के रूप में ही स्वीकार करता है।
इस लंबे उद्धरण के पहले जो हमने लेनिन के दो छोटे-छोटे उद्धरण दिए हैं उनमें जो सबसे मार्के की बात है वह यह है कि दोनों में यही कहा गया है कि धर्म की बुनियाद तो पूँजीवाद और उसकी अनेक शकलें हैं। वह तो पूँजीवाद के आधार पर बनी सामाजिक व्यवस्था को ही वर्तमान धर्म और ईश्वरवाद की जड़ मानता है। फलत: मुख्य काम वह यही बताता है कि उस जड़ को ही खोदना होगा। पत्ता और शाखा तोड़ने से पेड़ तो रही जाएगा। इसीलिए इस सामाजिक व्यवस्था को ही मिटाने पर हमें जोर देना चाहिए। इससे साफ और क्या कहा जा सकता है?
और जब पादरी-पुरोहितों तक को भी अपनी पार्टी में लेने की राय वह देता है, बशर्ते कि उनका प्रधान काम धर्म प्रचार न होके पार्टी के कार्यक्रम को पूरा करना ही हो, तो फिर निरीश्वरता के इलजाम के कुछ मानी रही नहीं जाते। जो पादरी पार्टी में आके पार्टी के काम की अपेक्षा धर्म प्रचार को ही प्रधान काम समझे और प्रधानतया (स्मरण रहे 'प्रधानतया' लिखा है) वही करे उसी को पार्टी से निकालने की बात कही गई है। इससे तो और भी सफाई हो जाती है। वह तो कहता है कि हमें ऐसे सभी उपाय करने होंगे जिससे धर्म में विश्वास करने वाले किसान-मजदूर जरूर हमारी पार्टी में आएँ और हमारी इस चीज का - नास्तिकता का - विरोध करें - इसके खिलाफ लड़ें। हमें उन्हें इसका मौका देने के लिए ही पार्टी में खींचना होगा। और यह तो जरूरी नहीं कि आस्तिक मजदूर थोड़े और नास्तिक ही ज्यादा हों। बात तो उलटी ही होती है। फिर भी वह कहता है कि पार्टी के सदस्यों को भी अपने स्वतंत्र विचार रखने की आजादी किसी हद तक रहनी ही चाहिए। फलत: यदि पार्टी में बहुमत आस्तिकों का ही हो जाए तो? लेनिन को इसकी परवाह नहीं है। वह तो खूब जानता है कि असल चीज यह न होके वर्ग संघर्ष ही असल चीज हमारी पार्टी के लिए है, जिसमें आस्तिक-नास्तिक सभी साथ देंगे ही। नतीजा यह होगा कि संघर्ष चालू होने पर ज्यों-ज्यों उसमें सफलता मिलेगी त्यों-त्यों धर्म के ठेकेदारों का परदाफाश होता जाएगा। फलस्वरूप अंत में सभी या अधिकांश मजदूरों की आस्था धर्म से खुद-ब-खुद उठ जाएगी। वे उसे खुद पूँजीवाद की उपज और करामात समझ उससे घृणा कर बैठेंगे और बहुमत से निर्णय कर देंगे कि धर्म-वर्म की बात ठीक नहीं। फिर तो सभी को यही मानना ही होगा।
हम लेनिन के दो उद्धरण और देके यह विवाद खत्म करेंगे। वह अपने लेख के प्राय: शुरू में ही कहता है कि 'Religion is the opium of the people, said Marx, and this thought is the corner-stone of the whole Marxian philo-sophy on the question of religion. Marxism regards all modern religions and churches, all religious organisations as organs of bourgeois reaction, serving to drug the minds of the working class and to perpetuate their exploitation.'
इसका आशय है कि 'मार्क्स ने कहा था कि धर्म तो लोगों के लिए अफीम है और उसका यही कहना, यही विचार धार्मिक प्रश्नों के बारे में मार्क्स के समूचे सिद्धांत की असली बुनियाद है। मार्क्स के सिद्धांत के अनुसार आजकल के (modern - यह याद रखने की चीज है) धर्म, गिरजे वगैरह और सभी धार्मिक संस्थाएँ पूँजीवादी प्रतिगामियों के हथकंडे हैं, जिनका इस्तेमाल वे लोग श्रमजीवियों के दिमागों में जहर भरने और इस तरह उनका शोषण बराबर जारी रखने के लिए करते हैं।'
यहाँ तो इस बात को खोल के कह दिया है कि वर्तमान धर्म, मठमंदिर और धर्म की संस्थाएँ जाल हैं, धोखे की चीजें हैं। इन्हें मालदारों ने कमाने वालों को ठगने के ही लिए बनाया है। इन्हीं के द्वारा भोलीभाली जनता के दिमाग में जहर भरा जाता है। जैसे बच्चों को अफीम खिलाके सुला देते हैं वही बात पूँजीवादी धर्म के जरिए आम लोगों के बारे में करते हैं। उनके दिमाग खराब कर देते हैं। मार्क्स के धार्मिक सिद्धांतों की यही बुनियाद है। मार्क्स ने जो धर्म का विरोध किया है उसका असली कारण यही है। हमने तो शुरू में ही यही बात कही थी। यहाँ जो 'वर्तमान' धर्म कहा है, उससे भी यह झलकता है कि एक तो मार्क्स को इन बातों का विरोधी बनाने में यही चीजें कारण हुईं, इन्हीं की हरकतों ने मार्क्स को इनका - धर्म का - बागी बना दिया। दूसरे पीछे या पहले (भूत या भविष्य में) ऐसे धर्मों या धर्म की संभावना भी इससे सिद्ध हो जाती है, जिनका विरोध मार्क्स को इष्ट नहीं है। हमने गीताधर्म के निरूपण में धर्म का जो रूप गीता को मान्य बताया है वह तो वर्तमान धर्म से जुदा ही है। इसलिए उसके साथ भी मार्क्स का विरोध नहीं है, ऐसा सिद्ध हो जाता है।
जरा और भी सुनिए कि लेनिन क्या कहता है। वह अभी-अभी लिखे गए वाक्यों के बाद ही लिखता है कि, At the same time, however, Engels frequently condemned those who, desiring to be more 'left' or more 'revolutionary' than Social Democracy, attempted to introduce into the programme of the workers, party a direct profession of atheism in the sense of declaring war on religion. In 1874, speaking of the celebrated manifesto issued by the Blanquist refugees from the Commune, who were living in exile in London, Engels described their clamorous declaration of war upon religion as stupid, and stated that it would be the best means of reviving religion and retarding its death, Engels accused the Blanquists of failing to understand that only the class struggle of the workers, by drawing the masses in to class-conscious revolutionary practical work, can really liblrate the oppressed masses from the yoke of religion...and with equal ruthlessness condemned his pseudo-revolutionary idea of suppressing religion in socialist society.'
इसका अभिप्राय है कि 'इसी के साथ एंगेल्स ने उन लोगों की भर्त्सना की, जिसने सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी की अपेक्षा ज्यादा वामपक्षी या क्रांतिकारी बनने के गुमान में श्रमजीवियों की पार्टी के कार्यक्रम में नास्तिकता को साफ-साफ स्वीकार करने की बात रखने की कोशिश की। इसमें उनका साफ मतलब था धर्म के खिलाफ जेहाद बोलना - युद्धघोषणा करना। पेरिसवाले कम्यून (साम्यवादी सरकार) से भाग के जो ब्लांकी (अराजकतावादी नेता) के अनुयायी लंदन में रहते थे उनने जो महत्त्वपूर्ण घोषणापत्र प्रकाशित किया था उसके संबंध में 1874 में बोलते हुए एंगेल्स ने उनकी धर्मविरोधी युद्धघोषणा की लंबी बातों को मूर्खतापूर्ण बताया और कहा कि धर्म की मौत को रोक के उसे फिर से फैलाने का सबसे सुंदर साधन यह युद्ध घोषणा ही हो जाएगी। एंगेल्स ने ब्लांकी के अनुयायियों पर यह भी आरोप लगाया कि वह यह समझते ही नहीं कि सिर्फ श्रमजीवियों का वर्गसंघर्ष ही, जनसमूह को वर्गचेतनायुक्त क्रांतिकारी अमली काम में खींच के, पीड़ित जनता को सचमुच धर्म के जुए से मुक्त कर सकता है।...और उसी प्रकार पूरी बेरहमी के साथ उसने, समाजवादी समाज में धर्म को मिटा देने के संबंध में ड्यूहरिंग के नकली क्रांतिकारी विचारों की भी लानत-मलामत की।'
इस पर अब टीका-टिप्पणी बेकार है। एंगेल्स भी धर्म की बुनियाद पूँजीवाद को ही उसके मान के पंजे से छूटने को ही धर्म के जुए से मुक्ति मानता है। वह तो साफ ही कहता है कि श्रेणीविहीन समाज में जो लोग धर्म का नामोनिशान मिटाने के स्वप्न देखा करते हैं वह नकली क्रांतिकारी और रंगे सियार हैं! हमने तो यह पहले ही कहा है कि भविष्य का दरवाजा ही ईश्वर या धर्म के लिए बंद करने की कोशिश अति हो जाएगी। एंगेल्स ने तो अपनी 'ड्यूहरिंग के विरुद्ध' नामक पुस्तक में ही, जिसका जिक्र लेनिन ने ऊपर किया है, यह भी लिखा है कि धर्म के विरोध में वाद-विवाद और लड़ाई छेड़ देना लोगों के ध्यान को मार्क्स के असली राजनीतिक लक्ष्य से हटाके गलत रास्ते में ले जाना हो जाएगा और यह गलत बात होगी। उसके मत से मार्क्सवाद तो दरअसल राजनीतिक है, न कि धार्मिक। मार्क्स वर्गविहीन समाज की स्थापना का भूखा है, न कि खामख्वाह धर्मविहीन समाज का।
बस, उद्धरणों की बात हो चुकी। इन पर विवाद भी हमने काफी कर दिया। अब एक ही बात और कहके हम आगे बढ़ेंगे। लेनिन ने कहा है कि मार्क्सवाद तो भौतिकवाद है और मार्क्सवादी द्वन्द्ववाद का सिद्धांत मानते हैं। इसलिए उन्हें धर्म या ईश्वर का विचार या खंडन-मंडन भी द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार ही करना होगा। यही बात जरा समझने को रह जाती है। इसीलिए हमें इस संबंध में दो-चार शब्द कहने पड़ जाते हैं। क्योंकि यदि हम इस बात को, इस कुंजी को, बखूबी समझ जाएँ तो धर्म और ईश्वर के बारे में मार्क्सवाद का क्या रुख है और उस दृष्टि से हमें खुद क्या करना चाहिए, यह बात अच्छी तरह साफ हो जाएगी। बड़े-बड़े क्रांतिकारी कहे जाने वाले भी इस संबंध में भयंकर भूलें करते आए हैं, यह तो एंगेल्स ने ही खुद कह दिया है। इसलिए थोड़े से स्पष्टीकरण की जरूरत अभी है। अभी तक, हमारे जानते, इसका पूरा स्पष्टीकरण नहीं हो पाया है।
यदि भगवान ऐसा हो कि मरने के बाद की किसी दुनिया का प्रबंध करता हो जिसे स्वर्ग, नरक, बैकुंठ या बिहिश्त कहते हैं; अगर हमारी इस भौतिक दुनिया के कारबार से उसका कोई ताल्लुक न हो, तो मार्क्स को और मार्क्सवादियों को भी उससे नाहक कलह क्यों हो? जिस दुनिया का जीते-जी हमसे कोई वास्ता नहीं, जो निराली दुनिया है, मगर भौतिक नहीं है, आध्यात्मिक है, उसकी फिक्र हम क्यों करें, अगर वह बिलकुल ही अलग और जुदी है? अगर वह दुनिया और उसका प्रबंधक हमारे इस भौतिक संसार के कारबार में 'दालभात में मूसरचंद' नहीं बनता और दखल नहीं देता, तो हम भी उसमें क्यों दखल देने जाएँगे? अगर काजी जी शहर की फिक्र से नाहक दुबले हो रहे थे, तो हम भी काजी क्यों बनें? हम यहाँ कुछ यत्न करते और इस प्रकार इस भौतिक संसार एवं समाज को पूर्णत: बदलना चाहते हैं। हमारे इस काम में धर्म और भगवान यदि कोई मदद न करें तो भी हमें उनसे कोई शिकायत नहीं, गिला नहीं। मार्क्सवादी किसी अदृश्य तथा अलौकिक (Supernatural) शक्ति की मदद चाहते ही नहीं। उन्हें इस काम में ऐसी शक्ति की परवाह और जरूरत नहीं है। बल्कि वे तो ऐसा मानते हैं कि ज्यों ही मदद के भी नाम पर किसी शक्ति ने हमारे काम में दखल दिया कि सारा गुड़ गोबर हुआ। वे तो ऐसी शक्ति का किसी भी तरह इस काम में पड़ना ही खतरनाक मानते हैं। क्योंकि तब तो हमारा अपना यत्न ही ढीला हो जाएगा, शिथिल हो जाएगा और इसी में सारा खतरा है।
(हम इस समाज को अमूल परिवर्तित करने एवं बदलने के लिए किए जाने वाले अपने यत्न में किसी भी वजह से, किसी भी मुरव्वत से जरा भी शिथिलता बरदाश्त नहीं कर सकते। भाग्य और भगवान हमारे विरुद्ध लाठी थोड़े ही चलाते हैं। दरअसल होता है यही कि उनके नाम पर हमारे हाथ-पाँव रुक जाते हैं, हमारे यत्न ढीले पड़ जाते हैं और सफल हो नहीं सकते, हममें आत्मविश्वास नहीं रह जाता, हम उसी को खो देते हैं और अंततोगत्वा चौपट हो जाते हैं। हम लोगों का कुछ ऐसा संस्कार बन गया है कि यदि किसी भी तरह भाग्य और भगवान का नाम हमारे सामने आया कि हम जाल में फँसे और चौपट हुए। हम इस तरह अपने उद्धार की कोशिश में शिथिल होके तबाह होते रहते हैं।) मार्क्स ने हमारे इस असाध्य रोग को खूब ही समझा था। इसीलिए उसने बेदर्दी से इसकी दवा की और भाग्य तथा भगवान का खयाल भी इस भौतिक संसार के कामों में आने न दिया। उसने कह दिया कि भगवन, आप कृपा करें, अलग ही रहें, हम यों ही अच्छे हैं, हमें आपकी कोई जरूरत नहीं, 'बिलार दाई बख्श दें, मुर्ग बेचारा बिना पूँछ का ही रहेगा।' कोई आदमी, जो कमाने वाली जनता के कष्टों से द्रवीभूत हृदय रखता है और जिसे हमारे स्वभावों, संस्कारों तथा धर्म के नाम पर बनी रेशम की चमकीली फाँसी का कड़वा अनुभव है, मार्क्स की इस बेमुरव्वती और रूखेपन का पूरा समर्थन करेगा। धर्म, भगवान और उनके गण बैकुंठ और स्वर्ग का प्रबंध करें न, और मुक्ति का हिसाब रखें न? उन्हें कौन रोकता है? मगर इधर पाँव हर्गिज न बढ़ायें! खबरदार!
मार्क्स तो भौतिकवादी इसी मानी में है कि इस संसार के छोटे-बड़े सभी कामों में वह किसी भी भगवान या दैवी-शक्ति का हाथ नहीं देखता। उसने तो इसके सभी कामों के बाकायदा चलाने की ताकत इसी दुनिया में, यहीं के पदार्थों में देख ली है। हम चाहे सो भी जाएँ। मगर वह ताकत, जिसे वह निरी भौतिक ताकत समझता है, बराबर जगी रहती और अपना काम करती जाती है। उसे तो जरा भी विराम नहीं है, जरा साँस लेने की फुरसत नहीं है। इसी ताकत का नाम उसने द्वन्द्ववाद रखा है। इसे ताकत कहिए, या भौतिक प्रक्रिया (Material Process) कहिए। यही सब कुछ करती है। मार्क्स इस दुनिया के निर्माण-संबंधी दार्शनिक विचारों में इससे आगे नहीं जाता, नहीं जा सकता है। उसके मत में इससे आगे जाने की जरूरत हई नहीं। हमारा काम तो इतने से ही बखूबी चल जाता है, चल जाएगा। बल्कि वह तो यहाँ तक कहता है कि आगे जाने में खतरा है और सारा गुड़ गोबर हो जाएगा - हमारे काम ही चौपट हो जाएँगे। यही है संक्षेप में मार्क्स का द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद या भौतिक द्वन्द्ववाद (Dialectical Materialism)।
इस सिद्धांत के अनुसार संसार के पदार्थों में बराबर संघर्ष (द्वन्द्व) चलता रहता है, जिसे हलचल, संग्राम, युद्ध या जीवन संग्राम (Struggle for Existence) भी कहते हैं। इससे कमजोर पक्ष हारता और जबर्दस्त जीतता है; दुर्बल खत्म हो जाते, मिट जाते और प्रबल जम जाते हैं। इसे ही डार्विन का विकासवाद भी कहते हैं। इस दुनिया में जो लोग साधन संपन्न, कुशल और चौकन्ने हैं वही रह पाते और आगे बढ़ते हैं। विपरीत इसके जो ढीले, आगा-पीछा करने वाले, असहाय, भोंदू हैं वे मिट जाते हैं। इस निरंतर चलने वाले (सतत) संग्राम के फलस्वरूप ही संसार की प्रगति होती है। यह तो बात मानी हुई है। चाहे ढीले-ढाले और आगा-पीछा वाले खत्म भले ही हो जाएँ और उनके विरोधी भले ही आगे बढ़ जाएँ। मगर इसी के साथ समूचा संसार आगे बढ़ जाता है और इसी में पीछे पड़ जाने वालों या शोषितों के उद्धार की आशा है, गुंजाइश है। यदि केवल विरोधी ही आगे बढ़ते और उन्हीं के साथ बाकी दुनिया नहीं बढ़ती, तो यह बात नहीं होती। परंतु उन्हीं के साथ शोषित जनता भी बढ़ती जाती है। किसानों और मजदूरों को तरह-तरह की चालाकी, जाल तथा उपायों से दबा के पूँजीवादी आगे बढ़े हैं सही। मगर उनकी ही प्रगति के साथ कलकारखाने, उत्पादन के साधन और ज्ञान-विज्ञान भी खूब ही प्रगति कर गए हैं। इन सबों की प्रगति के करते ही पूँजीवादियों की दिक्कतें भी बढ़ गई हैं, उनकी चिंता और परेशानी भी बढ़ गई है। फलत: वे डरने लगे हैं कि कहीं शोषित जनता हमें एकाएक दबा न ले। रूस में तो ऐसा हो भी चुका है। दूसरी जगह भी यह होके ही रहेगा। इसीलिए पूँजीवादियों की घबराहट बढ़ती ही जा रही है। यदि उनके वश की बात होती तो वे उत्पादन वगैरह के साधनों की ऐसी भयंकर प्रगति होने नहीं देते। मगर क्या करें? बेबस हैं। रेशम का कीड़ा अपने ही बनाए कोये में बंद होके मरने पर है!
मार्क्सवाद शोषितों और पीड़ितों को बताता है कि आँखें खोलो और इस द्वन्द्ववाद में विश्वास करो। इस अटल सत्य को मानो कि तुम्हारा उद्धार इस भौतिक और सांसारिक संघर्षों के चलते ही अवश्यंभावी है। इसमें कोई भी बाहरी हाथ नहीं है। यदि बाहरी हाथ होता तो तुमसे लाख गुना काइयाँ और चलते-पुर्जे, जमींदार-मालदार उस बाहरी हाथ को अपने काबू में करके संसार की ऐसी प्रगति होने ही नहीं देते, जिससे आज उन पर आफत आ बनी है। फिर तुम किस खेत की मूली हो कि उस बाहरी हाथ को अपने पक्ष में करोगे? यदि कोई भगवान ऐसा करने वाला होता तो मालदार सोने और संगमरमर के मंदिर में उसे पधराके और मेवा-मिश्री खिला के - भोग लगा के - जरूर अपने कब्जे में कर लेता। तुम्हारे सत्तू की क्या बिसात? इसलिए ये खाम खयाल छोड़ के भौतिक द्वन्द्ववाद पर ही विश्वास करो।
मार्क्स यहीं पर यह भी कहता है कि देखो, पूँजीवादी और जमींदार - तुम्हारे शोषक - बड़े काइयाँ हैं। उनने तुम्हारे लिए अनेक जाल फैलाए हैं। भगवान और धर्म का कोई भी ताल्लुक इस भौतिक कारबार से नहीं होने पर भी उनने इन्हें खड़ा करी तो दिया। यह देखो, इन्हीं के नाम पर तुम्हें ठगते आ रहे हैं, ठगने चले हैं! और ये पंडित, मौलवी, पादरी, पुरोहित, साधु-फकीर? क्या ये भी ठगते हैं? हाँ, हाँ, जरूर ठगते हैं। ये सबके सब मालदार-जमींदारों के दलाल हैं। इसीलिए तो खाते तुम्हारा और गुण गाते हैं उनका। बड़ी चालाकी से जाल बिछा है। सजग रहो। दूर की कौड़ी लाई गई है। ये गुरु, पीर, पंडित वगैरह तुम्हें धोखा दे रहे हैं और अंत तक धोखा देंगे। इनकी बातों में हर्गिज न पड़ो। तुम जो अपने उद्धार के लिए कटिबद्ध हो रहे हो और द्वन्द्ववाद के चलते जो तुम्हारे उद्धार का सामान प्रस्तुत हो गया है उसी से घबरा के मालदारों ने ये जाल खड़े किए हैं; ताकि भाग्य और भगवान के फेर में पड़ के तुम अपने यत्न में शिथिल हो जाओ, उससे मुँह मोड़ लो और मालदार-जमींदारों के घर घी के चिराग जलें। फिर तो इन गुरु-पुरोहितों और पादरी-मौलवियों को वे लोग भरपूर विदाई देंगे!
मार्क्स और भी कहता है कि द्वन्द्ववाद और कुछ नहीं, केवल वर्गसंघर्ष है। एक वर्ग दूसरे को कल, बल, छल से दबा के, मिटा के खुद आगे बढ़ना चाहता है। मठ, मंदिर, तीर्थ, हज्ज, पोथी, पुराण इसी वर्गसंघर्ष की सफलता के साधन हैं। मालदार-जमींदार तुम्हारे वेतन में एक पैसा नहीं बढ़ाते, तुम्हारी दवा का प्रबंध नहीं करते और न लगान में ही कमी करते हैं। मगर मंदिरों और तीर्थों में लाखों रुपये फूँकते हैं! क्यों? वही पैसे तुम्हें क्यों नहीं देते? कल-कारखाने तुम्हीं चलाते हो न? खेतीबारी करके उनके लिए गेहूँ-मलाई तुम्हीं उपजाते हो न? या कि ये मठ, मंदिर और तीर्थ वगैरह? फिर तुम्हें पैसे न देके उन्हें वे लोग क्यों देते हैं? सोचो। तुम्हें देने से तुम्हारी हिम्मत बढ़ेगी और आगे फिर भी माँगें पेश करोगे और ये माँगें जब वे पूरा न करेंगे तो उन्हें मिटाने चलोगे। मगर मंदिरों और तीर्थों के पैसे तो उन्हें सूद-दर-सूद सहित वापस मिलेंगे। क्योंकि पंडे, पुजारी, साधु-फकीर वगैरह तुम्हें भाग्य और भगवान के नाम पर भड़कायेंगे, गुमराह करेंगे और संघर्ष से विमुख करेंगे! समझा न? यही चाल है। इसमें हर्गिज न पड़ो और लड़ो। यदि तुम्हारा विश्वास हो कि ये साधु-फकीर वगैरह तुम्हारे ही साथी हैं, तो चलो खुल के वर्गसंघर्ष करो और उन्हें भी मदद के लिए बुलाओ। उनसे कह दो कि आइए, मदद कीजिए। अभी तो हमारे पास कुछ है नहीं, तो भी आप लोगों को भरसक अच्छा ही खिलाते-पिलाते हैं। मगर इस संघर्ष में जीत होने पर तो खूब माल चखाएँगे और सुनहले वस्त्र पहनायेंगे, संगमरमर के महल बनवा देंगे। मठ-मंदिर भी वैसे ही सजा देंगे। मगर देखोगे कि वे हर्गिज तुम्हारा साथ न देंगे; हालाँकि उन्हें इसी में लाभ है। साथ दें भी कैसे? वे तो मालदारों के दलाल ठहरे न? वे मजबूर हैं, बँधे हैं। अपना फायदा सोचें या मालिकों का?
इस प्रकार भौतिक बातों में अध्यात्मवाद और ईश्वर का अड़ंगा खड़ा करके साधु-फकीर और मंदिर-तीर्थवाले संत-महंत मालदारों का पक्ष करते और उनके विरुद्ध शोषितों के द्वारा चलाई जानवाली हक की लड़ाई या वर्गसंघर्ष में बाधक होते हैं, यही बात मार्क्सवाद के जरिए शोषितों के दिल-दिमाग में बैठा दी जाती है। वे इसे बखूबी समझ के वर्गसंघर्ष से धर्म या ईश्वर के नाम पर नहीं मुड़ते। किंतु उसे अविराम चलाते जाते हैं। इसी वजह से पहले कहा गया है कि हड़ताल के समय नास्तिक-आस्तिक वाली दलबंदी मजदूरों में हर्गिज रहने न दी जाए, होने न दी जाए। पुरोहित या पादरी तो जरूर चाहेगा कि यह दलबंदी जारी रहे। मगर मार्क्सवादी हर्गिज इसे बरदाश्त नहीं करेगा। उसका तो असली लक्ष्य यह लड़ाई ही है। इसी के लिए यह आस्तिक-नास्तिक का झगड़ा भी पहले करता था; ताकि रास्ता साफ हो। मगर जब यह युद्ध चल पड़ा, तो उस झगड़े का क्या काम? उससे तो अब इसमें उलटे बाधा हो सकती है। इसीलिए उसे तिलांजलि दे देता है।
हमने इस लंबे विवेचन से साफ देख लिया कि भौतिक संघर्ष और वर्गयुद्ध में बाधक होने के कारण ही मार्क्सवाद में धर्म और ईश्वर का विरोध किया गया है। जब और कोई उपाय नहीं चला तो जमींदार-मालदारों ने इसी आखिरी ब्रह्मास्त्र से ही काम लेना शुरू जो कर दिया था। वह आज भी यही करते हैं। यही है धर्म और ईश्वर के विरोध का भौतिक दृष्टि से और द्वन्द्ववाद की दृष्टि से प्रयोग, या यों कहिए कि भौतिक द्वन्द्ववाद की दृष्टि से प्रयोग। इससे स्पष्ट है कि यदि इनके करते वर्गसंघर्ष में कोई भी बाधा न हो तो मार्क्सवाद इन्हें छुए भी नहीं। इनके साथ कम से कम क्षणिक संधि तो करी ले। बहुत पहले तो यह बात न थी - वर्गसंघर्ष में ये धर्मादि बाधक न थे, या यों कहिए कि वर्गसंघर्ष का यह रूप पहले था ही नहीं। तो फिर वे बाधक होते भी कैसे? इधर कुछ सदियों से ही यह बात हुई है। इसीलिए मार्क्सवाद में 'वर्तमान' धर्म (Modern Religion) और धर्मसंस्थाओं की ही बात कही गई है और इन्हीं को मालदारों का हथकंडा बता के विरोध किया गया है। मार्क्स के मत से जब सभी चीजें बदलती हैं तो धर्म भी आज बदला हुआ ही यदि मान लिया जाए तो हर्ज ही क्या? जो भी धर्म वर्गसंघर्ष का जरा भी बाधक हो यदि वह इसी बदले हुए के भीतर ही माना जाए तो इसमें उज्र क्या होगा?
यदि मार्क्सवाद की दृष्टि धर्म और ईश्वर के संबंध में भौतिक द्वन्द्ववाद की न हो के कोरी सैद्धांतिक होती, तो यह बात नहीं होती। सिद्धांत की दृष्टि का तो यही मतलब है कि बिना किसी प्रयोजन और खयाल के ही हम असलियत एवं वस्तुस्थिति का पता लगाना चाहते हैं। जैसा कि नए-नए ग्रहों का पता लगाते हैं। इसमें कोई खास प्रयोजन तो है नहीं। यह काम तो सृष्टि की असलियत की जानकारी के ही लिए किया जाता है। यह भी नहीं जानते कि इन अनंत ग्रहों और उपग्रहों की कौन-सी जरूरत इस सृष्टि के काम में है। फिर भी इनका और इनकी गति आदि का पता भी लगाते ही हैं। इसके बारे में वाद-विवाद चलता है और पोथी-पोथे भी लिखे जाते हैं। यही है सैद्धांतिक दृष्टि। यदि इस दृष्टि से धर्म और ईश्वर का विरोध मार्क्स को इष्ट होता है तो फिर भौतिक द्वन्द्ववाद की बात इस सिलसिले में छेड़ने का प्रश्न ही कहाँ होता ? यह दृष्टि तो ईश्वर के विरोध का प्रयोजन बताती है। अर्थात मार्क्स किसी खास प्रयोजन से ही उसका विरोध करता है न कि ईश्वर सचमुच हई नहीं, केवल इस सैद्धांतिक दृष्टि से। बल्कि इस सैद्धांतिक दृष्टि का तो वह पक्का विरोधी है। इसमें तो वह अराजकतावाद और अवसरवाद की गंध पाता है। इसीलिए इसका सख्त विरोध भी करता है। क्योंकि ये दोनों वाद मार्क्सवाद के विरोधी तथा वर्गसंघर्ष के घातक हैं। इससे तो यह भी सिद्ध हो जाता है कि वस्तुत: धर्म या ईश्वर हई नहीं, यह बात मार्क्स या मार्क्सवाद की नहीं है, इस पचड़े में वह नहीं पड़ता। भौतिक द्वन्द्ववाद की दृष्टि के इस लंबे विचार ने, हमें विश्वास है, मार्क्सवाद के इस पहलू को काफी साफ कर दिया है।
अब हमें फिर गीता के धर्म को देखना है। जब, जैसा कि पहले ही बता चुके हैं, धर्म गीता के अनुसार नितांत वैयक्तिक या व्यक्तिगत (शख्सी - Personal) चीज है, तो न सिर्फ इसमें या इसके नाम पर कलह की रोक हो जाती है। बल्कि मार्क्सवाद से भी मेल हो जाता है, विरोध नहीं रहता। व्यक्तिगत कहने का यही मतलब है कि किसी समुदाय, गिरोह, कमिटी, पार्टी, दल, सभा या अंजुमन की चीज यह हर्गिज नहीं है। हरेक आदमी चाहे जैसे इसके बारे में अमल करे, सोचे या कुछ भी करे। किसी दूसरे आदमी, दल, पार्टी, गिरोह या देश को इसमें टाँग अड़ाने और दखल देने का कोई हक नहीं। असल में गिरोह, समुदाय, पार्टी आदि को इससे कोई ताल्लुक हई नहीं। इसीलिए सरकार को भी इसमें पड़ने का हक है नहीं। अगर वह पड़ती है, जैसा कि बराबर ही देखा जा रहा है, खासकर पूँजीवादी युग में, तो और भी, नाजायज काम करती है। जर्मनी या और देशों की सोशल डेमोक्रेटिक पार्टियों ने जहाँ सरकार को इसमें पड़ने से रोका तहाँ उनने खुद इसमें पड़ जाने की गलती की, या कम से कम ऐसा खयाल जाहिर किया। इसीलिए एंगेल्स ने उन्हें डाँटा था। उसने कहा था कि सरकार इसमें हाथ न डाले यह तो ठीक है। मगर पार्टी की भी यह निजी चीज क्यों हो? पार्टी को इससे क्या काम? उसका कोई मेंबर धर्म को माने या न माने। पार्टी उसमें दखल क्यों देने लगी? हाँ, इसके चलते जो भारी खतरे हैं, उनका खयाल करके पार्टी का रुख तो इसके बारे में सदा भौतिक द्वन्द्ववाद वाला ही होगा। यही बात लेनिन ने अपने लेख में यों लिखी है -
'This he did in a declaration in which he emphatically pointed out that Social Democracy regards religion as a private matter in so far as the State is concerned, but not in so far as it concerns Marxism or the worker's party.'
'Should our deputy have gone further and developed atheistic ideas in greater detail ? We think not. This might have exaggerated the significance of the fight which the party of the proletariat is carrying on against religion; it might have obliterated the dividing line between the bourgeois and socialist fight against religion.'
इसका अर्थ यह है, 'एंगेल्स ने यह काम एक घोषणा के द्वारा किया, जिसमें उसने जोर देकर बताया कि सोशल डेमोक्रेटिक (मजदूरों की क्रांतिकारी) पार्टी धर्म को व्यक्तिगत चीज वहीं तक मानती है जहाँ तक सरकार का इससे ताल्लुक है। लेकिन उसके मत से मार्क्सवाद या मजदूरों की पार्टी के लिए यह व्यक्तिगत चीज नहीं है।'
'क्या डयूमा के हमारे प्रतिनिधि (सरकोफ) को चाहिए था कि आगे बढ़ जाता और नास्तिकवाद पर विस्तार से बोलता एवं खंडन-मंडन करता? हम तो ऐसा नहीं समझते। यदि वह ऐसा करता तो मजदूरों की पार्टी का जो धर्म-विरोधी आंदोलन और संघर्ष है उसके महत्त्व की अत्युक्ति हो जाती। समाजवादियों और पूँजीवादियों के द्वारा धर्म का विरोध करने में जो भेद है वह ऐसा करने से मिट जाता है।'
यहाँ यह बात जानने की है कि पूँजीवाद लोग भी अपना काम निकालने के लिए समय-समय पर धर्म का विरोध करते हैं। उस समय जर्मनी में विस्मार्क ने ऐसा ही किया था। जार भी यहूदियों का विरोध करता था और हिटलर भी। मगर उनका मतलब तो दूसरा ही होता है। या तो उन्हें दिमागी दुनिया की कुश्ती लड़ने का शौक होता है, या वे ख्याति के लिए ही ऐसा करते हैं, या ऐसा करने से उनका कोई दुनियावी मतलब सिद्ध होता है। वर्गसंघर्ष की दृष्टि से वे ऐसा काम हर्गिज नहीं करते। भले ही सैद्धांतिक दृष्टि से करते हों। विपरीत इसके साम्यवादी लोग वर्गसंघर्ष की ही दृष्टि से उसका विरोध करते हैं। मगर कोरे वाद-विवाद और खंडन-मंडन में पड़ जाने पर खतरा यह है कि मार्क्सवादी भी उसी सैद्धांतिक दृष्टि में पड़ जा सकते हैं। इसीलिए उसे रोक के दोनों दृष्टियों को अलग-अलग रखा गया है। मार्क्सवाद कोरे खंडन-मंडन को पूँजीवादी और इसीलिए अपनी विरोधी दृष्टि मानता है, यह बात मार्के की है।
यह कहा जा सकता है कि गीता ने जब कर्मवाद को माना है तो भाग्य या प्रारब्ध का सवाल हमारे भौतिक कामों में भी आई जाता है। अठारहवें अध्याय के 'अधिष्ठानं तथा कर्त्ता' से लेकर 'पंचै ते तस्यहेतव:' (14, 15) तक दो श्लोकों में साफ ही कहा है कि जो कोई भी भला या बुरा काम किया जाता है उसके पाँच कारण होते हैं, जिनमें एक दैव, प्रारब्ध या भाग्य भी है, जिसे तकदीर भी कहते हैं। गीता ने स्वीकार कर लिया है कि प्रारब्ध का हाथ दुनिया के सभी कामों में होता ही है। इसमें शक की जगह हई नहीं। फिर तीसरे अध्याय के 'यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:' (14) में भी साफ ही कर्म और यज्ञ को वृष्टि के द्वारा अन्नादि के उत्पादन में और इस तरह भौतिक कार्य चलाने में कारण ठहराया है। चौथे अध्याय के 'नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य' (31) श्लोक में भी स्पष्ट ही कह दिया है कि यज्ञ के बिना इस दुनिया का काम चली नहीं सकता। छठे अध्याय के 37 से 48 तक के श्लोकों में इसी कर्म का संबंध मनुष्यों के जन्म और स्वभाव के साथ जोड़ के 45वें में कह दिया है कि 'अनेक जन्मों में यत्न करने के बाद ही उसका दिल-दिमाग ठीक हो जाने पर मनुष्य मोक्ष का भागी होता है' - ''अनेक जन्मसंसिद्धस्ततो याति परांगतिम्।'' इस तरह कर्मों का संबंध पुनर्जन्म के साथ लगा हुआ है और पुनर्जन्म का तो अर्थ ही है यह भौतिक शरीर। सोलहवें अध्याय के 19, 20 श्लोकों में आसुरी संपत्ति वालों के दुष्कर्मों के फलस्वरूप उनकी दुर्गति और नीच योनियों में उनका जन्म बताया गया है। दूसरे अध्याय के 'बुद्धियुक्तो जहातीह' (50) श्लोक में पुण्य-पाप का जिक्र है। इधर-उधर के श्लोकों में भी यही बात है। इस तरह गीता में जानें कितनी ही जगह यही बात पाई जाती है। इसलिए यह तो मानना ही होगा कि भाग्य और भगवान का दखल इस दुनिया के भौतिक कार्यों में गीता को भी मान्य है।
बात तो कुछ ऐसी ही मालूम पड़ती है और अगर इस पर कुछ ज्यादा खोद-विनोद न किया जाए तो इसी नतीजे पर पहुँचना अनिवार्य हो जाएगा। यह ठीक है कि ऐसा होने पर भी हमारा पहले का मंतव्य ज्यों का त्यों रह जाता है। क्योंकि यह जो कर्मवाद की बात अभी-अभी कही गई है वह तो गीताधर्म है नहीं - वह गीता की अपनी चीज नहीं है। इसके बारे में तो अधिक से अधिक इतना ही कह सकते हैं कि सामान्यत: उस समय के समाज और शास्त्र में जो कुछ कर्म-संबंधी बातें और धारणाएँ प्रचलित थीं, जो सिद्धांत आमतौर से इस संबंध में माने जाते थे, उन्हीं को अक्षरश: अनुवाद करके गीता ने लिख दिया है। ऐसा करने में उसका प्रयोजन कुछ न कुछ है। बावजूद इन सभी बातों के योग और ज्ञान के आश्रय लेने पर मनुष्य बंधनरहित हो जाता है, यही बात दिखलाने और योग, ज्ञान या भक्ति के मार्ग के महत्त्व को बताने के ही लिए उन कर्मफलों और विविध गतियों का उल्लेख गीता करती है, जो आस्तिक समाज में प्रचलित थीं और हैं। गीता का उनके अनुमोदन या उनकी यथार्थता से कोई ताल्लुक नहीं है। यह उसका ध्येय हई नहीं। यदि उन प्रसंगों और पूर्वापर विचारों को देखा जाए तो यह बात साफ हो जाएगी। गीता के श्लोकार्थ के समय हम भी यह बात साफ दिखाएँगे।
इसके विपरीत गीताधर्म के नाम से जो कुछ हमने कहा है और जिसका उल्लेख सत्रहवें अध्याय में आया है वह गीता की निजी चीज है, अपनी देन है। द्वितीय अध्याय वाले योग को जिस प्रकार हम गीताधर्म मानते हैं और स्वीकार करते हैं कि वह उसकी खास देन है, ठीक यही बात यहाँ भी है। श्रद्धापूर्वक कर्म करना ही असल चीज है। श्रद्धा से ही कर्मों का रूप निर्णीत हो जाता है। इसीलिए कर्म सोलहों आना व्यक्तिगत चीज है, यह बात भी गीताधर्म है। उस योग की ही तरह यह चीज भी और कहीं पाई नहीं जाती है। इसलिए गीताधर्म और मार्क्सवाद में कोई भी विरोध नहीं है यह जो हमने पहले कहा है वह ज्यों का त्यों बना रह जाता है और इस प्रकार हमारा अपना काम सिद्ध हो जाता है - पूरा हो जाता है। जो चीज या जो विषय - जो सिद्धांत - अन्यान्य ग्रंथों और मतवादों में पाया जाए उसे भला गीताधर्म कैसे कहेंगे? और यही बात कर्मवाद के संबंध में भी है। यही कारण है कि हमारे हरेक कामों में पाँच कारणों को गिना के उनमें जो दैव या भाग्य को भी गिनाया है, ठीक उसी के पूर्व के श्लोक 'पंचैतानि महाबाहो', 'सांख्ये कृतान्ते प्रोक्तानि' (13) में साफ ही कहा है कि सांख्यमत या सांख्यसिद्धांत में ऐसा माना गया है।
फिर भी इस संबंध में कुछ बातें जानने की हैं। इससे गीताधर्म के यथार्थ महत्त्व को समझने में आसानी होगी। प्राय: हजारों साल पहले एक अपूर्व प्रतिभाशाली नैयायिक विद्वान उदयनाचार्य हो गए हैं, जिनने ईश्वरवाद और धर्म-कर्म की सिद्धि पर कई अपूर्व ग्रंथ लिखे हैं। इन्हीं में एक का नाम न्यायकुसुमांजलि है। उसमें एक स्थान पर इसी दैव, प्रारब्ध, अदृष्ट या अपूर्व - दैव को ही अपूर्व तथा अदृष्ट भी कहते हैं - के संबंध में लिखते हुए लिखा है कि सांसारिक पदार्थों की उत्पत्ति के लिए दो प्रकार के कारण माने जाते हैं, दृष्ट और अदृष्ट। कपड़ा तैयार करने में जिस प्रकार सूत, जुलाहा, करघा वगैरह प्रत्यक्ष या दृष्ट कारण हैं, उसी प्रकार सभी पदार्थों के ऐसे ही कारणों को दृष्ट कारण कहते हैं। मगर इनके अलावा जो दूसरा कारण है और प्रयत्क्ष दीखने वाला नहीं है उसे अदृष्ट कहते हैं। उदयनाचार्य ने कहा है कि यह अदृष्ट कारण कोई स्वतंत्र या करामाती चीज नहीं है। उसका काम है दृष्ट कारणों को जुटाने में ही सहायक होना - 'अदृस्यदृष्ट सम्पादनेनैव चारितार्थ्यात्'। यह अदृष्ट, दैव या प्रारब्ध दूसरा कुछ नहीं करता! यह नहीं होगा कि सूत, जुलाहा, करघा आदि सभी प्रत्यक्ष कारण जुटे हों तो भी अदृष्ट के करते कपड़े के तैयार होने में देर लगेगी।
अब अगर हम इस दार्शनिक विचार पर गौर करते हैं तो कर्मवाद की सारी दिक्कतें दूर हो जाती हैं। ईश्वरवाद के ही सिलसिले में यह बात कही जाने के कारण महत्त्व और भी बढ़ जाता है। यदि ऐसा न मानें तो बड़ी गड़बड़ होगी और रसोई बनानेवाला चावल, पानी, लकड़ी, आग, चूल्हा, बरतन वगैरह रसोई के सभी सामानों को जुटाके भी भाग्य का मुँह देखता बैठा रहेगा। फलत: सभी जगह गड़बड़झाला हो जाएगा। पाचक महाशय अदृष्ट महाराज की बाट जोहते रहेंगे। मगर उनका दर्शन होगा ही नहीं! और तटस्थ दुनिया कहेगी कि यह कैसी मूर्खता की बात है अदृष्ट का सिद्धांत! इसमें तो कोई अक्ल मालूम होती ही नहीं। इसीलिए दार्शनिक नैयायिक की हैसियत से उदयनाचार्य ने बहुत ही सुंदर समाधान करके सारा झमेला ही मिटा दिया। यह भी नहीं कि अदृष्ट का अर्थ केवल पूर्व कर्म, दैव या प्रारब्ध ही हो। अदृष्ट का अर्थ है जो न दीखे - जो प्रत्यक्ष न हो। इसलिए ईश्वर, उसकी इच्छा वगैरह जो भी ऐसे कारण माने जाते हैं सभी इसमें आ गए और सभी का समाधान उदयनाचार्य ने किया है। क्योंकि दलील तो सभी के लिए एक ही है और गड़बड़ भी वही एक ही है।
हाँ, तो इस सिद्धांत के अनुसार यदि हम देखते हैं तो हमें कोई गड़बड़ नहीं मालूम होती। मजदूरों की लड़ाई के सिलसिले में हड़ताल का मौका आने पर सारी तैयारी हो गई और मजदूर लड़ने जा रहे हैं, या लड़ रहे हैं, इस विश्वास के साथ कि विजय होके ही रहेगी। इसी बीच भाग्यवादी और भगवान का ठेकेदार कोई पादरी, पंडित या मौलवी आके उन्हें बहकाता है कि कुछ न हो सकेगा, तुम्हारी तकदीर ही खराब है, तुम पर भगवान ही रंज है। तुम लोग हारोगे जरूर। मिलवाले पर भगवान खुश जो हैं, उसका भाग्य सुंदर जो है, उसका करम चंदन से लिखा जो गया है! बस, सारा मामला बिगड़ता है - उसके बिगड़ने का खतरा हो जाता है। मगर अगर उदयनाचार्यवाली दार्शनिक बात और युक्ति मान लें, तो फिर ऐसी बेहूदा बातों की गुंजाइश ही नहीं रह जाती। उस दशा में इन गुरु-पुरोहितों या मौलवी-पादरियों की बेहूदगी को जगह है कहाँ? हड़ताल की सफलता का सारा बाहरी या दृष्ट सामान जब होई गया तो अब अदृष्ट - भाग्य या भगवान - अलग कहाँ रह गया? यह तो सारी शैतानियत है। अमीरों के दलालों ने यह कुचक्र खुद रचा है जो निराधार और बेबुनियाद है। उन्हें तो उलटे यह कहना चाहिए कि हड़ताल की तैयारी में कोई कसर रहने न दो। बस, भगवान और भाग्य तुम्हारे साथ हैं और जरूर जीतोगे। यही उचित और कर्मवाद के सिद्धांत के अनुसार है।
और गीता का क्या कहना? वह तो हमारे यत्नों और कोशिशों को ही सब कुछ मानती है। वह अदृष्ट की परवाह न करके काम में मुस्तैदी से जुट जाने पर ही जोर देती है। वह कहती है कि जब सभी सामान मौजूद हैं तो जीत तो होगी ही, कार्यसिद्धि तो होगी ही। फिर आगा-पीछा क्यों? वह तो यहाँ तक कहती है कि जीतने-हारने का क्या सवाल? हमें तो काम करने का ही हक है। हमारे बस की चीज तो यही है। हम फल-वल की फिक्र करके काम से, संघर्ष से क्यों मुड़ें? यह तो नादानी होगी। वह तो पीछे मुड़ने वालों को कहती है कि छि:-छि: क्या मुँह दिखाओगे जब दुश्मन हँसेंगे और लोग गालियाँ देंगे? इस तरह बेइज्जती से जीने की अपेक्षा तो काम करते-करते और लड़ते-लड़ते मर जाना लाख दर्जे अच्छा है। इसमें शान है, प्रतिष्ठा है, इज्जत है। इससे न सिर्फ लड़ने और काम करने वालों का, बल्कि उनके साथियों का भी सिर ऊँचा होता है। फिर और चाहिए ही क्या? इससे बढ़के और हई क्या?
जब अर्जुन इसी आगा-पीछा में अपने कर्तव्य से विमुख हो रहा था, तो कृष्ण ने दूसरे अध्याय से ही शुरू करके अठारहवें तक जानें बीसियों बार उसे ललकारा और कहा कि क्या नाहक मरने-मारने की फिक्र नादानों की तरह कर रहे हो? तैयार हो जाओ, डट जाओ, कमर बाँध लो, दृढ़ संकल्प के साथ लड़ो। यह नामर्दों की-सी बातें क्या कर रहे हो? ये बातें तुम्हारे जैसों के लिए मुनासिब नहीं हैं, जेबा नहीं देती है। जरा सुख-दु:ख बरदाश्त करने की हिम्मत तो करो। इस विश्वास के साथ भिड़ तो जाओ कि जरूर फतह होगी। फिर तो बेड़ापार ही समझो। ये बातें अक्लमंदी की नहीं हैं जो तुम कर रहे हो। तुम धोखे में पड़ के आगा-पीछा कर रहे हो, खबरदार! जरा सुनिए, - 'धीरस्तत्र न मुह्यति' (2। 13), 'तांस्तितिक्षस्व' (2। 14), 'तस्माद्युध्यस्व' (2। 18), 'उभौ तौ न विजानीत:' (2। 19), 'कं घातयति हंति कम्' (2। 21), 'नानुशोचितुमर्हसि', 'न शोचितुमर्हसि' (2। 25-27, 30), 'का परिदेवना' (2। 28), 'न विकम्पितुमर्हसि' (2। 31), 'पापमवाप्स्यसि' (2। 33), 'उत्तिष्ठ युद्धायकृतनिश्चय:' (2। 37), 'युद्धाय युज्यस्व' (2। 38), 'कुरु कर्माणि' (2। 48), 'योगाय युज्यस्व' (2। 50), 'नियतं कुरु कर्म त्वं' (3। 8), 'मुक्तसंग: समाचर' (3। 9), 'कार्य कर्म समाचर' (3। 19),'कर्त्तुमर्हसि' (3। 20), 'युध्यस्व विगतज्वर:' (3। 30), 'कुरु कर्मैव' (4। 15), 'कृत्वापि न निबध्यते' (4। 22), 'उत्तिष्ठ भारत' (4। 22), 'योगिन: कर्म कुर्वन्ति' (5। 11), 'कार्यं कर्म करोति' (6। 1), 'तस्माद्योगी भव' (6। 46), 'युध्य च' (8। 7), 'योगयुक्तो भव' (8। 27), 'तत्कुरुष्वमदर्पणम्' (9। 27), 'यसो लभस्व' (11। 33), 'निमित्तमात्रं भव' (11। 33), 'युध्यस्व' (11। 34), 'मत्कर्मपरमो भव' (12। 10), 'न हिनस्त्यात्मनात्मानम्' (13। 28), 'मा शुच:' (16। 5), 'कर्म कर्तुमिहार्हसि' (16। 24), 'कर्म न त्याज्यं' (18। 3), 'न त्याज्यं कार्यमेव' (18। 5), 'कर्माणि कर्त्तव्यानि' (1। 6), 'कर्मण: संन्यासो नोपपद्यते' (18। 7), 'न हंति न निबध्यते' (18। 17), 'संसद्धिं लभते' (18। 45), 'स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य' (18। 46), 'स्वधर्म: श्रेयान्' (18। 47), 'कर्मकुर्वन्नाप्नोति किल्विषम्' (18। 47) 'सहजं कर्म न त्यजेत्' (18। 48), 'न श्रोष्यसि विनंक्ष्यसि' (18। 58), 'यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्ये' (18। 59), 'प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति' (18। 59), 'करिष्यस्यवशोऽपि तत्' (18। 60), 'करिष्ये वचनं तव' (18। 73), इत्यादि। इन उद्धरणों से स्पष्ट है कि पचास बार से ज्यादा अर्जुन पर ललकार पड़ी है। शायद ही कोई अध्याय है जिसमें यह बात नहीं आई है। गीता में कर्म की ललकार ओतप्रोत है - यह कर्म की ललकार गीता की रग-रग में भिनी हुई है और कर्मयोग उसका कारण है।
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