Friday, 17 January 2014

देवेन्द्र कुमार बंगाली


हम ठहरे गांव के/बोझ हुए रिश्ते सब/कन्धों के पांव के
भेद-भाव सन्नाटा/ये साही का कांटा
सीने के घाव हुए/सिलसिले अभाव के
सुनती हो तुम रूबी/ एक नाव फिर डूबी
ढूंढ लिए नदियों ने/ रास्ते बचाव के
सीना, गोड़ी, टांगे/मांगे तो क्या मांगे
बकरी के मोल बिके/ बच्चे उमराव के
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एक पेड़ चांदनी
लगाया है आंगने
फूले तो
आ जाना एक फूल मांगने
ढिबरी की लौ
जैसे लीक चली आ रही
बादल का रोना है
बिजली शरमा रही
मेरा घर छाया है
तेरे सुहाग ने
तन कातिक, मन अगहन
बार-बार हो रहा
मुझमें तेरा कुवार
जैसे कुछ बो रहा
रहने दो
यह हिसाब
कर लेना बाद में।
नदी झील, सागर से
रिश्ते मत जोड़ना
लहरों को आता है
यहां-वहां छोड़ना
मुझको
पहुंचाया है
तुम तक अनुराग ने।

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